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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से मंजु मधुकर की कहानी— त्रिनेत्र को चुनौती


कभी सुना था कि भोले शंकर का तीसरा नेत्र भी है, क्रोध में आने पर ही प्रकट होता है और अपनी क्रोधाग्नि से समस्त ब्रह्मांड हो भस्म कर देता है। परंतु यह क्या, कामदेव को भी तो भस्म किया था, फिर वह क्यों किसी-न-किसी पर सवार हो न उम्र देखते हैं, न समय, न ही परिवेश।

ऐसा भान होता है कि पल-प्रतिपल वह भोले बाबा को उकसाते रहते हैं कि लीजिए, मैं अनंग हुआ तो क्या, आप मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सके और न कभी मेरा अहित करने में सफल हो सकेंगे। जब मैं अंगीय था तो केवल आप ही मेरे बाणों से घायल हुए, परंतु अब तो अंग-विहीन हो अनंग बन समस्त ब्रह्मांड को कँपाता रहूँगा। कई बार तो किसी-न-किसी पर यूँ सवार हो जाते हैं कि स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। ऐसा ही एक दिलचस्प किस्सा है जया के बड़े भैया का।

जया अपने सरकारी विशाल बँगले के बाह्म बरामदे में बैठी सामने दीवार पर टँगी भोले शंकर की तस्वीर के त्रिनेत्र को देखती सोच रही थी, जहाँ किसी श्रद्धालु चित्रकार ने अत्यंत दक्षता से शंकरजी का त्रिनेत्र दर्शाया था। जया के नेत्र तस्वीर पर थे और हाथ में था जया की बड़ी भाभी का विस्तृत पत्र। आज कितने बरसों पश्चात अपनी प्रिय भाभी की हस्तलिपि देखकर वह पुलकित हो रही थी।

परंतु उस पत्र को पत्र ककहना सरासर मूर्खता होगी, वह था शिकायतों का पुलिंदा, जिसमें बड़े भैया के फिर किसी नारी-रत्न से उलझ जाने की किस्सागोई को अत्यंत बढ़ा-चढ़ाकर लिखा गया था। उसमें पिछले वे सभी किस्से भी थे जो हम सब भाई-बहनों की दृष्टि में टाँय-टाँय फिस्स हो चुके थे, परंतु भाभीजी के दृष्टिकोण से वे अभी तक महत्वपूर्ण थे। उनके हिसाब से इस बार स्थिति अति गंभीर हे और जया एवं उनके पति दिनकर को तुरत-फुरत मामला रफा-दफा करवाना चाहिए। वे लोग वहाँ आएँ और स्थिति का जायजा लें।

शिकायतों के इस बड़े पुलिंदे में भाभीजी ने क्रोध में आकर अपने उन स्वर्गवासी स्नेहशील सास-ससुर को भी नहीं बख्शा था, जिन्होंने उन्हें पुत्री जैसा स्नेह एवं पुत्रवधू योग्य मान दिया था। और न ही अपने कुशाग्र बुद्धिमान स्नेहिल योग्य इंजीनियर पति को। हाँ, बड़े़ भैया थोड़े रोमांटक किस्म के तो प्रारंभ से ही हैं, तो कौन नहीं होता ? उनके हिसाब तो सदैव ही वह बड़े भैया द्वारा त्रस्त होती रही हैं।

विद्रूपता से जया मुस्करा उठी, हमारी पचास बरस की भाभीजी में परिपक्वता नाम मात्र को भी नहीं है। माता-पिता की इकलौती संतान और गृह की प्रथम वधू होने के नाते सदैव प्रमुखता पाती रही हैं। बड़े भैया शुरू-शुरू में उन्हें छुई-मुई बनाकर रखते। दोनों में उम्र का फासला कम था, अतः दोनों में ही परिपक्वता की कमी थी। कालांतर में दोनों दो-दो बेटों के माँ-बाप भी बने। कंपनी के कार्य से यूरोप, अमेरिका सभी जगह सपरिवार घूम आए। परंतु जहाँ या जब भी भाभी को अपनी स्थिति गौण लगती अथवा बड़े भैया का ध्यान उनकी ओर से तनिक सा भी हटा तो भाई साहब से रुष्ट हो उनपर न जाने कितनी तोहमत लगा देतीं- यह खर्चा पूरा नहीं देते, बच्चों की पढ़ाई नहीं देखते, मुझे मायके नहीं जाने देते, फलाँ मित्र पत्नी की अधिक प्रशंसा करते हैं आदि-आदि। बहरहाल, हम सभी के बीच भाभीजी ने बड़े भैया को एक खलनायक की सी छवि से साकार कर दिया, लिहाजा भैया को सबकी डाँट पड़ती, फिर भाभीजी कई रोज फूली फिरतीं।

