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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से पावन की कहानी— पुराना अलबम


जेठानी की कहानी

‘इस लड़के से मेरे रिश्ते की बात चली थी।’, ये वाक्य हम दोनों ने ही आगे पीछे कहा था। पुराना अलबम बड़ा खतरनाक होता है। वह उन रगों पर हाथ रख देता है जो कभी दुख रही होती थीं। हालाँकि बाद में वे उस दुख को जीवित तो नहीं करतीं पर एक टीस जरूर दे जाती हैं और अतीत की घटना को वर्तमान में ले आती हैं।

अलबम के इस फोटो से ही बात शुरू करती हूँ। भाई का रिसेप्शन था जिसमें प्रतीक अपनी बहन के साथ आया था। उसकी बहन सौम्या मेरी प्यारी सहेली। फोटो में मेरी बड़ी बहन कल्पना और प्रतीक साथ खड़े हैं। उसके चेहरे पर एक सकुचाई हुई मुस्कराहट है और कल्पना के चेहरे पर छेड़ने का भाव। तब सौम्या के अलावा सिर्फ वही जानती थी कि मेरे और उसके बीच कोई ताना बाना बुना जा रहा है। ये अठ्ठारह साल पहले की बात है। आज भाई की शादी का अलबम देखते समय उसका फोटो सामने आ गया तो मीरा ने चौंकते हुए पूछा था, ‘ये कौन है?’ अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया, ‘ये प्रतीक है, इस लड़के से मेरे रिश्ते की बात चली थी।’ ‘कमाल है, इस लड़के से मेरे रिश्ते की भी बात चली थी।’ बड़ा अजीब संयोग था। मैं और मीरा जेठानी देवरानी हैं। दोनों के जीवन का एक हिस्सा प्रतीक से जुड़ा था जो शायद कभी मेरा प्यार था।

जैसे हम किसी फिल्म को दोबारा देखते हैं या किसी कहानी या उपन्यास को दोबारा पढ़ते हैं तो हमें सीन दर सीन और पेज दर पेज फिल्म या कहानी याद आती चली जाती है। यही वो फोटो देखकर हुआ। प्रतीक से पहली मुलाकात उसके घर पर ही हुई थी। सौम्या से मेरी नई नई दोस्ती हुई थी। मैं पहली बार उसके घर गई थी पर उस दिन वो घर पर नहीं थी। घर पर उसकी माँ और प्रतीक मौजूद थे। उस दिन मुझे मालूम हुआ कि सौम्या के दो भाई हैं जिसमें एक प्रतीक है। सामान्यतः होता ये है कि हम अपनी सहेली या दोस्त के भाई को भइया ही बोलते हैं लेकिन यहाँ मुझमें हिचक थी या उसमें एक अजीब आकर्षण कि मैं उसे कुछ भी सम्बोधित नहीं कर पाई। और उसी दिन मैंने पहली और आखिरी बार उसके हाथ की बनी चाय पी थी। चाय उसने बहुत अच्छी बनाई थी और मेरे टेस्ट की बनाई थी लेकिन सकुचाहट और आण्टी की मौजूदगी में उसकी तारीफ नहीं कर पाई। ये चाय थी या उसका आत्मीय और घरेलू व्यवहार, एक फूटते हुए प्रेम बीज के साथ मैं घर लौटी थी।

फिर टेलिफोन पर बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। फोन मैं करती प्रतीक को ही थी पर बहाना सौम्या का बनाया जाता था और हमेशा मैं ही फोन करती थी, अपनी सुविधानुसार। वह मेरी सुविधा का ध्यान रखते हुए कभी फोन नहीं करता था, सिर्फ इन्तजार करता था। उसकी यही बात मुझे पसन्द थी। वह कभी अधीर नहीं होता था जबकि मुझमें बिल्कुल सब्र नहीं था।

