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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से विजय की कहानी- अपने सपने


पूरे ग्यारह साल बाद लौट रहा है बिसेसर। आगरा फोर्ट पर तूफान मेल गाड़ी से उतरा तो असमंजस ने पाँव थाम लिए...बाहर खड़ा कोई ताँगे वाला पहचान लेगा, अरे जो तो अपने बिंद्रा कौ भौड़ा है। और फिर पहले छूटने वाले ताँगे में दबकर बैठना होगा। उतरने पर पर्स निकालेगा तो चाबुक की तरह उछल पडेंगे स्वर... बौत कमाई कर लायो है तो थैली अपनी मैया कू थमा दीजो नई तो बाप कलारी में लुटा आयगो।

सवारियाँ प्लेटफार्म से निकल गई और तुफान मेल उलटी सरकने लगी तो वह गेट की तरफ बढ़ा। याद आया कि कभी आगरा फोर्ट स्टेशन भीड़ से चहकता रहता था। एक तरफ बड़ी लाइन का स्टेशन था तो दूसरी तरफ छोटी लाइन का। बड़ी लाइन से टूंडला जाने वाली हर गाड़ी गुजरती थी। मगर पुराना पुल खतरनाक घोषित हो गया। अब तो तूफान मेल भी ईदगाह के रास्ते आती है और फिर वापस आगरा सिटी स्टेशन से होती नए पुल से यमुना पार होती टूंडला से गुजरती है। वह नया पुल भी कौन नया है? आजादी आने से पहले बना था।

स्टेशन से बाहर आया तो ठीक सामने खाई और लाल किले की दीवार थी। बीच में सड़क और स्टेशन का पोर्च। अंदर सफाई के बावजूद कबूतरों की बीट दीवारों से जुड़ी थी।

उसके चमचमाते बैग और जीन्स व जैकिट पहने होने से वह एक टूरिस्ट जैसा नजर आ रहा था। बाहर थ्री-व्हीलर और रिक्शों की गड्डमड्ड भी खड़ी थी। कई होटल वालों ने अपने कार्ड बढ़ाए मगर बिसेसर ने हाथ से हटा दिए। दो-तीन थ्री-व्हीलर वाले झपटे...साब! साइट सियंग? फुल डे, ऑनली हंड्रेड!

बिसेसर बाहर आ गया। तभी एक रिक्शे वाले ने बैग थाम लिया- ऑनली टू फिफ्टी फॉर ऑल मानूमेंट्स! वेरी चीप!
हँस पड़ा बिसेसर- "मैं यहीं का हूँ। ताजगंज में मेरा घर है, पाक टोले में।" अंदर ही अंदर ताँगे न देख वह चकित भी था।
"बैठो साब! ताजगंज ले चलूँगा।"
"क्या लोगे?"
"अड्डे तक के तीस और आगे के चालीस।"
"ज्यादा माँग रहे हो।"
"जो मन करे साब, दे देना। साढ़े बारह बज रहा है। आपसे बोहनी करूँगा। "
रिक्शा बढ़ता है तो पूछता है बिसेसर-
"कभी कोर्ट और बिजलीघर पर ताँगों की भीड़ लगी रहती थी। अब तो दिखाई ही नहीं देते हैं।" बिसेसर साँस खींच घोड़े की लीद की बू अहसासना चाहता है।
रिक्शेवाला मुड़कर देखता है- "बहुत दिन बाद आना हुआ है, लगे।"
"हाँ, पूरे ग्यारह साल बाद!"
"अभी! ग्यारह साल में तो शहर क्या, शहर का सपना भी बदल जाता है हुजूर!"
"ऐसा क्या हो गया? टूरिस्ट तो ताँगा बहुत पसंद करता था!"

