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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से जयनंदन की कहानी- अपदस्थ पति


वह अपने को भोंदू, नालायक, शरीफ या नामर्द समझे कि उसके ही घर में रहकर उसकी बीवी दूसरे से प्रेम करती रही और उसे आज मालूम हुआ जब उसने खुलकर इकरार करते हुए साफ-साफ बता दिया,"मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ सुमित के पास।"

आमिष यों चौंका था जैसे एक झटके में उसके सबसे बड़े विश्वास पात्र द्वारा उसके भीतर का जमा सारा भरोसा छीन लिया गया हो। भूमिका से सगा कोई न था उसके लिए। जो सबसे बढ़कर सगा, उसी के द्वारा इतना बड़ा छल मानो खुद पैर के नीचे की जमीन कह रही हो कि मैं अब तुम्हारा आधार नहीं। मुँह के बल धक्का खाकर मानो लहूलुहान हो गया वह। उसने अपने मर्मांतक कष्ट और अधैर्य को सँभालने की कोशिश करते हुए पूछा,"सुमित के पास जा रही हो...तुम मेरी कौन हो और किस उम्र में हो यह तो याद है तुम्हें?"

"सब कुछ याद है मुझे। शादी के पहले से हम दोनों एक-दूसरे को प्रेम कर रहे हैं। अपने-अपने माँ-बाप की मर्जी पर शादी करते समय हमने तय किया था कि एक-दूसरे को भुला देंगे और अपनी-अपनी नयी जिंदगी के साँचे में खुद को ढाल लेंगे। मगर यह मुमकिन न हुआ। नियति और परिस्थिति ने हमारे बीच दूरी बनने ही नहीं दी। नौकरी ज्वाइन करने के बाद वह इसी शहर में और हमारे ही पड़ोस में आ गया।"

सुमित से घनिष्ठता का अर्थ आमिष कुछ और ही निकालता रहा। एक अच्छे दोस्त के रूप में वह उससे मिलना-जुलना तथा एक-दूसरे के घर आना-जाना सुखद समझता रहा। भूमिका पर उसे कभी एक तिल शक न हुआ। उसने अपनी तरफ से उसे पूरी आजादी दी, जब जैसे चाहे मिले-बतियाये। हमेशा से ही वह सरल व सीधा-सादा रहा। क्लब, पार्टी, सैर-सपाटा, शापिंग आदि में उसका मन कभी न रमा, वहीं भूमिका इनके बिना जमाने की रफ्तार से पिछड़ते जाने का रोना ले बैठती। आमिष खुद में ही कमी देख सुमित के साथ होने की छूट दे देता। सुमित फर्राटे से अंग्रेजी बोलनेवाला माडर्न शख्सियत का दबंग आदमी था। भूमिका इसकी प्रशंसा करती थी कि मर्द को ऐसा ही होना चाहिए, रौबदार, आक्रामक, दबंग, डैशिंग और डॉमिनेटिंग। आमिष की विनम्रता और भद्रता को वह स्मार्टनेस की खामी बताती थी और कहती थी कि अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों से नजरें झुकाकर नहीं नजरें मिलाकर ऊँची आवाज में बात करनी चाहिए। सुमित ऐसा ही था मगर आमिष चाहकर भी अपना संस्कार बदल न सका।

भूमिका जाने लगी, दायें हाथ में सूटकेस और बायें हाथ में तीन वर्षीय बेटे की उँगली थामी हुई। आमिष हतप्रभ था, बिना आहट किसी की दुनिया इतनी आसानी से उजड़ सकती है, यह देखते हुए मानो उसकी आँखें पथरा गयी थीं, खासकर तब और भी जब वह दुनिया किसी और की नहीं, उसकी अपनी ही थी। भूमिका जानती थी कि शासक बनने की शातिर अदा से परहेज करते हुए हमेशा शासित होने की फितरतवाला यह शख्स यह तक नहीं पूछेगा कि सूटकेस में क्या है और बेटे को क्यों ले जा रही हो?

भूमिका खुद ही बताने लगी, "सूटकेस में मेरे कपड़े हैं, इन्हें ले जा रही हूँ यह मानकर कि तुम्हें कोई ऐतराज नहीं होगा। तुम सह लोगे यह समझकर यह राज खोलते हुए कि इस लड़के का बाप दरअसल तुम नहीं सुमित ही है, निपुण को साथ ले जा रही हूँ। बताते हुए मुझे बुरा लग रहा है और साथ ही अन्याय भी, लेकिन न बताऊँ तो शायद अन्याय और भी बड़ा होता जायेगा। मैं तुमसे माफी नहीं माँग रही, जो चाहे तुम सजा दो, क्यों और कैसे हुआ यह सब, सफाई के कोई शब्द नहीं हैं मेरे पास, लेकिन यह हकीकत है कि मैं बेअख्तियार होती रही। तुम इतने भोले और शरीफ रहे कि मैं आराम से तुम्हारी आँखों में धूल झोंकती रही। तुम धूल खाकर भी आजिज न हुए मगर हम धूल झोंककर भी परेशान-हैरान रहे। अब तुम्हारे साथ मेरी ओर से और ज्यादती न हो, इसलिए सब कुछ साफ-साफ बताकर जा रही हूँ।"

आमिष के होठों पर एक लफ्ज तक नहीं आया, आँखों में सिर्फ वह मासूम भाव था जो कत्ल किये जाने के पहले किसी बेबस, असहाय व निरीह पशु के चेहरे पर होता है। निपुण उसकी ओर देख रहा था, जैसे वह माँ की उँगली छुड़ाकर उसकी गोद में आने के लिए उछल पड़ना चाहता हो। निपुण उसके लिए साँस की तरह जरूरी बनता चला गया था। उसके बिना जीना मानो एक ऐसी चुनौती थी जैसे खुद की साँस के बिना जीना हो। बच्चा संसार को कितना अर्थवान और खूबसूरत बना देता है यह उसने निपुण के जन्म के बाद पहली बार समझा था। बच्चा न हो तो शायद आदमी अपनी बोरियत और एकरसता से तंग आकर अपने जीने को निरस्त करता चला जाये।

भूमिका और निपुण के बिना घर में रहना एक मुश्किल काम था और यह मुश्किल काम अब उसे हर रोज करना था। उसे यह यकीन कर लेने के लिए एक लंबा समय चाहिए था कि दोनों माँ-बेटे उसे वाकई छोड़कर सदा-सदा के लिए चले गये। घर में कोई निर्जीव सामान भी होता है तो उसकी अपनी एक जगह बन जाती है, ये दोनों माँ-बेटे तो घर के प्राण थे, इनके बिना घर जैसे एक अस्थिपंजर से ज्यादा कुछ नहीं था। आमिष बस उस उलझी हुई दिमागी गुत्थी का सिरा ढूँढने की कोशिश में लगा रहता कि आखिर वह कौन सी कमी थी कि भूमिका को वह खुद से जोड़कर न रख सका। अब वह जिस मुकाम पर है वहाँ से कुछ भी नया शुरू करने का न तो उसमें उत्साह था, न रुचि। कायदे से उसे घृणा हो जानी चाहिए थी उस औरत से। मगर वह खुद में झाँककर देखता था तो घृणा का एक तिनका भी उगा हुआ कहीं नहीं दिखता था। जिसे उसने एक लंबे अर्से तक प्यार किया, दिल की गहराइयों से चाहा, उससे घृणा कैसे कर ले। वह भले ही चली गयी हो लेकिन वह आज भी उसकी पहली पसंद है। उसकी जगह कोई दूसरी शायद ले भी नहीं सकती। अतः निपुण से मुँह घुमाने का तो कोई कारण नहीं हो सकता। अलग होने में उस मासूम की कोई भूमिका है भी नहीं। दोनों एक दूसरे पर जान छिड़कते रहे हैं। अलग भर हो जाने से वह निष्पाप लड़का उसका गैर कैसे बन जायेगा। वह उसका नहीं सुमित का बेटा है, भूमिका के इस रहस्योद्घाटन के उपरांत भी उसमें तनिक विरक्ति जैसी नहीं आयी। उल्टे उसे इस बात की थोड़ी तसल्ली थी कि वे उससे अलग भले हो गये, मगर बहुत दूर नहीं हुए। वह जब चाहे उन्हें देख सकता था, उनसे मिल सकता था।

