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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से दिव्या विजयवर्गीय की कहानी— सूखे फूल


वो मेरे ऐन सामने आ खड़ी हुई थी। कुछ दिन पहले सुबह सुबह उसका फोन आया था कि कुछ रोज़ बाद वो मेरे शहर आ रही है। क्या मैं उस से मिलना पसंद करूँगी? और मेरे मुँह से हाँ निकल गया था। बाद में कितनी बार सोचा कि मना कर दूँ। कुछ भी बहाना बना दूँगी कहीं बाहर जाना है या मेहमान आ गए हैं या सीधे ही कह दूँ नहीं मिलना चाहती। पर शायद मैं खुद भी उसे देखना चाहती थी। जिस दिन से सुना वो आ रही है मुझे कुछ होता रहा।

आने से एक दिन पहले उसका फोन फिर आया था। उसी ने कहा था कि वो घर पर नहीं कहीं बाहर मिलना चाहती है। हो सके तो किसी गार्डन में। और मैं फिर हाँ कह बैठी थी। मुझे खुद के ऊपर क्रोध भी आया कि क्यों मैं उसकी हर बात माने जा रही हूँ। पर अब तो निर्णय ले लिया गया था।

मैं पार्क के गेट के आस पास चक्कर काट रही थी। यही तय पाया गया था कि ठीक एक बजे हम उद्यान के प्रवेश द्वार पर मिलेंगे। और अब एक बजकर बीस मिनट होने को आये थे। कैसी लापरवाही है। क्या उसे फोन करूँ? फ़ोनबुक में मैं नंबर ढूँढ ही रही थी कि वो मेरे ठीक सामने आ खड़ी हुई।

उसे कुछ क्षण अपलक देखती रही।
"क्या इसी के लिए मेरे प्रेमी ने मुझे छोड़ा है। क्या अच्छा लगा होगा इसमें? हाँ, इसकी आँखें खूबसूरत हैं। बहुत बड़ी नहीं पर आकर्षक जिन्हें काजल की रेखा से इसने और भी सुन्दर बना रखा है। इसके लम्बे बालों को वो ज़रूर ही पसंद करता होगा। और इसके होंठ। कितना सुन्दर आकार है। अगर उसने कभी छुआ होगा इन्हें तो क्या इसे पता लगा होगा कि वो पहले मेरे होंठों को छू चुका है। मेरे होंठों का स्वाद आया होगा क्या उसके होंठों में। छिः मैं भी क्या सोचती हूँ।"

"हाय, मैं ही स्वप्ना हूँ। और आप साक्षी। है न?"

मैंने फिर सोचा 'ये मुझे आप कह कर क्यों पुकार रही है। शायद जताना चाह रही है कि मैं इस से बड़ी हूँ और आदमी अक्सर छोटी औरतों को तरजीह देते हैं। बड़ी हूँ तो क्या हुआ। कहाँ कम लगती हूँ। आज भी मुझसे छोटी उम्र वाले लड़के मुझ पर आसक्त रहते हैं। और कितना सा अंतर होगा। यही कोई चार पाँच साल का।'

"आप इतनी चुप क्यों हैं। आपकी नाराजगी जायज़ है। मैं समझ सकती हूँ।" स्वप्ना साक्षी की चुप्पी से असमंजस में थी।

'आवाज़ भी अच्छी ही है। क्या प्रेम का इज़हार करते हुए इसकी आवाज़ में मादकता भर जाती होगी। उन्माद भरी उसी आवाज़ का दीवाना हुआ होगा वो।' अपनी सोच को विराम दे मैं बोली "नहीं नाराज़ क्यों हो जाऊँगी भला। नहीं तो मिलने ही क्यों आती।"

स्वप्ना मुस्कुरा दी। एक ठहरी हुई मुस्कान मासूमियत से भरी हुई।

'क्या इसकी मुस्कान में मेरे लिए व्यंग्य था या दयाभाव। क्यों आ पहुँची ये मुझसे मिलने जानते हुए भी कि कबीर इस से पहले मेरे साथ...। दोनों की कोई मिलीभगत तो नहीं।'

" आप बेहद खूबसूरत हैं।" स्वप्ना ने प्यार से कहा था।

और मैंने तीक्ष्ण नज़रों से उसे देखा था। 'चाहती क्या है ये लड़की। तारीफ क्यों कर रही है। शायद कहना चाह रही है कि सुन्दर तो हैं पर मुझसे कम तभी तो कबीर तुम्हें छोड़कर मेरे पास आ गया। हुंह, रखो अपनी सुन्दरता अपने प्रेमी के लिए। मेरे किस काम की।

"चलें?" स्वप्ना की आवाज़ मुझे सोच से बाहर ले आई थी। हाँ में गर्दन हिला मैं भी आगे बढ़ गयी थी। गार्डन की घास पर चहल कदमी करते हुए अचानक स्वप्ना ने मेरा हाथ थाम लिया। "आपने बेहद सुन्दर चूड़ियाँ पहन रखी हैं।"

