जादूगर जंगल-
"पेड़ कुदरत का करिश्मा है। अजूबा है पहाड़ पर पेड़। ऊँचा, सीधा,
समाधि में लीन योगी सा। जो जितना ऊँचा है, उतना ही शांत है।
जितना पुष्ट उतना ही अहिंसक। देखो, टेढ़ी पहाड़ी पर सीधा खड़ा
रहता है, झण्डे सा। हरी वर्दी पहने पेड़ लगता है पहरेदार, कभी
लगता है झबरीला भालू, कभी तिलस्मी एय्यार। कभी लगता है पेड़
रामायण की चौपायी, जो हनुमान ने गायी। कभी ऊपर चाँद से बातें
करता, हवा से हाथ मिलाता...सच्च बच्चो! एक अजूबा है पहाड़ पर
पेड़...।" बाबा कहा करते।
हरे भरे जंगल में शाम की धूप की लाली चमक रही होती। सभी पेड़,
पहाड़ एक ओर से सुनहरे हो कर चमक रहे होते। इस समय पक्षी पूरे
जोर से शोर मचाते। इस कलरव में हवा के साथ जंगल का संगीत बज
उठता।
बाबा की बातें सुनते हुए बच्चों के बीच बैठी वसुंधरा की आँखें
अनायास जंगल की ओर घूम जातीं। जंगल उसे जादूगर सा लगता जिसकी
पोटली में न जाने क्या क्या छिपा है।
"पेड़ में भी हमारी तरह जान है। पेड़ में भी नसें हैं, हड्डियाँ
हैं, लहू है। पेड़ साँस भी लेता है। अपने ऊपर वार पर वार सहता
है, फिर भी कुछ नहीं कहता। जानता है पेड़ यह भी कि लोहे की
कुल्हाड़ी हो या दाँतों वाला आरा, उसकी टहनी के बिना लोहे का
टुकड़ा भर है, ठण्डा और बेजान। उसकी टहनी लगने पर ही कुल्हाड़ी
वार करती है, आरा चलता है। उसे काटती है अपनी ही टहनी। वार
सहते हुए न बोलता है, न सिसकता है। बस गिर जाने पर एक बार
चिंघाड़ता है।"
बच्चों के चेहरे पर इस बात से मायूसी छा जाती...पेड़ मरता भी है
बाबा..., कोई बच्चा पूछ बैठता।
"हाँ, पेड़ भी मरता है। पेड़ के मर जाने पर भी जड़ को पता नहीं
चलता। जड़ें उतनी ही तेजी से पेड़ को ताकत देती हैं। पेड़ के मरने
पर भी जड़ें जिंदा रहती हैं धरती के गर्भ में सालों। ठूँठ में
उगती हैं कोंपलें हर साल, बस तना दोबारा नहीं उगता।"
"पेड़ों को कौन मारता है बाबा!" वसुंधरा पूछती।
"हैं कुछ लोग, जो पैसा कमाना चाहते हैं। चोरी से पेड़ों को
काटते हैं।"
"आप तो जंगल के राखा हैं बाबा। आप तो ऐसा नहीं होने देते।" कोई
बच्चा बोल उठता।
"हाँ, मेरे सामने कोई पेड़ नहीं काट सकता...पेड़ परमात्मा ने
आदमी से भी पहले बनाए। आदमी बाद में बनाया गया। और पेड़ बड़े
धैर्य से, आराम से, फुरसत के समय बनाए।
बिना किसी आदमी की सहायता के पेड़ जन्म लेते हैं, खुद बड़े होते
हैं, खुद फूल देते हैं, फल देते हैं। कोई लेने वाला न हो तो
धरती पर टपका देते हैं, जिसकी मर्जी आए, खा ले। इसलिए जंगल में
तो पेड़ होते ही हैं, जहाँ देवता का मंदिर होगा, वहाँ पेड़
होंगे। जहाँ जानवर होंगे, वहाँ पेड़ होंगे। जहाँ आदमी होंगे,
वहाँ पेड़ होंगे। ये सामने जंगल देख रहे हो न, यह देवता का जंगल
है, इसे कोई नहीं काट सकता। एक भी पेड़ काटना हो तो देवता की
