कहाँ से शुरू करूँ?
ली मैरिडियन के कमरा नम्बर नौ सौ सात से, जहाँ मैं अभी हूँ और
अनिरुद्ध की प्रतीक्षा कर रही हूँ। या परसों हुई उस मुलाकात
से, जब मैं और अनिरुद्ध चौदह साल बाद मिले थे, बिल्कुल अचानक,
अनपेक्षित। या अपने मन में पनप चुके प्यार के एहसास को
अनिरुद्ध को बताने से, जब उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी
क्योंकि मेरी शादी होने में कुछ दिन ही बाकी थे। या पुरानी
मोहब्बत की कहानी, जिसने एकदम से ही मेरे भीतर नये सिरे से सिर
उठा लिया था। ...सोच रही हूँ वर्तमान से ही शुरू करती हूँ,
उसमें अतीत अपने आप आ जायेगा, दिन बीत जाने के बाद रात की तरह।
पाँच सितारा होटल का कमरा अपने ऐश्वर्य से मुझे चिढ़ा रहा था।
सच तो ये था कि मैंने पहली बार ऐसा कमरा देखा था। मैं सिर्फ और
सिर्फ चकित थी। सुख की, वैभव की ऐसी परिभाषा भी होती है? मैंने
तो अपने जीवन में धर्मशालाएँ और गेस्ट हाउस ही देखे हैं। पाँच
सितारा होटल तो बिल्कुल अलग अनुभव है। जब अनिरुद्ध ने फोन पर
मुझे कहा था कि उसने पहले वाला होटल छोड़कर ली मैरिडियन में
कमरा बुक कर लिया है और मैं अपने समयानुसार इस कमरे में पहुँचू
तो मैं घबरा गई थी कि मैं अकेले कैसे जाऊँगी? हालाँकि उसने ये
होटल भी मेरी सहूलियत के लिए ही बदला था ताकि मुझे उससे मिलने
के लिए बहुत दूर न जाना पड़े। मैंने उसे कहा था कि मैं उसका
बाहर ही इन्तजार कर लूँगी लेकिन उसने बताया था कि उसे देर हो
जायेगी और जिस काम में वह फँसा होगा उसे वह हरगिज नहीं छोड़
सकता। इसमें उसकी गलती नहीं थी बल्कि मैंने ही अपनी
सुविधानुसार उससे मिलने का समय चुना था। क्या मजबूरी है न?
मेरा समय सुबह दस बजे से दो बजे तक का था। एक विवाहित घरेलू
स्त्री का समय जब वह अपने पति और बच्चों से मुक्त होती है।
‘क्या हम...अकेले में कुछ समय बिता सकते हैं?’, मैंने हिचकते
हुए अपनी डोर अनिरुद्ध के हवाले कर दी थी। यह परसों की बात थी।
जब मैं और अनिरुद्ध करोल बाग मार्किट में अचानक ही मिल गये थे।
वह अकेला नहीं था। मुझे देखकर उसे शॉक सा लगा था। वह मुझसे बात
करना चाहता था इसलिए उसने अपने साथ मौजूद व्यक्ति से माफी माँग
ली थी। वह मुझे मैकडॉनोल्ड ले गया था। मेरी दयनीयता देख कर उसे
दुख हुआ था और सबसे अधिक दुख उसे मेरे टूटे हुए दाँत की खाली
जगह देखकर हुआ था जिसकी वजह से मैं तनिक बदसूरत लग रही थी। कुछ
साल पहले मेरा बायीं ओर का निचला दाँत टूट गया था।
मैं उससे कितनी बातें करना चाहती थी, कितना कुछ कहना-सुनना
चाहती थी लेकिन मैं सिर्फ यही कह सकी, ‘क्या हम...अकेले में
कुछ समय बिता सकते हैं?’ यह मैंने अचानक ही, बिना सोचे समझे कह
दिया था।
पिछले दो दिनों से मैं ढँग से सो भी नहीं पाई थी। बिल्कुल वैसी
हालत, जो मेरी तब हुई थी जब मैंने उसे अपने मन की बात बताई थी।
उसे देखने और मिलने के बाद उससे सम्बन्धित घटनाएँ एक के बाद एक
कूदती-फाँदती मेरे जेहन से निकल रहीं थी जो जितनी जल्दी पकड़
में आती थीं उतनी जल्दी ही छूट भी जाती थीं। पर उनको याद करने
पर एक मीठा-मीठा एहसास जरूर हो रहा था जो सुख और दुख से
बिल्कुल परे था।
परसों मिलने की बात तय हो गयी। उस समय मैंने सोचा था कि मैं
उसके साथ दो तीन घण्टे बिताकर डेढ-दो़ बजे तक घर वापस आ जाऊँगी
लेकिन मुझे क्या पता था कि उसे सुबह नौ बजे कहीं पहुँचना होगा।
‘क्या तुमने मालूम किया कि आर्टिफिशियल दाँत कितने में
लगेगा?’, उसने पूछा था। वह दाँत पर ही अटक गया था, ‘और ये टूटा
कैसे?’