अगले ही सप्ताह निपुण का जन्म दिन था, वह उसके लिए किसी ऐसे उपहार का चयन करता रहा था जो टिकाऊ और संग्रहणीय हो। एक सप्ताह तक इंतजार उस पर बहुत भारी पड़ा। उसका मन तो अगले ही दिन से उसे देखने के लिए मचलने लगा था, लेकिन किसी तरह जब्त किया उसने। जन्म दिन एक सप्ताह से ज्यादा दूर होता तो शायद वह बीच में ही चला जाता। उसे अब इसका भी खयाल रखना था कि घनिष्ठता और सौहार्द्र का अर्थ अब बदल गया है, अब पूर्व के अधिकार से मिलना और संलग्नता जाहिर करना सुमित या भूमिका को बुरा लग सकता है।

निपुण के चार जन्म-दिन इस घर में उसने मनाये थे, जिनमें वह अच्छी-खासी धूमधाम व रौनक बहाल कर लेता था। करीबी दोस्त और पड़ोसी उसके उत्साह व दावत से इतने तृप्त होकर जाते थे कि उन्हें निपुण का जन्म दिन जबानी याद हो गया था, जैसे अगले ही दिन से उसके अगले जन्म दिन का वे इंतजार करने लगे हों। इस बार कैसा महसूस होगा उन्हें जब इस सत्य से वे टकरायेंगे कि निपुण सुमित का बेटा है, आमिष का था ही नहीं।

आमिष का मन तो कर रहा था कि पूर्व की तरह एक छोटा-मोटा जलसा इस बार भी घर में उतार ले और एक घंटे के लिए निपुण को माँग लाये, फिर ठिठक गया मन कि पहला जन्म दिन है वहाँ, क्या पता सुमित कोई बड़ी तैयारी कर रहा हो। आमिष का उत्साह उसे अनाधिकार चेष्टा भी लग सकती है। मन ही मन आमिष इंतजार करता रहा कि अगर वहाँ तैयारी चल रही होगी तो औपचारिकतावश, भले ही बेमन से, उसे आने के लिए जरूर कहा जाना चाहिए।

इंतजार अंतिम क्षण तक खिंचता गया, उसे वहाँ जन्म दिन मनाने की कोई आहट न लगी। घर में खरीदकर रखा हुआ तोहफा जैसे उससे क्षण-क्षण मुँह चिढ़ाने लगा था। यह गणित उसे समझ में नहीं आ रहा था कि एकाएक ऐसी खाई बनाने की क्यों जरूरत पड़ गयी। नाराज या रूष्ट तो उसे होना चाहिए था, चूँकि डाका उसकी खुशियों पर डाला गया था और उसकी सबसे बेशकीमती चीजें छीन ली गयी थीं। उसने तय किया कि न बुलाने के बावजूद, वह निपुण को तोहफा और बधाई देने जरूर जायेगा। उन्हें भले ही बुरा लगे और वे बुरा बर्ताव करें।

आमिष चला गया, महज दस घर का ही तो फासला था। आशा के विपरीत वहाँ चहल-पहल की जगह एक ऊँघता हुआ मौन पसरा था। उसे हैरत हुई। कॉलबेल बजायी तो भूमिका ने दरवाजा खोला। पराये घर में एक परायी औरत की तरह दरवाजा खोलते देख उसे बेहद अटपटा लगा। अब यही सत्य था, न वह अब उसकी गृहिणी थी और न वह उसका घरवाला था। दोनों ने एक दूसरे को विस्मय से देखा। उसके हाथों में तोहफा देखकर वह आने का प्रयोजन जान गयी। अब तक सुमित भी आकर पीछे खड़ा हो गया था। भूमिका ने स्थिति तुरंत स्पष्ट कर दी, "निपुण बीमार पड़ गया है, इसलिए हम उसके जन्म दिन पर कुछ भी नहीं कर रहे।"

"बीमार है वह?" बीमार शब्द सुनते ही जैसे चिंतित हो उठा आमिष, "मैं उससे मिल सकता हूँ?"

लगा कि भूमिका एक दुविधा में पड़ गयी, सुमित ने इसे भाँप लिया और तुरंत पहल कर दी, "बिल्कुल आमिष, उससे मिलने के लिए तुम्हें किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं। आओ भाई।"
सुमित उसे लेकर अपने साथ चला गया। निपुण आँख बंदकर बिस्तर पर पड़ा था। आमिष ने आवाज लगायी, "निपुण...।"

आवाज सुनते ही उठकर बैठ गया निपुण और उसे देखते ही उसकी गोद में जाने के लिए मानो छलांग लगा दी। आमिष ने उसे अपने सीने में भर लिया, वह इस तरह चिपक गया जैसे अब छोड़ेगा ही नहीं। मिनटों वे एक-दूसरे से सटे इसी तरह स्पर्श-उष्मा लेकर एक असाधारण संवाद करते रहे। सुमित और भूमिका देख रहे थे दोनों का मिलना। बिना कुछ कहे निपुण की आँखें जार-जार बहने लगी थीं, आमिष भी खुद को रोक न सका और उसके भी आँसू थामे थम न सके। अन्तर्संबंधों की यह कैसी विरल अभिव्यक्ति थी। किसी से वे शिकायत भी नहीं कर सकते थे और वियोग की कचोट को सहन भी नहीं कर पा रहे थे। तीन वर्ष का निपुण आमिष को देखते ही जैसे बातों का पिटारा लेकर बैठ जाता था, उसकी जिह्वा कभी थकती ही नहीं थी। आज उसकी वाचालता एकदम मूक थी, उसने पूछा तक नहीं कि उसे अलग क्यों कर दिया गया। उसका कुछ न पूछना आमिष को और भी भीतर तक छिल गया।

भावनाओं की बाढ़ से टूटे धैर्य के तटबंध को संयत करना आसान नहीं था। आमिष ने रोका बलपूर्वक अपनी सिसकियों को और उसे वाणी में रूपांतरित करने की कोशिश की, "जन्म दिन मुबारक हो निपुण।"
निपुण एकदम बेउत्साह और निरीह भंगिमा से उसे देखता रहा। "मेरी ओर से यह तोहफा स्वीकार करो, बेटे।"

