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					 बड़े 
					ताऊजी कलकत्ते से लौटे। सुबह ही सुबह उनको मंजन के लिए लोटे 
					से पानी देते–देते नौ वर्ष के विजय ने एक बड़ी अजीब बात बड़े ही 
					रहस्यपूर्ण स्वर में उन्हें सुनाई- “आपको पता है, ताऊजी? 
					आजकल घर में से पैसे बहुत गायब हो रहे हैं!” 
 मुँह में भरा मंजन थूकते हुए बड़े ताऊजी ने हैरान होकर पूछा, 
					“पैसे गायब हो रहे हैं! कैसे? कौन कर रहा है?”
 
 “यही तो पता नहीं कि कौन कर रहा है,” विजय ने परेशान होते कहा, 
					“पर जब से आप गए हैं बहुत से पैसे गायब हो चुके हैं। दादी ने 
					पानदान में सुबह को पाँच रुपये का नया-नया नोट रखा था, सो शाम 
					को गायब हो गया। बड़ी ताईजी के बटुए में से भी दो रुपये एक बार, 
					साढ़े तीन एक बार किसी ने निकाल लिये... और भी बहुत से पैसे रोज 
					ही गायब हो जाते हैं।“
 
 कुल्ला-मंजन करना मुसीबत हो गया बड़े ताऊजी को। जल्दी-जल्दी 
					किसी प्रकार मुँह-हाथ धो कर अंदर गए। भीतर विजय की माँ और चाची 
					ताऊजी के लिये नाश्ता लगाकर बाहर भेज रही थीं। अचानक जेठजी को 
					आया देखकर दोनों ने लंबा-सा घूँघट काढ़ लिया।
 
 “अरी अम्मा, यह विजय क्या कह रहा है, घर में से रोज पैसे 
					गायब हो रहे हैं?”
 
 ठाकुर जी की मूर्ति को नहलाती ‘हरि ओम, हरि ओम’ करती विजय की 
					दादी ने विजय की ओर ऑंखें तरेरते हुए उसे डाँट लगाई: “क्यों 
					रे, देवदूत! तुझे पढ़ना-लिखना या कुछ और काम नहीं है जो 
					सुबह-सुबह आते ही लड़के को परेशान कर दिया इन छोटी-छोटी बातों 
					से?”
 
 “यह छोटी बात है, अम्मा?” बड़े ताऊजी ने बिगड़ कर कहा, “बड़े 
					ताऊजी ने बिगड़कर कहा, “कमाल करती हो तुम भी, घर से रुपये उड़ 
					रहे हैं और तुम्हें छोटी बात लग रही है! इत्ते बड़े घर में से 
					तुम्हें पता लग सकता है कि क्या-क्या उड़ रहा है, 
					क्या-क्या उड़ गया है? इत्ती चीजें हैं-बर्तन-भाँडे, 
					कपड़े-लत्ते सभी कुछ पड़ा रहता है”
 
 “अरे, दो- चार रुपये के लिये...” दादी नहीं चाहती थीं कि उनका 
					लड़का घर में आते ही परेशान हो...
 
 “नहीं, अम्मा, दो- चार रुपये नहीं, कल को कीमती चीजें और जेवर 
					भी उड़ने लगेंगे। आखिर कौन उड़ाता है? कोई भूत-प्रेत तो ले नहीं 
					जाते। चार-चार नौकर हैं, उनमें से तो कोई नहीं?”
 
 “हाँ, मैं भी यही सोचती हूँ, भैया, देखो महरी तो इस कमरे में 
					आती नहीं, यहीं मेरा पानदान रहता है। महाराजिन कभी-कभी पान 
					बनाकर खाती है, पर उसे तो पंद्रह बरस हो गए कभी छदाम भी नहीं 
					गया। हाँ, भैया, माली या मालिन जरूर रोज आते हैं पर वे भी सब 
					जगह नहीं जाते। हाँ, इस रमुआ पर जरूर शक होता है। तुम्हारे 
					जाने के बाद एक दिन चालीस रुपये माँग रहा था। कह रहा था गाँव 
					में बच्चा बीमार है। मैंने समझा बहाना बना रहा है सो बीस ही 
					रुपये दिये। फिर उसने भी नहीं माँगे।“ दादी जानती थीं कि इस 
					बात पर बड़े ताऊ नाराज होंगे, इसी कारण घबड़ा रही थीं।
 