हमारी दूसरी मुलाकात तकरीबन चार महीने बाद हुई थी। मेरे इन्स्टीट्युट की दिसम्बर की छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं। आखिरी दिन वह मेरे इन्स्टीट्युट आया था। एक दिन पहले जब फोन पर उसने अपने आने के बारे में बताया तो मैंने साफ मना कर दिया मगर वह मेरे मना करने के बावजूद आया था। उस दिन मुझे बड़ा डर लगा था, ऐसा लगा था जैसे सारी दुनिया मुझे उससे मिलते देख रही है। उस दिन उसने मुझे ढेर सारे ग्रीटिंग कार्ड्स दिये थे। मिस यू, दीवाली, क्रिसमस, न्यू ईयर, दोस्ती आदि इत्यादि। हर कार्ड पर उसने अपने मन के भावों को व्यक्त करती अभिव्यक्ति लिखी थी। अब तो मुझे याद नहीं है लेकिन वे अभिव्यक्तियाँ बहुत सुन्दर थीं। उसने मुझे अपने साथ चलने का आग्रह किया था मगर मैंने डर के कारण मना कर दिया था। उसने दोबारा आग्रह नहीं किया और चला गया। उस रात को मैंने सारे कार्ड देखे और पढ़े, फिर पढ़े और फिर पढ़े। उसने सीधे-सीधे तो नहीं घुमावदार शब्दों में अपने प्यार का इजहार कर दिया था।

अगले दिन हमारी फोन पर बात हुई तो उसने कहा था-मैं आपको साथ इसलिए ले जाना चाहता था कि मैं आपको अपने सामने ये सारे कार्ड्स देखते हुए और पढ़ते हुए देखना चाहता था जो मैंने पिछले चार महीनों में आपके लिए खरीदे थे। और प्रतिक्रियास्वरूप, आपके मुँह से ‘आई लव यू’ सुनना पता नहीं कैसा लगता? मैं सुनकर रोमांचित तो हुई मगर मैंने उसे वे तीन शब्द कभी नहीं कहे। हमारी इस अजीब सी प्रेम कहानी के बारे में सौम्या और मेरी बहन को मालूम हुआ फिर वो फोटो भी खिंचा जो स्मृति को कुरेदने का कारण बन रहा है। इसी बीच सौम्या की शादी हो गई और हमारे इस सिलसिले को डेढ़ साल हो गया और डेढ़ साल में चार मुलाकातें। कितनी बकवास प्रेम कहानी है न!

अपनी एक कमीनियत की बात बताती हूँ। हमारी बातों के दौरान एक बार प्रतीक ने मुझे कहा था कि सौम्या की शादी में वह मेरे अधरों पर अपना प्रेम प्रतीक अंकित करेगा। उसने मुझसे इसका वादा भी लिया था। पता नहीं उस समय क्या था? डर था? या झिझक? या किसी के देख लिए जाने की आशंका? पर बाद में जब कभी मैं उसके बारे में सोचती थी तो मुझे अपना कमीनापन ही महसूस होता था। शादी वाले दिन सौम्या और प्रतीक के कहने के बावजूद मैं दिन की बजाय रात को उसके घर पहुँची थी और वो भी अपने पिता और भाई के साथ। और तो और मैंने प्रतीक को प्रेम प्रतीक अंकित करने का कोई मौका भी नहीं दिया। ऊपर से मेरे महान पिता और भाई मेरे पहरेदार बने हुए थे। मेरी हर मूवमेन्ट पर उन दोनों की नजरें थी और वे लोग मुझे जयमाला के तुरन्त बाद लेकर चले गये। मैंने ढंग से खाना भी नहीं खाया था। लौटते हुए मैंने प्रतीक का चेहरा देखा था। शादी के माहौल से बिल्कुल विपरीत था उसका चेहरा, उतरा हुआ, उदासी से भरा। पूरी रात उसका चेहरा मेरी आँखों में घूमता रहा। उसने मुझे सोने नहीं दिया। मैंने सचमुच उसके साथ गलत किया। मैं एक छोटी सी खुशी उसे नहीं दे पाई। पता नहीं वह किस मिट्टी का बना था कि उसने उस बात की कभी शिकायत नहीं की। बाद में, मैंने उसे इस सम्बन्ध में काल्पनिक आशंकाएँ गिनाईं पर उसने कभी कुछ नहीं कहा।

