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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से गोविन्द उपाध्याय की कहानी- एक टुकड़ा सुख


रिक्शा स्टैण्ड पर उसने रिक्शा खड़ा करके अपना पसीना पोंछा। नगरपालिका के नल से चंद घूँट पानी निगलने के पश्चात उसके गले की जलन तो शांत हो गई, लेकिन खाली पेट में पानी का प्रवेश पाकर, आमाशय विद्रोह कर उठा। पेट के मरोड़ को सहन करने के साथ ही वह अपने धचके हुए पेट को सहलाने लगा। उसे अपने रिक्शे की तरफ आती दो युवतियाँ दिखायी दीं। अंग्रेजी सेंट की खुशबू उसकी नाक में समा गयी। वह गहरी साँस के साथ, ढेर सारी खुशबू फेफड़ों में समा लेना चाहता था, किंतु फेफड़ों ने साथ ही नहीं दिया। वह पास आती युवतियों को देखता हुआ अपने व्यवसायिक अंदाल में बोल पड़ा- ‘आइए मेम साहब, कहाँ चलेंगी?’
‘इम्पीरियल टाकीज।’
‘आइए बैठिए।’
‘कितने पैसे लोगे?’
‘दस रुपए।’
अरे नहीं। बहुत ज्यादा है। पाँच रुपये लोगे?
वह कुछ सोचने के लिए रुका था कि सवारियों को आगे बढ़ता देख बोल पड़ा, ‘आइए बीबी जी चलते है।’

रिक्शा महानगर की टूटी-फूटी उबड़-खाबड़ सड़कों पर चल पड़ा। कॉलेज की सवारियाँ थी। पास के किसी कॉलेज की लगती थीं। अभी सात ही बजे थे पर धूप तेज थी। उसने गमछे को सिर पर लपेट रखा था। गमछे का एक सिरा कंधे पर झूम रहा था जो जरूरत पड़ने पर मुँह पोंछने के काम आ सकता था। लड़कियाँ लगातार बोल रही थीं। वे अपने कॉलेज के अध्यापक और लड़कों की बातें करने में व्यस्त थी। बीच-बीच में परीक्षा की भी बातें करतीं। उसे सवारियों की बातों में कोई रुचि नहीं थी। सामने आती-जाती भीड़ से अपने रिक्शे को बचाता हुआ वह गन्तव्य की तरफ बढ़ रहा था। चेहरे पर पसीने की बूँदे आने लगी थीं, जिन्हें वह गमछे से बीच-बीच में पोंछ लेता और पपड़ी आए होंठ को जुबान से चाटने लगता। भूखा होने कारण दिमाग भाँय-भाँय कर रहा था। वह सोच रहा था- पैसा मिलने पर पहले कुछ खाएगा फिर नई सवारी खींचेगा।

इम्पीरियल टाकीज आ गया। सवारियाँ उतर गईं। उसके हाथ में पाँच रुपये थे। अब वह कुछ तो खा ही सकता था। पास के ही होटल से उसने दो रोटियाँ लीं और फ्री चालू दाल। काँटे होते गले से पहला निवाला बिन चबाए निगलना चाहा। उसका मन कडुआ गया। अगर परसों वह निहाल से जुए में सब पैसे न हार गया होता तो उसकी इतनी खस्ता हालत कदापि न होती। फिर कल रिक्शा-मालिक ने रिक्शा भी तो नहीं दिया था। यदि रिक्शा ही मिल गया होता तो चौबीस घंटे का फाँका न मारना पड़ता। वह रिक्शा कंपनी बदल देगा। मालिक ऐंठू है। जरा-जरा सी बात पर पिनक जाता है और रिक्शा देने से मना कर देता है।

‘साला खजहा पिल्ला।’ वह मन ही मन बड़बड़ाता। रोटी का स्वाद उसे कसैला लग रहा था। आज सुबह जल्दी-जल्दी रिक्शा स्टैण्ड की तरफ आते समय पुलिस वाले का संकेत न समझ पाने के कारण उसे डंडे से मार खानी पड़ी थी। उसे अपनी रीढ़ में दर्द की हल्की लहर सी उठती महसूस हुई। रोटियों के हर टुकड़े के साथ उसे अपनी लाचारी और बेबसी पर खीझ होती जा रही थी- ‘साला अपने लोगों की जिन्दगी गटर के कीड़े माफिक है। जिसे सिर्फ बदबू व सड़ांध ही पसंद है। साफ-सथुरा जीवन तो जी ही नहीं सकता...’ उसे अपनी माँ का चेहरा याद आया फिर बाप का। स्मृतियों की आँधी का एक झोंका सा चला...