बड़े भैया थे अलमस्त स्वभाव के, दोनों ही खर्चा करने में बेजोड़ रहे हैं। वैसे खर्च करने का तरीका दोनों का भिन्न है। जहाँ बड़े भैया बड़े-से-बडे़ शोरूम में उत्कृष्ट वस्तु खरीदने में विश्वास रखते हैं वही भाभीजी प्रतिदिन छोटे-मोटे साप्ताहिक लगनेवाले हाट-बाजारों में घूमने की शौकीन। दोनों की तकरार बढ़ती जाती थी। पैसे से सदैव खाली ही रहे। दोनों पक्षों के माता-पिता सदा ही उन दोनों की सहायता को तत्पर रहते। मकान भी अच्छा सा बनवाया। सबने समझाया-इतना महँगा सामान अभी नहीं लगाओ, परंतु बड़े भैया के कान पर जूँ नहीं रेंगी। वह कर्जदार हो गए। परंतु खर्चों में कोई कटौती नहीं। न भाभीजी को एहसास है और न भैया को। जब तक पापा-मम्मी थे, वही बेचारे चिंतित होते रहे। भाभीजी हाथ झाड़कर एक ओर हो जातीं और भैया ही अपराधी ठहराए जाते।

भाभीजी अनायास ही न जाने कैसे घर-गृहस्थी से विमुख हो धार्मिक पथ की ओर मुड़ गईं। जिसका प्रभाव बच्चों की कच्ची उम्र पर भी पड़ा, परंतु संस्कार अच्छे थे वह सँभल गए। अब तो दोनों ही इंजीयिर बन जाएँगे एक-दो वर्ष में। परंतु बड़े भैया तो भाभीजी के सत्संग महिमा के कारण उपेक्षित ही हो उठे। उनका सामाजिक दायरा न के बराबर रह गया। जहाँ बड़े भैया और भाभीजी पार्टी, पिकनिक किंग समझे जाते थे, अब भाभीजी को ऐसे समारोह निरर्थक एवं ओछे प्रतीत होते। अब ऐसे सुअवसरों पर भाभीजी की महिमामयी सत्संगी सखियाँ जुटतीं, धर्म-कर्म, ज्ञान-विज्ञान एवं मोक्ष पर चर्चा होती। प्रसाद के नाम पर समोसे, कचौड़ी रसगुल्ले उड़ते और तन-मन से शुद्ध हो अपने-अपने पापों का तर्पण कर सब अपने घर चली जातीं।

आरंभिक दिनों में भैया ने भी बहुत उत्साह दिखाया। नया-नया नाश्ता मँगवाते, ढंग से दरी-कालीन बिछवाते। दरअसल शहर के गण्यमान्य व्यक्तियों, धनी-मानी व्यवसायियों की पत्नियाँ जो आती थीं।

परंतु जब यह शौक व्यसन बन गया तो बड़े भैया को उलझन होने लगी। सुबह, दोपहर, सायं, रविवार- कोई दिन, प्रहर नहीं देखा जाता तो बड़े भैया दबी जुबान जब-तब जया और उसके भाई-भावजों, यहाँ तक कि माँ से भी फरियाद करते तो उन्हें फटकार दिया जाता कि कोई गलत कार्य में नहीं लगी हैं। तुम्हीं थोड़ा सामंजस्य बैठाओ।

बेचारे चुप मार जाते। एक बार जब जया से भी कहा तो उसने भी भाभी का ही पक्ष लिया। यह नारी सुलभ प्रवृत्ति है कि नारी को नारी के दर्द की पहचान होती है और शायद कई बार सही न होने पर भी नारी सबकी सहानुभूति अपनी ओर खींच लेती है। यही जया की भाभी के साथ भी हुआ।

