"रात वह होती है जब तुम सोए हुए
हो और तुम्हारे भीतर अँधेरा भरा हो। "
-- अपनी ही डायरी में से।
आजकल मेरे लिए सारे दिन रातों जैसे हैं। भरी दुपहरी है। फिर भी
चारों ओर अँधेरा है। आकाश लोहे की चादर-सा मेरे ऊपर तना है।
भीतर एक अचीन्हा-सा दर्द है। बाहर एक अनाम-सी उदासी है। मेरी
जेब ठंडी है। आँखों में अँधेरा है। सीने में रात है। दुख मेरे
पैरों में लिपटा है। मेरे सिर पर बेकारी का कँटीला ताज है।
बेरोज़गारी की मार मुझ पर भी पड़ी है। मैं सड़क पर आ खड़ा हुआ
हूँ। कहीं कोई नौकरी मुझे नहीं तलाश रही। मेरे चारों ओर एक
उदास धुन-सा बजता हुआ यह समय है। और इस अनिश्चित समय की
उपज मैं हूँ।
अब मैं भीड़ में अकेला हूँ। अपनों के बीच एक अजनबी हूँ। समय
मुझे बिताता जा रहा है। मैं यूँ ही व्यतीत हो रहा हूँ। मेरा
होना भी जैसे एक 'नहींपन' में बदलता जा रहा है। लगता है जैसे
सारे धूसर और मटमैले रंग मेरे ही हिस्से में आ गए हैं और दिन
एक बदनुमा दाग़-सा मेरे चेहरे से आ चिपका है। मेरा वर्तमान
जीवन के ताल पर फैली हुई काई बन गया है। अब मेरी हर सुबह के
भीतर रात की कराहें दफ़न हैं। मेरे तन-मन में हताशा की गंध है।
जैसे समय की आँत में एक फोड़ा उग आया है। जैसे एक ब्लैक-होल
है, जिसमें मैं गिरता जा रहा हूँ।
कुछ माह पहले तक मेरे पास नौकरी थी। जीवन में हरियाली थी। साथ
देने के लिए मेरी प्रेमिका छवि थी। अब बीते दिनों की यादें
हैं। अवसाद है। और ठंडा पसीना है। अनायास ही ग़ुलाम अली की गाई
हुई एक उदास ग़ज़ल याद आ जाती है -- "चमकते चाँद को टूटा हुआ
तारा बना डाला ...। "
शाम के साये गहरे हो रहे हैं। मैं इंडिया गेट से कुछ दूर घास
पर बैठा हूँ। एक सिगरेट मुझे कश-कश पी रही है। मेरी आँखों में
बुझ चुके सूरज के कुछ उदास क़तरे जमा हैं। मेरे बगल में दुग्गल
बैठा है। उसकी हालत भी मेरे जैसी ही है। हम दोनों एक ही कम्पनी
में काम करते थे। अब दोनों बेरोज़गार एक साथ सड़क की धूल फाँक
रहे हैं। उसे भी मेरे ही साथ कम्पनी से निकाल दिया गया। वजह
बताई गई -- ग्लोबल रिसेशन। आर्थिक मंदी, जिसने हम जैसे सैकड़ों
बदक़िस्मत लोगों की नौकरियाँ लील ली हैं।
"अब कम्पनी सरप्लस-स्टाफ़ एफ़ोर्ड नहीं कर सकती!" कम्पनी का
सपाट-सा जवाब था।
"प्रगति मैदान में वर्ल्ड बुक फ़ेयर चल रहा है।" दुग्गल सूचना
देता है। उसे भी मेरी तरह ही पढ़ने-लिखने का शौक़ है। लेकिन हम
जानते हैं कि कि हमारी जेबों में किताबें ख़रीदने लायक पैसे
नहीं हैं। मैं कुछ नहीं कहता हूँ। दुग्गल सूखे बीज-सी बजती हुई
मेरी चुप्पी को सुनता है। फिर उसका बदरंग मौन भी मेरी उस
चुप्पी में शामिल हो जाता है।
हमारे चारों ओर शोकगीत-सा कानों में बजता हुआ झुटपुटा है। हमसे
थोड़ी दूरी पर दिल्ली का ट्रैफ़िक बदस्तूर बह रहा है। दिन भर
भटकने के बाद अब थकान हम पर हावी है। कुछ देर बाद हम दोनों
अपने-अपने दड़बों में लौट जाएँगे। नौकरी के लिए भटकने का यह
सिलसिला न जाने कब तक जारी रहेगा। फिर से ग़ुलाम अली की गाई एक
ग़ज़ल याद आ जाती है -- "ये दिल, ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ
गया, आवारगी ...।" इसी वजह से आजकल मेरा छवि से भी मिलना-जुलना
नहीं हो पा रहा है।
साल भर पहले छब्बे भाई के दफ़्तर में पहली बार मैं तीखे
नैन-नक़्श वाली एक पतली-दुबली पंजाबी लड़की से मिला था। पूछने
पर पता चला कि उसका नाम छवि मिन्हास था। छब्बे भाई आदिवासी
लोगों के कल्याण के लिए एक एन.जी.ओ.