रिक्शे से उतर गया था रिक्शेवाला, अपनी छोटी उँगली दिखाते हुए। बिसेसर बुत की तरह बैठा रहा। खाई के पास लघुशंका निवृत्त हो रिक्शेवाला लौट आया। मफलर को पुनः कानों से लपेट रिक्शा चलाते हुए बोला- "इस शहर को कभी मुगलों ने बसाया और सजाया था। राजपूताना की मंडी था यह शहर। मंडियाँ ही मंडियाँ थीं। राजा मंडी, लोहा मंडी, हींग की मंडी या रुई की मंडी। नहर में नावों से बाजार जाते थे, यहाँ रंडियों के कोठे थे। पर तब उन्हें रंडी नहीं, तवायफ कहा जाता था क्योंकि जिस्म नहीं चलता था। घुँघरू बजते थे और रागनियाँ उभरती थीं वहाँ। बादशाहत ने मंडियाँ और गंज बनाए जिससे सेठ कारोबार कर शहर को जन्नत बनाएँ। शाह गंज, बेलन गंज और बालू गंज कुछ नाम हैं। हाँ, आपका ताजगंज भी इसी कतार में आता है। मुगल आए तो अंग्रेज आ गए। कलक्ट्री और दीवानी बन गई। आगरा कैंट बन गया। ताजमहल को लेकर आगरा वालों का सीना फूल जाता था। आजादी आई, विक्टोरिया पार्क शाहजहाँ गार्डन कहलाने लगा, मगर आगरा की इमारतें आगरे वालों की नहीं रहीं। दो बिजलीघर थे, तोड़ दिए गए। ताजमहल के रुखसार को धुआँ न छुए सो हजारों फाउंड्रीज बंद कर दी गईं। यमुना नाला बन गई। आगरा बेकारों और नाकारों का शहर हो गया।"

"मैंने ताँगों के बारे में पूछा था?"
"वही तो बता रहा हूँ हुजूर। आदमी को दो रोटी चाहिए और घोड़े को ढेर-सा रातब। बेकारी ने आदमी को घोड़ा बना दिया। सैकड़ों नर्सिंग होम, हजारों नए मकान और दसियों पंचतारा होटलों के साथ हजारों छोटे होटल उभर आए। मगर आदमी के पीने के लिए गंदा पानी, गर्मियों में बिजली न होने पर बेजारी और सर्दियों में बेचैनी और अँधेरा ही रह गया। हमारे अब्बा मंटोले के नामी ताँगे वाले थे मगर टूरिस्ट बैठता बस में, थ्री-व्हीलर पर या टैक्सी से आता-जाता। बेकारों की भीड़ में बेरहम लोगों की कमी भी नहीं है। घोड़े जुते ताँगे से रिक्शा सस्ता पड़ता सो ताँगों का कारोबार बंद। खाते और पादते घोड़े की जगह जुतने लगा आदमी।"
"पढ़े-लिखे लगते हो?"
"बी.ए. पूरा नहीं कर सका। नौकरी मिली नहीं। हैसियत हज्जाम से बुरी हो गई। हमारी बस्ती से कई लौंडे बाहर कमाने चले गए। भूल गए शहर को और उनको जिन्हें उनके मनीआर्डर का इंतजार रहता था।
"तुम यह शहर छोड़ क्यों नहीं देते हो?"
"न हुजूर! दो बहनों का निकाह करना है। अम्मी दमे की मरीज है। उन्हें नहीं छोड़ सकता हूँ। दूसरे इस शहर की सड़ैली गर्मी में सीने में एक शरबती अहसास भी साँस लेता रहता है कि कल इस शहर के अच्छे दिन जरूर आएँगे। शायद कोई ऐसा निजाम आए जो इस शहर को साफ पानी, बिजली, रोजगार और उनसे छीनी गई तवारीखी इमारतें वापस दे सके!"
रिक्शा अब पोलो ग्राउंड के पास से गुजर रहा था। बिसेसर के मुँह से निकल पड़ा- "अरे पोलो ग्राउंड तो वैसा ही है।"