वह अभी भी निस्पृह बना रहा। आमिष ने महसूस किया कि उसका बदन बुखार से तप रहा है। सुमित की तरफ उसने खुद को मुखातिब किया, "सुमित, पुरानी मस्जिद के पास एक होमियोपैथी डॉक्टर है रहमतुल्ला, उसकी दवा इसे बहुत असर करती है। जब भी इसे कुछ हुआ मैंने उसी डॉक्टर की सेवा ली। अंग्रेजी दवा मैंने इसे कभी नहीं दी। अगर तुमलोगों को बुरा न लगे तो मैं उस डॉक्टर से दिखा आऊँ ?"
तनिक असमंजस में घिरते हुए सुमित ने कहा, "तुम क्यों कष्ट करोगे, मैं ढूँढ लूँगा उस डॉक्टर को।"
"जिस काम को करने में सुख छिपा हो, उसे कष्ट का नाम देकर मुझे एक अवसर से वंचित न करो, सुमित।"
सुमित ने भूमिका को टटोलकर अपनी मौन सहमति दे दी।
निपुण को लेकर आमिष चला गया। घर से निकलते ही निपुण के लबों से अनेक कौतूहल झरने लगे। उसने पूछा, "मम्मी कहती है कि मैं सुमित अंकल को पापा कहूँ, क्या अब आप मेरे पापा नहीं रहेंगे ?"
"मम्मी की बात माननी चाहिए बेटे।" इसके सिवा भला वह क्या जवाब दे सकता था ?
"क्या सबकी मम्मी इस तरह पापा बदल देती है?"
"इसका जवाब मुझे नहीं आता, तुम मम्मी से ही पूछना।"
"मैंने पूछा था तो उसने मुझे डांट दिया।"
"डांट दिया तो तुम्हें समझ लेना चाहिए कि यह सवाल ठीक नहीं है।"
"लेकिन मुझे आपके साथ रहना है।"
"मैं मिलने आया करूँगा तुमसे"
"प्रॉमिस?"
"हाँ प्रॉमिस।"
दवा लेकर जब वह लौटा तो निपुण काफी स्वस्थ और प्रफुल्लित दिखने लगा था। सुमित इस जादूगरी पर अचम्भित रह गया।

आमिष अब अक्सर आने लगा। निपुण उसका इंतजार करता होता और उसे देखते ही मानों उसकी रंगत आद्योपांत बदल जाती। भूमिका के प्रति उसकी नाराजगी धीरे धीरे खत्म सी होती चली गयी। खुलकर बात तो नहीं कर पाता था लेकिन भंगिमा में किसी नुकीलेपन या वक्रता का इजहार नहीं रह गया था। अब ऐसा जाहिर होता था कि इस परिस्थिति को उसने स्वीकार कर लिया। भूमिका के लिए यह और भी असह्य था कि अन्याय के प्रति उसके मन में प्रतिकार की कोई भावना नहीं है। इसका यह संतपन उसके अपराध बोध को और भी बड़ा कर देता था। एक दिन तो हद ही हो गयी। उसकी सरलता और पारदर्शिता इस तरह प्रकट हुई कि लगा इस आदमी की प्रकृति में घृणा और विकार की कोशिका जोडी ही नहीं गयी है। वह एक गले के उस हार को लेकर उसे देने चला आया जिसे ढाई साल पहले सुमित ने उसे भेंट किया था और वह हीरे का था। आमिष से छुपाने के चक्कर में भूमिका ने उसे ऐसी जगह रख दिया था कि दोबारा बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिला। आमिष ने निर्द्वन्द्व भाव से उस हार को उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "किचेन के एक पुराने डब्बे में यह पड़ा मिला। आदत नहीं होने की वजह से कोई चीज ढूँढने के लिए कई-कई डब्बों को खोलकर झाँकना पड़ता है। जीरा ढूँढ रहा था तो तुम्हारा यह हार मिल गया।"

भूमिका को लगा जैसे वह जमीन में गहरे धँस जायेगी। दूसरा मर्द होता तो खोया हुआ हार क्या लौटाता बल्कि संदूक में संरक्षित हार भी उससे छीन लेता। उस अवस्था में तो और भी जब हार का लॉकेट अपने पति से विश्वासघात की और किसी पराये मर्द से प्यार की कहानी की चुगली कर रहा हो। लॉकेट की एक तरफ ‘एस’ यानी सुमित और दूसरी तरफ ‘बी’ यानी भूमिका लिखा था। कोई और होता तो बेवफाई के अलावा इसकी ऊँची कीमत भी उसके पाँव लड़खड़ा देती। हीरे का हार, मतलब कीमत कम से कम पन्द्रह-बीस हजार तो रही ही होगी। क्यों है यह आदमी इतना भोला और शरीफ ? जमाने की काइयाँगिरी का क्या यह आदमी ककहरा भी नहीं सीख पायेगा ? भूमिका का अंतस इस बात को लेकर भी एकदम पसीज गया कि अब इसे खुद से अपना खाना बनाना पड़ रहा है। किचेन में घुसने के नाम से ही इस आदमी को हमेशा चिढ़ रही। माइक्रोवेव ओवन में भी आलू पकाना हो तो इसने कभी इसकी जहमत नहीं उठायी। उसकी हारी-बीमारी या कहीं आउटस्टेशन होने पर उसने सीधा होटल का रास्ता पकड़ लिया। आज यह नौबत आ गयी कि जिस काम से वह भागता रहा वही गले पड़ गया। मिर्च की छौंक से इसे खासी एलर्जी थी। जरा सा मिर्च कड़ाही में जला नहीं कि छींकते-छींकते इसकी छाती धौंकनी बन जाती थी। आज इसे सब कुछ सहना पड़ रहा होगा। भूमिका का हृदय मानो तार-तार हो गया। उसने बहुत सहमते हुए पूछा, "कुछ बनाना आया भी या यों ही खाने के नाम पर कच्चा-पक्का कुछ खा लेते हो?"

"बुरे वक्त में स्वाद की फिक्र कौन करता है, बस इतना ध्यान रहता है कि किसी तरह पेट भर जाये। खाना तो महज मैं इसलिए बनाता हूँ कि अपने कठिन समय से सामना करना सीख जाऊँ। चूँकि जानता हूँ कि अब अच्छे दिन कभी बहुरनेवाले नहीं हैं।"
"आमिष, इस तरह मायूस होकर तुम खुद पर न्याय नहीं कर रहे। किसी सहयात्री के बीच के किसी स्टेशन में उतर जाने से यात्रा रुक नहीं जाती। सबके अपने-अपने व्यक्तिगत गंतव्य होते हैं।"
"अगर बीच स्टेशन पर उतर जानेवाला सहयात्री ही उसका गंतव्य हो तो फिर आगे के सफर का क्या कोई मायने रह जाता है?"
"आमिष, सँभालो खुद को और विश्वास करो तुममें वो सब कुछ है जो एक परिपूर्ण आदमी से अपेक्षा की जाती है। मैंने तुम्हें छोड़ा तो किसी असंतोष के कारण नहीं, बल्कि अपने प्यार के कारण। तुम अभी भी उस उम्र सीमा में हो कि किसी के साथ एक नयी गृहस्थी बसा सको।"
"तुम मुझसे अलग रहकर खुश रहना चाहती हो और मुझे अकेले हो जाने पर मुझे दुखी भी देखना नहीं चाहती, दोनों एक साथ क्या संभव है भूमिका?"