इजाजत लेनी होगी। देवता मना करे तो कोई पत्ता नहीं तोड़ सकता।"
सभी बच्चे जंगल की ओर देखने लगे जहाँ ऊँचे-ऊँचे देवदारों के
बीच देवता का मंदिर था।
अँधेरा घिरने को आता तो पक्षी अपने अपने घोंसलों की ओर शोर
मचाते भागते। गाँव के मंदिर में घंटियों के स्वर गूँजते। बच्चे
शोर मचाते हुए अपने अपने घरों की ओर भागते।
महकमा जंगलात-
ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से घिरा था जंगलात का दफतर। यह जैसे जंगल की
सीमा थी। ऊपर जंगल शुरू हो जाता था, नीचे कस्बा। लगता था, जंगल
यहीं से उगा है। आज भी कभी कभार शाम के बाद बाघ या दूसरे जानवर
यहाँ तक आ जाते थे। नीचे की ओर दूर दूर तक ऊँची पहाड़ियाँ, ऊपर
बर्फ से ढके पर्वत। पहाड़ों में महकमा जंगलात सबसे पुराना है,
अंग्रेजों के समय का। लकड़ी से बनी दफतर की बिल्डिंग भी उतनी ही
पुरानी थी जिस के कमरों की छत्तें ऊँची जहाँ दोनों ओर बड़े बड़े
रोशनदान जिनकी डोरियाँ नीचे झूलतीं।
"फारेस्ट आफिस पेड़ों से घिरा होना चाहिए, दूर से पता चल जाए कि
यह फारेस्ट ऑेफिस है" सीनियर अफसर ने कहा था जिसकी जगह उसकी
पोस्टिंग हुई थी।
ऑफिस के बाहर दूर से ही चकले पत्थरों का रास्ता शुरू हो गया
था। दोनों ओर एक बड़ा सा लॉन था जिसमें मख़मली घास उगी हुई थी।
दोनों ओर फूलों की क्यारियाँ थीं। ऑफिस का पूरा एरिया कहीं
कंटीली तार तो कहीं दीवार से बंद किया हुआ था।
ऑफिस के साथ ही दो कमरों का छोटा सा रेस्ट हाउस था जहाँ उसके
रहने की व्यवस्था कर दी थी।
ऑफिस के बाहर बरामदा था जिसमें एक ओर लगे लकड़ी के बैंच पर
चपरासी बैठा बीड़ी पी रहा था। उसने अफसरों को आते देख अनमने से
बीड़ी दीवार पर रगड़ कर बुझा दी और सलाम बजाया। नये अफसर के आने
की खबर से रेंज ऑफिसर खुद ही आ गया था।
"अब आप यहाँ बैठिए मैडम...,यह कुर्सी अब आप के हवाले, आसपास
जितने जंगल नजर की सीमा तक दिख रहे हैं, ये आप के हवाले। एक
पूरी की पूरी सल्तनत है अब आपके अधिकार में," सीनियर ऑफिसर ने
फीकी हँसी के साथ कहा।
"नहीं नहीं, अभी आप ही बैठें। मैं कल से...आज शाम तक सब आपका
रहा।" वह कुर्सी देख सकुचाई।
सामने एक बड़ी सी घूमने वाली कुर्सी थी, हालाँकि उस पर लगाए
सफेद कवर काले पड़ गए थे। आगे एक बड़ी सी टेबल जिस में अंदर की
ओर दराज थे। कमरे में जंगली जानवरों के पुराने चित्र टंगे थे।
एक किनारे पुरानी पुस्तकों से भरी अलमारी।
"मैंने तो अब छोड़ दी।" कह कर वह भी सामने सोफे पर बैठ गया।
रेंज आफिसर चाय के प्रबन्ध में लग गया।
‘चार्ज' लेने देने में कुछ नहीं होता, यह उसे यहाँ आ कर पता
चला। बस कागज साइन कर हैड क्वार्टर भेजने होते हैं। हैड क्लर्क
कागज ले आया जो उसने तुरंत साइन कर दिए। बस साइन करने से वह
यहाँ की अफसर थी।