भैया थोड़े दिलफेंक स्वभाव के तो आरंभ से ही थे, वैसे बेचारे भोले-भंडारी थे, परंतु तनिक सा भी किसी कन्या-रत्न ने मुसकरा के देख भर लिया नहीं कि बस हो गए फिदा। कामदेव उनपर जल्दी ही मेहरबान हो जाते थे, यह बात दूसरी है कि इस कारण काफी जहमत उठानी पड़ती। उनकी इस कमजोरी का लाभ भी उनकी सहकर्मी और अधीनस्थ महिला कर्मी एवं मित्र पत्नियाँ खूब उठातीं। भैया हास्य के पात्र और भाभीजी के कोप-भाजन बनते। बात आई-गई हो जाती। भाभीजी अलबत्ता सदैव सशंकित ही रहतीं और इस बार तो उन्हें लग रहा है कि भैया बिल्कुल ही नूतन गृहस्थी बसाने चल पड़े हैं। क्यों लग रहा है ? क्या ’गीता‘ का ज्ञान और गुरुजी का सत्संग उन्हें मोह-माया बंधनों में अभी भी जकड़े हुए है ?
’’मेम साहबजी, आपका फोन।‘‘
चपरासी की पुकार ने उसकी विचार तंद्रा को भंग किया।

चाद दिन दिनकर और जया माननीय मंत्रीजी के दौरे के कारण अति व्यस्त रहे। जया भाभी के पत्र की बात भी व्यस्तता के क्षणों में भूल गई। कल रविवार है। पूरा दिन आराम से सोएँगे, सोचकर ही बिस्तर पर जो धराशायी हुई तो सुबह जब आँख खुली तो देखा, पर्यंक का पार्श्व खाली है। चौंककर उठी तो देखा, बॉलकनी में बैठे हुए दिनकर बासी अखबार के पन्ने पलट रहे हैं। पास जाकर बोली, ’’हो गई आपकी भोर ! आप तो आज देर तक शयन करने वाले थे।‘‘
’’अरे यार, सोचा था देर तक सोऊँगा। पिछले सप्ताह की थकावट से सारा शरीर टूट रहा है; परंतु सवेरे छह बजे आपके छोटे भ्राताजी ने फोन खड़खड़ा दिया।‘‘

’’अरे, तो क्या पप्पू का फोन आया था ? क्या बोला ?‘‘
’’तुम्हें पूछ रहा था। सात बजे फोन करेगा।‘‘
’’अच्छा, आप तो बाथरूम जाइएगा। चाय मँगवाती हूँ।‘‘ जया अधीर हो उठी।
’’अब तो आपके भ्राताजी का संदेश ही सुनकर जाएँगे।‘‘ दिनकर कुर्सी पर पैर फैलाकर बोले।
’’हाँ, न जाने क्या बात हो गई। सुबह-ही-सुबह फोन क्यों किया ?‘‘
’’अरे, सब दिल्ली जैसे शहर में पास-ही-पास तो रहते हैं। लड़-झगड़ पड़े होंगे परस्पर।‘‘
’’चुप रहिए, मेरे भाई लोग ऐसे नहीं हैं। ’रामायण‘ के पात्र हैं चारों- बब्बू, गब्बू, छब्बू और पप्पू।‘‘ जया आँखें तरेरकर बोली।
’’चलो, यह तो अच्छा है, रामायण के पात्र हैं। ’महाभारत‘ के होते तो पाँचवें पांडव का नाम जोड़ने के लिए ’दब्बू‘ नामकरण करना पड़ता।‘‘
’’चुप रहिए, ये तो प्यार के नाम हैं, उनके नाम तो बड़े खूबसूरत हैं।‘‘
जया ठिठोली करते-करते रुक सी गई, ’’जरा रुकिए।‘‘
जया ने बड़ी भाभी का पत्र लाकर दिनकर के हाथ पर रखा, ’’भाभीजी का शिकायतों का पुलिंदा।‘‘
’’कोई दिलचस्पी नहीं।‘‘ कहकर दिनकर उठ गए।
इतवार का दिन सोने, खाने, आने-जाने वालों में निकल गया। सोमवार को दफ्तर से आकर दिनकर ने फुरसत के क्षणों में पूछा, ’’कोई फोन आया क्या दिल्ली से ?‘‘
’न तो फोन ही आया और न ही मैं कर पाई।‘‘
दिनकर की मुखमुद्रा देख जया अवश्य जान गई कि दिनकर के अंतस में उथल-पुथल है। वह चुपचाप उठे और कंप्यूटर खोला, फिर जया को पुकारा।

