"दो आदमी एक जगह नहीं खड़े रह
सकते हैं।"
रमेश भाई का सारा शरीर हँसी से हिलने लगा, अपने बचपन के दोस्त
प्रीतम बक्शी का यह कथन सुनकर। साथ साथ उनकी कुर्सी भी हिलने
लगी। काउन्टर पर धड़ से हथेली मारी, चाय का छलकना रोकने के
लिये, लेकिन न तो चाय का छलकना रुका और न उनकी हँसी कम न हुई।
"मेरे दोस्त, तुम्हारे इस दर्शन-शास्त्र को सुनने के लिए ही तो
मन तुम्हारा दर्शन करने के लिये इतना बेचैन हो उठता है।" और
फिर वे हँस पड़े। उगता हुआ सूरज मथुरा-आगरा राजपथ के एक चौराहे
पर थम गया, पता नहीं यह बात सुनने के लिये, या अपनी किरणों की
दौड़ देखने के लिये।
बारह बरस के लड़के राजू ने अंडों की गिनती छोड़कर, संशय से अपने
पिताजी की तरफ देखा, "लेकिन बापूजी आपने मुझसे तो कहा था कि दो
आदमियों के बीच सबसे पहली बात यह है कि कौन आगे और कौन पीछे
खड़ा रहेगा।"
रमेश भाई की कुर्सी फिर हिलने लगी। "अरे बेटा हो तो ऐसा।"
"नहीं, वह तो जोड़ी के सबंध में कहा थी बक्शी जी ने स्पष्ट
किया।"
"अरे यह क्या? नहीं नहीं यह नहीं चलेगा, साथ साथ दो आदमी खड़े
रह सकते हैं, दो क्या चार भी।" रमेश भाई के तर्क का तीर मानो
तरकश से बाहर आया।
"तुम तो कुछ भी कहोगे बहस बढ़ाने के लिये।"
"सही बात तो यही है। तर्क से ही तो उत्तम दर्शन-शास्त्र
प्राप्त होता है"
"लेकिन क्यों?" रमेशभाई ने पूछा।
"क्योंकि एक ही विषय में बात करने वाले दो लोगों के इरादे एक
हों उनके विचार तो अलग ही होंगे।"
राजू बड़ी सोच में पड़ गया।
"अच्छा भाई बोलो कार्यक्रम का उद्घाटन कब हो रहा है?"
"संक्रांति को ही।" बक्शी जी ने कहा।
"हाँ, हाँ, लेकिन कितने बजे?"
"शाम को पतंग प्रतियोगिता के बाद।" बक्शीजी ने कहा।
"फिर तो समय है, राजू क्या अभी औमलेट खिला दोगे?" रमेश भाई ने
पूछा।
दूर से राजू के दोस्त, पंकज ने उसे पुकारा।
"बापूजी मुझे अभ्यास के लिये जाना है।"
"अच्छा ठीक है बेटा जाओ। औमलेट मैं बना दूँगा।"
राजू फट से अपने दोस्त के पास दौड़ गया।
रमेशभाई ने पूछा, "यह अभ्यास क्या?"
"वही पतंग उड़ाने की प्रतियोगिता के सिलसिले में।"
जब राजू पंकज के पास पहुँचा तब वह दोनों हाथ पेंट के जेब में
डाले दूर खड़ा था। करीब पहुँचकर उसने देखा कि पंकज के चेहरे पर
तेवर बदले हुए हैं। फिर भी उसने हँसकर कहा- "चल, चलें अभ्यास
के लिये"
"नहीं, पंकज ने नाक-भौं सिकोड़कर कहा,"कल मैं तुम्हारी फिरकी
नहीं पकड़ूँगा।"
"क्या मतलब? कल संक्रांति है।"
"इसीलिये। प्रतियोगिता में मैं अपनी पतंग उड़ाऊँगा, तुम्हारी
फिरकी नहीं पकडूँगा।"
"लेकिन अब मैं किसको ढूँढूँगा? मेरे पतंग उड़ाने की शैली और कोई
तो जानता भी नहीं।"
"वो मुझे नहीं मालूम।"
"क्या मुझसे मुकाबला भी करोगे?"
