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कहानियाँ

भारत से डॉ सुधा पांडेय की पुराण कथा
इंद्र की स्वराज कामना


वर्षा ऋतु का समय था, आकाश घने मेघों से आच्छन्न। सायंकाल होते ही पर्वतों और घने कांतार की वृक्षावलियों में अंधकार छाने लगा। दैदीप्यमान सूर्य की लोकित प्रभायुक्त सुढ़ह देहयष्टि, आजानुबाहु एक व्यक्ति पगडंडी पर अपने विचारों में लीन मंदगति से चला जा रहा था। मुख किंचित अवसाद से मलिन किंतु दृढ़वती अस्तित्वयुक्त वह युवक अंतरिक्ष और द्युलोक सभी को अभिभूत कर रहा था, उसकी व्याप्ति का अंत न तो द्युलोक पा सकता था, न पृथिवी और न ही कोई अन्य लोक ! उसके दृढ़व्रत का अनुकरण करने को द्यावा पृथ्वी, वरुण, सूर्य और नदियाँ भी तत्पर रहती थीं। चलते-चलते युवक पथ में अचानक क्षणभर ठिठक गया, समीप के गुल्म से कोई आहट आयी....युवक ने अपना खड्ग सँभाला ही था कि उसके सामने धम से कूदने की आवाज हुई।

कहीं कोई वन्य जीव या असुर तो नहीं ? इस आशंका से युवक सँभलता, तभी उसने देखा विपत्ति कुछ भी नहीं थी, सामने मुस्कराती शची विद्यमान थी। इठलाती चंचलता से भरी शची युवक के और समीप आ गयी !
‘‘मरुतवान इंद्र ?’’
‘‘हाँ मैं ! पर तुम यहाँ ? इस समय कैसे ? इस विजन वन में कोई असुर या वन्य जंतु आ जाता हो... ?’’
शची ने नेत्र उन्माद से भरे थे इंद्र के प्रति अनुरागभरी विह्वलता से उसने उत्तर दिया- ‘‘मैं इंद्र की अनुगता हूँ, इंद्र का खड्ग भी तो महान पराक्रमी है...’’ शची की सारी देह थिरक उठी।

इंद्र चिंतित थे, शची के आगमन से उनकी विचारधारा टूटी किंतु वे उसी चिंता भाव को शची के समक्ष व्यक्त करते हुए बोले- ’’इन असुरों को राह दिखाये बिना देवकुल का कल्याण नहीं... अब और अधिक नहीं सहा जा सकता। ये भी तो हमारे देवकुल से ही हैं। शताब्दियों पूर्व ये नीचे उतर आये थे। आज ये देवों की सारी संस्कृति भूल गये हैं... यज्ञ विधि भी नहीं करते... ब्रह्म को भी नहीं मानते, केवल वरुण को नाममात्रके लिए मानते हैं। अपने को सभ्य कहते हैं, पर धन के दास हो गये हैं। तू अपना ही उदाहरण देख- तू यज्ञ के सामने ब्रह्म द्वारा प्रदत्त मेरी वधू है, पर तेरा पिता कहता है कि ‘जब तक इंद्र मेरी कन्या के बदले पर्याप्त धन नहीं देगा, वह शची का पति नहीं बन सकता... !’
‘‘किंतु इंद्र ! एक बात तुम्हें स्वीकार करनी होगी, देवगणों में एक बहुत बड़ी कमी है।’ ‘‘क्या ?’’ इंद्र आश्चर्यचकित थे।
‘‘असुर अपने राजा के अधीन संगठित हो चुके हैं और वे निरंतर शक्तिशाली हो रहे हैं। हमारे देवकुल में वैराग्य है, हम ठीक से संगठित भी तो नहीं।’’ शची ने उत्तर दिया।
इंद्र सहमत थे, विवशभाव से बोले- ‘‘हमारी सबसे बड़ी कमी तो यही है कि हमारा कोई नेता नहीं है... संगठित होकर कार्य कर पाना इसी से कठिन हो रहा है।’’