रेंज ऑफिसर ने सब को चाय के साथ मिठाई बाँटी। उसने पर्स से
पैसे देने चाहे, जो बहुत जोर जबरदस्ती करने पर भी नहीं लिए गए।
जलपान के बाद सीनियर ऑफिसर उसी समय हैड क्वार्टर चला गया जहाँ
उसकी पोस्टिंग हुई थी।
दो कमरों के छोटे से रेस्ट हाउस में भी सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद
बाहर बरामदा था जिसमें दफ्तर की तरह एक बैंच रखी थी। बरामदे से
नीचे छोटा सा बाजार, कस्बा और बीच में चौगान दिखता था। सामने
एक पर्वताकार बड़ी पहाड़ी थी। नीचे दरिया बहता था जो यहाँ से
दिखाई नहीं दे रहा था। हाँ, बहुत गहरी सी आवाज आ रही थी।
भीतर एक छोटे कमरे में बड़ा सा सोफा था, दूसरे में डबल बेड
जिसके गद्दे बहुत मोटे थे। शुक्र था कि दीवारों पर जानवरों के
न हो कर जंगल, पहाड़ों, झरनों के पुराने मगर आकर्षक चित्र टंगे
थे। बाथरूम में नई नई टाईलें लगी थीं, शायद हाल ही में इसे
रेनोवेट किया गया था।
गाँव से दूर के रिश्ते की बहन साथ आई थी जिसने अब तक सामान
सलीके से सजा दिया था। ट्रांस्फर हुए अधिकारी का परिवार अभी
यहीं था, इसलिए सरकारी मकान मिलने में वक्त लग सकता था। सैटल
होने के बाद बहन को गाँव भेज देगी।
दफ्तर की अलमारी से लाई एक किताब पलटने पर पता लगा यह इस
क्षेत्र के एक दुर्गम गाँव के बारे में किसी यूरोपियन का
संस्मरण था जिस में बहुत सी उपयोगी जानकारी दी गई थी। वह
यूरोपियन यहाँ दरिया के किनारे चाँदी की खोज करने आया था।
चौकीदार दौड़ दौड़ कर सेवा में जुट गया। रात को बढ़िया धुली मुंगी
की दाल और गोभी बनाई थी जो बहुत स्वादिष्ट थी। किचन पीछे की ओर
होते हुए भी वह गर्मागर्म चपाती पहुँचाता रहा।
पक्षियों के कलरव ने तड़के ही जगा दिया। बाहर उजाला था। वह बैंच
पर बैठ गई। सामने की पहाड़ी के कारण सूरज देर से निकलता है,
चौकीदार ने चाय पकड़ाते हुए बताया। उसके बच्चे उठ गए थे जो किचन
से छिप छिप कर झाँकते हुए उसे देख रहे थे। भीतर से बिस्कुट का
पैकेट ला कर चौकीदार को दिया।
सुबह दस से पहले ही वह कुर्सी पर बैठ गई। बैठने से पहले ही
उसने कुर्सी के मैले कवर चौकीदार से निकलवा दिए थे। उस समय
दफ्तर में कोई नहीं था। बस चौकीदार ही उस के साथ नीचे आया था।
उसी के पास दफ्तर की चाबी थी।
चौकीदार ने आते ही बाहर नेम प्लेट लटका दी: वसुंधरा चौधरी
वनमण्डलाधिकारी।
घूमने वाली कुर्सी पर बैठते ही उसका मन बुरा बुरा सा हो गया।
बाबा इसी महकमे में फॉरेस्ट गार्ड थे। उस वक्त उन्हें राखा
कहते थे। राखा होने पर भी गाँव के चौकीदार, लम्बरदार से उनकी
पूरे इलाके में बड़ी इज्जत थी। हर ब्याह शादी, मरण कर्म में वही
चीड़ के पेड़ पर निशान लगा कर अलॉट करते थे। उम्र भर जंगलों में
भटकते रहे। कितना लगाव था उन्हें अपनी ड्यूटी से। जंगलों की