पंकज ने सोचा और फिर बिना किसी घबराहट के दिलेर स्वर में कहा,
"हाँ।"
"लेकिन तुम तो मेरी सारी चालें जानते हो।"
"इसीलिये तो मैं जीतूँगा।"
बचपन में कई ऐसे पल आते हैं जो दिन को रात और उत्साह को
परेशानी में बदल देते हैं। राजू के मन में एक तूफान उठ खड़ा
हुआ। उसने प्रतियोगिता जीतने के लिये खूब मेहनत की थी। सब
जानते थे कि वही जीतेगा। वह हर तरह से उसके योग्य भी था। वह
गहरे विचारों में डूब गया- कितनी हँसी उड़ेगी उसकी कल? लोग क्या
कहेंगे? कितनी ऊँचाई से गिरेगा वह? विचार थमने का नाम नहीं ले
रहे थे। राजू सर झुकाए, जान पहचान के लोगों से आँख बचाता वापस
अपने पिताजी की दुकान पर लौट आया।
"क्या बात है?" बक्शीजी ने पूछा।
"पंकज ने मेरी फिरकी पकड़ने से इन्कार कर दिया।" राजू ने कुछ
सुनसान आवाज में जवाब दिया।
"तो किसी और को पकड़ लो।"
"अब कौन मिलेगा? जो होशियार हैं वे पहले से ही किसी न किसी के
साथ जोड़ी बना चुके हैं। मैं जोड़ियाँ तोड़ भी तो नहीं सकता?"
राजू को लगा अब कुछ नहीं हो सकता है वह विचारों के गहरे अंधकार
में खो गया।
"पूँछ से पूछ लो।" बक्शीजी ने कहा।
"पूँछ?" वह अपनी नाक भी साफ नहीं कर सकता फिरकी क्या पकड़ेगा?
राजू के विचारों के सब रास्ते, सारी तरकीबों पर अँधेरा फैल गया
था। रौशनी थी तो सिर्फ पूँछ की बहती नाक पर। राजू ने इसी रौशनी
की तरफ कदम बढ़ाया।
पूँछ एक कार गैरिज पर काम करता था। राजू ने अपने डूबते दिल पर
कड़क इरादा ओढ़ लिया कि वह इस समस्या को मजबूत मन करते हुए,
मार्ग को रोड़े हटाकर, झट से दूर कर देगा। हो सकता है पूँछ 'न'
कह दे। अच्छा होगा वह 'न' कहे तो, लेकिन उससे पूछेगा जरूर।
पूँछ ने बहती हुई नाक को रोक कर कहा- "हाँ।"
राजू के मन का तूफान शांत हो गया- "ठीक है। चलो अभ्यास पर और
हाथ, नाक अच्छी से साफ कर लो।"
"क्यों?"
"क्योंकि तुम्हारे हाथ में ग्रीस की चिकनाई लगी है?"
"मेरी नाक का इससे क्या वास्ता? और फिर हाथ में चिकनाई हो तो
फिरकी तेज़ दौड़ती है।"
"सुनो! एक बात अभी-अभी समझ लो। तुम्हारी नहीं चलेगी, जैसा मैं
कहूँगा वैसे ही करना होगा।" राजू ने रुवाब से कहा।
"लेकिन ....!
"लेकिन क्या?"