‘टूटा कैसे?’, मैंने उसके आखिरी दो शब्द ऐसे दोहराये जैसे मुझे
भी न पता हो कि मेरा दाँत कैसे टूटा?
वह प्रतीक्षा कर रहा था और मैंने उसे बताया कि एक अच्छा दाँत
दस-पन्द्रह हजार तक का लगेगा। प्रश्न के दूसरे हिस्से को मैंने
मैकडॉनोल्ड के शोर में धकेल दिया पर शोर में भी उसका प्रश्न
हवा में लटका मुझे ताक रहा था। वह मुझे यह रकम देने के लिए
तैयार हो गया लेकिन मैंने मना कर दिया। मना करते समय सिर्फ और
सिर्फ राहुल मेरे दिमाग में था।
मैं हमेशा से सोचती थी कि कभी कोई काम एकदम से नहीं होता। पहले
भूमिका बनती है, फिर उस पर विचार होता है और अन्त में उस पर
निर्णय लेकर काम किया जाता है। वो सन् दो हजार की बात थी। मेरी
शादी से कुछ ही दिन पहले। भूमिका बन चुकी थी, विचार हो चुका
था, निर्णय भी लिया गया किन्तु उस काम को बिल्कुल गलत समय किया
गया जबकि उस समय उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
और आज का निर्णय? उसकी कहीं कोई भूमिका नहीं लिखी गयी, कभी उस
पर सोचा भी नहीं गया था। न कभी पहले, न परसों। बस निर्णय हुआ
और मैं यहाँ ली मैरिडियन के कमरा नम्बर नौ सौ सात में मौजूद
हूँ। यह उस खामखाह लिये गये निर्णय की परिणति है जो मैंने सन्
दो हजार में लिया था।
मैं ठीक साढ़े दस बजे होटल में थी। जोरों से धड़कते दिल के साथ
मैं भीतर दाखिल हुई थी। हालाँकि मैं अपना सबसे अच्छा सूट पहन
कर आई थी लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था कि शीशमहल में कोई चोर
घुस आया हो। उसने मुझे समझा दिया था इसलिए मैं सीधे रिसेप्शन
पर पहुँची। रिसेप्शन के पीछे दीवार पर कई घड़ियाँ लगी हुई थीं
जो दुनिया के कई शहरों का समय बता रहीं थी। जब रिसेप्शनिस्ट ने
एक प्लास्टिक कार्ड मुझे दिया तो मैं हैरत से उसे उलट-पुलट कर
देखती रही। मेरी हैरानी से हैरान हुई रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि
ये ‘की कार्ड’ है यानी रूम की चाबी। उसकी अचरज भरी मुस्कान
मुझे अभी भी याद है। मैं झिझकते हुए नवीं मन्जिल पर कमरे के
सामने पहुँची। बड़ी मशक्कत के बाद कमरे का दरवाजा खुला। खुला
लेकिन नई समस्या। भीतर अँधेरा था। मैंने टटोलकर बोर्ड खोजा तो
लाइट ही न जले। मैं घबराकर बाहर आ गई। कॉरीडोर में होटल का
स्टाफ मिल गया। उसे बताया। वह मुस्कराया। पता नहीं उसकी
मुस्कराहट कैसी थी क्योंकि घबराहट और शर्म के कारण मैं उसे
नहीं देख रही थी। उसने दरवाजे के पास बने एक खाँचे में कार्ड
डाला। कार्ड डालते ही कमरा रोशन हो गया। उसने बताया कि जब बाहर
आना हो तो कार्ड यहाँ से निकाल लें। मैंने उसे धन्यवाद कहा।
उसके जाने के बाद मैंने चैन की साँस ली।
मुझे इस बात की खुशी थी कि अनिरुद्ध की सम्पन्नता और बढ़ गई थी
जैसी सम्पन्नता उसके घर की उन दिनों थी, उससे भी अधिक और मेरे
हालात उतने ही निम्न थे जितने पहले थे। शायद पहले से भी बदतर।
मुझे आज भी वो दिन याद है जो शीशे की तरह साफ मेरे भीतर मौजूद
है। चौदह साल गुजर जाने के बावजूद, मेरी शादी और दो बच्चे हो
जाने के बावजूद, जिन्दगी के स्याह-सफेद रंग देखने के बावजूद वो
दिन मुझे याद है।