खातिर ही उन्हें एक दिन अपनी जान देनी पड़ी। तब वह कितनी छोटी
थी। उस समय ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था कि वह उसी महकमे में
बड़ी अफसर बनेगी। पूरे कुनबे में और इलाके में इस तरह की पहली
अफसर होगी।
स्टॉफ के आने से पहले उसने साथ लाई अग्गरबत्ती जला कर आँखें
बंद कर लीं। हाथ जोड़ कर देवी का ध्यान किया और कमरे का जायजा
लिया कि यहाँ क्या क्या चेंजिज की जा सकती हैं।
इतने में रेंज ऑफिसर गुड मॉर्निंग करता हुआ भीतर आ गया। शायद
वह रात यहीं ठहरा था।..."चाय मँगवाऊँ मैडम?" उसने भीतर आते ही
पूछा।
"हाँ हाँ, मँगवाते हैं...," कहते हुए उसने घण्टी बजाई। एक
चपरासी भीतर आया और खड़ा हो कर बेबकूफों की तरह उसे देखने लगा।
"चाय लाओ भई...मैडम के आते ही बिना कहे चाय आ जानी चाहिए।"
रेंज ऑफिसर ने रौब से कहा तो वह सिर हिलाता चला गया।
"यह इलाका पेड़ काटुओं के लिए बदनाम है मैडम। एक पूरी गैंग,
पूरा माफिया इस काम में लगा हुआ है। आप देखेंगीं, कई पहाड़ियाँ
नंगी हो गई हैं। जंगलों में टीडी में एक पेड़ अलॉट होता है तो
पाँच काट लिए जाते हैं। यहाँ की लकड़ी मैदानों में पहुँच गई,
कोई पकड़ नहीं पाया। कोई डी॰एफ॰ओ॰ यहाँ साल से ज्यादा नहीं टिक
पाता।" रेंज ऑफिसर ने बताना शुरू किया।
अब कोई नहीं बचेगा, सोचा वसुंधरा ने, कहा कुछ नहीं। पेड़ पौधों
को, हरे भरे जंगलों को, जंगली पशु पक्षियों को बचाना है उसने।
यही तो उसके जीवन का लक्ष्य है अब।
"मैडम! कुछ जरूरी फाइलें हैं....नाक पर ऐनक रखे अधेड़ हैड
क्लर्क ने प्रवेश किया और ऐनक के बीच से उसे घूरा। वह चुप रही।
"ये हैड क्लर्क हैं मैडम! बहुत मेहनती और ईमानदार...।" रेंज
ऑफिसर ने परिचय दिया। वे महाश्य एक बार और झुके और मुस्काते
हुए फाइलें रखते हुए बोले-"धीरे धीरे सब जान जाएँगी मैडम, अभी
नई नई हैं न।" वह चुप रही, बस सिर हिलाया।
हैड क्लर्क के जाने पर रेंज ऑफिसर ने फिर बात छेड़ी-"यहाँ गाँव
से दूर बहुत ही घने जंगल हैं जहाँ तक हम लोग भी नहीं पहुँच
पाते। फारेस्ट गार्ड लोकल हैं जो लोगों से मिले रहते हैं। ये
सामने की पहाड़ी तो खाली है, पीछे की ओर जंगल ही जंगल हैं जहाँ
दिन में भी जाने से डर लगता है। बाघ, रीछ, भालू सर्दियों में
नीचे उतर आते हैं। वैसे जंगली जानवर तो यहाँ कम हैं, आदमी ही
जानवर बने हुए हैं।"
"चैक पोस्ट तो सब जगह होगी...।" उसने कहा।
"सो तो हैं... वहाँ भी तो लोकल आदमी लगे हैं। फिर बहुत सी लकड़ी
दरिया के रास्ते जाती है। कटान के बाद स्लीपरों को दरिया में
लुढ़का दिया जाता है जहाँ से वे दूसरे जिले में पहुँच जाते
हैं।"
चाय के बाद रेंज ऑफिसर ने विदा ले ली तो वह पुनः सयंत हो बैठ
गई।
ऑफिस में अराजकता का माहौल था, इस बात का पता उसे एक दिन में