पप्पू की लंबी-चौड़ी ई-मेल थी। जया चश्मा लगा कुर्सी खींचकर पास ही बैठ गई।
ई-मेल का संक्षिप्त जवाब दे दिनकर अपने कार्य में व्यस्त हो गए और फिर सो गए। जया ने दिनकर को चादर ओढ़े हुए देखा कि पतिदेव तो गहन निद्रा में डूब खर्राटे भर रहे हैं। सच में कितनी शांति है मुख पर ! यह नहीं कि उन्हें चिंताएँ नहीं हैं। घर-बाहर दफ्तर सभी की चिंताएँ उन्हें सताती हैं; परंतु धैर्य से ही वह समस्या का समाधान खोजते हैं। जैसे आज भी उससे अधिक वही इस विषय में चिंतित रहे। लेकिन जया भी अधिक उद्वेलित थी। जबकि जानती थी कि ऐसी समस्याओं का समाधान उसके पास नहीं है।

बत्ती बुझा लेट गई। पप्पू की ई-मेल की एक-एक पंक्ति अँधेरे में भी नेत्रों के समक्ष है कि बड़े भैया एवं भाभीजी के झगड़ों से जवान बच्चे उपेक्षित अनुभव कर रहे हैं। बड़े भैया पहले ही उधार में डूबे हैं, अब मकान की ऊपरी मंजिल बनवा रहे हैं। भाभीजी का संकीर्तन, सत्संग और भी अधिक बढ़ गया है।

जया को नींद नहीं आ रही थी। उठकर स्वर्गवासी माँ व पिताजी की तस्वीर के समक्ष खड़ी हो गई। अपनी मम्मी की तस्वीर के समक्ष खड़ी हो उसके नेत्र भर आए। अभी तो एक वर्ष ही पूर्ण हुआ है मम्मी को गए। वह बेचारी बड़े भैया के लिए सदैव चिंतित रहीं, उनके लिए उनके अंतस में वात्सल्य एवं ममता का सुप्त स्रोत रहता जिस कारण वह उनकी कोई भी आलोचना, चाहे वह भाभीजी द्वारा हो अथवा किसी के द्वारा, सहन नहीं कर पाती थीं। प्रतिवाद करने का उनका स्वभाव नहीं था, अंदर-ही-अंदर घुटती अथवा रोतीं। बड़े भैया जैसा हीरा इनसान ढूँढ़े से भी नहीं मिलेगा। बस एक बड़ी खराबी उनमें थी कि किसी वस्तु को या तो गंभीरता से नहीं लेते थे या फिर किसी को अति गंभीरता से ले लेते। रुपए-पैसे के मामले में सदैव ही उनकी जेब खाली रहती।

इतने बड़े प्रतिष्ठान में इंजीनियर, घर सुसज्जित सामानों से लैस। बिना किसी योजना के धन व्यय का व्यसन, पति-पत्नी का आपसी असामंजस्य। यही कारण था कि ऊँची तनख्वाह, पद-प्रतिष्ठा, कुशाग्र और गुणवान् होने पर भी वह हम भाई-बहनों के मध्य हास्य का पात्र ही बने रहे। कभी भी बड़े भैया बड़प्पन का गौरव न पा सके। अब जबकि मम्मी-पापा नहीं रहे तो उन दोनों को ही बड़प्पन का एहसास होना चाहिए। पापा की मृत्यु के बाद दस बरस तक मम्मी रहीं; परंतु भैया एवं भाभीजी ने उनकी जिम्मेदारी को नहीं समझा।