चलाते हैं। छवि उसी में काम करती है। छब्बे भाई ने बताया कि
उसकी रुचि साहित्य में भी थी।
"तुमने सुरजीत पातर को पढ़ा है?" शुरुआती बातचीत में ही छवि ने
मुझसे पूछ लिया था।
छब्बे भाई ने उसे मेरे बारे में बताया कि कि ये भी कविताएँ
लिखता है।
"अच्छा! कभी मुझे भी सुनाना।" उसने कहा था।
धीरे-धीरे हम मिलने-जुलने लगे थे। छवि को मेरी कविताएँ अच्छी
लगी थीं। ख़ास करके 'यह सच है' शीर्षक वाली मेरी यह कविता --
"रसोई के चाकू
से ले कर
परमाणु बम तक
सभी अस्त्र-शस्त्र
बेमानी हैं
प्रतिदिन हम
उपेक्षा से
एक-दूसरे की
हत्या करते हैं।"
समय बीतने के साथ-साथ हम दोनों एक-दूसरे की ओर आकर्षित होने
लगे थे। कई बार छुट्टी वाले दिन छवि मुझसे मिलने लक्ष्मीनगर
में मेरे किराए के मकान पर आ जाती। कभी-कभी वह बहुत बढ़िया
छोले-पूरी या राजमा-चावल बना कर मुझे खिलाती और मुझे अपनी
कुकिंग का दीवाना बना लेती। या हम कभी-कभी कनॉट प्लेस में
मिलते। दिल्ली दरबार या वोल्गा में लंच करते। फिर कहीं और अपनी
फ़ेवरिट कसाटा आइसक्रीम खाते। और जनपथ पर यूँ ही टहलते रहते।
लोग पूरा बाज़ार ख़रीद कर अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भरकर
अपने घर ले जा रहे होते। मैं भी छवि को अक्सर कोई-न-कोई
प्यारा-सा गिफ़्ट ख़रीद कर दे रहा होता। लेकिन यह सुखद दिनों
की बात थी जब मेरी नौकरी नहीं छिनी थी। हम दोनों कविताओं और
कहानियों के बारे में भी चर्चा किया करते। बाक़ी बचे समय में
हम एक-दूसरे के चेहरों में अपने लिए आइना ढूँढ़ते रहते और समय
का पता ही नहीं चलता ...
"चल यार, चलते हैं। देर हो रही है।" दुग्गल मेरे कंधे पर हाथ
रखकर कहता है। मैं चौंककर वर्तमान में लौट आता हूँ। अँधेरा रात
के कोनों को कुतरने लगा है। हवा में ठंड की खनक है। अपने
कपड़ों को हाथ से झाड़ते हुए हम घास पर से उठ खड़े होते हैं।
इत्तिफ़ाक़ से बस-स्टॉप पर पहुँचते ही मुझे लक्ष्मीनगर की बस
मिल जाती है।
"कल मिलते हैं।" मैं भीड़ में दबा हुआ अपना हाथ किसी तरह हिला
कर कहता हूँ। जवाब में दुग्गल भी अपना ख़ाली हाथ मेरी ओर हिला
देता है। जीवन के कैलेंडर के एक और दिन ने मुझे ख़र्च कर लिया
है। मेरी आयु में से एक और दिन कम हो गया है।... सीने में जलन
, आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है? इस शहर में हर शख़्स
परेशान-सा क्यों है? " बस में किसी ने अपने मोबाइल फ़ोन पर
एफ़. एम. रेडियो लगा दिया है। सुरेश वाडेकर की उदास आवाज़ बस
में तैर रही है ...