ही लग गया। बाहर पूरी सल्तनत थी, इसमें कोई संदेह नहीं। पिछले
डी.एफ.ओ. ज्यादातर दौरे पर रहते थे। शिकार और पार्टियों के
शौकीन। वैसे भी वे सीधे आई.एफ.एस. थे, बिहार के रहने वाले। वह
तो बी.एस.सी. फारेस्टरी कर के प्रदेश कॉडर से चयनित हुई थी।
...ये लेडीज क्या करेंगी। यहाँ तो फील्ड वर्क है। जंगलों में
रहना पड़ेगा, जंगली जानवरों के बीच। पता नहीं कैसे इस सर्विस
में आ गई। अरे! इसे तो हैड क्वार्टर में ही रहना चाहिए था,
वहाँ टेबल वर्क करती। यहाँ जंगल माफिया के बीच... अकेली
लड़की... राम! राम! ये तो स्टॉफ को भी कंट्रोल नहीं कर पाएगी।
कई तरह की बातें उसके कानों तक पहुँचने लगीं। रात को छोटे से
रेस्ट हाउस के ऊपर जंगल में जब कई गीदड़ एक साथ बोलते तो उसे भय
भी लगता।
वह सुबह पौने दस आ बैठती थी और दूसरे दिन ही सारे स्टॉफ को समय
पर आने का मीमो जारी कर दिया। बिना चिट दिए किसी भी बाहरी
व्यक्ति के कमरे में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अब किसी भी
आदमी की उसकी ओर आँख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं होती।
जंगल की पुकार-
बरसात में जंगल बहुत दारूण आवाज में बोलता है। चारों ओर
टिड्डियों, झींगूरों की आवाजें वातावरण को बोझिल बना देती हैं।
सभी पेड़ भीग कर जैसे सिसकते हैं। उनके चारों ओर लिपटी बेलें
उन्हें एकदम कस देती हैं जिससे साँस लेना भी कठिन हो जाए। जमीन
पर हर जगह गीला गीला एहसास। घने पौधों और झाड़ियों के बीच न
जाने क्या छिपा बैठा होगा, कौन जाने!
बरसात में जंगल की आवाजों से उसका मन कभी कभी घबरा जाता है।
ऐसे ही भयावह वातावरण ने एक दिन उसके बाबा को मार डाला था।
बड़ी उदास शाम थी वह। ऐस ही कीट पतंगों की साँय-साँय, झाँय-झाँय
से जंगल गूँज रहा था। लोक कथा की तरह लोग सुनाते हैं, टक्टक्
की आवाजें सुनते हुए बाबा जंगल के बीच में पहुँच गए। अचानक
फॉरेस्ट रोड़ पर एक ट्रक चिंघाड़ता हुआ आ रुका। ट्रक ड्राईवर से
उन्होंने जंगल के बीच ट्रक लाने का कारण पूछा तो वह हँसा।
उन्होंने ट्रक का दरवाजा पकड़ लिया। ड्राईवर नीचे उतरा। पीछे से
तीन आदमी और उतर आए। देर तक उन में कहा सुनी होती रही। एक तगड़े
आदमी ने बाबा को धक्का दिया। बाबा ने उसका कालर पकड़ लिया। उस
साँड से आदमी ने बाबा को धक्का मार नीचे गिरा दिया। काफी देर
छीना झपटी के बाद हैण्डल जैसी लोहे की छड़ से बाबा के सिर पर
किसी ने वार किया जिससे वे जमीन पर गिर गए। ट्रक ड्राईवर और
सभी आदमी ट्रक भगा कर ले गए। बेहोशी की हालत में बाबा को किसी
ने दूसरे दिन वहाँ गिरे देखा। उठा कर घर लाने के बाद वे सात
दिन बेहोशी की हालत में पड़े रहे और धीरे धीरे शांत हो गए। उनके
जंगल में गिरने और मिलने की कहानी कई तरह से गाँव में कई दिन