भूमिका जैसे निरूत्तर हो गयी। आमिष पर उसे वाकई दया आयी। दूसरा होता तो बहुत कुछ अनाप-शनाप कहकर कोसता-धिक्कारता, लेकिन इसने बेमुरौव्वत होकर एक वाक्य भी कहना लाजिमी नहीं समझा। उसने कहा, "मैं भले ही अलग हो गयी हूँ, लेकिन हमारे लगाव में कोई वैमनस्य या शत्रुता नहीं आयी है। मुझसे कोई सहयोग हो सका तो प्रायश्चित का बोझ कुछ हल्का हो जायेगा।"

"फिलहाल तो मुझे इतना सहयोग कर दो कि कौन-सा सामान कहाँ रखा है, यह बता दो। मेरा ज्यादा वक्त सामान और कागजात ढूँढ़ने में जा रहा है और मैं परेशान हूँ।"

भूमिका ने यथासाध्य स्मरण करके सभी खास व साधारण चीजें, नेशनल सेविंग सर्टिफिकेट, डिबेंचर, शेयर, इंश्योरेंस और शैक्षणिक सर्टिफिकेट, घरेलू उपकरणों की रसीद व गारंटी कार्ड, स्कूटर के कागजात, गरम कपड़े आदि से लेकर गरम मसाला, अचार, दाल, चना, चावल, आटा, तेल आदि का पता नोट कराया। उसने लक्ष्य किया कि नोट करते हुए आमिष की आँखों के कोरे पनिया गये। भूमिका ने भी अपने अंतस में कुछ पिघलता सा महसूस किया। घर की सारी चीजों के लिए एकदम लापरवाह और भूमिका पर पूरी तरह निर्भर रहनेवाले आदमी को आज हर चप्पे का हुलिया सहेजना पड़ रहा था। इन हुलियों से पृथक रहकर वह अपने घर से ज्यादा जुड़ा हुआ था, मगर अब ऐसा लग रहा था कि सबके बारे में जानकर वह घर से उखड़ सा रहा है।

निपुण बहुत सारे सवाल और बॉल-बैट लेकर लॉन में उसका इंतजार कर रहा था। भूमिका ने उसे भाव-विह्वल होते देख उसका ध्यान उस ओर मोड़ दिया,"निपुण तुम्हारी राह देख रहा है। तुम आ जाते हो तो उसमें एक नयी तेजी और स्फूर्ति समा जाती है। वरना सहमा और सुस्त सा पड़ा रहता है। सुमित के साथ जरा भी घुल-मिल नहीं पा रहा है।"

आमिष लॉन में चला गया। उसके वहाँ जाते ही निपुण पहले तो दौड़कर उसकी गोद में चढ़ गया। आमिष देर तक उसे अपने बाजुओं के घेरे में लेकर कसे रहा। जैसे दोनों रोज न मिलने की कसर की भरपाई कर ले रहे हों। कुछ देर क्रिकेट खेलने के बाद दोनों देर तक लॉन में टहलते रहे।

बरामदे में बैठकर सुमित और भूमिका उन्हें देख रहे थे। भूमिका ने सुमित को हार दिखाकर चौंका दिया। उसके खोने और मिलने की पूरी उपकथा बतायी तो आमिष जैसे एक तेज खुशबू की तरह उस पर पूरी तरह छा गया। उसकी जगह वह होता तो इस तरफ नजर उठाकर नहीं देखता, हार लौटाने का तो सवाल ही नहीं था। एक घृणा, एक कोफ्त, एक चिढ़ से उसकी मनोदशा का उबाल शायद ताउम्र चरम पर बना रहता। लेकिन यह आदमी आखिर किस धातु का बना है। इसकी बीवी छोड़कर गैर मर्द के पास चली आयी, फिर भी यह आदमी उसे तरजीह दिये जा रहा है, बर्दाश्त किये जा रहा है। जिस बच्चे को अपना खून मानकर इसने पाला-पोसा, वह उसके साथ एक धोखाधड़ी थी, वह लड़का उसका था ही नहीं, इतना बड़ा छल हुआ, फिर भी उस लड़के पर अब भी जान-प्राण निछावर करने के लिए यह आदमी तत्पर है। क्या कोई आदमी इस तरह सहिष्णु हो सकता है? दूसरा कोई होता तो बीवी को बरगलाकर अपने पास रख लेने के जुर्म के खिलाफ अब तक एफ आई आर दर्ज करवाकर उसे हाजत में बंद करवा दिया होता और मामले को अदालत में पहुँचा चुका होता। आखिर अपने तमाम परिजनों और रिश्तेदारों के साक्ष्य में सात फेरे लिये हैं उसने, वह अगर न्याय की गुहार लगाये तो पूरी दुनिया उसके पक्ष में खड़ी हो जायेगी। भूमिका लाख प्यार का वास्ता दे, लेकिन विवाह नामक संस्था ने हक तो उसे ही दिया है पति होने का। हैरत है यह आदमी फिर भी शांत है, चुप है, स्थिर है। सुमित का रक्तचाप बढ़ गया सोच-सोचकर। उसने तो सोचा था कि बहुत सारे विरोध, तकरार, हुज्जत और हंगामा झेलने होंगे।

सुमित का रक्त प्रवाहित है निपुण में। कहते हैं अपना रक्त आदमी में एक स्वाभाविक मोह और रागात्मकता पैदा करता है, लेकिन पता नहीं वह कौन सी वजह है कि सुमित निपुण से जरा भी जुड़ नहीं रहा और नाहीं निपुण ही सुमित की ओर खिंच रहा है। कुछ रोज हुए - निपुण एक कोने में उदास बैठा था और उसकी आँखें खिड़की से होकर उस रास्ते पर टिकी थीं जो आमिष के घर की तरफ से आते हैं। सुमित के बहुत कुरेदने पर उसने बताया कि आमिष ने उसे एक किताब खरीदने और आइसक्रीम खिलाने के लिए बाजार ले जाने का वादा किया है। सुमित को अच्छा नहीं लगा सुनकर, मन तो हुआ झिड़क दे कि बच्चों में इस तरह का चस्का ठीक नहीं। बाद में जब वह डेढ़ घंटे तक उसी तरह मुँह लटकाये बैठा रहा तो भूमिका ने जरा शिकायत भरे लहजे में सुमित को संबोधित किया, "तुम उससे पूछकर रह गये। क्या तुम उसे बाजार नहीं ले जा सकते थे?"