 “यही बात तो बुरी है, अम्मा, अब वह बेचारा हमारे घर काम करता 
					है, तो किसी और से तो माँगेगा नहीं। आखिर उसके बच्चे के लिये 
					दवादारु तो चाहिए ही।"
 
 ताऊजी ने ढंग से नाश्ता भी नहीं किया। इस पर सभी दादी, माँ, 
					चाची विजय को डाँटती रहीं कि न उन्हें खाने दिया न पीने दिया, 
					बस जाकर अच्छी-बुरी जड़ दी, जैसे इसी की रोकड़ तो उड़ी जा रही 
					है!”
 
 उधर ताऊजी माथे पर सलवटें डाले, पीछे हाथ बाँधे बरामदे में 
					इधर-उधर टहल रहे थे।
 
 जब विजय ने ताऊजी का यह रंगढंग देखा, तो वह भी बड़ा परेशान और 
					चिंतित हो गया। कुछ सोच कर उसने गेंद उठाई और विनय को साथ लेकर 
					खेलने के बहाने बाहर आ गया। विनय उस का चचेरा भाई था।
 
 “यार, विनय यह तो बड़ा गड़बड़ हो गया।“
 
 “क्या?”आठ वर्ष के विनय ने कुतूहल से पूछा।
 
 “अरे, मैंने तो सोचा था कि दादी और बड़ी ताई जी बड़े ताऊजी को 
					ज़रूर बताएँगी कि पैसे गायब हो रहे हैं। बाबूजी और चाचाजी को तो 
					उन्होंने इसलिए नहीं बताया था कि वे एक सिरे से नौकरों को 
					मारना शुरू कर देते या सबको निकाल बाहर करते। इसलिए मैंने सोचा 
					कि अगर मैं ही उनसे पहले बता दूँ, तो कम से कम हम लोगों पर तो 
					शक नहीं जाएगा। पर अब लगता है कि ताऊजी तो चोर पकड़ कर दी दम 
					लेंगे।“
 
 “फिर अब क्या करें?” विनय ने पूछा।
 “ऐसा करो, श्यामू काका के पास चलें।“
 “पर अम्मा ने खोजा, तो?”
 
 “क्या खोजेंगी? आज तो इतवार है, स्कूल तो जाना नहीं... 
					अच्छा जा अंदर दौड़ कर कह आय कि हम लोग सुरेश-दिनेश के घर जा 
					रहे हैं।“
 
 विनय जब भीतर से लौट आया, तो दोनों श्यामू काका के पास 
					पहुँचे। वह मैली-सी लुंगी और उससे भी मैला बनियान पहने अपने 
					चबूतरे पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। इन दोनों को आते देखा, 
					तो जल्दी से हुक्का उठाया और लपक कर अपनी टूटी-सी कोठरी में 
					घुस गए।
 
 चौकन्नी निगाहों से इधर-उधर देखकर ये दोनों भी धीरे से काका 
					की कोठरी में घुस गए।
 
 “लाए कुछ?” श्यामू काका ने पूछा।
 
 दोनों ने मुँह लटका कर सिर हिला दिया। और धीरे-धीरे विजय ने 
					सुबह का सारा किस्सा सुना दिया।
 
 “अब भुगतो तुम, सारा गुड़ गोबर कर दिया। अरे बछिया के ताऊ, वह 
					बुढ़िया तेरी दादी तेरे ताऊ को, बाप को, चाचा को भी कुछ घर का 
					बना-बिगड़ा नहीं बताती है... तुझे इतना भी नहीं मालूम जो आते ही 
					अपने ताऊ जी को सब कुछ बता दिया।“श्यामू काका गुस्से से 
					काँपते हुए बोले।
 “तो काका अब क्या उड़न खटोला नहीं आ सकता?” विजय ने बुझी-बुझी 
					आवाज में पूछा।
 “कैसे आ सकता है? मैंने बताया था न कि उसके लिए बहुत सारे 
					रुपये चाहिए।"
 