मैं अपना हाथ खींचने को ही थी कि मुझे लगा मेरे प्रिय ने भी स्वप्ना का हाथ पकड़ा होगा। क्या मैं कबीर के स्पर्श को ही आत्मसात नहीं कर रही स्वप्ना के माध्यम से। मैंने अपना हाथ ढीला छोड़ दिया जिसे स्वप्ना देर तक थामे रही थी। उसके हाथ नर्म मुलायम थे। शायद ज्यादा काम नहीं किया कभी। मैंने गर्दन घुमा कर स्वप्ना को देखा था। मुझ से छोटी। उम्र में भी कद में भी। शरीर ज़रा भरा हुआ। पर चाल में आत्मविश्वास और चेहरे पर गज़ब का लावण्य। 'अगर मैं पुरुष होती तो इससे ज़रूर प्रेम कर बैठती। लेकिन अगर मैं पुरुष होती तो क्या मैं खुद से प्रेम नहीं कर बैठती। ओह काश अभी कहीं से आईना आ जाता। मैं इसके साथ खड़ी होकर देखती कि एक पुरुष को क्या पसंद आता।' मैंने सोचा था।

"साक्षी। मैं आपको नाम लेकर बुला सकती हूँ न।" मुझे अपनी ओर देखते पा स्वप्ना ने पूछा था।

मैंने हाँ में सर हिला दिया था। "इतनी भी बड़ी नहीं मैं तुमसे। और आजकल नाम लेने का ही तो चलन है। फिर कोई रिश्ता भी नहीं हमारे बीच। तुम नाम ही लो।"

और वो खुल कर हँस दी थी। 'कैसी बेझिझक हँसी थी। शायद छोटी उम्र में ऐसी ही हँसी फूटती है। मैं भी क्या बार बार उम्र का हिसाब लगाने लगी। उम्र से तो नहीं पर लगता है मन बुढ़ा गया है मेरा। कुल जमा २८ की तो हूँ मैं। बात उम्र की नहीं दरअसल। अपने प्रेमी का दुलार पाती कोई भी लड़की ऐसी ही हँसी हँसेगी।" मुझ को अचानक ही खुद पर दया उमड़ आई। मन का आवेग आँखों के रास्ते बह जाने को आतुर हो उठा। तभी स्वप्ना के हाथ का दबाव मेरे हाथ पर बढ़ गया। क्या वो समझ गयी थी मेरी मनःस्थिति। जो भी हो मुझे इस लड़की के आगे कमज़ोर नहीं पड़ना। अपनी करुणा को दबा मैं फिर मुस्कुरा दी थी।

"आइये यहाँ बैठते हैं।" बेंच को छोड़ स्वप्ना पेड़ के नीचे इशारा कर रही थी जहाँ लाल सफ़ेद फूल छितरे हुए थे। हम दोनों वहाँ बैठ गए। कुछ देर तक इधर उधर ताकते रहे शायद सोचते हुए कि बात कैसे शुरू करें।

"मैं आपके लिए कुछ लायी हूँ।" कहते हुए अपने बड़े से पर्स में से उसने चमकीले लाल रंग में लिपटा हुआ कुछ निकाला। "आपकी पसंद मालूम नहीं थी तो अपनी ही पसंद का कुछ ले आई हूँ।"

'अरे ये लड़की भी। मुझे तो कुछ याद ही नहीं रहा। सच कहूँ तो सोचा भी नहीं ऐसे रिश्ते में उपहार भी दिया जा सकता है। कितनी व्यावहारिक सोच है।'

"क्या सोच रही हैं? खोलिए न।"

उफ़ कितनी बेसब्र है। खैर उत्सुकता तो मुझे भी हुई थी कि मेरे लिये क्या ले आई होगी लड़की पर ऊपर से कहा "इसकी ज़रुरत नहीं थी।"

"ज़रूरत तो हमारे मिलने की भी नहीं थी" छोटी और बेसब्र लड़की में से प्रौढ़ा झाँकी थी।

तरतीब से लाल पन्नी हटा कर एक ओर रखी और मेरे हाथ में था गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ का उपन्यास 'लव इन द टाइम ऑफ़ कोलेरा'। किताब! क्या कबीर ने बताया होगा मुझे किताबें पसंद है।

मेरे चेहरे की हैरानी शायद उसने पढ़ ली थी। "आपके ख़त पढ़े थे मैंने। वहीं से पता चली आपकी पसंद।" कहते हुए उसके चेहरे पर चोरी करते पकड़े गए बच्चे से भाव आ गए।