जया बिछौने पर आकर लेट गई तो स्वप्न-जगत बाल्यावस्था के माधुर्य प्रसंगों से भरपूर दिखाई दिया।
प्रातः पतिदेव ने झिंझोड़कर जगाया, ’’उठो, चाय आ गई।‘‘
’’आज बहुत देर तक सोती रहीं ?‘‘ दिनकर ने पूछा।
’’हाँ, सपनों में भैया-भाभीजी की समस्या का समाधान खोज रही थी।‘‘ जया धीरे से बोली।
’’गलत कर रही थीं। यथार्थ का समाधान यथार्थ के धरातल पर ही खोजो।‘‘ दिनकर ने अखबार पर निगाह गड़ाए हुए कहा। जया चुपचाप चाय पीती रही। वाद-प्रतिवाद की इच्छा नहीं थी।
दिनकर के जाने के बाद काफी देर तक उनकी बात का अर्थ खोजती रही, अन्य भाई-भावजों से बात कर सार वही निकला कि आजकल बड़े भैया का कहीं चक्कर है। हालाँकि भाभीजी ने ही एक दुःखी कन्या को भैया से मिलवाया, भैया ने उसकी नौकरी लगवाई। उसे भाभीजी का शुक्रगुजार होना चाहिए। अब वह ही भाभीजी का घर तोड़ रही है। जया विचलित हो उठी। पतिदेव अत्यंत व्यस्त इस विषय में कुछ भी कथा-कहानी सुनने में कोई रस नहीं लेते। बेटियाँ ब्याह गईं, बेटा अमेरिका में, किससे चर्चा करे।

खैर, कार्यवश पतिदेव दिल्ली टूर पर चले तो जया भी संग चल दी। सोचा कि रक्षाबंधन तक रुक जाएगी। माँ की मृत्यु के पश्चात पहली राखी है। एक वह समय था जब सावन में पीहर जाने की ललक में पतिदेव से रूठना-मनाना भी हो जाता था। बच्चे छोटे थे तो दो-दो माह रह आती थी, अब तो वह ललक बरसों से खत्म हो गई। लेकिन भई, ये आजकल की लड़कियाँ तो बस दो-चार दिन मैके टिकीं कि अपने घर जाने की जिद लगा लेती हैं। सावन तीज, रक्षाबंधन यह सब तो रस्में बस हम पीढ़ी वाले ही रख रहे हैं। अब बेचारी बेटियाँ रक्षाबंधन पर आकर भी क्या करें, उनका भैया तो दो वर्ष से विदेश में ही बैठा है।
गाड़ी में रास्ते भर दिनकर सोते हुए ही आए, परंतु जया अपने भाइयों से मिलने मात्र की कल्पना से आज इस उम्र में भी पुलकित हो उठी थी, यह उसके मुखड़े की रौनक ही बता रही थी।

रक्त-संबंध अथवा मानवीय रिश्तों को क्या झटके से उखाड़ फेंकने में अब तक कोई सफल हुआ ! फिर भाभी ने तो बड़े भैया से रिश्ता ही तोड़ लिया, वही रिश्ता जिस पर दांपत्य की नींव खड़ी है। गृहस्थी रूपी संस्था की इमारत उसी संबंध पर खड़ी है। किंतु भाभीजी के धर्मानुसार यह सब शारीरिक मोह अब इस वयस में वर्जित है। उनके अनुसार अब तो धर्म-चर्चा का समय है। यदि ऐसा ही है तो अपने बच्चों का मोह, गृहस्थी का मोह, सुरक्षित छत के साए में रहने का मो ह क्यों नहीं छोड़ पातीं ? फिर तनिक सा भी पति के अन्य कहीं आकर्षित होने से विचलित क्यों हो जाती हैं ? यह तर्क प्रायः ही भाभीजी के सन्मुख रखने की इच्छा होती है, परंतु जया की विदुषी भाभी को तर्क में कोई पराजित नहीं कर सकता।

जया सायं तक अचानक ही जब गब्बू के यहाँ पहुँची तो सभी प्रसन्न हो उठे। मम्मी गब्बू के ही साथ अंत तक रहीं और वैसे भी जब पापा-मम्मी मेरठ थे तो गब्बू ही सपरिवार उनके संग रहता था। दिल्ली में भी मम्मी ने पापा की मृत्यु के पश्चात अपना ठिकाना गब्बू के यहाँ बनाया। अतः उसी घर को वह पीहर का दरजा देती हैं। सायंकाल बड़े भैया ने सदा की भाँति संपूर्ण परिवार का सहभोज रखा।