 तभी कोठरी में धीरे से सुरेश ने झाँका। काका ने खुश होकर उसका 
					हाथ पकड़ कर अंदर खींच लिया। उसके साथ ही उसका छोटा भाई दिनेश 
					भी था।
 
 सुरेश ने, जो लगभग दस या साढ़े नौ का होगा, एक-एक रुपये के छह 
					नोट काका के हाथ में थमा दिए और उन्होंने चटपट अपने जंग लगे 
					संदूक में सँभाल कर रख दिए।
 
 फिर आराम से एक लंबी जमुहाई ले, मुँह के आगे दो बार चुटकी बजा 
					वह विजय की तरफ घूमे- “हाँ तो, विजय भाई, मेरी समझ से तो अब आप 
					घर में बैठकर ढपली बजाइए और उड़न खटोले का चक्कर छोड़िए।"
 
 विजय रूआँसा हो रहा था और उससे भी अधिक विनय। उसे तो विजय पर 
					गुस्सा भी बहुत आ रहा था, कि उसने सब किए-कराए पर पानी फेर 
					दिया।
 
 तभी दिनेश बोल उठा- "काका, हमारी दीदी तो कहती है कि आसमान के 
					तारे बहुत बड़े-बड़े हैं- हमारे घर से भी बड़े, पूरे बाजार से भी 
					बड़े!”
 
 “चुहिया है तेरी दीदी! उसे कुछ पता भी है? मैंने तो खुद आसमान 
					से जाकर तारे तोड़े हैं फूलों की तरह। वाह! क्या मजा आता है!” 
					काका ऑंखें बंद कर ऐसे मस्त हो गए जैसे सचमुच तारे ही तोड़ रहे 
					हों।
 
 “हाँ, काका, मेरे बाबूजी भी बता रहे थे कि तारे सारे शहर से भी 
					बड़े होते हैं,” विनय ने दिनेश का समर्थन किया,-
 
 “खाक कह रहा था तेरा बाप...कभी चढ़ा भी है वह उड़न खटोले पर? अरे 
					जब मैं अपनी नानी के यहाँ से उड़न खटोले पर मामा के साथ आता था, 
					तो तेरे बाप, चाचा, ताऊ, सब देख-देख कर बड़े ललचाते थे। अब कहते 
					हैं कि तारे इत्ते बड़े, उत्ते बड़े! अरे बछिया के ताऊ, यह सब 
					बड़े लोग बच्चों को इसलिए गलत-सलत बातें बताते हैं कि अगर वे 
					तुम्हें बताएँ कि आसमान में तारों के फूल महक रहे हैं, तो तुम 
					उनसे तोड़ने की जिद नहीं करोगे क्या? वह गाना नहीं सुना तुमने- 
					झोली भर तारे ला दो रे!” और काका अपनी बेसुरी लय में गाने लगे- 
					“झोली भर तारे ला दो रे...”
 
 “तो, काका तुम किसी को चिट्ठी लिख दो कि उड़न खटोला तुम्हारी 
					नानी के घर से यहाँ ले आए,” विजय ने सुझाव दिया।
 
 “किसको लिख दूँ?” काका बिगड़ गए। “मैंने बताया न; नाना मर गए- 
					मामा मर गए, सब कोई मर गए। अकेली नानी अपना डुगडुगिया सिर लिये 
					धर में भूतनी-सी डोलती है। उड़न खटोला एक पुरानी कोठरी में 
					वर्षों से बंद पड़ा है। दूसरे किसी को पता लग गया, तो वह खुद 
					मजे करेगा। मैं जाऊँगा और खटोले में कुछ टूट-फूट होगी, तो 
					मरम्मत करुँगा। फिर खटोला यहाँ लाऊँगा। पर, भैया मेरे, नानी 
					के घर जाने तक के लिए किराया तो जुटे पहले। इत्ते रुपये 
					चाहिए-इत्ते...” कह कर काका ने अपने दोनों हाथ फैला दिए।
 