"तुम मुझे पूँछ नहीं, कहोगे। मेरा नाम विपिन है।"
इस स्वीकृति के लिये विपिन की मासूम आँखों ने धैर्य छोड़कर
राजू के चेहरे की ओर देखा।
"ठीक है अब से मैं तुम्हें विपिन ही नहीं, विपिन जी कहूँगा।"
"नहीं, सिर्फ विपिन।" विपिन ने हाथ धोते कहा।
अँधेरे का सबसे बड़ा उपहार बच्चों को लिये यह है कि उनके चेहरे
नहीं दिखते।
राजू के मन में विपिन के प्रति एहसान का एक नन्हा सा खयाल,
छोटा सा एक बिंदु बनाकर बैठ गया।
लेकिन सारी मुसीबतें यहीं समाप्त नहीं हो गई थीं। पतंगों के
लिये पैसे चाहिये थे। प्रतियोगिता के लिये भी और अभ्यास के
लिये भी। कितनी ही पतंगों की जरूरत थी। पतंगें मुफ्त नहीं
आतीं। आखिर पैसों की बात थी। कैसे वह माँगेगा? कितनी बार
बापूजी ने कहा था कि सारी पूँजी नई दुकान खोलने के सिलसिले में
बँधी हुई है। शायद बापूजी ना कहेंगे, तो क्या उनसे पैसे माँगकर
पतंग पर लुटा देना ठीक होगा? राजू फिर से मनहूस अँधेरों में
छुप गया।
"कैसा रहा अभ्यास ?" कमल साहब ने अपनी मेडिकल दुकान से
चिल्लाकर पूछा।
"जी बहुत अच्छा।" राजू हकलाया।
"पूँछ के साथ जोड़ी बन गई?"
"जी हाँ!" राजू ने कदम बढ़ाते हुए कहा, "विपिन से।" अंधकार के
झोले से निकली संतोष की इस बात से न तो राजू के मन के अँधेरों
का कालापन कम हुआ, और न ही झूठ का वज़न हलका हुआ।
उसके पिताजी की दुकान से खरीदी गई और कई पतंगें उड़ पूँछ बाँधे
उड़ रही थीं। नीचे, लालटेन की रौशनी के सहारे बक्शीजी
रंगबिरंगे बिजली के मनोहर बल्ब लगा रहे थे, दुकान के उद्घाटन
के लिये। राजू को देखते बक्शीजी ने कहा - "मदद करोगे मेरी?"
"जी!"
"लो यह पकड़ो," राजू की खामोशी का खालीपन भरने के लिये बक्शीजी
ने पूछा "अभ्यास तो ठीक रहा?"
"जी!"
"पूँछ के साथ जोड़ी अच्छी रही?"
"जी!"
"सारी पतंगे कट गईं?"
"जी!"
बक्शीजी ने हँसकर कहा "कोई बात नहीं, कल और ले लेना।"
यह सुनकर राजू के दिल का बोझ पिघल गया, लेकिन जिम्मेदारी की
गंभीरता दूर नहीं हुई, "लेकिन आपने तो कहा था कि पैसों की बहुत
तंगी है, खर्च नहीं कर सकते हैं।"
"यह खर्च नहीं, खिलत है।"
"वह कैसे?"
"अगर कल तुम जीत गये तो तुम्हारा नाम रौशन होगा, और साथ साथ
दुकान के उद्घाटन का प्रकाश भी।"
बक्शीजी ने बिजली का स्विच दबाया। चारों तरफ रंगीन लट्टू हँसने
लगे।
"कैसे लग रहे हैं, राजू?"
"जी बहुत अच्छा!"
"कल तो रौनक कुछ और ही होगी।"
अगर राजू उम्र में बड़ा होता, और प्यार या मौत के प्रश्न में
करवटें बदलता, तो लोग उसकी हँसी न करते। लेकिन अभी तो उसने
आवाज़-बदलने वाली लकीर भी पार न की थी। फिर भी कटी पतंगों के
सपने देखते हुए कौन सो सकता है? अगर कहीं सपने में उसकी पतंग
कट जाये तो हकीकत में, खुले आम बापूजी की नई दुकान का नीलाम।
किसी तरह सुबह तो आनी ही थी और साथ ही राजू को नींद। सूरज की
गरमाइश से छटक कर उठा, ग्यारह बज गये थे। पतंगें खरीदनी थीं,
अभ्यास करना था, प्रतियोगिता पाँच बजे थी। सारी समस्याएँ साथ आ
गईं। और क्यों नहीं, मुसीबतें तो एक साथ ही आती हैं न। हाथ
मुँह धोके, पूँछ को पकड़ के, पतंगे चुन चुन खरीद के, राजू मैदान
पहुँच गया। लेकिन फिर भी बारह बज गये।
सुन!" राजू ने पूँछ के कंधे पर हाथ रखकर कहा "बारह में से सात
प्रतियोगिता के लिये सँभालनी हैं। और कम से कम दो बचाकर रखनी
हैं। इसका मतलब कि हमारे पास सिर्फ तीन पतंगें हैं अभ्यास के
लिये, ध्यान देना।" पूँछ ने सिर हिलाकर हाँ में हाँ मिलाई।
लेकिन अभ्यास में पाँच पतंगें कट गईं।
"वे आखिरी दो तुम्हें नहीं उड़ानी चाहिये थीं।" पूँछ ने नाक
पोंछते हुए कहा।
"मुझे देखना था वह मेरी पतंग काट पाता है या नहीं।"
"लेकिन उसने जब पहली काटी तो आखिरी क्यों उड़ाई?"