सुमित को अचानक महसूस हुआ कि सचमुच वह ऐसा क्यों नहीं सोच पाया। उसे खुश करने, उसके करीब जाने और उसे करीब लाने का उसमें जरा भी उत्साह क्यों नहीं है? सुमित ने अपने को संशोधित करते हुए उसे पटाने-मनाने की कोशिश की,"ठीक है, चलो निपुण, किताब और आइसक्रीम के लिए मैं तुम्हें बाजार लिये चलता हूँ।"
निपुण ने साफ इंकार कर दिया,"नहीं, मुझे आपके साथ नहीं आमिष अंकल के साथ जाना है।"

अभी हाल ही में क्रिकेट खेलते हुए उसके घुटने में चोट लग गयी। किसी को बिना कुछ बताये वह बिस्तर पर लेट गया। भूमिका और सुमित ने समझा कि थक गया है, आराम कर रहा है। देर शाम को घर में भागता हुआ आमिष दाखिल हुआ। वे दोनों आराम से बैठकर चाय सिप करते हुए टीवी देख रहे थे।
आते ही आमिष ने व्यग्र स्वर में पूछा,"कैसी चोट है निपुण की?
दोनों ताज्जुब से एक-दूसरे के मुँह देखने लगे। उनकी अनभिज्ञता से आमिष समझ गया।
"मुझे उसने अभी फोन किया कि उसके पैर में चोट लगी है और उसे बहुत दर्द हो रहा है।"
भूमिका ने माथा पीट लिया, "हे भगवान! यह लड़का तो हमें बिल्कुल ही पराया बनाने पर तुल गया है।"

तीनों लपक पड़े उसके कमरे की तरफ। निपुण फूट-फूटकर रो रहा था और उसके पैर में भारी सूजन उभर आये थे। वे देखकर हैरान रह गये, कबसे यह लड़का तड़प रहा है, बिलख रहा है, मगर भूमिका और निपुण दोनों में से किसी को आहट तक लगने नहीं दी। आमिष फौरन उसे गोद में उठाकर डॉक्टर के पास चला गया। दोनों किसी अनजान-अपरिचित मुसाफिर की तरह जाते हुए देखते रहे।
निपुण आज भी आमिष के लिए अपनी पलकें बिछाये रहता है। आमिष भी निपुण पर जान देने के लिए कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देता।

सुमित के मन में अचानक यह संशय झाँक गया कि क्या भूमिका जो कह रही है वह सच है? क्या वाकई निपुण उसका ही बेटा है? उसका सिर चकरा गया। कौन बच्चा किसका जना है, यह तो उसकी माँ के सिवा शायद ईश्वर भी नहीं जानता होगा। खासकर तब जब एक ही साथ किसी औरत का दो मर्द के साथ संबंध चल रहा हो। दस्तूर है कि औरत जिसे अपने बच्चे का पिता बता देती है, दुनिया उसे ही मान्यता दे देती है, वह मर्द भी मान लेता है। मगर औरतों के द्वारा गलतबयानी या फिर विश्वासघात होने लगे तो कल सभी बच्चों के पिता पर संशय के एक बादल घिर आयेंगे। लेकिन ऐसा नहीं होता कि कोई मर्द अपने पिता होने को सत्यापित करने के लिए डी एन ए टेस्ट करवाये। मतलब पहले टेस्ट करवाये और तब अपने पिता होने को कन्फर्म करे।

सुमित की खिन्नता इस बात को लेकर बढ़ गयी कि आमिष कहीं से भी खिन्न और परेशान नहीं है। भूमिका छोड़कर आयी तो बस थोड़े ही दिन वह जरा उद्विग्न और अस्त-व्यस्त नजर आया। अब तो जैसे उसके चेहरे पर कोई मलाल ही नहीं रह गया। कुछ लोग अजीब होते हैं, परिस्थिति कितनी भी विपरीत हो, झट से सामंजस्य बिठा लेते हैं और उफ तक नहीं करते। कम से कम में भी काम चला लेते हैं। कैसा भी दुख, पीड़ा और अभाव हो वे पचा लेते हैं। आमिष शायद इसी कोटि का है। मोहल्ले में भी किसी से इसने अपना दुखड़ा नहीं रोया। यहाँ तक कि भूमिका के मम्मी-डैडी को भी इसका कोई सुराग लगने नहीं दिया। अगर यह जरा-सी उन्हें इत्तिला भी कर दे तो वे बोरिया-बिस्तर बाँधकर पक्का आ धमकें और इसके पक्ष में खड़ा होकर मोर्चा सँभाल लें और भूमिका पर शामत बरपा कर दें। इसकी विनयशीलता, सरलता और सज्जनता का मानो वे एकदम कायल हैं और दामाद के रूप में इसके चयन को अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते रहे हैं। ऐसे योग्य दामाद के साथ उनकी बेटी ने ऐसा गुल खिला दिया, सुनकर तो वे एकदम ही पगला जायेंगे।

एक घबराहट भूमिका के भीतर जमा थी इस बात को लेकर कि वह कैसे कन्फेस करेगी अपने माता-पिता से, आज न कल भेद तो खुलेगा ही। क्या कारण बतायेगी वह? सुमित से प्यार था बस पति का घर छोड़कर प्रेमी के पास चली आयी! मजबूरी में शादी के ढोल को गले में पहन लेने के बाद ऐसे प्रेम न जाने कितनी-कितनी बार कुर्बान किये जा चुके हैं। उस अवस्था में तो और भी जब पति ठीक-ठाक मिल जाये, अगर आमिष जैसा मिल जाये, दिलदार, हर इच्छा का ख्याल रखनेवाला तब तो कैसा भी आवेग हो तीव्र से तीव्रतर, मंद पड़ सकता है। प्रेम में त्याग ही तो प्रेम को और भी ऊँचा बनाता है। जैसे-तैसे अनैतिक-अमानवीय आचरण करके हासिल कर लेने को प्रेम नहीं कहते। हाँ, आमिष अगर उसे पीड़ित करता, दुःख पहुँचाता, उपेक्षित करता, उस पर जुल्म ढाता, अत्याचार करता तो उसे छोड़ देने की कोई तुक हो सकती थी। भूमिका ने कदम तो उठा लिया था लेकिन अब तक तय नहीं कर पायी थी कि कैसे अपने परिजनों को विश्वास में लिया जाये।

आदमी कई बार जिस भय से डरता रहता है, जिससे बचते रहना चाहता है, वह अचानक ही उसके सामने आ खड़ा होता है। ऐसा ही हुआ भूमिका के साथ। उसके पापा की अचानक चिट्ठी आ गयी कि "तुम्हारी मम्मी की तबीयत बहुत बिगड़ गयी है, तुम सबको देखना चाहती है, जितना जल्दी हो सके आमिष के साथ आ जाओ।"

चिट्ठी आमिष के पते पर आयी और वह खुद उसे पहुँचाने आया। पढ़कर भूमिका आमिष का मुँह देखने लगी इस भाव से कि तुमने दर्द दिया है तो जरा दवा भी दे देना। सुमित भी पास ही था, चिट्ठी उसने भी पढ़ ली। जिस डर की वे महीनों से चर्चा कर-करके कोई समाधान नहीं निकाल पाये, अंततः वह दीवार बनकर रास्ते में खड़ा हो गया। आमिष ताड़ गया कि चिट्ठी ने कोई गंभीर मसला पैदा कर दिया है। निजी मामला सोचकर जानने की इच्छा किये बिना वह निपुण के कमरे की तरफ बढ़ गया, जो शायद उसका इंतजार कर रहा था।
कुछ ही देर बाद सुमित ने उसे आवाज लगायी और कहने लगा, "एक धर्मसंकट आ गया है जिससे उबरने में एक तुम्हीं हो जो मदद कर सकता है।"

आमिष भावहीन सा सुनता रहा। जरूरत पड़ते ही आदमी कितना लचीला और मानवीय हो जाता है।
भूमिका कहने लगी, "मम्मी बहुत बीमार है, पापा ने लिखा है कि मैं तुम्हें लेकर जल्दी से जल्दी पहुँचूँ। तुम्हारे न जाने से मम्मी को सदमा लग सकता है। उन्हें सच्चाई बताने का यह सही वक्त नहीं है, प्लीज तुम हमें उबार लो इस मुसीबत से।"

आमिष समझ गया, पति के पद से अपदस्थ पति के लिए अब ऑफर था पति का अभिनय करने का। उसकी भावनाओं के साथ यह कितना क्रूर मजाक है! क्या वह कोई रोबोट है कि जब मन हुआ उसे ऑन कर दिया और जब काम निकल गया तो उसे ऑफ कर दिया! क्या इस युग की यांत्रिकता मनुष्य पर इतना हावी हो जायेगी कि जज्बात से हमारा कोई सरोकार नहीं रह जायेगा? उस मूल्य की तो ऐसी की तैसी कर ही दी गयी जिसके तहत पति के अलावा पर पुरुष से संबंध वर्जित माना जाता रहा है। यहाँ तो संबंध विच्छेद तक करने की जरूरत नहीं समझी गयी और जायका बदलने की तरह एक होटल अच्छा नहीं लगा तो दूसरे में चले गये। कहाँ पतित होकर रुकेगा हमारा यह समाज!