अनिरुद्ध मेरे घर के सामने वाले मकान में रहता था जहाँ मेरा
आना जाना था क्योंकि उसकी बहन और मैं एक ही पॉलीटैक्नीक कॉलेज
में कोर्स कर रहे थे। वह सम्पन्न परिवार से था और मैं निम्न।
एक अनाथ लड़की जो अपने बड़े और छोटे दो भाइयों के साथ रहती थी।
उससे कभी कभार हल्का फुल्का हँसी मजाक चलता था। प्रेम रोग
फिल्म भी मैंने उन्हीं के घर देखी थी। इस फिल्म में ऋषि कपूर
का एक डायलॉग मुझे आज भी याद है। वह कहता है, ‘सभी इन्सान एक
जैसे ही तो होते हैं, वही दो हाथ, दो पाँव, आँखें, कान, चेहरा।
सबके एक जैसे ही तो होते हैं फिर कोई एक, सिर्फ एक ऐसा होता है
जो इतना प्यारा लगने लगता है कि अगर उसके लिए जान भी देनी पड़े
तो हँसते-हँसते दी जा सकती है।’
‘कोई एक, सिर्फ एक’ अनिरुद्ध था। हालाँकि शुरू में ऐसा कुछ
नहीं था। मुझे नहीं पता कि वो कौन सी पढ़ाई कर रहा था लेकिन ये
मालूम था कि वो कहानियाँ-उपन्यास भी लिखता था। मैंने एक बार
उसे कहा था कि वह अपनी कहानियाँ मुझे दिखाये। उसका जवाब था कि
वह मुझे वो कहानी देगा जो वह मेरे ऊपर लिखेगा और कहानी का
शीर्षक होगा - और नैना बहते रहे...। मेरा नाम नैना है और मुझे
मालूम था कि वह मेरा मजाक उड़ा रहा था। हालाँकि बाद में मुझे
उसने अपनी तीन-चार कहानियाँ पढ़ने के लिए दी थीं। उसकी वे
कहानियाँ अजीब सी प्रेम कहानियाँ थीं। उसकी वे अजीब सी प्रेम
कहानियाँ पढ़कर ही वह मेरे लिए ‘कोई एक, सिर्फ एक’ बन गया। वह
मेरी खामोश चाहत बन गया। मैंने अपनी चाहत का मुँह नहीं खोला,
शायद मैं हमारे सम्बन्धों को अमीरी गरीबी में तोल रही थी।
लेकिन उस दिन मुँह खुल ही गया।
मेरा भाई और मेरे रिश्तेदार मेरे लिए लड़का देख रहे थे। जैसे ही
उन्हें उपयुक्त लड़का मिला तुरन्त सगाई कर दी और दो महीने बाद
शादी की तारीख भी तय। सगाई होने के बाद राहुल मुझसे कई बार
मिला और हमारे बीच वो सम्बन्ध भी बना जो शादी के बाद बनना
चाहिए था। राहुल के साथ घूमने फिरने, बातचीत करने के बावजूद
मुझमें वो कीड़ा कुलबुला गया। मुझे लगता है ऐसा इसलिए हुआ होगा
शायद मैं राहुल में भी अनिरुद्ध को देखती थी।
खैर! मैं सिर्फ वो बताती हूँ जो मैंने उसे कहा था क्योंकि उसने
प्रतिक्रियास्वरूप अधिक कुछ नहीं कहा था। उस दिन जैसे ही वह
कॉलेज से घर लौटा, किसी बच्चे के द्वारा मैंने उसे अपने घर
बुलवा लिया। कुछ देर बाद वह आया और उसके बैठते ही मैंने हिचकते
हुए, रुक रुक कर कहना शुरू किया।
‘...पहले मैंने सोचा कि लिखकर कह देती हूँ, मैंने लिखा भी, फिर
फाड़ दिया और फिर सोचा, कह देना ही ठीक है और सामने कह देना
ज्यादा ठीक है। मैं... पिछले काफी दिनों से इसी उधेड़बुन में
हूँ कि आपसे कैसे कहूँ? और तीन दिन से तो मेरा बुरा हाल है,
मैं ठीक से सो भी नहीं पाई हूँ। पता नहीं आपके बारे में सोचते
ही मेरी अजीब सी हालत हो जाती है। मैं बता नहीं सकती कैसी हालत
हो जाती है? आप भी सोच रहे होंगे कि मेरी शादी होने वाली है और
मैं कैसी बहकी बातें कर रही हूँ? पता नहीं...पता नहीं कब आपको
देखते हुए, कब आपसे बातें करते हुए, कब आपकी कहानियाँ पढ़ते हुए
मैं आपको चाहने लगी, आपको प्यार करने लगी। आप...आप दूसरे लड़कों