राजू के उलझन भरे मन से जवाब निकलने के पहले ही खामोशी से
टकराकर लहर की तरह बिखर गया। आखिर पंकज, बचपन से उत्तम दोस्त
था। खाना उनका साथ, खेलना उनका साथ। साथ उनकी हार, साथ ही जीत।
और अब एक की हार, एक की जीत।
उलझन टालते राजू ने कहा "चलो नहा धोकर जल्दी वापस आएँ,
फुलपैन्ट है न?"
"हाँ" पूछ ने छींक मारी।
प्रतियोगिता के लिये मथुरा का सारा समाज, सारी जनता शामिल थी।
कोई पान खा रहा था, तो कोई मूँगफली। लोग हँसी मजाक में रुचि ले
रहे थे। रंगीन, नाकचढ़े कपड़ों में बच्चों का खेल और चिल्लाहट
जारी थे। मैदान में प्रतियोगी इधर उधर घूम रहे थे।
प्रतियोगियों के पास सात पतंगें थीं और सात उड़ानें। कोई किसी
से भी पेंच लगाए। जिनकी सात पतंगें पहले कट जाएँगी उनकी हार हो
जाएगी।
मैदान पर प्रतियोगियों की भीड़-भाड़ में प्रतियोगिता शुरू होने
के पहले विभाजन साफ दिखाई देने लगा। दो समूह बन गये। एक के बीच
पंकज, दूसरे के बीच राजू। स्वाभाविक तो यह था कि वे अकेले, भीड़
से दूर खड़े हों जैसे उनका मुकाबला सबके साथ न होकर आपस में ही
हो। लेकिन नेता, मार्गदर्शकों के पास यह खुशनसीबी कहाँ? चार-आठ
मिलकर मुकाबला करें तो किसी कमजोर, बेगुनाह को जीतने का मौका
मिलता है।
पतंगों की उड़ान ठीक पाँच बजे शुरू हो गई।
पूँछ बिना भूले दौड़ा और फौरन फिरकी पकड़ ली। आसमान पतंगों से भर
गया। राजू ने आसानी से आजु-बाजू वालों की पतंगें काट दी। लेकिन
फिर उसकी भी कट गई, पंकज की उड़ रही थी। "गिनती रखना पंकज की
कितनी कटती हैं।" राजू ने पुकारा। पूँछ ने माँझा लपेटते हुए
"हाँ" कहा।
धीरे, धीरे शाम के आसमान ने अपने चेहरे से पतंगें उतार कर फेंक
दी। इधर उधर माँझे लटक रहे थे। अंत में बचे तो सिर्फ पंकज और
राजू। लेकिन दोनों की आखिरी पतंग थी। दोनों पतंगों ने साथ ही
उड़ान ली। खुले आसमान की तेज़ हवा में पंकज अपनी पतंग बाएँ ले
गया, फिर दाएँ और फिर आहिस्ता से आसमान का गोल चक्कर काटा,
जैसे हवाई जहाज़। यह सब तो राजू की चालें थीं। लेकिन लोगों की
तालियों का शोर बढ़ने से वह हिचकिचाया। पंकज उसका दोस्त था।
कैसे शर्मिन्दा करे उसको? "तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है?