 “पर, काका, ताऊ जी का शक तो रमुआ पर है। उसने दादी से रुपये 
					माँगे थे, दादी ने दिए नहीं,” विजय ने अचानक याद आने पर जल्दी 
					से कहा।
 
 “अच्छा!” काका ने बड़े खुश होकर पूछा।
 
 “हाँ, काका।"
 
 “तो बेटा, कोई फिकर नहीं। बस जरा होशियारी से काम करना, रमुआ 
					के निकलने के बाद ही उड़ाना रुपये, जिससे किसी को शक न हो। वैसे 
					कोई बात नहीं, भैया, खटोला तुम जानो ऐसी-वैसी चीज तो है नहीं, 
					शाही खानदान की शाही चीज है। साल में एक बार जी भर के उड़ा लो 
					तो उड़ा लो, फिर नहीं उड़ता। अच्छा अब तुम चारों जाओ। किसी को 
					पता चल गया, तो सब चौपट हो जाएगा।"
 
 रास्ते में दिनेश उछलते-उछलते कह रहा था, “मैं तो यों-यों 
					लपक-लपक कर तारे तोड़ूँगा, दो बड़े-बड़े झोले भर कर लाऊँगा!”
 
 श्यामू काका और बड़े ताऊजी एक ही खानदान के हैं। उन लोगों के 
					पुरखे एक ही थे। फिर धीरे-धीरे दूर होते चले गए। अपनी खराब 
					आदतों के कारण श्यामू काका के बाप ने घर का सब कुछ उड़ा दिया। 
					रहा-सहा जो कुछ था वह श्यामू काका ने शराब की भेंट कर दिया। 
					काकी जब तक रहीं, मर-खप कर घर की गाड़ी अपने कमजोर कंघों से 
					खींचती रहीं। अब वह भी नहीं रहीं। आलसी श्यामू काका न कुछ 
					करते न धरते। आखिर घर के बर्तन-भाँडे भी कब तक साथ देते?
 
 बड़े ताऊजी ने श्यामू को कई बार समझाया। आखिर तंग आ कर 
					उन्होंने उस को घर में आने से मना कर दिया। फिर भी कभी–कभी 
					आटा-दाल आदि सामान वह उनको भेज देते। पर पैसा एक भी नहीं देते 
					थे।
 
 कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है। सो श्यामू काका की 
					शराब की आवश्यकता ने एक काल्पनिक उड़न खटोले का आविष्कार कर 
					लिया और विजय और विनय तथा उनके दोस्त सुरेश-दिनेश को भी इस 
					उड़न खटोले पर काल्पनिक चक्कर खिला-खिला कर उनके बाल सुलभ मन 
					को जीत अपने वश में कर लिया।
 
 शाम को दादी के पानदान में पंद्रह रुपये पड़े थे। ताऊजी ने रमुआ 
					को पानदान में से सुपारी और इलायची लाने को भेजा। सब लोग खाना 
					खाने रसोई में बैठे थे। ताऊजी ने छत के झरोखे में से देखा—रमुआ 
					के निकलते ही विजय दादी के कमरे में घुसा और दो मिनिट अंदर 
					रहकर फिर बाहर चला गया। यह देख कर ताऊजी तेजी से पीछे का जीना 
					उतर कर जल्दी से सड़क पर आए और कुछ दूरी रख कर विजय का पीछा 
					करने लगे। दूर से उन्होंने देखा कि श्यामू विजय को आता देखकर 
					एकदम हुक्का उठा कर अंदर कोठरी में चला गया है। यह देखकर 
					गुस्से के मारे ताऊजी के तन-बदन में आग लग गई। वह झपट कर 
					कोठरी के दरवाजे पर पहुँचे और किवाड़ों से कान लगा कर खड़े हो 
					गए।
 
 श्यामा काका खुश हो कर कह रहे थे-“आज इकट्ठे पंद्रह रुपये ले 
					आया रे, वाह!”
 