से बिल्कुल अलग हो मैं...मैं जानती थी कि हमारा कुछ नहीं हो
सकता इसलिए मैंने आपको कभी बताया नहीं। आज इसलिए बता रही हूँ
कि कुछ दिनों बाद मैं चली जाऊँगी, कहीं दिल की बात दिल में ही
न रह जाये। आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं मुझे नहीं पता मगर
मैं आपको...बहुत प्यार करतीहूँ...।’
बोलने के बाद मेरा चेहरा लाल हो गया था। मैंने उससे नजरें भी
नहीं मिलाई थी।
कुछ देर की खामोशी बहुत लम्बी हो गई थी।
‘मैंने तुम्हारे बारे में इस तरह कभी नहीं सोचा था। पर एक बात
है, तुम बहुत समझदार लड़की हो।’ अनिरुद्ध ने बस इतना ही कहा और
चला गया।
ये तो मैं शुरू से जानती थी कि उसने मेरे बारे में कभी इस तरह
नहीं सोचा था। मगर उसने ये क्यों कहा कि मैं बहुत समझदार हूँ?
मैं और समझदार? कतई नहीं।
उस दिन के बाद हमारी मुलाकात मेरी शादी वाले दिन हुई। उसने
मुझे एक बहुत सुन्दर हैण्ड बैग उपहार में दिया था। मेरे प्यार
का पहला और आखिरी उपहार। मैंने उस बैग को आज तक सहेज कर रखा
हुआ है। बहुत विशेष अवसरों पर मैं उसका इस्तेमाल करती हूँ।
जैसे आज यह मेरे साथ है। मैंने राहुल को इस बैग को देने वाले
के बारे में कभी नहीं बताया। अगर बता देती तो वह कब का उसे जला
चुका होता या फेंक चुका होता।
राहुल...शुरू के दिनों में ये नाम मुझे बहुत प्यारा लगता था।
पर इतना भी नहीं, जितना अनिरुद्ध। और मैं उन दिनों उस पर पूरी
तरह समर्पित थी इसलिए वो सम्बन्ध भी बन गया जो बनना ही शादी के
बाद चाहिए था। कदम उसने बढ़ाया था और मैंने उसके कदम पर कदम रख
दिया था। मुझे न बुरा लगा, न ही पाप। और लगता भी क्यों? हमारी
शादी जो होने वाली थी। अपने होने वाले पति पर पूर्ण समर्पित।
मैंने लड़की होते हुए ऐसी मर्यादाओं, नैतिकताओं की बातों के
बारे में नहीं सोचा और वही किया जो राहुल चाहता था।
हमारा विवाह हो गया लेकिन कुछ न होते हुए भी कुछ ऐसा था जिसने
उसको शक्की बना दिया। और आज ये स्थिति है कि वह अपने अज्ञात शक
की बिना पर मेरे साथ कुछ भी कर सकता है। शायद मेरी हत्या भी।
जब भी मैं कभी उसके अनावश्यक शक के बारे में सोचती हूँ तो मुझे
एक ही वजह समझ आती है और वो है हमारा विवाह पूर्व शारीरिक
सम्बन्ध। वह निश्चित ही ये सोचता होगा कि शादी से पहले मैं
उसके साथ तुरन्त तैयार हो गई तो शायद मैं किसी के साथ भी तैयार
हो गई होऊँगी।
विवाह के चौदह वर्ष गुजर जाने के बावजूद उसके शक का कोई इलाज
नहीं मिला। मेरे दाँत का टूटना भी उसके शक की परिणिति है।
लेकिन मैं यहाँ राहुल पुराण या राहुल गाथा के लिए नहीं आई हूँ।
मैं एक मर चुकी इच्छा में प्राण फूँकने की कोशिश करने आई हूँ
लेकिन आज समय बीतने के साथ-साथ इस कोशिश का भी दम निकल रहा है।
कमरे के ऐश्वर्य से गश खाने के बावजूद सबसे पहले मैंने उसे
यहाँ आते ही फोन किया था जो उसने तुरन्त ही काट दिया था मगर
अगले ही पल मैसेज आ गया था - ‘मैं मीटिंग में हूँ। अगर आप होटल
पहुँच गई हैं तो मेरा इन्तजार करो। फ्री होते ही फोन करूँगा।’
मैंने भी उसे मैसेज कर दिया था - ‘हाँ मैं होटल पहुँच चुकी हूँ