अपने किराए के मकान पर पहुँच कर मैं बिस्तर पर निढाल हो कर गिर
जाता हूँ। एक पर-कटे पंछी-सा। तभी बिस्तर पर पड़े मोबाइल फ़ोन
पर मेरी नज़र जाती है। अपना मोबाइल फ़ोन मैं यहीं छोड़ गया था।
उसमें छवि के दस-ग्यारह मिस्ड कॉल पड़े हैं। ज़हन में
स्मृतियों की लहर झनझनाती है। लेकिन छवि से बात करने की हिम्मत
नहीं है अभी। बेकारी के इन दिनों में लिखी अपनी ही एक कविता
याद आती है। छवि को उसके ई-मेल ' minhas_chhavi@gmail.com 'पर
अपनी वही कविता पोस्ट कर देता हूँ। कविता का शीर्षक है- 'डर'
--
"तुम डरती हो
तेज़ाबी बारिश से
ओज़ोन-छिद्र से
मैं डरता हूँ
उपेक्षा की नज़रों से
अलगाव की टीस से
तुम डरती हो
रासायनिक हथियारों से
परमाणु बमों से
मैं डरता हूँ
बदनीयती के रिश्तों से
धोखे के सर्प-दंशों से
तुम डरती हो
एड्स से
कैंसर से मृत्यु से
मैं डरता हूँ
उन पलों से
जब जीवित होते हुए भी
मेरे भीतर कहीं कुछ
मर जाता है"।
छवि को अपनी कविता भेज कर मैं आँखें मूँद लेता हूँ। दो मिनट
बाद ही मेरे ई-मेल पर छवि का जवाब आ जाता है -- "कहाँ हो तुम
इन दिनों? कल मिलो। और हाँ, ग्रेट पोएम। इसीलिए तो मैं
तुम्हारी फ़ैन हूँ, मेरे पोएट-फिलॉस्फ़र!
लव यू। बाय!"
मोबाइल फ़ोन रखकर सोने की अधमरी कोशिश करता हूँ किंतु कानों
में कई स्वर बजने लगते हैं --
" डोंट यू थिंक, यू आर टू ओल्ड नाउ फ़ॉर अ गवमेंट जॉब?"
"आप अपनी कम्पनी के लिए काम के नहीं होंगे तभी तो उन्होंने आप
को नौकरी से निकाल दिया! फिर हम आप को अपनी कंपनी में क्यों
रखें?"
" मिस्टर प्रशांत, यू आर ओवर-क्वालिफ़ाइड फ़ॉर दिस जॉब।
सॉरी"...
नींद आँखों के लिए अजनबी बनी रहती है। और तब केवल छवि की यादों
का ही सहारा बचता है। ज़हन में बीते हुए दिनों की फ़िल्म चलने
लगती है ...