‘तेरा बाप पूरा लंपट था। साले के पास अच्छी-खासी नौकरी थी। मिल की पक्की नौकरी, पर शराब और औरतखोरी से बचे तब न। इन दोनों लतों ने ही उसको खलास कर दिया’ किसोरी काका जैसे न जाने कितने लोग उसके बाप के बारे में ऐसी बातें करते रहते हैं।

वह अपने बाप का चेहरा याद करने लगता है और तब लंबा-तगड़ा, बड़ी-बड़ी मूछों और चेचक के दागों से भरा आबनूसी चेहरा उसके सामने आ जाता है- रात को शराब के नशे में अपने ही बोझ को न ढो पाने वाले कदमों से घर में पाँव रखता, फिर माँ पर बहशी जानवरों के माफिक टूट पड़ता... कुछ देर बाद बाप की खर्राटों की आवाज गूँजा करती और घंटों माँ की सिसकियाँ। वह सहमा सा कथरी में दुबका रहता था।
उस दिन उसका बाप घबराया सा आया था। न तो उसकी आँखे लाल थीं और न ही पैर डगमगा रहे थे। हमेशा तनी रहने वाली मूँछें भी कुत्ते की दुम के समान लटकी हुई थीं। डर बाप के चेहरे पर चिपका था। उसके सिलबट्टे जैसे खुरदरे चेहरे पर मौत का आतंक था। तब उसे अपना बाप कसाई के सामने खड़े निरीह पशु सा लग रहा था। पुलिस आई थी। बात-बात पर शेर सा दहाड़ने वाला उसका बाप घिघियाता सा उनके साथ चला गया।

माँ बहुत रोई थी। उसे माँ पर आश्चर्य हो रहा था। भला उसे रोने की क्या जरूरत। उसे तो खुश होना चाहिए था जो उसे मारने वाला कोई नहीं रहा।
‘तेरा बाप अच्छा आदमी नहीं था। उसका किसी औरत से संबंध था। औरत के मरद ने दोनों को रंगे हाथों पकड़ लिया था। फिर मार-पीट हुई और तेरे बाप ने गुस्से में उस आदमी को चाकू भोंक कर मार डाला था। साला औरत-खोर...’ जब भी उसके बाप की चर्चा होती, मुहल्ले वाले उसके बाप के बारे में ऐसी ही बातें करते थे।
माँ ज्यादा दिन अकेली न रह सकी। पास की चाल वाला किसोरी काका मानो बाप के जाने का इंतजार कर रहा था। अब वह अक्सर रात में आ जाता। वह भी बाप की तरह शराब पीता था, पर माँ के लिए बाप जैसा निष्ठुर नहीं था। अब माँ की सिसकियाँ नहीं, बल्कि रात के सन्नाटे में उसकी फुसफुसाहटें और किसोरी के ठहाके गूँजा करते थे।

किसोरी के लिए वह एक बदनुमा दाग था। अक्सर उसके हाथों मार खा जाया करता। उस दिन फट पड़ा था किसोरी, ‘हरामी पूरा सँपोलिया है। तू इसे दफा काहे को नहीं करती रे जानकी। ससुरा धींगड़ा हो गया है। कहीं भी दो रोटी कमाने के लिए काफी है।’
किसोरी की लात उसके कमर पर लगी थी। वह दर्द से बिलबिला उठा था। माँ बेबसी से देखती रही और किसोरी...
किसोरी की लातों का भय या फिर भूख की तड़प से वह फुटपाथ के किनारे पर बने होटल में कप-प्लेट धोने लगा। तब पहली बार उसे लगा था कि सुअर जिस प्रकार दिशा मैदान जाते लोगों के मल से अपनी पेट की आग शांत करते हैं, वह भी कुछ ऐसा ही कर रहा है।

जाड़े की सर्द रातों में ठंडे पानी से अकड़ी अंगुलियाँ व होटल वाले की माँ-बहन की गालियों के मध्य वह कब जवान हुआ, यह तो वह तब जाना, जब उसकी बैठक मारिया आंटी के घर पर उनकी लौंडियों के बीच शुरू हुई। मारिया आंटी की पाँच लड़कियाँ थीं। जूही, वैशाली, संध्या...। संध्या तीसरे नंबर की थी। वह प्लाजमा शू में काम करती थी। ढलाई किए हुए रबर सोलों के किनारे फैले अतिरिक्त रबर को काटती थी। उसके शरीर से भी रबर की गंध आती। साँवली दुबली-पतली संध्या उसे अच्छी लगती थी। उसने सोचा था, जब उसके पास पैसा होगा, वह उसके साथ शादी करेगा। पर वह तैयार नहीं थी। वह जूठा धोने वाले से शादी नहीं करना चाहती। तभी तो वह रिक्शा चलाने लगा था।
‘ओह मेरी प्यारी संध्या।’

संध्या के नाम के साथ उसके दिमाग में झन् सा हुआ और होंठों पर मुस्कराहट की एक रेखा आ कर गुजर गयी।
'अबे बेंच खाली करेगा या यों कहूँ कि तेरे को यहीं डेरा डाले रखना है।’ होटल वाले ने हाँक दी और वह यादों के भँवर से बाहर आ गिरा। रोटियाँ उसके प्लेट में नहीं थी। वह उन्हें कब का अपने दोजख में डाल चुका था। अध भरे पेट को पानी से भरने के बाद वह ढाबे से बाहर आ गया।
‘ऐ रिक्शा स्टेशन चलोगे?’