आमिष को पेशोपेश में पड़ा देख भूमिका ने उसे पोटने का एक और प्रयास कर लिया, "आमिष, तुम कोई उधेड़बुन मन में न लाओ। बहुत सारे उपकार तुमने मेरे ऊपर किये हैं। एक उपकार और कर दो। तुम इतने दुलारे रहे हो मम्मी के लिए कि वे तुम्हें जरूर देखना चाहेंगी।"
मन तो कर रहा था कि आमिष करारा जवाब देकर उसकी बोलती बंद कर दे कि यही है तुम्हारा प्यार जिसे अपने ही परिवार से सामना करने का साहस नहीं है और चली है पूरी दुनिया से टकराने!

आमिष ने बिना कोई जवाब दिये मौन सहमति दे दी। यह सच था कि उसकी माँ उस पर जान छिड़कती थी और उसे अपने बेटे की तरह प्यार करती थी। उन्हें कोई बेटा नहीं था, दो बेटियाँ ही थीं, इसलिए उसके प्रति उनका विशेष मोह था। एकबार तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि तुम दोनों हमारे पास ही रहकर हमारी पूरी जायदाद का वारिस बन जाओ। आमिष की यह आंतरिक इच्छा थी कि वे स्वस्थ हो जायें। आखिर उन्होंने तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। उनमें इतनी हार्दिकता और वात्सल्यता थी कि उन्हें एकबार फिर से महसूस करने की अभिलाषा किसी में भी जाग्रत हो सकती है। चलो यही सही, वक्त उसे एक पुतले की तरह जिस तरह नचा ले।

तय हुआ कि आमिष माँ-बेटे को अपने साथ लेकर जायेगा और वहाँ रिश्ते में किसी बदलाव आने की आहट नहीं लगने देगा। उल्टे यह प्रतीति करायेगा कि वे पूर्व की तरह आपस में जुड़े-गुंथे हुए हैं।

साथ चलते हुए निपुण बहुत खुश था कि आमिष का लंबा सान्निध्य उसे मिलने जा रहा है। वह इस बात के लिए भी उत्साहित था कि फिर से आमिष को पापा कहने का अधिकार उसे लौटा दिया गया। भूमिका ने नये संबोधन को मुल्तवी करके फिर से उसे पुराने संबोधन ‘पापा’ कहने का पाठ पढ़ा दिया था। दुनियादारी से अनजान निपुण को शायद ही यह पता होगा कि ऐसा कहीं नहीं होता कि पापा अंकल में बदल जाये और फिर से अपनी सुविधानुसार अंकल पापा में। निपुण को यह भी पता नहीं होगा कि रिश्ते जो एक बार बन जाते हैं वे कोई बनियान नहीं होते कि कभी चढ़ा लिया तो कभी उतार लिया।

आमिष ने वहाँ अभिनय करने में कोई कमी नहीं की और अपने चरित्र की हद का पूरा खयाल रखा। वे एक कमरे में रहे लेकिन एक दूरी बनाये हुए एकदम विरक्त-पृथक। भूमिका उसके इस व्यवहार से जैसे पानी-पानी होती गयी। चाहता तो यह आदमी अपनी मनमानी चलाने के लिए उसे मजबूर कर देता और अपने अभिनय की कीमत वसूल लेता। मगर क्षुद्रता और कमीनगी तो जैसे इसके शब्दकोष में थीं ही नहीं। भूमिका को ऐसा लगा कि अलग होने के बाद यह आदमी और भी वजनदार एवं कद्दावर होता जा रहा है तथा उसके हृदय से दूरी बढ़ने की जगह और कम होती जा रही है।

बीमार माँ ने पूरे परिवार को अपनी आँखों के सामने देखकर बेहद तसल्ली महसूस की और बीमारी को पराजित करने में अपनी बची-खुची पूरी प्राणशक्ति लगा दी। आमिष को उसने खूब लाड़-दुलार किया। आमिष, जैसा कि उसकी आदत थी, जाते ही उनकी देखभाल और सुश्रुषा का प्रभारी बन गया। डॉक्टर को दिखाना, समय पर दवा देना, भोजन का खयाल रखना, घर के बकाये और लंबित काम को दुरूस्त करना। उसके भक्ति-भाव और रागात्मकता को देखते हुए माँ ने अपनी एक पुरानी, स्थायी और मौखिक वसीयत एक बार फिर दुहरा दी थी, "देखो जी, मैं मरूँ तो मेरे मुँह में आग आमिष ही देगा तभी मुझे मुक्ति मिलेगी।"

बाबू जी उसे एकांत में बिठाकर उसके घर-गृहस्थी एवं नौकरी के बारे में निहायत निजी चिंता के साथ विस्तार से पूछताछ करने लगे। स्नेह और सान्निध्य की शुद्धता की तरंग ने ज्योंही उसे स्पर्श किया भीतर जैसे एक हाहाकार पसरने लगा, लगा कि बुक्का फाड़कर वह रो पडेगा और अपनी बियावान हो गयी गृहस्थी की तस्वीर सामने खोलकर दिखा देगा। उसने बमुश्किल खुद पर नियंत्रण किया और उनके सवाल का ‘अच्छा है',‘बढ़िया है’ जवाब देता गया। बाबूजी ने अपनी जेब से एक चेक निकाला और उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, "रख लो इसे, भूमि बता रही थी कि अब तक तुमने कार नहीं खरीदी। अपनी तरफ से कुछ मिला सको तो नयी खरीद लेना नहीं तो डेढ़ लाख में अच्छे कंडीशन की सेकेण्ड हैंड मारूति ८०० मिल ही जायेगी। भूमि को इसके बारे में मैंने नहीं बताया है, तुम वहाँ अचानक खरीदकर उसे चौंका देना।"

आमिष अचम्भित रह गया। क्या करे, क्या न करे, उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा गयीं। एक तरफ बेइंतहा विश्वास था, प्यार था और दूसरी तरफ हिकारत और अलगाव था। कदम-कदम पर उसके अभिनय की परीक्षा हो रही थी और हर कदम पर उसकी असलियत अभिनय की चिंदी-चिंदी कर दे रही थी। जानता था कि बाबूजी के ऐसे साधिकार उपहार के आगे आज तक उसकी कोई नानुकूर काम न आयी फिर भी कुछ तो उसे कहना ही था, "इसकी कोई जरूरत नहीं है बाबूजी, घर कार से नहीं प्यार से चलता है।"
बाबूजी ने कहा, "हमारे पास जो भी है, उसे तुमलोगों का ही होना है। रख लो इसे...घर में प्यार और कार दोनों हो तो गृहस्थी की चमक व खुशबू और बढ़ जाती है।"