"है साब! पर पोलो नहीं होता है। घास के नीचे गड्ढे ही गड्ढे हैं। ताजगंज के लौंडे नंगे पैर क्रिकेट खेलते हैं और पीएसी के अफसर व घर वाले कुत्ता घुमाते हैं। "
घड़ी एक बजा रही थी। तभी पुरानी मंडी से शहीद नगर की तरफ जाने वाली सड़क पर किसी मस्जिद से अजान गूँज उठती है। बिसेसर कहता है- "अभी तो डेढ़ नहीं बजा है।"
हँसता है नईम- "हिंदुस्तान में आदमी अपनी चाल से और घड़ी अपनी चाल से चलती है। मस्जिद की घड़ी डेढ़ बजाने लगी होगी!"
"तुम नमाज नहीं पढ़ते हो?"
रोटी ही हमारी सबसे बड़ी नमाज है हुजूर! एक किताब में पढ़ा था कि नारद जी ने भगवान से एक बार कहा कि रामू किसान तो आपको दिन में दो-चार बार याद करता था और सेठ माधव हर साँस के साथ पर आपने रामू को तो स्वर्ग भेज दिया और माधव सेठ को नर्क? भगवान ने कहा कि माघव मुझे मतलब से याद करता था और अनाज में कूड़ा मिलाकर बेचता था, मगर रामू के हर पसीने की बूँद जो जमीन पर गिरती थी उसमें ईमानदारी भरी रहती थी। सो साहब हम भी हर बार पैडल पर पैर घुमाते हैं पसीना बहाते हुए, वही हमारी नमाज है। उसी पसीने से घर के लोगों के मुँह में लुकमा जाता है। वही हमारी इबादत का फल है।"

ताँगे के अड्डे पर ढेरों रिक्शे खड़े थे। नईम से कइयों की दुआ-सलाम होती है और बातचीत का सिलसिला टूट जाता है। बिसेसर देखता है कि ताँगों का अड्डा कहलाने वाली जगह पर एक भी ताँगा नहीं था। इधर-उधर देखता है कि शायद कहीं घोड़े की लीद दिखाई दे जाए मगर हर तरफ फेंकी दृष्टि रीती-सी लौट आती है। अंदर एक तूफान-सा उभरता है... तो बापू अब क्या करते होंगे? कहीं रिक्शा तो नहीं खींच रहे हैं? एक गहरा सदमा उसे जड़ बना देता है। पता ही नहीं चलता है कि नंदा बाजार का संकरा बाजार कब खत्म हो गया। कब वह प्राइमरी स्कूल गुजर गया जहाँ टाटपट्टी पर बैठकर उसने पढ़ना शुरू किया था।

रिक्शा ढलान पार कर पुलिया पर रुका हुआ था जिसकी दाहिनी ओर बाल्मीकि बस्ती पड़ती है और एक जर्जर-सा मंदिर है। पुलिया के नीचे कभी-कभार ही साफ होने वाला नाला बह रहा था जिसमें आराम से सुअर थूथनी डाल रहे थे।

बाईं तरफ पाक टोला था। नईम अब मफलर से जाड़ों के दिनों में भी पसीना पौंछ रहा था। उसे रुपये पकड़ाकर बिसेसर बैग उठाकर चल पड़ता है। कोई सौ गज की दूरी ईंटों की चढ़ाई वाली सड़क नापकर वह एक अहाते में घुसता है जहाँ कभी बड़ा-सा लकड़ी का फाटक लगा था। बैग जमीन पर रख वह सोचता है कि उसे रिक्शे पर यहाँ तक आना चाहिए था। सामने धूल-भरी सड़क थी जिसकी एक ओर अंधा कुआँ था। कई लोगों ने इसमें कूदकर जानें दी थीं। इसलिए उसे पाट दिया गया था मगर कुएँ की ऊपरी जगत अभी भी साबुत थी। बिसेसर को याद आया कि कभी-कभी बापू ताँगा नहीं लगाता था तो वहीं एक खूँटे से घोड़े को बाँध उसकी मालिश करता रहता था। वहीं चटाई डाल चौपड़ का खेल चलता रहता था। जाने क्या सोचकर बिसेसर बैग उठाकर कुएँ की जगत पर उसे रख उचक कर बैठ जाता है।