उसने देखा पति-पत्नी अपने नवजात बच्चे को गोद में लिए खड़े थे। साथ में कुछ सामान था।
हाँ चलेंगे बाबूजी।’
‘पैसे बोलो।’
‘तीस रुपये।’ हालाँकि यहाँ से पंद्रह रुपये से ज्यादा मिलने की आशा नहीं थी, पर अब उसे कोई चिन्ता नहीं थी। दोपहर तक उसका काम चल ही सकता था।
‘बहुत ज्यादा है। सही बोल भाई।’
बाबूजी इतना ही तो स्टेशन तक किराया है। आप तो जानते ही हैं, इधर की सड़क अच्छी नहीं है। क्या करें मजबूरी है।’
‘बीस रुपये दे पायेंगे।’ आदमी ने लाचारी से कहा।
‘अरे नहीं साहब, यह तो बहुत कम है। आप अट्ठाईस दे दीजिएगा।’
‘चलो पच्चीस ले लो...।’

उनकी बातों से वह समझ गया औरत मायके जा रही थी। उसका पिता बीमार था। वह पिता को याद करके रुआँसी हो जाती। उसका पति बार-बार उसे समझा रहा था- धबराओ मत, सब ठीक हो जायेगा। इस उम्र में हारी-बीमारी तो लगी ही रहती है।

अब गरम हवा बहने लगी थी। उसने गमछे से मुँह के अधिकांश हिस्से को ढक लिया था।
बीस मिनट पश्चात स्टेशन के रिक्शा स्टैण्ड पर उसका रिक्शा खड़ा था। उसने पान की गुमटी से बीड़ी का बंडल लिया और उससे एक बीड़ी निकाल कर सुलगाई। बीड़ी के लंबे-लंबे दो-तीन सुट्टे मारने के बाद उसने थोड़ा हल्का महसूस किया- ‘बोहनी ठीक ही थी। अभी तो साढ़े ग्यारह ही बजा था, पूरा दिन बाकी था।’

पेट में रोटी जाने के बाद उसके शरीर में स्फूर्ति आ गयी थी। अब वह पहले सा निरीह नहीं लग रहा था। उसके जेब में पैसे थे, जिनका उपभोग वह कर सकता था।
‘ऐ बेटा...निशा नर्सिग होम चलोगे?’
उसने देखा, एक बूढ़ी औरत गोद में डेढ़-दो साल का बच्चा लिए थी। साथ में छोटा सा घूँघट काढ़े नौजवान औरत थी। उसको समझते देर नहीं लगी कि दोनों सास-बहू हैं।
वह पिछली सीट पर बड़े आराम से बैठा था। उसे कोई जल्दी नहीं थी। वह बड़े लापरवाही से बोला- ‘पंद्रह रुपये...।’
बुढ़िया ने कोई प्रतिवाद नहीं किया- ‘ठीक है बेटा, जरा जल्दी चलो। मेरे बच्चे की हालत अच्छी नहीं है।’
वह फूर्ति से उठा- ‘आइए माता जी...।’

निशा नर्सिग होम का दस मिनट का रास्ता था। उसने रिक्शे का छज्जा तान लिया था। बहू खामोश थी। बुढ़िया जरूर बीच-बीच में भगवान को गुहार लगा ले रही थी। बच्चे की कोई आवाज नहीं थी। वह पूरे जोर से रिक्शा के पैडिल पर पैर चला रहा था। चिलचिलाती धूप में वह पसीने से लथपथ था। उसके बावजूद अपनी रफ्तार में कोई कमी नहीं लाना चाहता था। उसके भी मन में बुढ़िया के बच्चे के लिए प्रार्थना की। कुछ देर में ही रिक्शा नर्सिग होम के सामने खड़ा था।

बुढ़िया रिक्शे से उतरते ही नर्सिग होम की तरफ भागी। बहू उसे पैसे देने के लिए ठिठकी।
‘बहन जी पहले बच्चे को दिखा लें। मैं उस पेड़ के पास खड़ा हूँ। वह हाँफते हुए बोला। बहु भी नर्सिग होम के भीतर चली गई। वह सिर पर रखा गमछा खोलकर पसीना पोंछने लगा। कुछ देर तक नर्सिग होम के मुख्य द्वार को घूरता रहा। फिर पेड़ के पास रिक्शा लगा कर खड़ा हो गया। पेड़ की छाँव उसे सुखकर लगी। उसे अब कमजोरी महसूस हो रही थी। सवारी से पैसे मिलने के बाद वह सबसे पहले कुछ खायेगा।