जया के विवाह के पैंतीस वर्ष बीत जाने पर आज भी बड़े भैया दिनकर की खातिर-तवज्जो वैसी ही करते हैं एक जश्न की तरह। हलका-फुलका ड्रिंक और हलकी-फुलकी बातें वह दिनकर के साहचर्य में करते। अपनी कंपनी की उन्नति के नए आयाम, अर्थव्यवस्था के विषय में तो चर्चा होती ही, परंतु कभी-कभी हँसी-मजाक भी हलका-फुलका हो जाता। पहले भाभीजी भी इन सब में हिस्सा लेती थीं, परंतु अब तो वह कई वर्षों से इस प्रकार की सांसारिक चर्चाओं से दूर ही रहती हैं।

घर वापस लौटकर गब्बू के घर ही बैठक जमी बड़े भैया की समस्या के हल के लिए। तीनों भाई एवं उनकी पत्नियाँ एकमत से बड़े भैया के अवगुणों को दर्शा रहे थे। सभी के अनुसार वह अनुज-वधुओं के साथ भी कभी-कभी हलका-फुलका मजाक कर बैठते हैं, जो उनके बड़प्पन को शोभा नहीं देता।
दिनकर तटस्थ निर्विकार सब सुनते रहे। उनकी सभी इज्जत करते हैं, अनायास ही सबको ज्ञात हुआ कि जीजाजी को यह सब अरुचिकर प्रतीत हो रहा है तो सबने चुप्पी साध ली।
’’बोल चुके तुम सब लोग या अभी कुछ कहना शेष है ?‘‘ दिनकर ने उनकी ओर देखकर कहा।
दो मिनट की चुप्पी के पश्चात बोले, ’’यह कैसा एकपक्षीय निर्णय है तुम लोगों का, जो अपने ही रक्त-संबंध को दोष देते तुम भूल रहे हो कि यदि तुम बड़े भैया के संस्कारों एवं आचरण पर एक उँगली उठा रहे हो तो अन्य चार तुम्हारे संस्कारों पर भी गड़ रही हैं।
’’हमारी आदरणीया भाभीजी के सत्संग ने उन्हें विचारों की परिपक्वता, ईर्ष्या, राग-द्वेष से मुक्ति भले ही न दिलाई हो, परंतु अपनों को अपने से दूर कैसे किया जाता है, यह अवश्य ही सिखा दिया है।
’’काश ! वह अपने पति को लेश मात्र भी समझ पातीं।
’’क्या तुम सबने उन्हें समझा नहीं। क्या तुमने सोचा कि उनका पालन-पोषण बाल्यावस्था में तुम सबसे भिन्न परिवेश में हुआ था ?

’’एक समृद्ध ननिहाल में दस वर्ष तक इकलौते राजकुमार की तरह पल्लवित बड़े भैया ने गंभीर रेल दुर्घटना में उस ममता और वात्सल्य की मूरत को खो दिया जिन्हें वह अपनी माता समझते थे। यही नहीं, यह त्रासदी उनकी नन्ही आँखों के समक्ष हुई और वह इस त्रासदी से हजारों-लाखों के मध्य अकेले ही बच गए। तो क्या तुम सोचते हो कि हृदयाघात के अतिरिक्त उनके मस्तिष्क में अथवा शरीर के किसी अन्य अंग में कोई आघात नहीं लगा होगा ? क्या उसका प्रभाव ताजिंदगी बालक के ऊपर नहीं पड़ता होगा ? तुम लोग भावना-विहीन हो चुके हो।

’’दुर्घटना के पश्चात उन्हें आना पड़ा अपने माता-पिता के घर, जहाँ अन्य छोटे भाई-बहनों का पहले से ही साम्राज्य था, भिन्न परिवेश में रहे जहाँ उन्हें स्नेहशील माता-पिता भी दूर-दूर लगे। हो सकता है, एकाकी बालपन ने उन्हें स्वार्थी बना दिया हो; परंतु क्या उनके कोई भी स्नेह के पल तुम सबकी आँखें नम न करते ? सदैव वह सबकी मदद को तैयार रहते हैं भले ही उसका प्रतिदान उन्हें नहीं मिले।