सोलह साल का था जब घर छोड़कर भागा था। पहले धाबे पर लगा मगर दो साल पूरा होते-होते छोड़ना पड़ा। पहले मालिक घर चला जाता था। बूढ़ा मानसिंह और धाबे में सोते थे। फिर मानसिंह पहाड़ पर चला गया। उसकी जगह उसका बेटा धान सिंह आ गया। बहुत तंग करता था धान सिंह। बिसेसर ने धाबा छोड़ दिया था। दो साल की तन्खाह छत्तीस सौ उसकी जेब में थे। पानी का ठेला रखने वाले यतीन्द्र ने उसे सुझाया और वह उसकी कोठरी में दो सौ रुपये देकर साथ रहने लगा। बाजार में तो नहीं पर बस अड्डे के पास पुलिया के नीचे रूमाल, मोजे और छोटे तोलिए बेचने लगा। फिर लाल किले की सड़क पर मलूक चंद ने अपनी आधी दुकान उसे किराए पर दे दी। मलूक चंद बूढ़ा था और दुकान में अटैचियाँ और बैग बेचता था। बिसेसर से इतना खुश हुआ कि अपने पहाड़गंज के चूनामंडी वाले मकान में ले आया। एक कमरे में वह बेटी के साथ रहता और दूसरे कमरे में बसेसर रहने लगा। मरने से आठ महीने पहले बेटी शीला के साथ उसने बिसेसर का ब्याह कर दिया। शादी हुए भी तीन साल हो गए हैं। एक लड़का है उनके- यही साल भर का। एक दिन बेटा समर बीमार हो गया तो शीला परेशान हो गई। सलाह-मशविरा हुआ और अंत में तय हुआ कि बिसेसर अपने माँ-बाप को ले आए। बच्चे की देखभाल हो जाएगी और उनका बुढ़ापा भी आराम से कट जाएगा। दुकान पर काम बढ़ गया है। शीला हाथ बँटा लेगी।

शादी के बाद अक्सर सपने में थरथराती बहन उसे दिखाई देती। पत्नी को कई बार अपने घर के हालात सुनाए मगर शीला भी तो एक व्यापारी की लड़की है। हर बात नफे-नुकसान से तोलती है। दुकान पर काम बढ़ा तो साथ आने लगी मगर जब बेटा बीमार पड़ा तो महसूस हुआ कि घर में कोई और होता तो परेशानी नहीं होती।

जगत से उतर बैग लेकर बिसेसर बाबा के फाटक से घुसता है। अंदर कोठरियाँ ही कोठरियाँ बन गई थीं। एक कोने में छप्पर के नीचे चार भैंसे बँधी थीं। बीच की खुली जगह में मंज्जियों पर बैठी थीं औरतें। बच्चे खेल रहे थे। एक जीन्स वाले अपटूडेट युवक को देख युवतियाँ मंज्जियों से उठ खड़ी होती हैं। एक-दो घूँघट डाल लेती हैं। जहाँ बिसेसर रुका था वहाँ एक युवा स्त्री बैठी जमीन पर बैठी बूढ़ा के जुएँ निकाल रही थी। असमंजस से भर जाता है बिसेसर। तभी खाट पर बैठी जुएँ बीनती युवती हुलसकर उठती है...‘बिसेसर भइया’!
अब औरतें चारों ओर से घेर लेती हैं। बच्चे टकटकी लगा लेते हैं।

बिसेसर आवाज से पहचान, बहन को गले लगा लेता है। एक अजीब-सी बास उसे उद्वेलित करती है। सोचता है...क्या मैं कभी यहाँ रहा था?
बहन के साथ खाट पर बैठता है तो पूछता है- " मैया और बापू?"
चहकती हुई नीरू धरती पर पैर फैलाए औरत की तरफ इशारा करती है फिर उदास हो जाती है। औरतें जो पास खड़ी थीं, भर्त्सना करती हैं- "ऐसे भी कोई घर छोड़ें? मुड़के न देखा। बाप मर गया। का उमिर है तेरी मैया की। पचास की न भई पर सत्तर से ऊपर की लगै। न सुन सके और न बोल सकै।"
बिसेसर आत्मग्लानि से भर धरती पर उकड़ूँ बैठ मैया का हाथ थामता है। टुकुर-टुकुर देखती बूढ़ा पहचान लेती है और पागलों की तरह चिपट जाती है। उसके मुँह से सों....सों की आवाज निकलती रहती है। बिससेर उसे बाँहों में भर मंज्जी पर बैठा देता है।