और आपका इन्तजार कर रही हूँ।’
‘आपके समयानुसार पहुँचने की पूरी कोशिश करूँगा।’
उसका ये मैसेज पढ़कर मैं भाव विभोर हो गई थी।
उसके बाद मैंने कमरे का जायजा लिया। वहाँ मौजूद हर सामान को छू
छूकर, उठा-उठाकर देखा। अनिरुद्ध का सामान भी देखा। उसका सामान
देखते हुए मुझे एक अजीब सा ख्याल आया। उसके सूटकेस में उसका
सामान उसकी बीवी ने रखा होगा, बड़े प्यार से, सहेज कर। और उसे
ढेर सारी हिदायतों के बीच उसे बताया होगा कि फलाँ सामान इस तरफ
है और फलाँ उस तरफ। शेविंग किट, डियो, स्लीपर...सब पर उसके
निशान होंगे। मन में अजीब सी इच्छा हुई कि मैं उन निशानों की
तलाश करूँ मगर जल्द ही मैंने उस इच्छा को मार दिया। शायद मैं
उस औरत को खोजना चाहती थी जो अनिरुद्ध से जुड़ी है और जो उसके
सामान में मौजूद है। मुझे लगा इस बहाने से एक बहुत पुरानी, दफन
हो चुकी इच्छा को जीवित करना चाह रही हूँ।
कमरे को देखने के बाद मैंने बाथरूम देखा। जैसा मैंने कभी
फिल्मों में देखा था वैसा ही बाथरूम था। बाथरूम की एक-एक चीज
मैं छू छूकर देख रही थी। बाथटब देखकर तो मेरा मन नहाने का हो
आया। फिर मैंने निश्चय कर ही लिया कि नहा ही लेती हूँ। पता
नहीं जीवन में कब बाथटब में नहाने का मौका मिले?
इस बीच अनिरुद्ध आ गया तो? तो? तो...तो...तो...?
अपनी समझ के हिसाब से मैं नहा ही ली। नहाने का अनुभव बहुत
अद्भुत था। मैं बिल्कुल फिल्मी तरीके से नहाई थी। जब मैं कमरे
में वापस आई तो देखा बारह बज चुके थे। अपना मोबाइल चैक किया।
कोई कॉल नहीं। विशेषतः राहुल की।
कितनी शान्ति मिलती है जब आप चोरी छिपे कोई काम कर रहे हों और
आपके मोबाइल पर उस व्यक्ति की कोई कॉल न हो जिसकी आप ऐसे समय
सबसे अधिक अपेक्षा कर रहे हों। ये प्रतीक्षा भी कितनी मुश्किल
होती है न, खासतौर पर जब आपके पास समय की बहुत कमी हो और
प्रतीक्षा करवाने वाले से मिलना भी बहुत जरूरी हो। डेढ़ घण्टा
था मेरे पास और अनिरुद्ध के आने का कुछ पता नहीं था।
मुझे भूख लगने लगी थी। यहाँ आने के चक्कर में, जल्दी जल्दी घर
के काम निपटाने के बाद सिर्फ चाय पीकर आई थी। टेबल पर फलों की
एक प्लेट रखी थी जिसमें एक सेब, दो केले और दो आलूबुखारे थे।
मैं तीनों चीज एक एक खा गई। अमीरी लाइफ भी क्या लाइफ है! मुझे
हल्का सा दुख हुआ कि मैं अनिरुद्ध की पत्नी नहीं हूँ। हालाँकि
मेरी सगाई होने से पहले मैं उसकी पत्नी बनने के बारे में ही
सोचती रहती थी। अनिरुद्ध के पास मोटरसाइकिल थी। उसकी बाइक पर
उसके पीछे बैठने की न जाने कितनी बार मैंने कल्पना की थी,
कितनी बार कल्पनाओं में उसके पीछे बैठी, कभी एक प्रेमिका के
रूप में तो कभी पत्नी के रूप में।...जीन्स में दोनों टांगे
क्रास करके बिल्कुल चिपककर तो कभी साड़ी पहले हुए कमर में हाथ
डाले। कुछ कल्पनाएँ या कुछ इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती...चाहे
कोशिश करें या ना करें, वे भीतर ही घुटकर रह जाती हैं और वहीं
मर जाती हैं।
पिछले दो दिन मैंने सिर्फ अनिरुद्ध के बारे में ही सोचा। आखिर,
चौदह वर्ष बाद मैं उससे मिली हूँ। विधाता की अजीब सी मर्जी रही
जो हम कभी मिल नहीं पाये। हालाँकि, मिलकर भी क्या होता? पुरानी