एक दिन सौम्या और उसके पति ने अचानक मेरे घर में हंगामा कर दिया। उन दोनों ने मेरे माँ बाप से प्रतीक के लिए मेरा रिश्ता माँगा। शुक्र ये था कि उन्होंने हमारे ताने-बाने के बारे में नहीं बताया। प्रतीक उन दिनों एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करता था और बहुत मामूली तनख्वाह पाता था। मेरी माँ ने तर्क दिया, सहेली का भाई तो भाई ही होता है, उससे कैसे शादी कर सकते हैं और मेरे पिता ने प्रतीक का तो इन्टरव्यू नहीं लिया, उसके जीजा का ही इन्टरव्यू लेने लगे। जब ये बातचीत चल रही थी तो मैं उस कमरे में नहीं थी। मैं तो काँपते शरीर और जोर से धड़कते दिल को लिये किसी कोने में बैठी थी। मुझे डर था कि मुझसे कोई सवाल न हो जाये। कोई मुझपर न उँगली उठाये कि तेरा उसके साथ कोई चक्कर चल रहा है हालाँकि चाहती मैं भी थी कि ये रिश्ता हो जाये पर मैं अपने को सेफ रखना चाहती थी।

बहरहाल, हमारी प्रेम कहानी का आधा अन्त तो उसी दिन हो गया जब मेरे महान पिता ने यह कहकर ये रिश्ता ठुकरा दिया कि हमें सरकारी नौकरी वाला लड़का चाहिए। इस घटना के बाद से हमारी बातचीत कम हो गयी। मैं अपना हाल तो नहीं जानती पर प्रतीक को सदमा लगा था। हालाँकि वह मेरे साथ हमेशा नार्मल ही रहा। वह उसी तरह हँसता-खिलखिलाता मुझसे बात करता था पर उसकी असली मनोदशा सौम्या से मालूम होती थी। और बाकी की आधी प्रेम कहानी मेरे मजाक ने खत्म कर दी। आज जब उस बारे में सोचती हूँ तो लगता है शायद मैं खुद ही चाहती थी ये सब खत्म हो जाये। गुमराह फिल्म के उस गाने की तरह - ‘वो अफसाना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा...’ लेकिन वो खूबसूरत मोड़ ‘डैड एण्ड’ हो गया।

मजाक की शुरूआत ऐसे हुई कि एक दिन प्रतीक के पास किसी लड़के का फोन आता है और वह कहता है कि वह संयोगिता का ब्वायफ्रैन्ड है और प्रतीक आइन्दा संयोगिता से बात न करे। मैं जानती थी कि वह इस बात से भड़केगा नहीं क्योंकि वह बहुत कूल स्वभाव का है। उसने सिर्फ इतना कहा अगर ये बात खुद संयोगिता कह देगी तो वह मान लेगा। मेरे कथित ब्वायफ्रैन्ड ने उसके सामने एक शर्त रखी कि संयोगिता फलाँ तारीख फलाँ समय फलाँ जगह पर आयेगी और उससे यही बात कह देगी। अगर उसमे हिम्मत हो तो वह संयोगिता को पहले बुलाकर दिखाये। मेरे कथित ब्वायफ्रैन्ड ने दावा किया कि मैं प्रतीक के बुलाने पर कभी नहीं आऊँगी। ये तो मजाक की बात थी कि मैं उसके बुलावे पर नहीं आऊँगी लेकिन प्रतीक मेरी आदत जानता ही था कि मैंने कभी उसकी बात नहीं मानी। कभी-कभी सोचती हूँ कि उसने मुझे इतना सहन कैसे किया?