औरतों और बच्चों की भीड़ छँटने लगती है। तभी चौदह-पंद्रह साल की लड़की चाय का गिलास उसे थमा देती है। बिसेसर हाथ में गिलास पकड़, खड़े होकर पहचानने की कोशिश करता है। हँसती है नीरू- "तुम्हारी भानजी विनीता है।"
तभी कोई पीछे से कंधे पर हाथ रखता है- "हम तुम्हारे जीजा हैं।"
बिसेसर गले मिलकर पहचानने की कोशिश में सफल हो जाता है। समझ जाता है कि बनवारी है।
तभी नीरू कहती है- "विनीता की मैया न रही। इधर बापू चले गए। तुम्हें गए छह साल हो गए थे। कोई पता न था। ये सहारा नहीं देते तो क्या मैं और मैया तुम्हें यहाँ मिलतीं!" बिसेसर बनवारी का हाथ थाम लेता है।
गहरे पश्चाताप में डूब जाता है कि अगर वह हर महीने कुछ मदद करता तो क्या नीरू को एक अधेड़ से शादी करनी पड़ती! बीस-इक्कीस की नीरू और पैंतालीस पार करता बनवारी!

बनवारी उसे कोठरी में ले जाता है। थोड़ी ही देर में विनीता हाथ में थाली लिए आती है। एक स्टूल पर थाली और पानी का गिलास रख देती है। नीरू कहती है- "खाओ भइया!"
आलू-टमाटर की सूखी सब्जी और देशी घी चुपड़ी रोटियाँ। बिसेसर को पुराना स्वाद याद आ जाता है।
बैग खोलकर बापू के लिए लाया कुर्ता, पाजामा बनवारी को थमाता है। मैया और नीरू के लिए लाई साड़ियाँ नीरू और विनीता को देते हुए कहता है- "मैया के लिए शाम को लाऊँगा। "
मैया की कोठरी में एक मंज्जी लगा दी जाती है जिस पर दरी के ऊपर नई चादर और कवर चढ़ा कंबल था। बिसेसर महसूस करता है कि वह जो अपने घर आया है, बहन के यहाँ खास मेहमान हो गया है।
पाँच के बाद आँख खुली। चाय पीकर बाहर निकला तो आठ साल के लड़के के साथ नीरू खड़ी थी- "भुजबल है। तुम्हारे जाने के बाद हुआ था। छोटा ही था जब मैया न रही।"

बिसेसर प्यार से उसका सिर सहलाता है। शाम को दूध का काम निपटाकर बनवारी खड़ा हुआ तो बिसेसर ने कहा- "बाजार चलेंगे।"
दोनों काफी वक्त ताजमहल में काटकर नंदा बाजार आए। बड़ी-सी रेडीमेड कपड़ों की दुकान देख बिसेसर चकित रह गया। भुजबल के लिए जीन्स, टी-शर्ट खरीदी और बजाज के यहाँ से धोतियाँ और ब्लाउज मैया के लिए। बजाज सोनचंद को बिसेसर पहचान गया था मगर पहचानी शक्ल को भी सोनचंद नहीं पहचान पा रहा था। बनवारी ने ही बताया तो सोनचंद हँसा- "सराबी का छोरा तो जेंटिलमैन हो गया है।"
बिसेसर का पारा चढ़ गया। पैसे फेंक बाहर आ गया तो बनबारी ने कहा- "अभी जात का भूत इन बनियों के दिमाग से उतरा नहीं है। बेटा बलात्कार में जेल काट रहा है पर खुद को ईमानदार समझता है सोनचंद।"

रात लेटते हुए माँ को उसने सहलाया तो वह हुलस उठी। मगर बिस्तर पर लेटते ही उसे लगा कि मैया को ले गया तो पत्नी भभक उठेगी, बोझा क्यों उठा जाए? फिर क्या करूँ? तभी नईम की याद आती है....मेहनत करता हूँ तब घर के लोगों को लुकमा नसीब होता है।....तो क्या पत्नी के मिजाज की वजह से मैया को छोड़ दूँ?
प्रश्न बेताल की तरह उसके ऊपर रात भर चढ़ा रहा। सुबह चाय पीते हुए उसने नीरू से कहा- "मैया और विनीता को ले जाऊँ? "
"मैया के लिए तो नहीं रोक सकती पर विनीता को लेकर सोच लो! हमें तो खुशी होगी अगर विनीता तुम्हारे साथ रहकर ढंग से जी पाएगी।"