कसक, पुरानी टीस फिर उभर आती। हमारे ना मिलने का कारण शायद ये
भी रहा कि मेरी शादी के बाद घटनाएँ बड़ी तेजी से हुईं मानो
घटनाओं को मेरी शादी का ही इन्तजार हो। शादी के बाद मैं नोयडा
से दिल्ली आ गई-अपने ससुराल। उसके तुरन्त बाद मेरे चाचा और ताऊ
ने हमारा मकान बिकवा दिया ताकि तीन हिस्से हो सकें। भाई को जो
हिस्सा मिला उससे वह मेरी शादी का कर्जा ही चुका पाया फिर वह
भी छोटे भाई के साथ दिल्ली आकर बस गया। राहुल ने कभी मेरे
भाइयों को पसन्द नहीं किया इसलिए वे मेरे पास बहुत कम ही आते
हैं। भाइयों के दिल्ली आने के बाद नोयडा बिल्कुल ही छूट गया।
कोमल, अनिरुद्ध की बहन, की शादी में भी नहीं जा पाई। परसों की
मुलाकात में अनिरुद्ध ने सिर्फ इतना ही बताया था कि वह पिछले
आठ सालों से पूना में रह रहा है और वहीं पर एक बड़ी कम्पनी में
नौकरी कर रहा है। उसके एक बेटी है, बीवी के बारे में कुछ नहीं
बताया। उसकी पत्नी कैसी होगी? पता नहीं नौकरी करती होगी या
नहीं? क्या उसी से उसकी शादी हुई जिससे प्यार करता था।
जब मैंने उसे अपने मन की बात बताई थी तो मुझे पहले से ही मालूम
था कि किसी के साथ उसका चक्कर चल रहा था पर वो चक्कर किस
अन्जाम तक पहुँचा मुझे पता नहीं चल पाया। लड़की के बारे में
कोमल से सुना था कि वो बहुत खूबसूरत है। मैं उस अनजान लड़की की
खूबसूरती का अनुमान ही लगाती रह गयी, कभी देख नहीं पाई। खैर!
आज मैं उसकी प्रतीक्षा कर रही हूँ और निश्चित ही वह भी मुझसे
मिलने के लिए बैचेन होगा।
सुख! सारा खेल इस छोटे से शब्द का है। आज मैं यहाँ अपने रूटीन
भरे जीवन में हल्के से बदलाव की चाह में हूँ। एक ऐसे सुख के
लिए हूँ जो मेरे लिए बना ही नहीं था, पर इच्छा तो होती है न।
जैसे आज की इच्छा। अगर मैं न भी कहूँ तो भी ये सच था कि मैं
यहाँ अपने को समर्पित करने आई हूँ। अपने मरे हुए प्यार को
सिर्फ आज के लिए हासिल करने आई हूँ। पर मेरी इच्छाएँ, कैसी भी
इच्छाएँ पूरी कहाँ होती हैं? लेकिन अपने लिए, अपने तरीके से
कुछ समय जीने की इच्छा तो मेरी भी है न। क्या करूँ? मेरी
जिन्दगी तो पति और बच्चों में ही निकल गई। विवाह के बाद मैंने
सोचा था कि राहुल बहुत प्यार करने वाला होगा, विश्वास और सहयोग
करने वाला होगा। जैसा वह विवाह से पहले दिखाता था। विवाह के
बाद बहुत जल्दी उसमें बदलाव आ गया बल्कि अपने असली रूप में आ
गया। जब हमारा मकान बिका था तो उसकी नजर भाई के हिस्से की रकम
पर थी जिसके लिए वह कहता था कि इसमें मेरा भी हिस्सा है और वो
मुझे हर हाल में लेना चाहिए लेकिन मुझे पता था कि वो पैसा मेरे
विवाह के कर्ज में ही जायेगा। जो थोड़ा बहुत बचा था वह छोटे भाई
के भविष्य के लिए सुरक्षित रख दिया गया। मगर राहुल वह रुपया
हथियाना चाहता था। उसको रोकना मेरे और भाई के लिए महाभारत था।
और जब बच्चे हुए तो मैं बिल्कुल ही बँध गयी। मेरी विडम्बना तो
देखो कि यहाँ पर मुझे जिसके बारे में सोचना चाहिए, मैं उसके
बारे में न सोचकर वही अपने पति और बच्चों के बारे में सोच रही
हूँ जिनसे कुछ देर पीछा छुड़ाकर यहाँ आई हूँ। कैसे सुख मिलेगा
मुझे?