आखिरकार, वो दिन आया। सुबह साढ़े नौ बजे मैं अशोक विहार बस स्टैण्ड पर थी। प्रतीक भी आया। वह अजनबी की तरह मेरे बगल में बैठा और सिर्फ इतना कहकर चला गया कि ‘हम किसी की नजरों में हैं।’ जबकि मैं सोच रही थी कि बस स्टैण्ड पर कोई हंगामा होगा। वह अपने प्यार की दुहाई देगा और मैं उसे साफ मना कर दूँगी। लेकिन हंगामा शाम को हुआ। शाम को प्रतीक ने फोन किया। मैं तो दोपहर से ही फोन के बगल में बैठी थी। उसने कहा कि उसे ये उम्मीद नहीं थी, अगर मैं किसी और को चाहती हूँ तो उससे क्यों खेलती रही। उसने ये भी बताया कि वह सुबह सात बजे से मेरी सोसाइटी के गेट के सामने मेरे इन्तजार में खड़ा था कि वह ये देख सके कि मैं बाहर आकर किसके साथ जाती हूँ लेकिन उसे हैरानी हुई थी कि सवा नौ बजे तक भी मैं उसे गेट से निकलती नहीं दिखाई दी। उसने मुझे बहुत बुरा भला कहा और अन्त में ‘साली कमीनी हर्राफा’ कहकर फोन काट दिया। प्रतीक का वह आखिरी फोन था और हमारी आखिरी बातचीत। बस स्टैण्ड की मुलाकात भी आखिरी ही थी। दिल्ली में मेरा मायका और उसका घर होने के बावजूद हम फिर कभी नहीं मिले।

गलत होने के बावजूद मैंने भी उसे फोन नहीं किया क्योंकि मेरा कथित ब्वायफ्रैन्ड वास्तव में मेरी सहेली का ब्वायफ्रैन्ड था। उसे मालूम हुआ कि प्रतीक ने मुझे गाली दी थी तो उसने फोन कर प्रतीक को धमकी दी थी कि वो उसे जान से मार देगा। पता नहीं, प्रतीक ने उसे क्या जवाब दिया लेकिन ये जरूर पता चला कि मेरी सहेली का ब्वायफ्रैन्ड मेरा भी ब्वायफ्रैन्ड बनना चाहता था, मुझ पर भी वैसा ही हक चाहता था। खैर, उससे तो मैंने पीछा छुड़ा लिया था लेकिन मेरे इस मजाक ने एक बहुत अच्छे लड़के से मुझे वंचित कर दिया। फिर दो तीन महीने के भीतर ही मेरी शादी पंचकुला, हरियाणा में रहने वाले एक सरकारी नौकर से हो गयी। दिल्ली छूटा तो सभी कुछ छूट गया। बाद में सौम्या से मालूम हुआ कि प्रतीक की भी शादी हो गई। आज अनायास ही अपनी देवरानी मीरा के साथ मेरे मायके में भाई का पुराना अलबम देखते हुए प्रतीक याद आ गया। उससे जुड़ा ये किस्सा भी जो मैंने मीरा को बताया और मीरा ने मुझे। क्या कभी मैंने और मीरा ने सोचा होगा कि हम दोनों के तार एक आदमी से जुड़े होंगे। मुझे इस बात की हल्की सी खुशी थी कि इसे हम दोनों के अलावा कोई नहीं जान पायेगा, प्रतीक तो बिल्कुल भी नहीं। मुझे उसकी याद तो नहीं आती बस कभी-कभी उसके कहे शब्द याद आते हैं- ‘प्रतिक्रियास्वरूप, आपके मुँह से आई लव यू सुनना पता नहीं कैसा लगता...।’

देवरानी की कहानी

प्रतीक! कुछ दिनों तक इस नाम ने मेरे भीतर घण्टियाँ बजाई थीं। मेरा भाई उस रविवार तक मुझे ‘मीरा का प्रतीक’ कहकर चिढ़ाता था। मेरी और प्रतीक की मुलाकात - पहली भी और आखिरी भी - सिर्फ पन्द्रह-बीस मिनट की थी। लगभग तय हो चुके रिश्ते की छोटी सी मुलाकात।

अठ्ठारह साल बहुत बड़ी अवधि होती है, फिर भी कुछ बातें या कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमारे भीतर जगह घेरकर बैठ जाते हैं, हमेशा के लिए। प्रतीक मेरे भीतर कहीं जगह बनाकर बैठा हुआ है। संयोगिता की कहानी के अनुसार अगर समय की गणना की जाये जिस समय प्रतीक मुझे देखने आया था उस समय ताजा-ताजा संयोगिता से उसका नाता टूटा था। उस समय वह एक हारा हुआ, टूटा हुआ इन्सान था मगर मुझे वह कहीं से भी ऐसा नहीं लगा था।