 “हाँ, काका, आज तो रमुआ जैसे ही दादी के पानदान से सुपारी लेकर 
					निकला, वैसे ही मैंने चट से रुपये पार कर लिये। अब सबको रमुआ 
					पर ही शक होगा। पर काका, उड़न खटोला लाने के लिए अब तो रुपये 
					पूरे हो गए ना?”
 
 “अरे, तू अभी बच्चा है; तुझे कैसे समझाऊँ कि नानी का घर 
					कित्ती दूर है, वहाँ जाने के लिये कित्ता रुपया चाहिए। पर 
					थोड़े दिन और इसी तरह लाते रहे, तो जल्दी ही वहाँ पहुँचने का 
					जुगाड़ बन जाएगा।"
 
 तभी चौंक कर दोनों ने देखा कि ताऊजी किवाड़ खोलकर दरवाजे पर लाल 
					आँखें किए दोनों को ऐसे देख रहे हैं कि कच्चा ही खा जाएँगे। 
					विजय का हाल तो यह कि काटो तो खून नहीं। श्यामू काका की भी 
					सिट्टी-पिट्टी गुम!
 
 “क्यों रे, विजय, तुझे तो पता ही नहीं कि पैसे कौन उड़ाता है? 
					क्यों, चोरी करके शाह बन रहा था?” कहकर विजय के कान खींच कर 
					ताऊजी ने कस कर एक थप्पड़ लगाया।
 
 “और तुम, श्यामू, तुम्हारे लिए मैं क्या कहूँ ... कैसे नीच 
					आदमी हो गए हो तुम! शराब के लिये बच्चों से चोरी करवाते हो और 
					कहते हो नानी के यहाँ से उड़न खटोला लाओगे! क्यों, तुम्हारी 
					नानी का घर कहाँ है, बताओं तो जरा।“
 
 श्यामू चुप।
 
 “अगले मुहल्ले में है कि नहीं, बोलो?” ताऊजी ने कड़क कर कहा,” 
					और यह भी बताओ कि तुम्हारी खराब आदतों के कारण उन लोगों ने 
					तुम से नाता तोड़ लिया है कि नहीं? ...और आज से मेरा भी नाता 
					टूटता है तुमसे। तुम मेरे बच्चों से चोरी करवाते रहे। शर्म 
					नहीं आई!”
 
 श्यामू काका निगाहों से छत के तारे तोड़ने लगे, पैर के अँगूठे 
					से फर्श खोद कर पाताल लोक में पहुँचने की जुगत भिड़ाने लगे।
 
 “अच्छा, रे विजय,” ताऊजी ने रोते थरथर काँपते विजय की तरफ देख 
					कर कहा, “तुझे भी दिखा दूँ कि तेरे काका ने किराये के लिए 
					कितना रुपया जोड़ा है।"
 
 यह कह कर उन्होंने ऊपर आले से चाभी उठा कर श्यामू का संदूक 
					खोला और पिटारी के अंदर से कपड़े में बँधे सोलह रुपये निकाल कर 
					विजय के सामने कर दिए- “देख, पंद्रह रुपये अभी तू दादी के 
					पानदान से चुरा कर लाया और एक रुपया पहले का। इत्ते दिनों से 
					तू रुपये चुरा-चुरा कर ला रहा था, उसकी यह शराब पीता है। क्या 
					तू समझता है दुनिया में
  सचमुच में उड़न खटोला होता है?” 
 वे सोलह रुपये श्यामू के ऊपर फेंक कर ताऊजी ने विजय का हाथ 
					पकड़ा और बाहर आ गए।
 
 इधर बड़े ताऊजी विजय का हाथ पकड़े सारी कथा उससे सुनते जा रहे 
					थे। उधर कोठरी में दोनों हथेलियों पर सिर-टिकाए जमीन पर बैठे 
					श्यामू काका विमूढ़ से अपने सामने पड़े सोलह रुपये देखे जा रहे 
					थे।
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