अलगनी पर फैले धुले कपड़े-सी थी वह सुबह। उस दिन जब छवि घर आई
तो हम दोनों एक मद्धिम आँच में जल रहे थे। अपने-अपने अक्षत
कुँवारेपन में दहकते हुए। दो पावन तन-मन एक-दूसरे को ब्रेल
लिपि में लिखी अपनी प्रिय किताब-सा उँगलियों से पूरा पढ़ लेने
को बेताब थे। हमारा पहला चुम्बन जादुई था। हमारा पहला मिलन
तिलिस्मी। उस स्पर्श से हमारे तन-मन में हज़ारों सूरजमुखी खिल
उठे थे। उसके बाद तो हर बार हम एक नई भाषा और नए शिल्प में
अपने मिलन की कथा लिखते थे। हम एक-दूसरे को जितना अधिक पीते
थे, हमारी प्यास उतनी ही बढ़ती जाती थी।
कभी वह शहद-सी होती, कभी चाशनी-सी, कभी गुड़-सी, कभी गन्ने-सी,
कभी खोए-सी, कभी मलाई-सी। कभी वह पायल की झंकार-सी होती, कभी
पियानो-सी, कभी वायलिन-सी , कभी माउथ-ऑर्गन-सी , कभी
जलतरंग-सी। कभी वह भोर-सी होती, कभी गोधूलि-सी, कभी
शिखर-दुपहरी-सी, कभी गुलज़ार रात-सी। कभी वह शोलों-सी होती,
कभी शबनम-सी, कभी
सरगम-सी, कभी मधुबन-सी।
हम जितना अधिक एक -दूसरे में डूबते जाते, उतने ही अच्छे तैराक
बनते जाते। हमारा तन-मन एक मीठे दर्द से भर जाता। तब उसकी
आँखों में उतर आए आकाश का रंग गहरा नीला हो जाता और मेरी आँखों
में हहराता समन्दर शीशे-सा पारदर्शी लगने लगता। तब धरती की
हरियाली ज़रा और बढ़ जाती और क्षितिज हमसे बस दो क़दम दूर
लगता। तब दिन भर गुनगुनाते रहने का मन करता और रात की देह पर
गिरी ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकतीं। तब हमारे भीतर वसंत की
ख़ुशबुएँ महकने लगतीं और एक-दूसरे के भीतर टहलते हुए हम जागती
आँखों से सपने देख रहे होते ...
हमने तय कर लिया था कि कुछ महीने बाद हम शादी कर लेंगे।
हालाँकि हम दोनों के घरवालों ने इस रिश्ते को ले कर ज़्यादा
उत्साह नहीं दिखाया था। लेकिन अब मेरी बेकारी की ख़बर को वे
किस तरह लेंगे? और छवि क्या सोचेगी जब उसे पता चलेगा कि मेरी
नौकरी अब नहीं रही? " एक तो चेहरा, ऐसा हो, मेरे लिए जो सजता
हो...।" ग़ुलाम अली की गाई हुई एक और ग़ज़ल याद आ जाती है।
क्या छवि एक बेकार, बेरोज़गार से भी प्यार करेगी?
आज नींद आँखों के लिए अजनबी बनी हुई है। बिस्तर पर लेटे-लेटे
कुछ अजीब-से विचार मन में आने लगते हैं ...
जान, यदि सम्भव होता तो एक दिन मैं तुम्हारे मोबाइल फ़ोन में
समा जाता। तुम्हारे कोमल हाथों में रहता। तुम्हारी सुगंधित
साँसों के पास आ जाता। तुम्हारे जाने बिना तुम्हारे बालों की
लटें सहला जाता। मोबाइल से निकल कर चुपके से तुम्हारे रसीले
होठों को चूमता और दोबारा मोबाइल में चला जाता। तुम चौंक जाती।
अपने आस-पास मेरी जानी-पहचानी ख़ुशबू पाती। लेकिन मैं तुम्हें
कहीं नहीं दिखता। तुम थोड़ा हैरान-परेशान हो जाती। और जब तुम
थक जाती, मैं किसी प्यारे रिंग-टोन-सा बजने लगता तुम्हारे
आस-पास। तुम उस रिंग-टोन में बजती मेरी आवाज़ को पहचान कर विकल
हो जाती। मुझे अपने चारों ओर ढूँढ़ती पर कहीं नहीं पाती
क्योंकि ठीक तभी तुम्हारे मोबाइल के भीतर बैठा मैं तुम्हारे
'सर्विस-प्रोवाइडर'