चलो, शुरू से ही शुरू करती हूँ। घर में मेरे रिश्ते की बातें शुरू हो चुकी थीं। मैं टिपीकल घरेलू लड़की थी, अब टिपीकल घरेलू बीवी हूँ। जब भी ऐसी कोई चर्चा होती थी तो मन में मीठी सी हिलौर उठती थी। एक दिन मेरा बड़ा भाई शाम को कहीं से लौटा तो उसकी आँखें चमक रही थीं और उसी शाम उसने मम्मी पापा के साथ सिर से सिर जोड़कर बातें भी कीं। तीन दिन बाद मेरी बड़ी बहन जीजा जी और भाई के साथ कहीं गई और जब वे घर आये तो उनकी आँखें भी चमक रही थीं।

आखिरकार, उसी रात को उनकी आँखों की चमक का राज खुला। बहन ने बताया कि उन्होंने मेरे लिए एक लड़का देखा है। वह क्नॉट प्लेस में एक ट्रेवेल एजेन्सी में काम करता है और लगभग छह फुट लम्बा और अच्छे नैन नक्ष वाला भोला सा लड़का है। कमी सिर्फ यही थी कि वह अभी सिर्फ दो हजार रुपया कमाता है। मगर इस कमी को फिलहाल मेरे घरवालों ने इग्नोर कर दिया था। पता नहीं, उस दिन मुझे क्या हुआ था कि मैंने ये सारी बातें ऐसे सुनी जैसे किसी और के लिए की जा रही हों।

सबसे पहले मेरे भाई ने उस लड़के ‘प्रतीक’ को उसके ऑफिस के बाहर बिचौलिए के साथ देखा था। देखते ही भाई ने उसे पसन्द कर लिया था। फिर भाई बड़ी बहन और जीजा को ले गया। उन दोनों को भी प्रतीक देखते ही पसन्द आ गया। और तीसरी बार भाई हमारी माँ को भी कनाट प्लेस ले गया। इस बार तो सचमुच ही मुझे उस पर तरस आया कि बेचारे की तीन बार दिखाई हो गई। भाई उसके लिए बहुत उत्साहित था। उसका बस चलता तो रोज अपने रिश्तेदारों को लेकर उसे देखने जाता। उस समय मोबाइल फोन नहीं होते थे वर्ना भाई उसका फोटो खींचकर ले आता। मुझे हैरानी हो रही थी कि उस बेचारे की तीन बार रस्म दिखाई हो गयी है जबकि मुझे देखने अभी तक कोई नहीं आया।

बकरे की माँ कब तक खैर मनाती। वह एक शानदार रविवार का दिन था। इस रविवार के बाद आने वाले रविवारों में ही मेरी जिन्दगी का फैसला होने वाला था। उस दिन प्रतीक के माँ बाप मुझे देखने आये। मुझे उन्होंने पसन्द कर लिया और इतना पसन्द किया कि उसकी माँ ने मेरे हाथ में पाँच सौ एक रुपये रखे और कहा लड़की हमारी हुई। मेरे माँ बाप भाई बहन तो खुशी से फूले नहीं समाये क्योंकि उन्हें तो लड़का पहले से ही पसन्द था और उनके अनुसार तो घरबार भी बहुत अच्छा था। कितनी अजीब बात थी कि जिनकी शादी होने वाली थी उन्होंने एक दूसरे को अभी तक नहीं देखा था। मैं कम से कम रोके के पैसे नहीं लेना चाहती थी मगर भाई और माँ के आँखें दिखाते चेहरों ने रोक दिया। तो इस पहले रविवार को मैं उनकी हो गई। उनके जाने के बाद एक घरेलू लड़की का विरोध मेरे घरवालों को पसन्द नहीं आया।