पेंच लगाओ, ढील दो, हवा तेज़ है, काट दो। "पूँछ चिल्लाया। "वह
जानता है मैं ढील दूँगा।" राजू ने कहा और उसकी नज़रें उलझन से
भटकने लगीं।
अचानक एक पँछी उड़ते, उड़ते नज़दीक लटकते हुये माँझे में अटक गया।
कोई खास बात नहीं, कबूतर ही था। गोल, गोल अपनी उड़ान के कारण
ज़्यादा लपट गया। और फिर गोल गोल अपने को छुड़ाने के लिये। और
फिर, कुछ नहीं, शांत, बिल्कुल शांत हो गया। सिर्फ हवा की तरह,
ज़िंदगी की ज़िम्मेदारी छोड़ बैठा। राजू ने पतंग की पकड़ छोड़कर उस
अनजान पंछी को माँजे की उलझन से आज़ाद करने की कोशिश की। उसके
मुलायम बदन को सँभालकर माँझे की लपेट से निकाला और स्वतंत्र कर
दिया। कबूतर को उड़ते ऊपर देखा, तो उसकी पतंग निर्जीव टहल रही
थी।
पंकज ने मौका पाते पेंच लगा दिया। दो बार राजू के माँझे को
छोड़कर घसीटने लगा। लेकिन निर्जीव चीज़ को कौन मार सकता है? राजू
ने अपनी पतंग का माँझा थाम लिया।
"ढील दो ढील।" पूँछ चिल्लाया, "हवा तेज़ है।" राजू ने पतंग की
नोक ऊपर कर दी और पूँछ को आवाज़ दी- "लगाओ।" यही तो वक्त था।
पूछ ने पैंट के जेब से चिकनाई भरी थैली निकाली और दोनों हाथों
में ग्रीस रगड़ ली। फिर क्या? फिरकी की चाल हवा से एक हो गई।
लेकिन माँझा? पूँछ ने फिरकी को देखा। लगाओ, राजू चिल्लाया
"माँझा है न?"
"हाँ" पूँछ ने कहा और प्रार्थना शुरू कर दी। अभी पूँछ क्या,
उसे कोई कुत्ते की पूँछ कहता वह भी उसे स्वीकार था। सिर्फ
माँझा न खत्म हो। फिरकी रूक गई। पतंग कहीं दूर आसमान में थम
गई। अचल। कड़ी हवा के खींच से माँझा फौलादी छड़ी जैसा मजबूत हो
गया। इस हालत में तो पतंग को कटना ही था। सारी नज़रें अचल पतंग
पर कसी हुई थी, उसके हिलने के इन्तजार में। लेकिन राजू की पतंग
न हिली। चाल पंकज की पतंग में आई।
"वह कट गई।" पूँछ फुसफुसाया।
"हाँ, तुम ठीक कहते हो।" राजू ने जवाब दिया।
लोगों के शोर, शबाशी, उत्सव में काफी समय निकल गया और फिर एक
हजार एक रूपये का इनाम भी स्वीकार करना था।
राजू दौड़ दौड़कर अपने पिताजी की दूकान पहुँचा।
"बापूजी, बापूजी ..."
लेकिन उसकी कौन सुने। दुकान में इतनी भीड़ थी कि राजू डर गया,
कुछ घटना तो नहीं हो गई। लेकिन उसने देखा,
बापूजी
हँसते, मुस्कराते, पसीना बहाते चूल्हे के पीछे खड़े, औम्लेट पर
औम्लेट बनाए जा रहे हैं।
"बापूजी, मैं जीत गया।" राजू ने पुकारा।
"हाँ वह तो मालूम है। देख नहीं रहे हो?" बक्शीजी ने अपनी दोनो
बाहें फैलाते हुए भीड़ की ओर इशारा किया।
राजू खुशी से खामोश और अभिमानरहित हो गया।
दूर से रमेशभाई की आवाज़ आई। "धरती जाग गई भाई। यही तो है मकर
संक्रांत। यही है ज़िन्दगी की उड़ान।" |