पूरी रात बिसेसर जंगल में भटकता रहा। सोचता रहा... विनीता को ले जाने का मतलब है जिम्मेदारी। क्या शीला पसंद करेगी? फिर उसे नईम की याद आती है जो पूरे टब्बर को लुकमा खिलाने के लिए अपना भविष्य पसीने में डुबोए है। मगर क्या वह ऐसा कर सकता है? शायद संपन्नता का मतलब ही है अपना सुख बोध! दूसरों का दुख उसमें शामिल नहीं होता है।
सुबह जागा तो समस्या हल हो चुकी थी। नीरू ने बताया कि मैया कहीं जाने को तैयार नहीं है।
चंद नोट मैया के लिए चलते वक्त थमाने लगा तो बनबारी ने वापस जेब में रख दिए- "रखे रहो! यहाँ तो चल ही रहा है। मैं तो उसे अपनी मैया ही मानता हूँ। "
ग्यारह बजे की गाड़ी पकड़ने के लिए तैयार हुआ तो रिक्शा हाते के भीतर ही आ गया था। निःश्वास खींच बैठा तो नीरू ने कहा- "आते रहना भइया !"

भरे गले से हाँ कहता है बिसेसर! रिक्शा चल पड़ता है। आगरा कैंट पर पहुँचकर पर्स खोल रुपये निकालने लगता है तो रिक्शे वाला कान पकड़ कहता है- "न भइया! तुम न पहचानो पर बनवारी जीजा ने हमें बता दिया है कि तुम बिंद्रा चाचा के लड़के हो। पक्के यार थे हमारे बाबू और बिंद्रा चाचा!"
उसे लगा कि रिक्शे वाला रिश्ते का चाँटा मार रहा है। बीस रुपये सीट पर डाल वह मुड़ जाता है। उसे संतोष था कि उसने खुद को एक बोझ से बचा लिया है।
गाड़ी में बैठा तो खिड़की की हवा ठंडी लगी और वह बैग से निकाल जैकिट डाल लेता है। महसूस करता है कि जो हुआ, अच्छा हुआ। शीला परिस्थिति समझ सकेगी! नाराज नहीं होगी।

बाबा के फाटक में धूप सरक रही थी। विनीता नानी को हाथ पकड़ अंदर ले आई थी। इशारे से समझाया था...थोड़ा सोचो!
नानी की आँखों में आँसू देख पिघल उठी। इशारों से समझाने लगी...वह था कहाँ जो आया था? सपना था! हम हैं न तुम्हारे अपने!
बूढ़ा बिस्तर पर बैठ विनीता को अपनी बगल में बैठा हाथ सहलाने लगती है। विनीता हँसती है- "नानी! मुझे गुदगुदी लग रही है। अच्छा तुम बैठो, मैं गर्मागर्म चाय बनाकर लाती हूँ। "
विनीता चली जाती है। बूढ़ा मन ही मन सोचती है, अबकी सोमोती मावस पर जमना नहाने जरूर जाऊँगी। फिर उठकर अपना टीन का बक्सा खोलती है। बिसेसर की लाई दोनों धोतियाँ पुराने कपड़ों के नीचे रखकर खाट पर आकर बैठ जाती है।
अब उसे विनीता का इंतजार था जो चाय बनाने वाली थी।

गाड़ी दिल्ली के नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गई थी। स्टेशन से बाहर आ, चूनामंडी के लिए रिक्शा पकड़ता है।
महसूस करता है कि कंबख्त नईम ने उसका दिमाग खराब कर दिया था अन्यथा सब ठीक ही था। उसने नरक इसीलिए तो छोड़ा था। दोबारा वहाँ आना उसकी ही गलती है। नए मास्टर प्लान में दिल्ली ऊँची हो रही है। वह अपने इक मंजिला मकान पर तीन मंजिल और उठा सकता है। कोई भी बिल्डर एक मंजिल लेकर उन्हें दो अतिरिक्त मंजिलें दे सकता है। वे लोग बाबा के फाटक में रहने योग्य ही हैं। यहाँ के चमचमाते बाजार और भीड़ देखकर तो पागल हो जाते। रास्ते में बेटे के लिए उसने महँगी चॉकलेट खरीदी। उसे लगा कि व्यर्थ ही वह हजार रुपया फूँक आया।

२ फरवरी २०१५

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