से मिलने चला जाता।
जान, यदि यह सम्भव होता तो एक दिन मैं तुम्हारी स्मृति की
इमारत में चुपचाप प्रवेश कर जाता। वहाँ बेड-रूम में गद्दे पर
मेरा धड़ आराम फ़रमाता। ड्राइंग-रूम में मेरी आँखें तुम्हारे
प्रेम-पत्र पढ़ रही होतीं। रसोई में मेरे हाथ तुम्हारे लिए
चाय-नाश्ता बना रहे होते। जूतों में पड़े मेरे पैर पास पड़ी
तुम्हारी चप्पलों से गुटर-गूँ कर रहे होते।
उधर मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते तुम मेरे किराए के मकान पर चली जाती।
दरवाज़े के पास मेरे पैरों के निशान पड़े होते। विकल हो कर तुम
मुझे उन निशानों में ढूँढ़ती, पर मुझे वहाँ नहीं पाती।
तुम्हारे पास मेरे मकान की दूसरी चाबी है। तुम भीतर आ जातीं
स्टडी-टेबल पर पड़ी क़लम में मेरी उँगलियों की ख़ुशबू होती।
तुम मुझे उस ख़ुशबू में ढूँढ़ती, पर मुझे वहाँ नहीं पाती।
शेल्फ़ पर पड़ी डायरी में मेरे ज़हन के विचार पड़े होते। तुम
मुझे उन विचारों में भी ढूँढ़ती, पर मैं वहाँ भी नहीं होता। तब
मैं चिल्ला कर कहता -- "जानू, इस समय मैं तुम्हारी स्मृतियों
में बैठा हूँ।" लेकिन तुम्हें मेरी आवाज़ नहीं सुनाई देती। तुम
मुझे फ़ोन लगाती पर उस रूट की सभी लाइनें व्यस्त पाती ...
मेज़ पर पड़ा आज का अख़बार उठा लेता हूँ। हेडलाइन्स चीख़-चीख़
कर बता रहे हैं- देश के हर कोने में किसान आत्म-हत्या कर रहे
हैं। महँगाई लगातार बढ़ती जा रही है। ग़रीबों की हालत और बदतर
होती जा रही है जबकि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं। बेकार और
बेरोज़गार युवा जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं...
सोचता हूँ -- कल जब छवि को पता चलेगा कि मेरी नौकरी अब नहीं
रही, कि मेरी जेब में खाने लायक पैसे भी नहीं बचे हैं, क्या वह
तब भी मुझसे पहले जैसा प्यार करती रहेगी?
आज नींद नहीं आ रही। रिश्तों की नीली झील में संशय के काले
बगुले आ गए हैं। बेचैनी एक भारी शिला-सी सीने पर आ बैठी है। जब
रहा नहीं जाता तो बिस्तर से उठकर बीथोवन का कोई 'सोनाटा' लगा
लेता हूँ। रात एक उदास सिम्फ़नी-सी कानों में बजने लगती है। एक
धूसर उदासी मेरी शिराओं और धमनियों में घुलती चली जाती है। देह
की सभी कोशिकाएँ अवसाद से भर जाती हैं और जीभ पर फटे हुए
दूध-सी इस उदास काली रात के क़तरे जमते चले जाते हैं। अपनी
डायरी निकाल लेता हूँ और क़लम ख़ुद-ब-ख़ुद चलने लगती है-
"बीहड़ रातों में जब तुम्हारा सिर फटने लगे
जब यह जीवन तुम्हें
बंजर लगने लगे
जब ख़ुशी एक अंतहीन प्रतीक्षा बन जाए
जब अपना वजूद तुम्हें एक यातना-शिविर लगने लगे
जब पूर्णिमा का चाँद भी तुम्हें छटपटाता हुआ लगे
तब समझो -तुम गए काम से।"
अब तुम्हारी कोई सुबह नहीं।
यदि
सुबह हो भी गई तो उसमें कोई प्रकाश नहीं।
यदि प्रकाश हो भी गया तो कहीं कोई चिड़िया नहीं।
यदि चिड़ियाँ आ भी गईं तो तो वहाँ कोई चहचहाहट नहीं।
क्योंकि उन चिड़ियों के पंख ही नहीं।
बिना परों वाली चिड़ियाँ भला कौन-से गीत गाएँगी? उनके जीवन में
चहचहाने लायक बचा ही क्या होगा?" |