आमिष को लग रहा था कि यह दोहरा चरित्र उससे देर तक नहीं जिया जा सकेगा। इस घर में उसके लिए उमड़े हुए स्नेह-सागर की लहरें उससे सहन नहीं हो सकेंगी। ये लोग कितने पारदर्शी, निश्छल व सच्चे हैं और एक वह है कि इनके साथ छल किये जा रहा है।
रात में उसने भूमिका को कह दिया,"अब यहाँ मुझसे नहीं रहा जायेगा। कोई बहाना करके सुबह मैं यहाँ से चला जाऊँगा। माँ जी की तबीयत अब काफी ठीक हो गयी है और अब वे खतरे से बाहर हैं।"
"आमिष, मैं तुम्हारी बेहद कृत्तज्ञ हूँ, तुमने जो मेरे लिए किया शायद इस जमाने में कोई नहीं कर सकता। इतना किया, क्या एक कृपा और कर दोगे?"
"बताओ, और क्या करना बाकी रह गया है।" बेरूखी से कहा आमिष ने।
"अलग होने की पृष्ठभूमि तैयार करनी होगी, मैं तुम पर कुछ आरोप लगाऊँगी, तुम्हें अपनी कमजोर दलील देकर या फिर मौन रहकर उन्हें स्वीकार करने की मुद्रा बनानी होगी।"

लगा कि किसी ने उसके पैर तले की जमीन खींच ली। अपने स्वार्थ के लिए कोई कितना नीचे गिर सकता है, इससे बड़ी मिसाल और क्या होगी। उसने चिढ़ते हुए कहा, "मतलब, मुझे तुम अपने परिवारवालों की नजरों में गिराना चाहती हो?"
"आमिष, ऐसा करते हुए, मैं खुद की नजरों में भी कम नहीं गिर रही, लेकिन अब और उपाय भी क्या है। प्यार की तरफ बढ़े हुए कदम अब वापस तो नहीं हो सकते। कल को इन्हें अचानक जानकर जोरदार आघात पहुँचे, इसके पहले मेरे द्वारा तुम पर लांछन मढ़ देने से इन्हें इस बात का संकेत मिल जायेगा कि हमारे रिश्ते में खटास है और वह कल कोई भी मोड़ ले सकता है।"
लगा कि आमिष खून के आँसू रो पड़ेगा, कितना जलील करेगी यह औरत मुझे!
उसने रात में ही, जब माँ सो गयी तो सबको एक जगह एकत्रित किया और वह कहने लगी, "पापा, आप जिसे संत, शरीफ और सुयोग्य समझते हैं वह भेड़िया है, राक्षस है। यह आदमी छोटी-छोटी बातों पर कसाई की तरह मेरी पिटाई करता है। मुझे जरा भी यह प्यार नहीं करता और गंदी-गंदी गालियाँ देता है। यहाँ आपलोगों को सम्मान देने का ढोंग करता है लेकिन पीठ पीछे सबके नाम से घिन करता है। विशेषकर माँ को तो यह रंडी, कुत्ती, छिनाल जैसा घृणित और बदबूदार लांछन लगाकर मुझे प्रताड़ित करता है। अब हमसे इसका अत्याचार बर्दाश्त नहीं होता।" कहते हुए भूमिका ने आँखों में घड़ियाली आँसू भर लिये।

अत्याचार जिस पर हो रहा है, अत्याचार करनेवाला उसे ही अत्याचारी बता रहा है। इस अन्तर्विरोध पर आमिष की आत्मा विलाप कर उठी थी और वह सबके सामने अपना सिर फोड़ लेना चाहता था। मगर उसे तो अभिनय करना था, अपने परिवार की नजरों में भूमिका नेक बनी रहे, इसका आधार तैयार करने में मदद कर देनी थी। अब उसे इनकी निगाह में अपनी छवि की परवाह करने की कोई तुक नहीं थी, चूँकि भूमिका से उसका कोई रिश्ता ही नहीं रहना था, इसलिए दोबारा यहाँ आने का भी कोई सवाल नहीं था।

वह दुत्कार-फटकार और नसीहत सुनने की मानसिकता बना ही रहा था कि बाबू जी ने कहना शुरू कर दिया, "आज तक मैंने आदमी की पहचान करने में धोखा नहीं खाया। बहरहाल, अगर यह सच है तो चलो हम इसे नजरअंदाज कर देते हैं यह मानकर कि आदमी की मति-गति एक समान नहीं रहती। लेकिन आइंदा हमें ऐसी कोई शिकायत न मिले इसका खयाल रहे। आमिष, तुम जानते हो कि भूमिका मेरी लाडली बेटी है और उसे हम किसी भी हाल में दुखी नहीं देख सकते। हम चाहते हैं कि तुम दोनों ही खूब सुखी रहो।"

बहुत भद्र तरीके से बाबूजी ने मामला सलटा दिया था। घर में खुसुर-फुसुर का दौर शुरू हो गया था। भूमिका की छोटी बहन तूलिका और उसके पति को मौका मिल गया था अपनी सफेदी और चमक को बेदाग साबित करने का। वे मन ही मन आमिष को मिलनेवाले भाव और सत्कार से कुंठित रहते थे। वह लगभग सुनाते हुए कह रहा था, "मुझे तो पहले ही लगता था कि यह आदमी एक नंबर का ढोंगी और नौटंकीबाज है, देखा पोल खुल गई न!"
माँ को इन बातों से अलग रखा गया वरना पता नहीं उनकी क्या प्रतिक्रिया होती।

आमिष ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही बिना बताये वहाँ से चल पड़ा। स्टेशन पहुँचा तो देखा पीछे से बाबू जी भी आ गये हैं। उन्होंने बेहद गर्व और अनुराग से उसकी आँखों में झाँका और उसकी हथेलियों को अपने हाथों में भर लिया, "बेटा, मुझे बहुत पहले से मालूम है कि तुम दोनों के बीच क्या कुछ चल रहा है। आज तुम हमारे जिगर के और भी पास हो गये हो। हम अचम्भित हैं कि कैसे सह लेते हो तुम इतना कुछ। बिना कुछ किये भी अभियोग स्वीकार कर लेते हो, तुम तो जान-बूझकर जहर पीनेवाले भगवान शंकर से भी बढ़ गये। भूमिका ने जो कुछ किया उसे माफ करने के लिए मैं तुम्हें नहीं कह रहा, लेकिन संभव हो और तुम्हारे सामने प्रस्ताव आये तो निपुण को ध्यान में रखकर एक बार पुनर्विचार जरूर कर लेना। वह लड़का तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। मुझे कह रहा था कि ‘नाना, आप हमारे मम्मी-पापा को यहीं रोक लो, नहीं तो वहाँ जाकर वे फिर अलग हो जायेंगे और पापा को मुझे अंकल कहना पड़ेगा।"
आमिष का गला भर आया। ट्रेन आ गयी थी। उसने जेब से चेक निकालकर बढ़ा दिया, "अब तो आप इसे लौटा लीजिये बाबूजी।"
"नहीं बेटे, अब तो इसकी और भी जरूरत है। मैंने कार खरीदने के लिए चेक दिया है जिसमें तुम और भूमिका साथ सफर कर सको। देखना बेटे, कार खरीदने की गुंजाइश निकाल सको तो जरूर निकालना।"