कबीर ने अब भी मेरे ख़त संभाल कर रखे हैं सुनकर मुझे अच्छा लगा था। पर स्वप्ना के वो इतना करीब है कि उसे वो ख़त भी पढ़ा दिए। सोचकर एक उदासी ने ढाँप लिया मुझे।

मेरे चेहरे पर क्या देखा उसने कि मेरा हाथ थाम वो कहने लगी "एक दिन किसी फाइल में से वो ख़त आ मुझसे टकरा गए थे। वो ख़त सिर्फ शब्द भर नहीं थे। वो पूरा व्यक्तित्व थे और उस व्यक्तित्व की स्वामिनी से मिलने को मेरे अन्दर की स्त्री ललक उठी।" उस आवाज़ में ईर्ष्या का पुट था या विजयी भाव कहना मुश्किल था।

मन हुआ पूछूँ कि कबीर को कह कर आयी हो या यूँ ही आ गयी। पर जाने दिया। शायद मेरे बारे में पता लगने पर खोजबीन करने आई है।

"आप ज़रूर पढ़िएगा इसे।"

"हाँ ज़रूर।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

फिर से एक मौन पसर गया था हमारे बीच। कुछ कहने को ही न था या इतना कुछ था कि उसे शब्दों में समेटना मुश्किल हो रहा था। सर्दियों की ऐसी दोपहर अरसे बाद आई थी। इस तरह पेड़ के नीचे धूप सेंकते हुए कॉलेज के वक़्त में कबीर के साथ बैठा करती थी। फिर वो मुंबई चला गया और मेरी ज़िन्दगी से भी। कितने साल बीते उन बातों को अब। किसी और ही जन्म की बात लगती है।

सफ़ेद दुपट्टे को स्कार्फ की तरह सर पर लपेटे शून्य में ताकती हुई वो नक्काशी की हुई कोई मूरत लग रही थी। अचानक मन हुआ उसे छू कर देखूँ। उसके बालों की महक साँसों में भर देखूँ कि कबीर उन्हें ज़रूर सहलाता होगा। कबीर ने उसे कहाँ कहाँ छुआ होगा। उसने अचानक पलट कर मुझे देखा। क्या उसे मन की बातें सुनने का हुनर था।

उसने अपना बैग सरका कर जगह बनायी और मेरी गोद में सर रख लेट गयी। कितनी बेलौस है ये लड़की। मेरे हाथ खुद ब खुद उसके माथे को सहलाने लगे। अब मैं गौर से उसका जायज़ा ले सकती थी। पर नहीं, वो स्वप्ना नहीं मैं थी। उस एक पल मैं कबीर हो उठी और वो मेरी गोद में लेटी मैं। मेरा मन चाहा बरसों की उदास मुझ को ढेर सा प्यार करूँ। उसकी आँखें मुंद गयीं थीं। मैंने झुक कर उसकी आँखें चूम लीं। उसके होंठों पर एक मुस्कान खिल आई। "आप बिलकुल कबीर की तरह..."।

'हाँ कबीर की ही तरह। वो कहता था आँखों में तितलियाँ रहती हैं। उन्हें बहुत नाज़ुकी से छूना चाहिए कि कहीं वो उड़ न जाएँ।' मैंने सोचा। 'क्या कबीर इसे भी ऐसा कहता होगा।'

नज़र गले में झूलते उसका पेंडेन्ट पर पड़ी। सफ़ेद रंग का एक छोटा सा ड्राप। ये ज़रूर कबीर ने ही दिया होगा। उसे बारिश बहुत पसंद थी। उसे बूँदों का आकार भी बहुत पसंद था। मैंने उस पेंडेन्ट को छुआ। मेरा हाथ उसकी गर्दन को छू गया। उसकी त्वचा बहुत मुलायम थी। बहुत झीनी और पारदर्शी भी। नसें वहाँ से झाँक रही थीं। मैंने उँगली से उन्हें छू दिया तो जैसे तेज़ हवा चलने से पानी काँप गया हो।

उसका दुपट्टा कब सर से नीचे सरक आया था। बाल बेहद काले और चमकीले, फ्रेंच टेल में गुँथे हुए। कितना ख्याल रखती है ये लड़की कबीर की पसंद का। वो नहीं है फिर भी उसी को ओढ़ मुझसे मिलने आई है। मैं कभी नहीं सीख पायी बालों को ऐसे बाँधना।

धूप ढलने लगी थी। हवा सर्द हो चली थी। पक्षियों का झुण्ड हमारे सर के ऊपर से चहचहाता हुआ गुज़र गया था। उसने चौंक कर आँखें खोलीं फिर मुझे देख एक इत्मीनान उसके चेहरे पर पसर गया। मुझे भर नज़र देख मुस्कुरायी। फिर उठकर अपने दुपट्टे को सर पर कसकर लपेट लिया। मैंने अपनी शाल का एक छोर उसे पकड़ा दिया जिसे उसने बेझिझक थाम लिया। अब वो मेरे बेहद करीब थी।