अगला रविवार तय हुआ कि लड़का लड़की को देखने आयेगा। मैं भी इस दिन का बेसब्री से इन्तजार कर रही थी। मैं भी तो उस लड़के को देखना चाहती थी कि आखिर उसमें ऐसा क्या है जिसे तीन चार बार देखा गया है और पसन्द किया गया है। उस दिन सुबह से ही तैयारियाँ शुरू हो गईं। घर की सफाई, बिस्तरों पर नई चादरें, सोफों के नये कवर, खाने का कई तरह का सामान वगैरह वगैरह। मुझे मेरा सबसे अच्छा सूट पहनने को कहा गया। मैंने पहना भी। बढ़ती धुकधुकी के साथ मैंने उसे देखा। वह अपने माँ बाप, छोटे भाई बहन और अपने पिता के दोस्त के साथ आया था। जैसा बताया गया था वह वैसा ही था, बस मुझे हल्का सा खटका हुआ। उसके बाल आगे से हल्के उड़ने लगे थे यानि भविष्य में मैं गंजे की बीवी कहलाऊँगी। फिर भी मैं राजी थी, मुझे वह पसन्द आ गया था। भविष्य के बारे में भविष्य ही जाने।

लगभग एक घण्टे बाद हमारी अकेले में मुलाकात सम्पन्न हुई, पहली और आखिरी। सौजन्य कुसुम, मेरी बड़ी बहन। हम आमने सामने बैठे थे। खामोशी की अवधि बढ़ती जा रही थी और धड़कनें भी। मेरे हिसाब से उसे पहल करनी चाहिए मगर वह विचलित सा मेरे सामने बैठा था। अन्ततः वो ही बोला, ‘मीरा जी, आप कुछ पूछना चाहती हैं मुझसे?’ मीरा जी तो बहुत कछ पूछना चाहती थीं मगर इस समय उन्हें कुछ याद नहीं हैं। उसका ‘मीरा जी’ कहना अच्छा लगा। क्या वह शादी के बाद भी मुझे मीरा जी कहेगा? यही पूछ लूँ? पर मैंने कुछ नहीं कहा। ‘मैंने सुना नहीं आपने क्या उत्तर दिया?’, वह कुछ देर बाद फिर बोला। ‘मैंने तो उत्तर दिया ही नहीं।’, अनायास ही मेरे मुँह से निकला। ‘तो कब तक इन्तजार करना है, वैसे तो मैं कर रहा हूँ।’ मुझे बड़ा अजीब लगा, खुद तो कुछ पूछ नहीं रहा और मुझे जोर दे रहा है। आखिरकार, मुझे ही कहना पड़ा, ‘आपकी मदर बता रही थीं आप लेखक हैं, कहानियाँ लिखते हैं। कैसी कहानियाँ लिखते हैं आप?’ ‘कुछ भी ऐसा जो समाज के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। कोरी व्यक्तिगत समस्याओं वाली कहानियाँ जो आपकी भी हो सकती हैं, मेरी भी या किसी की भी हो सकती हैं। जिनमें सामाजिक सरोकार नहीं है, कोई आदर्शवाद नहीं है।’

मुझे कतई पल्ले नहीं पड़ा, वह क्या बताना चाह रहा था। कुछ और बातें भी हुईं जो उससे सम्बन्धित थीं मुझसे नहीं, उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा था। कमरे से बाहर निकलते हुए उसने कहा था, ‘आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा ले...’ बाकी के शब्द उसने रोक लिये। मुझे उलझन में छोड़ वह बाहर निकल गया। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि उसने मुझे पसन्द किया या नहीं।

ड्राइंग रूम में आगे की रूपरेखा तैयार की जा रही थीं। पापा और भाई लड़के को रोकना चाहते थे। भाई ने प्रतीक को ग्यारह सौ रुपये देने चाहे मगर प्रतीक ने बहुत ही शालीनता से मना कर दिया। रूपरेखा के अनुसार अगले रविवार प्रतीक के घर जाना तय हुआ था इसलिए प्रतीक ने मना करते हुए कहा कि वह ये शगुन अगले रविवार लेगा, अभी नहीं। प्रतीक का मना करना मुझे खटका, फिर लगा, लड़का समझदार है, दो बार पैसा नहीं लेना चाहता। कमरे का वातावरण कह रहा था कि रिश्ता पक्का हो गया है लेकिन मेरे मन का निगेटिव हिस्सा कह रहा था कि कहीं गड़बड़ है।