एक आशंका मेरे भीतर पनपी। अगर अनिरुद्ध डेढ़ बजे तक नहीं आया
तो?
तो मेरी किस्मत।
मुझे याद है एक बार मैं अपनी दवाई लेने जा रही थी तो मैंने
सोचा कि अनिरुद्ध को साथ ले चलती हूँ। वह अपने घर मिल भी गया।
मैंने उसे साथ चलने के लिए कहा तो पहले तो वो सोचता रहा फिर
तैयार हो गया।
‘आपको मेरे साथ चलते हुए अच्छा लग रहा होगा, है न?', मैंने
शरारती मुस्कान के साथ पूछा।
‘मुझे अच्छा लग रहा है? पागल है तू। मुझे क्यों अच्छा लगेगा?’,
उसे गुस्सा तो नहीं आया पर उसका स्वर तेज हो गया था।
‘धीरे बोलो, मैं अपने लिए कह रही थी कि मुझे आपके साथ चलते हुए
अच्छा लग रहा है।’
उसने कुछ जवाब नहीं दिया बस सामने कहीं देखता हुआ चलता रहा।
मैंने आगे कहा।
‘वो देखो, पड़ोस वाली आण्टी हमें देख रही है, फिर भी मुझे आपके
साथ चलते हुए डर नहीं लग रहा।’
‘इसमें डरने की क्या बात है? हम साथ चलते हुए क्या चोरी कर रहे
हैं?’
‘वो बात नहीं, ये आण्टी इधर की उधर लगाती है।’
‘फिर तो तेरी शादी में दिक्कत हो जायेगी।’, उसने बड़ी गम्भीरता
से कहा
आपके साथ तो मैं सारी दिक्कतें झेल लूँगी - ये मैंने सिर्फ मन
में कहा।
‘क्यों? बोल कुछ?’, अनिरुद्ध ने जोर देते हुए कहा।
‘मैं दवाई लेने जा रही हूँ, अपनी शादी की तारीख पक्की करने के
लिए नहीं।’, मैंने हँसते हुए कहा था। तब मुझे लगा था कि यही
उचित मौका है अपने मन की बात कह देने का। पर नहीं कही, सँजोकर
मन में ही पड़े रहने दी।
बाद में, ये शुक्र रहा कि उस आण्टी ने हमारे बारे में मोहल्ले
में कुछ लगाई सिकाई नहीं की, नहीं तो, अनिरुद्ध की माँ तो मुझे
खा ही जाती और मेरा पूरा खानदान मेरा जीना हराम कर देता।
तभी मोबाइल पर अनिरुद्ध का मैसेज आया, ‘सॉरी, मुझे अभी टाइम लग
सकता है। अगर भूख लग रही हो तो फोन पर कुछ आर्डर कर देना, रूम
में आ जायेगा। चाय कॉफी मेकर टेबल के पास ही है, बना लेना और
कुछ ठण्डा पीना हो तो फ्रिज में है।’
हाय! कुरबान! कितना ख्याल है मेरा। यह मेरे अब तक के जीवन का
सबसे प्यारा मैसेज था। मैंने ‘ओके थैंक्स’ लिखकर भेज दिया।
मेरे मन का एक हिस्सा चीख-चीखकर कह रहा था कि अनिरुद्ध डेढ़ बजे
तक नहीं आयेगा और एक हिस्सा बहुत धीरे से कह रहा था कि वह
आयेगा। अगर वह डेढ़ बजे तक आ भी गया तो क्या फिर भी मैं रुक
पाऊँगी? जो भी मैं सोचकर आई हूँ वो पूरा हो पायेगा? मेरे ही
प्रश्नों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। वैसे भी चीखने वाले
हिस्से की ही जीत होनी है।
फ्रिज में कोक, पैप्सी और शायद बीयर के केन रखे थे। मैंने कोक
का एक कैन उठा लिया और टीवी चलाकर पलंग पर अधलेटी अवस्था में
उसे पीने लगी। अब मेरे पास सोचने को कुछ नहीं था। मेरे सामने
सिर्फ भागता हुआ समय था और हाथ में कोक और...और? कुछ भी नहीं
था।
पौने एक बजे उसका मैसेज आया, ‘मैं दो बजे तक फ्री हो जाऊँगा और
तीन बजे से पहले-पहले पहुँच जाऊँगा। क्या तब तक रुक पाओगी?’