कुशाग्र मस्तिष्क मेधावी इंजीनियर शायद परिवार में अपना स्थान बनाने के लिए ही कुछ-न-कुछ नवीन आविष्कार करते रहे हों। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल आने का प्रयत्न करते रहे हों। खैर, तुम लोग सब छोटे हो, क्या समझोगे ?‘‘
दिनकर एक मिनट मौन रहकर भर्राए गले से फिर बोले, ’’उन्हें आवश्यकता है एक सहचरी की, जो उनका दुःख-सुख बाँट सके। भाभीजी ने अभी तक लेना ही सीखा है, कुछ देना नहीं। क्या दिया उन्होंने अपने पति को भावनात्मक तौर पर ? बड़े भैया के विरुद्ध उनके छोटे भाई-भावज, उनके बच्चे और यहाँ तक कि अपने बच्चों को भी कर दिया है। क्या वह सब उन्हें वह सम्मान देते हैं जिसके वह अधिकारी हैं। यह सत्य है कि अंदर-अंदर घुल-घुलकर भाभीजी अपने दैहिक आकर्षण को विलीन कर चुकी हैं और हीन भावना से ग्रस्त हैं। परंतु वह यह नहीं जानतीं कि केवल यौनाकर्षण ही सबकुछ नहीं है। सहचारिता ’कंपैनियनशिप‘ ही दांपत्य और सामाजिक जीवन के आधार होते हैं इस उम्र में।‘‘

सब सिर झुकाए सुनते रहे।
’’पत्नी गाँव-गाँव, गली-गली अपने धर्म का प्रचार करे तो ’देवी‘ और पति यदि किसी असहाय की मदद करे या कार्यवश हँस-बोल भी ले तो चरित्रहीन, यह कहाँ का न्याय है। यह तो उनके अच्छे संस्कार हैं वरन कोई और होता तो पत्नी की इतनी उपेक्षा से घर छोड़ देता।
’’नहीं, मुझे तुम समझदारों से ऐसी उम्मीद नहीं थी।
’’बड़े भैया अपनी हद जानते हैं। वह ऐसी अवांछनीय हरकतें कभी नहीं करते। यदि उन्हें बड़ी भाभी और तुम सबका सहयोग मिला होता। मम्मी-पापा रहे नहीं। अपनी बात वह किससे कहें। चतुर सरीखी भाभीजी ने स्वयं ही अपना एक समूह तैयार कर लिया है। अब तुम लोगों से कहना व्यर्थ है।‘‘
’’नहीं, नहीं, जीजाजी आप तो हमारे बड़े हैं। आपकी बात सही है, किंतु....‘‘
’’किंतु-परंतु की अब कतई गुंजाइश नहीं रही।‘‘ दिनकर उठते हुए बोले।
एक-एक गिलास पानी पीकर सभा बरखास्त हुई।

दिनकर वापस चले गए। जया राखी तक रुक गई। भाभीजी के साथ भाई साहब की जासूसी में रत रही। जया से राखी बँधवाकर भैया ने पाँच सौ का नौट उसके हाथ में रखा और शीघ्रता से जाने को उद्यत हुए।
’’भैया, क्या खाना नहीं खाएँगे ?‘‘ जया ने पूछा।
’’नहीं-नहीं, आज एक जरूरी कार्य है, शाम को मुलाकात होगी। तुम लोग एंज्वॉय करो।‘‘
भैया झटपट बाहर निकल गए। अब तक निर्विकार खड़ी भाभीजी के अंतस का लावा फूट पड़ा, ’’देख लिया न, मैंने कहा था न कि आज आपके भैया उसके साथ पार्क होटल में लंच ले रहे हैं, परंतु आप लोग मान ही नहीं रहे।‘‘
’’तो चलिए न, हम लोग भी पार्क होटल में ही लंच ले लेते हैं। वहाँ का मैनेजर तो पप्पू का दोस्त है। भई पप्पू, जल्दी ही टेबल बुक कराओ पार्क होटल में।‘‘
सबको होटल जाने का यह प्रस्ताव पसंद आया।