तक बखानी जाती रही। कोई कहता, पाँव फिसल कर गिरे, कोई कहता
किसी जानवर ने हमला कर गिरा दिया।
आज भी उसे बाबा की सुनाई एक कहानी नहीं भूलती। जंगल में एक पेड़
था। बहुत ऊँचा, लम्बा, तगड़ा, हरा भरा। एक बच्चा उसका दोस्त था।
वह कभी उसके तने पर आ बैठता, कभी शाख पर। कभी फल तोड़ता, कभी फल
खाता। पेड़ को उसका नन्हा नन्हा स्पर्श बड़ा सुखद लगता। बच्चा
बडा़ हुआ तो एक दिन मायूसी से पेड़ से बोला कि वह अब पढ़ना चाहता
है, उसके साथी स्कूल जाते हैं किंतु उसके पास फीस और किताबें
नहीं हैं। पेड़ ने कहा, कमाल हो गया। देखो, मेरी शाखाओं में
कितने फल लगे हैं, इन्हें तोड़ कर बाजार में बेचो और किताबें ले
लो। बच्चे ने वैसा ही किया और किताबें खरीद रोज स्कूल जाने
लगा। कुछ दिनों बाद वह युवक बन गया और स्कूल के बाद आगे पढ़ने
की इच्छा ले कर पेड़ के पास आया। पेड़ ने कहा, वाह! दोस्त! ये
क्या बात हुई, मेरी टहनियाँ काट कर बेचो और पैसे इकट्ठे कर लो।
उसने पेड़ की मोटी मोटी टहनियाँ काट कर बेचीं और बाहर पढ़ने चला
गया। जब अगली पढ़ाई पूरी हुई तो उसकी इच्छा सात समुद्र पार जाने
की हुई। पेड़ ने उसे अपना मोटा तना भी दे दिया और वह नौका बना
समुद्र पार चला गया। पेड़ का ठूँठ कई दिन तक आँखें गड़ाए इंतजार
करता रहा कि मेरा दोस्त वापिस लौटेगा। दोस्त नहीं लौटा। ठूँठ
में हर साल कोपलें आतीं तो वह सिर उठा कर समुद्र की ओर देखता।
साथी पेड़ उसे समझाते, वह नहीं आएगा। पेड़ कहता, वह अवश्य
लौटेगा। आखिर एक दिन वह लौटा तो उसके साथ और भी बहुत से लोग
थे। उन सब के हाथों पेड़ काटने की मशीनें थीं।
ऑफिस में नये अफसर के आने पर कुछ कर्मचारी वफादार बनते हुए
उसके करीब आने की कोशिश करते हैं। ऐसे ही एक रेंजर उसका
विश्वासपात्र सा बन गया था। रातोंरात लकड़ी के स्लीपरों के कई
ट्रक नाके से पार हो जाते हैं, उसने बताया था। एक शाम उसने
उसकी सीमा में एक चैक पोस्ट से लकड़ी के ट्रक जाने की सूचना दी।
पहले तो विश्वास नहीं हुआ कि क्या पता सूचना सही है भी या
नहीं। क्या पता उसे बेबकूफ ही बनाया जा रहा हो। फिर भी उसने
चुपके से नाकाबंदी कर दी और अपने भरोसे के आदमियों को साथ रख
कर पास के रेस्ट हाउस में ठिकाना बना लिया।
उस इलाके में तो शाम छः के बाद बंदा नजर नहीं आता था। वैसे भी
यह चैक पोस्ट जंगल के निकास पर एक सुनसान जगह में थी।
रात दस बजे के करीब एक ट्रक आया। चैक पोस्ट में लम्बा डण्डा
लगा हुआ था। ड्राईवर ने इंजन बंद किए बगैर खिड़की से मुँह
निकाला और चिल्लाया-"खोल दे ओए पुत्तरा! ट्रक खाली है।" चैक
पोस्ट से दो आदमी टार्चें ले कर आगे बढ़े। ड्राईवर को कुछ खटका
हुआ। दूसरी ओर से एक मोटा आदमी उतरा- "लालाजी का ट्रक है भाई।
पता नहीं आपको। ऊपर से संदेश नहीं आया क्या!"