उसने अपने पर्स में से सिगरेट का पैकेट निकाला। एक सिगरेट लाइटर से जला अपने होंठों के बीच दबा ली। आह, वही खुशबू। कबीर की खुशबू। उसने मेरी तरफ देखा और मुझे सिगरेट थमा दी। मैं उसे उँगलियों के बीच थामे देर तक देखती रही और वो उस से गिरती राख पर लकीरें खींचती रही। गहरी साँस भरकर मैंने एक कश लिया और सिगरेट उसे वापस पकड़ा दी जैसे कबीर को अपने अन्दर उतारकर उसे दे दिया हो। उसने सिगरेट बुझाकर वापस पैकेट में रख ली।

"तुम्हें मेरी चूड़ियाँ पसंद आई थीं न। इन्हें तुम पहन लो।" कहते हुए मैंने अपनी चूड़ियाँ उतारीं और उसकी कलाई में पहना दीं। क्या उसकी आँखें भर आई थीं या मेरी ही नज़र धुँधली हो चली थी। बागौर उनको देखने के बाद अचानक वो उन्हें खनकाती हुई बच्चों सी खुश हो गयी थी। मुझे उस पर लाड़ उमड़ आया। क्या खींच लाया इसे मेरे पास। कौन सा बोझ ढो रही होगी ये भी।

अँधेरा घिरने लगा था। दरख्तों के साए लम्बे हो चले थे। उसने अब तक अपने आने का सबब नहीं बतलाया था। कुरेदना मुझे किसी भी तौर पर ठीक नहीं लगा।

"कबीर की बातों में आप नामालूम तरीके से उपस्थित होती हैं। प्रेम एक अनजान द्वीप है जिसकी खोज में हम भटक भी सकते हैं। मैं भटकना नहीं चाहती थी। अब मैं भी आपको जानती हूँ। कबीर का राज़ अब मेरे सामने ज़ाहिर है। उसके गुम हो जाने पर उसे ढूँढ कर मैं ला सकती हूँ।" उसने अचानक ही कहा।

मुझे जैसे कुछ न सुनाई दिया।

"अब मैं चलूँगी।"

"घर चलो। कितनी देर हुई। भूख भी लग आई होगी।" उसे अपने हाथ से बना कुछ खिलाने की तीव्र इच्छा हो आई थी। कबीर कितनी फरमाइश किया करता था। सुबह जल्दी उठकर रसोई में घुस जाती थी उसकी पसंद का कुछ बनाने को। फिर कॉलेज की कैंटीन में गप्पे लगाते हुए मेरी तारीफ करता हुआ पूरा टिफ़िन खाली कर जाता था।

"अंग्रेजी में एक कहावत है कि दुश्मनों के घर खाना नहीं खाया जाता।" उसकी आँखों की पुतलियाँ शरारत से नाच उठी थीं।

क्या हम दुश्मन हैं?

"हाँ तुम रकीब हो मगर मुझे बेहद प्यारी हो।" कहकर उसने पर्स उठाया और आगे बढ़ चली। मैं कब आप से तुम हो गयी थी न वो जान सकी न मैं। हमारे बीच की अदृश्य दीवार गिर गयी थी। वो जिस तरह अचानक आई थी वैसे ही जा रही थी। सब कुछ अचानक ही घट रहा था। उस पूरे दृश्य को संचालित करने वाली वही तो थी।

फिर वो अचानक पीछे पलटी। कदम मेरी ओर बढ़ाये कुछ झिझकी और अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिए। मेरे होंठ काँपे थे पर उसके होंठों ने उन्हें समेट लिया था। ओह, ये कैसा अहसास था। हाँ, कबीर की मिठास थी इनमें।

कुछ पल बाद वो अलग हुई। "तुम्हारा स्वाद अब मुझमें घुल गया है। तुम्हें अपने अन्दर समेटे ले जा रही हूँ। कबीर के मन का एकांत अब शायद उतना अकेला न रहे।" वो मुस्कुरायी और बाहर की तरफ बढ़ चली।

मैं उसे जाते हुए देखती रही। मैं किस से मिली थी। कबीर से, स्वप्ना से, या खुद से। आज का दिन मुझे कुछ देकर गया या कहीं वो मायाविनी मुझे ठग कर चली गयी थी।

उसने बाहर पहुँच कर हाथ हिलाया था। एक पूरा दिन बीत गया था। बेहद अजीब दिन। बरसों का जमा कुछ पिघल कर बह जाना चाहता था। मेरे अन्दर का सन्नाटा सघन हो आया। हम जहाँ बैठे थे वहाँ पड़े हुए फूल मुरझा गए थे। मैंने कुछ सूखे फूल चुने और घर की ओर चल पड़ी।

३ नवंबर २०१४

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