हमारी सत्संगी पाक-साफ विचारों वाली भाभी रानी, जिन्होंने होटल, सिनेमा सबको त्याग रखा है, वह भी झटपट गाड़ी में बैठ गईं। होटल के द्वार पर ही बेचैन कदमों से चहलकदमी करते बड़े भैया दिख गए।
’’अरे, तुम लोग यहाँ ?‘‘ भाई साहब लपककर जया की ओर उन्मुख हुए।
’’हाँ, आज मेरा ही प्रस्ताव था होटल में खाना खाने का। अच्छा हुआ, आप भी मिल गए।‘‘ जया मुस्कराकर बोली।
’’नहीं-नहीं, मैं तुम लोगों का साथ नहीं दे पाऊँगा। लेकिन यह तीज-त्यौहार के दिन होटल में खाना ?‘‘ भैया विचलित हो उठे। ’’अरे भई, घर में खीर-पूड़ी, हलवा, मालपूआ बनातीं, यह क्या ? मम्मी कितना कुछ करवाती थीं।‘‘
भैया के नेत्रों में हलका सा वेदना-मिश्रित जल भर आया।
’’यह मेरा ही सुझाव था होटल वाला। सबको आराम मिलेगा।‘‘
’’तो भई, पार्क ही क्यों ? ताज जाते ! ओबेराय, रेडिसन, अशोका कहीं भी जाते, यहाँ क्यों चले आए ?‘‘
’’यहाँ का खाना दरअसल अच्छा है।‘‘ गब्बू की पत्नी बोली।
सबकी दबी खिलखिलाहट भी वातावरण में गूँज रही थी।
’’अच्छा-अच्छा, अंदर चलो।‘‘

फिर सब लॉबी में एकत्रित हो बैठ गए और भैया की हड़बड़ाहट का आनंद उठाते रहे।
भैया ने अत्यंत प्रयत्न किया कि वे लोग अंदर लंच रूम में चले जाएँ; किंतु वे लोग लॉबी में जमे रहे। बड़े भैया और वह सभी बेसिर-पैर की बातें करते रहे, कोई विशेष टॉपिक नहीं जम रहा था कि तभी भाभीजी ने निकट अैठी जया का ध्यान होटल के मुख्य द्वार की ओर आकर्षित किया। जहाँ से एक साँवली-सलोनी, साधारण सी आत्मविश्वास से परिपूर्ण युवती एक मझोले कद के आकर्षक युवक के संग चली आ रही थी। हाथों में बड़ा सा फूलों का बुके था।

’’अरे सर, आप यहाँ बैठे हैं। अरे नीरूजी, आप भी यही हैं। सुनो श्याम, यही हैं मेरे फैन, फ्रेंड एंड फिलॉस्फर। यही हमारे विभाग के वरिष्ठ अधिकारी हैं। सच पूछो तो मुझे सर ने सहारा नहीं दिया होता या मेरी समय-समय पर मदद नहीं की होती तो आज हमारा परिवार सड़क पर होता। मेरा पासपोर्ट बनवाना, पिताजी की पेंशन बनवाना, और भी न जाने क्या-क्या।
’’इन सबका श्रेय नीरूजी को जाता है। उन्होंने ही सर से आग्रह कर मेरी नौकरी लगवाई, मैं तो घर-घर जाकर कंप्यूटर देखती थी। नीरूजी के घर एक-दो बार कंप्यूटर ठीक करने आई तो उन्होंने मेरी मदद का वादा किया था।
’’सर ने अपनी कंपनी में लगाया जिस कारण हमारे परिवार में आय का स्रोत बना, छोटे भैया को भी अब तो अपनी ही कंपनी में नौकरी दिलवा दी है, तभी तो मैं तुम्हारे साथ विवाह के लिए राजी हुई हूँ। वरन् पिताजी की आकस्मिक दुर्घटना ने पूरे परिवार को तोड़ दिया था।‘‘

सहसा वह जया और उसके भाई-बहनों की ओर उन्मुख हुई।
’’सच में आपके भैया जैसे भाई पर हर किसी को गर्व होगा।‘‘
’’यह मेरे विवाह का कार्ड है, २० अगस्त हो विवाह है और २५ अगस्त को हम लोग अमेरिका चले जाएँगे, क्योंकि श्याम की नौकरी वहीं पर है।‘‘
सब हक्का-बक्का सा बैठे रहे। वह चली गई। भाभीजी की फटी-फटी आँखें, सब भाई-बहनों के अवाक् खुले मुख, बड़े भैया की झेंपी मुसकराहट और लाल-पीले गुलाबों से महकता-खिलता गुलदस्ता देख जया सोच रही थी कि अनंग अब न जाने किस पर सवार हो त्रिनेत्र को चुनौती दे रहे होंगे।

 २४ फरवरी २०१४

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