चैक पोस्ट वालों ने हल्ला कर उन्हें नीचे उतारा। उतने में
रेस्ट हाउस से पूरी फोर्स आ पहुँची। स्थिति बिगड़ती देख ड्राईवर
और मोटा आदमी अन्धेरे में गुम हो गए। एस.एच.ओ. भी साथ था अतः
उसी समय ट्रक को ला कर पास के थाने में लगा दिया गया।
रात ग्यारह बजे वसुन्धरा घर पहुँची तो फोन की घण्टी घनघना उठी।
डिप्टी कमिशनर का फोन था- "मैडम! आप को रात में डिस्टर्ब किया।
अभी अभी मुझे किसी ने बताया है कि आपके महकमे ने लकड़ी का एक
ट्रक पकड़ लिया है।"
"अच्छा! कहाँ!" एकदम अनजान बन गई वसुन्धरा।
"यहीं, किसी पास के नाके पर। उसे रिलीज कर दीजिए। आपको पता
नहीं वह किसका है।"
"अच्छा!..यदि पकड़ा गया है तो किसी का भी हो, छूटना मुश्किल
है।" उसने दृढ़ता से कहा।
"देखिए, आप नई नई हैं सर्विस में। अभी आप को पता नहीं है। ये
लालाजी का माल है। लालाजी यहाँ के मन्त्रीजी के करीबी हैं। वे
फॉरेस्ट सेक्रेटरी के भी करीबी हैं। उनका फोन भी आपको आने वाला
होगा।"
"चलो, फोन आएगा तो देख लेंगे।" कह कर वसुन्धरा ने फोन काट
दिया।
फोन का चोंगा उठा कर नीचे रख दिया। रात करवटें बदलते काटी। बार
बार लग रहा था लगातार घण्टी बजती जा रही है।
उसे खटका हुआ, कहीं दबाब में आ कर ट्रक छोड़ना न पड़े। ऑफिस
पहुँचते ही उसने एक खबर बनाई और अखबारों को दे दी। शाम तक कई
पत्रकारों के फोन आ गए। अगले दिन अखबारों में मोटे हैडिंग लगा
कर यह खबर छापी-
"वसंतपुर चैकपोस्ट पर लकड़ी के स्लीपरों से भरा ट्रक पकड़ा गया।
मौके से ड्राईवर तथा मालिक फरार। ट्रक पुलिस के कब्जे में रखा
गया है। यह ट्रक इलाके के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का माना जा
रहा है किंतु अभी तक किसी ने भी इस पर अपना क्लेम नहीं जताया
है। इस घटना से इतना तो सिद्ध होता है कि इस इलाके में जंगल
माफिया सक्रिय है। वनमण्डलाधिकारी वसुन्धरा चौधरी ने बताया इस
तरह लकड़ी की तस्करी को बरदाश्त नहीं किया जाएगा और सभी नाकों
पर दिन रात चैंकिंग को और कड़ा कर दिया जाएगा।"
अगले दिन जिलाधीश की अध्यक्षता में होने वाली मासिक शिकायत
समिति की बैठक के लिए चौगान से गुजरी तो सभी उसे देख रहे थे।
मीटिंग में उसके आने पर जिले के अफसर खुसर फुसर करने लगे। उस
बैठक में स्थानीय विधायक भी
आए हुए थे। किसी ने भी एक
दुःस्वप्न की तरह उस घटना का जिक्र नहीं किया। विधायक ने उसकी
उपस्थिति का नोटिस ही नहीं लिया।
जब्त किया ट्रक कई दिन तक पुलिस थाने खड़ा रहा। अंत में लकड़ी
नीलाम कर दी गई। एक रात ट्रक वहाँ से गायब हो गया।
बहुत जल्दी यथास्थिति कायम हो गई। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। |