आमिष ने उनके पाँव छुए तो उन्होंने बीच में ही रोककर उसे अपनी छाती से लगा लिया। गाड़ी चलने लगी तो आमिष अलग हुआ। पायदान पर चढ़कर हैंडिल पकड़े वह देख रहा था, बाबू जी की आँखें निर्झर की तरह बरस रही हैं।
भूमिका अपने हिसाब से अपना आधार पुख्ता करके और आमिष के खिलाफ काल्पनिक बुराइयों की लंबी फेहरिश्त स्थापित करके दो दिन बाद वापस आ गयी। सुमित ने जब पूरा वृतांत सुना तो आमिष पर उसकी मुग्धता और बढ़ गयी। पहली बार उसे लगा कि उसने सचमुच एक ऐसे आदमी के प्रति नाइंसाफी कर दी है जो प्रेम की गहराई समझने के मामले में उससे कई गुना आगे है।

आमिष से सुमित के मिलने की तलब बढ़ गयी थी। वह देख रहा था कि निपुण भी खिड़की से रास्ते को दूर तक निहारता रहता है। सुमित खुद ही चला गया उससे मिलने और कई रोज लगातार जाता रहा। हमेशा ताला लगा पाया। उसकी चिंता बढ़ गयी। एक दिन अचानक आ गया आमिष, उदास, मायूस, थका-थका। सुमित ने लक्ष्य किया कि भूमिका को उससे आँख तक मिलाने का नैतिक साहस नहीं हो रहा है। उसने बिना देर किये अपनी जेब से दो जीवन बीमा के पॉलिसी पेपर निकाले। सुमित की ओर बढ़ाते हुए कहा, "इन्हें रख लो। दो पॉलिसी कराये थे, एक भूमिका के लिए और एक निपुण के लिए। तुम्हें कोई दिक्कत हो तो इनकी किश्तें मैं देता रहूँगा। निपुण के १६ साल के हो जाने पर ६० हजार हर साल मिलने लगेंगे पढ़ाई के लिए। और ये रहा डेढ़ लाख रुपये का चेक, जिसे बाबूजी ने दिया था मेरे नाम से कि मैं इस पैसे से कार खरीदूँ और भूमिका के साथ उसमें घूमूँ। उसे मैंने अपने बैंक में क्रेडिट करवाकर तुम्हारे नाम से चेक बना दिया है ताकि जो काम मैं न कर सका, वह तुम कर सको।"

भूमिका और सुमित अचम्भित थे। चाहता तो सारा का सारा सीधे हजम कर लेता यह आदमी, बाबूजी ने चेक दिया लेकिन भूमिका को इसकी भनक तक नहीं थी। जिस तरह इसे उत्पीड़न और मानसिक यंत्रणा झेलनी पड़ी कि गुस्से में इधर घास तक डालने नहीं आना चाहिए। लेकिन निश्चय ही इसके भीतर समाया वह प्यार का जज्बा ही है कि अपने को रोक नहीं पाता है।
आमिष का आव-भाव और बर्ताव एकदम बदला हुआ सा प्रतीत हो रहा था। पता नहीं क्यों सुमित को लगा कि कुछ असामान्य घटित हुआ है या होनेवाला है।
आमिष चला गया निपुण के पास। आमिष की मनोदशा देखकर उसे थाहने के खयाल से सुमित ने अपने कान इस तरफ ही लगा दिये। निपुण उसे देखते ही हजार जिज्ञासायें लेकर उससे चिपक गया। आमिष ने कहा, "आज मैं तुम्हारे सवालों का ज्यादा जवाब नहीं दे पाऊँगा बेटे। मेरी तबीयत ठीक नहीं है।"
"सिरदर्द है, मैं आपका सिर दबा दूँ, पापा?"
"पापा नहीं, अंकल। सुमित तुम्हारे पापा हैं।"
"नहीं आप मेरे पापा हैं, मैं आपको ही पापा कहूँगा। मैं मम्मी की बात नहीं मानूँगा।"

निपुण को सीने से लगाकर धारासार रोने लगा आमिष। बहुत देर रो लेने के बाद अपने को संयत किया उसने, "मेरी बात ध्यान से सुनो निपुण। दुनिया में सबको सब कुछ नहीं मिलता। मुझे तुम नहीं मिल सकते और तुम्हें मैं नहीं मिल सकता। तुम्हें मेरे बिना बड़ा बनना होगा निपुण और मुझे तुम्हारे बिना बूढ़ा होना होगा। मैं न आऊँ तो यह न समझना कि मैंने तुम्हें भुला दिया...भुला नहीं सकूँगा मैं तुम्हें इस जनम। चलता हूँ, अपना खयाल रखना।"
बदहवास सा देखता रह गया निपुण और आमिष तेजी से निकल गया बाहर।

सुमित को रात भर नींद नहीं आयी। क्या आमिष कहीं जा रहा है? क्या कल से वह कभी नहीं दिखेगा? फिर निपुण का क्या होगा? कैसे जियेगा यह लड़का ? भूमिका कहती है कि निपुण मेरा बेटा है। खैर इसमें खून चाहे जिसका हो इसका बाप तो आमिष को ही होना चाहिए। उससे ज्यादा प्यार इस बच्चे को कोई नहीं दे सकता। आज आमिष का कद इतना बड़ा हो गया है उसके सामने कि उसकी आँखों में नहीं अँट रहा। इतना बढ़िया आदमी, प्यार से भरा हुआ, उदारता से भरा हुआ, विनय से भरा हुआ, सांसारिकता से भरा हुआ, सच्चाई से भरा हुआ, भूमिका जब ऐसे आदमी की न हुई तो उसकी भला क्या हो सकेगी? उसमें एक अजीब बेकली समा गयी और वह पुकार उठा भूमिका को। उसने कहा, "भूमिका, मैं बेशक तुमसे प्यार करता हूँ, लेकिन आज इस सच को मुझे स्वीकार करने दो कि जितना तुम्हें आमिष प्यार करता है, मैं नहीं कर सकता। तुम्हारा घर दरअसल वहीं होना चाहिए। इसके पहले कि कुछ अनहोनी घटित हो तुम उसे रोक लो, तुम उसे बचा लो। तुम्हारे पापा, तुम्हारा बेटा और तुम्हारे सारे परिजन यही चाहते हैं।"

भूमिका को लगा जैसे सुमित ने बोधिसत्व उड़ेल दिया उसके दिलो-दिमाग में। सुमित जो कह रहा है वह बिल्कुल सच है।

सुबह होने की वे बेकरारी से प्रतीक्षा करने लगे। पौ फटते-फटते आमिष के घर में वे हाजिर थे। मगर घर खाली था। पड़ोसियों ने बताया कि कई दिनों से थोड़े-थोड़े सामान हटाये जा रहे थे। रात में अंतिम खेप भी पूरी हो गयी। आमिष कहाँ चला गया किसी को कुछ पता नहीं।

६ अप्रैल २०१५

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