अगला रविवार आया तो लेकिन उससे पहले कुछ और आ गया। दो दिन पहले बिचौलिया हमारे घर आया और उसने बताया कि उसे मालूम हुआ है कि लड़के को लड़की पसन्द नहीं आई। चूँकि उसकी माँ ने लड़की रोक दी है इसलिए वह अपने माँ बाप की बात रखने के लिए मुझसे शादी करने के लिए तैयार है और ये बात उसे प्रतीक के पिता के दोस्त ने बताई थी जो उस दिन उन लोगों के साथ आया था। प्रतिक्रियास्वरूप, मेरे माँ बाप ने प्रतीक को जी भरकर कोसा और उसके माँ बाप के बारे में खूब बुरा भला कहा। मुझे कुछ नहीं हुआ और भाई शांत था। वे लोग शादी के लिए तैयार थे मगर हमारे यहाँ से दिल खट्टा हो चुका था और समस्या ये थी कि मना कैसे किया जाये और मना भी हमारी तरफ से होना है। बिचौलिये ने राय दी कि शादी कर देते हैं, शादी के बाद अपने आप लड़का लड़की को पसन्द करने लग जायेगा लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ और खुद मैं भी नहीं। हालाँकि, मैं अकेली विरोध कर रही होती तो मेरी कोई भी नहीं सुनता।

आखिरकार, बिचौलिये को समझा दिया गया और उसने रविवार को फोन पर प्रतीक के घरवालों को सूचित किया कि लड़की के ताऊ ने रिश्ते से इन्कार कर दिया है क्योंकि लड़का सरकारी नौकरी वाला नहीं है। बाद में मालूम हुआ कि प्रतीक के माँ बाप ने बिचौलिये और मेरे माँ बाप को जी भर कर बुरा भला कहा था। दस-दस बार लड़के को उसके ऑफिस में देखा था तब पता नहीं था कि वह सरकारी नौकरी नहीं करता और आज उन्हें रातों-रात सरकारी नौकरी वाला लड़का चाहिए।

कैसी विडम्बना थी, प्रतीक के दोनों रिश्ते सरकारी नौकरी न होने के कारण टूट गये। और रिश्ता भी कैसा? एक, जो वह खुशी से बनाना चाहता था और दूसरा, मजबूरी से। खैर! जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। संयोगिता के साथ उसकी शादी न होना अच्छा ही रहा क्योंकि वो तो उसे चाहती ही नहीं थी। प्यार का दम भरने के बावजूद भी नहीं। अगर वह सचमुच उससे प्यार करती तो ऐसा नहीं करती। उसे हासिल करने के लिए कहीं तो लड़ती, कहीं तो खड़ी होती। और मेरे साथ...मैं तो उसे पसन्द ही नहीं थी। एक क्षणिक भर की मुलाकात इतिहास नहीं बनाती।

मैं सोच भी नहीं सकती थी कि संयोगिता के घर एक पुराना फोटो अलबम होगा जिसमें प्रतीक का फोटो होगा जो हम दोनों के भीतर हलचल मचा देगा और जो कुछ दिनों तक हमें कचोटता रहेगा। क्या कहा था उसने?... ‘आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा ले...’

उसका छूटा हुआ ‘ले’ लेकिन ही था क्योंकि मैं उसे पसन्द नहीं आई थी। इस बात का मुझे कभी बुरा भी नहीं लगा था क्योंकि हमारा बस सिर्फ अपने पर ही होता है किसी दूसरे पर नहीं। पर मैंने तो उसे पसन्द किया था। सच कहूँ, जिससे मेरी शादी हुई है, मैं उसमें प्रतीक ढूँढती थी, वो प्रतीक जो कभी था ही नहीं। जैसा संयोगिता ने कहा था, ‘दिल्ली में मेरा मायका और उसका घर होने के बावजूद हम फिर कभी नहीं मिले।’, हमारी भी कभी मुलाकात नहीं हुई। अगर ये फिल्म या कोई कहानी होती तो जरूर हमारी मुलाकात हो चुकी होती मगर असल जिन्दगी में कुछ नहीं होता, चाहने के बावजूद भी कुछ नहीं होता। आखिर में, संयोगिता से एक बात और पता चली। आज प्रतीक पुलिस विभाग में है, सरकारी नौकरी है उसके पास...।

१३ अक्तूबर २०१४

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