उसे पंद्रह मिनट इंतजार करना पड़ा। बच्चे को बहू छाती में चिपकाए हुए थी। उसका घूँघट अब गिरा हुआ था। बुढ़िया बहू को सँभाले थी। वह रिक्शा लेकर सामने आ गया। उसे समझते देर नहीं लगी कि बच्चा मर चुका है।

बुढ़िया भर्राए स्वर में बोली, ‘बेटा वापस ले चलो। मेरा बच्चा नहीं रहा।’ बुढ़िया की आँखे फिर डबडबा गईं। बहू बाइस-तेइस की बहुत ही सुंदर लड़की थी। वह धीरे-धीरे रो रही थी। अब उसे पर्दे की बिल्कुल चिंता नहीं थी। उसे अचानक माँ याद आ गयी।

उसका मन भीग गया। बुढ़िया डॉक्टर को कोस रही थी- ‘हरामी तीन दिन से बेवकूफ बना रहा था। ढ़ाई-तीन हजार झटक लिया। बच्चा भी मेरा बचा नहीं। आज भी..। मरने के बाद, कुत्ते ने पाँच सौ ले लिये।’

बच्चे को उल्टी-दस्त की शिकायत थी। तीन दिन में भी दस्त नहीं रुका और आखिरकार वह मर गया।

बुढ़िया का घर आ गया था। घर लेबर कालोनी का छोटा सा मकान था। सामने ही खुली हुई बजबजाती नाली थी। बुढ़िया पैसे देने के लिए ब्लाउज से रुमाल निकालने लगी। बहू ने घर पहुँचने के बाद खुल कर रोना शुरू कर दिया था।

उसने बुढ़िया को मना कर दिया, ‘रहने दो माँ जी। आप से अब क्या पैसे लेना... आप बहू को सँभालिए। उस बेचारी की गोद सूनी हो गई है।’

उसने रिक्शा आगे बढ़ा दिया। अभी कुछ दूर ही चला होगा कि एक वृद्ध दंपति ने उसे आवाज दी। उन्हें विकास नगर जाना था। उसने सवारी से कोई मोल भाव नहीं किया- ‘जो मर्जी हो दे दीजियेगा।’

बुढ़िया पैसा तय करने के बाद ही रिक्शे पर बैठना चाहती थी पर बूढ़े की कड़क आवाज से वह कुनमुना कर रह गयी। वृद्ध दंपति अपनी बेटी के घर जा रहे थे। किसी बच्चे का अन्नपरासन था। शायद उनके नाती का.....। बुढ़िया बच्चे को कोई महँगा गिफ्ट देना चाहती थी पर बूढ़ा उन्हें कैश देना चाहता था ताकि बेटी अपनी मनमर्जी का सामान खरीद सके। खुर्राट बुढ्ढे के आगे बुढ़िया बेबस थी और इस समय भी वह यही उलहना दे रही थी- ‘अपने हाथों कोई सामान खरीद कर देते तो लोग-बाग देखते भी..।जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?’

बुढ्ढे ने पैसे उसे आशा से ज्यादा ही दिये थे। साथ में मुस्कराया भी था। उसे अच्छा लगा। थोड़ी देर बाद ही वह एक रास्ते से होटल के सामने था। उसने खाना खाया और फिर बाहर निकल कर सवारी का इंतजार करने लगा। दो बज रहे थे। सड़क सुनसान थी। इसके बावजूद उसे मालूम था- कुछ देर में उसे नई सवारी मिल जायेगी और तभी उसे सवारी आती दिखाई दी।

शाम होते-होते उसकी जेबें भारी हो गयी थी और वह थकावट से बेहाल था। इस समय पूरे चार सौ बासठ रुपये थे अब उसके पास। पचास रुपये रिक्शे का भाड़ा शेष अपने। उसने मलाई वाली प्योर दूध की चाय और दो खस्ते के साथ एक लम्बी डकार ली और डूबते सूरज को विदा किया। वह अब खुश था- ‘आज फड़ पर निहाल को ऐसा धोबिया पाठ मारूँगा कि नेकर गीली हो जायेगी। उसी साले के कारण चौबीस घंटे का फाँका मारा हूँ।’

पास ही देशी ठेके की दुकान थी। उसने एक अद्धी रिक्शे की गद्दी के नीचे गमछे में लपेट कर छिपाई और गुनगुनाता हुआ रिक्शा कंपनी की तरफ चल पड़ा...।

२३ फरवरी २०१५

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