क्या उत्तर दूँ? मुझे बच्चों का ख्याल आया। हालाँकि मैंने अपनी
बेटी को बोल दिया था, खाना भी बना दिया था और चाबी भी पड़ोस में
दे आई थी। मेरी बेटी बारह साल की है। वह खुद खा सकती है और
अपने भाई को भी खिला सकती है। फिर भी...?
मैंने ‘पता नहीं’ लिखकर भेज दिया।
‘कोई बात नहीं। अगर जाओ तो ‘की’ रिसेप्शन पर दे जाना।’
उसका मैसेज रूखा तो नहीं था पर सच्चाई और मेरी मजबूरी से भरा
था।
खाली कैन पलंग की साइड टेबल पर पड़ा था। टीवी पर कोई म्यूजिक
चैनल लगा हुआ था और ‘बेबी डॉल मैं सोने दी’ गाना चल रहा था।
पलंग पर लेटी मैं छत को ताकती हुई सोच रही थी...
...यहाँ से जाने के बाद क्या याद रहेगा?
मन का वो दौड़ता हुआ हिरण जो मुझे यहाँ ले आया और आकर तड़प-तड़प
कर मर गया? या आज उससे न मिल पाने की टीस? या मेरी अनेक
कुण्ठाओं से अचानक पनपा मेरे समर्पण का निर्णय? या वे चौदह साल
जिनमें वो नहीं था-आज की ही तरह?
कितने प्रश्न पर उत्तर किसी का भी नहीं।
क्या बाद में कभी उससे मुलाकात होगी? कायदे से तो फिर कभी
मुलाकात नहीं होनी चाहिए। उसका तो मालूम नहीं पर मेरे लिए यही
ठीक रहेगा, नहीं तो मेरी रही-सही शादीशुदा जिन्दगी भी खत्म हो
जायेगी जिसकी जिम्मेदार सिर्फ मैं ही होऊँगी।
आखिरकार, मेरी समय सीमा समाप्त हुई। डेढ़ बज ही गया। मैं उठी,
शीशे के सामने जाकर बाल सँवारे, कपड़े व्यवस्थित किये और खुद पर
एक फीकी मुस्कराहट फैंककर कहा-
‘चल नैना, अपनी दुनिया में जहाँ ये नैना बहते रहेंगे...’
मैंने पर्स उठाया और कमरे पर आखिरी नजर डालते हुए दरवाजे तक
पहुँची। दरवाजा खोला। खाँचे में लगा कार्ड निकालने के लिए हाथ
बढ़ाया ही था कि मुझे कुछ याद आया। अनिरुद्ध ने कभी मुझे कहा था
कि वह मुझ पर एक कहानी
लिखेगा
जिसका शीर्षक ‘और नैना बहते रहे...’ होगा। मैं नहीं जानती उसने
कहानी लिखी या नहीं पर विधाता की लिखी कहानी में ये शीर्षक ऐन
फिट बैठता है। उसने जो बात शायद कभी मजाक में कही थी वो शुरू
से ही सच थी। क्या आज उसको झूठ साबित कर सकती हूँ? कम से कम आज
के लिए? आज के लिए बहते हुए नैनों को रोक सकती हूँ?
मन का चीखने वाला हिस्सा बोला-‘हाँ।’ मेरे भीतर झंकार सी हो
गई। खाँचे की ओर बढ़ा हाथ मैंने वापस खींच लिया, धीरे से दरवाजा
बन्द किया और वापस मुड़ गई। |