‘‘पर ऐसा नेता तो इंद्र ही हो सकता है’’ शची अब अधिक उल्लास से भर गयी थी। दस्त्र और नासत्य भी इस बीच आ गये थे।
‘‘शची के साथ एकांत मिलन का अच्छा स्थान ढूँढा है इंद्र।’’ दस्त्र ने व्यंग्य किया।
‘‘अरे नहीं ! मैं आचार्य भृगु के आश्रम की ओर जा रहा था, उनसे कुछ वार्ता करने... अच्छा हुआ तुम लोग भी मिल गये।’’
भृगु का आश्रम समीप दिखायी दे रहा था। वे सभी एक साथ आश्रम की ओर जाने लगे। तभी एक अन्य युवक भागता हुआ आया और इंद्र के समीप आकर खड़ा हो गया। भय और व्यग्रता से उसके मुख से शब्द भी नहीं निकल पा रहे थे ! आने वाला युवक और कोई नहीं नारद थे। नारद। ‘‘कहो अचानक यहाँ कैसे ? कोई विशेष संवाद... ?’’ इंद्र ने नारद से पूछा।
नारद अभी संयत भी नहीं हो पाये थे। शची, दस्त्र और नासत्य भी उनकी घबराहट से विचलित हो उठे।
कुछ क्षण रुककर नारद ने किसी प्रकार कहा- ‘‘असुर देवयानी को उठाकर ले गये... सुना है वृत्र ने उसके साथ अनाचार भी किया है।’’
‘‘नीच ! बर्बर !’’ हठात इंद्र के मुख से निकला।

‘‘बिना स्वराज्य मिले हमारा निस्तार नहीं है। मैं तो अब इस निश्चय पर पहुँच चुका हूँ चाहे अन्य देवगण मेरा अभिमत मानें या न मानें...’’
‘‘इंद्र ! हम सब तुम्हारे ही साथ हैं। अंगिरा, ऋभु, अथर्वा आदि सभी देव युवक तुम्हारा अनुगमन करने को तत्पर हो उठे हैं। प्रतिदिन अपमानित होते रहने से अच्छा है कि हम मृत्यु का वरण करें...’’ नासत्य बोला।
‘‘मैं भी देव कुलगुरु भृगु से इसी विषय में विमर्श करने ही जा रहा था।’’ इंद्र ने उत्तर देते हुए कहा। क्रमेण आगे बढ़ते हुए वे भृगु के आश्रम के समीप पहुँच गये। विशाल अश्वत्थों से घिरे आश्रम में भृगु गो सेवा में व्यस्त थे ! तीक्ष्ण नासिका, ओजस्वी दृष्टि, श्वेत केश राशि से सुशोभित भृगु का तपोपूत शरीर सभी की दृष्टि को बरबस अपनी ओर खींचने वाला था ! अपने आश्रम में इंद्र सहित देवगणों को आया देख उन्होंने बैठने के लिए आसन बिछा दिये ! सभी देवगण उन्हें अभिवादन कर अपने-अपने स्थान पर बैठ गये।
‘‘इंद्र ! कहो इधर कैसे आना हुआ ?’’

‘‘भगवन ! सारा आश्रम सूना क्यों है ? मैं तो आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ। दघ्यंग भी नहीं दिखायी पड़ रहा !’’
‘‘वह तो शर्यणावत सरोवर में चला गया है।’’
‘‘क्यों ? उसे तो मैं मधुविद्या का उपदेश भी दे चुका हूँ।’’ - इंद्र ने पूछा।
‘‘वत्स ! वह घोर तपस्या में लीन हो गया है। योगध्यान द्वारा कठिन तपस्या कर अपनी देह को वज्र की भाँति बना चुका है वह।’’
‘‘गुरुदेव ! क्या आप उचित समझते हैं कि इस समय देव युवक इन कार्यों में अपने को व्यस्त रखें ?’’ इंद्र ने पुनः प्रश्न किया !
‘‘संभवतः उसके लिए यही मार्ग प्रथित रहा हो...’’
‘‘जब वह एक मार्ग ढूँढ चुका है, तो अपनी नयी परंपरा से क्या लाभ ?’’- इंद्र ने प्रतिवाद किया।
‘‘वत्स ! तनिक समझो तो जब कई संस्कृतियाँ साथ रहेंगी, तो समन्वय अवश्य होगा, निश्चय ही किसी दिन आज की देव, असुर, नाग, गंधर्व, यक्ष आदि संस्कृतियाँ मिलकर एक महान सभ्यता को जन्म देंगी ! कई और कई दध्यंग इसके लिए जन्म लेंगे।’’ ऋषि भृगु ने शांत भाव से उत्तर दिया।

‘‘भगवन ! आप स्थितियों को तो देखिए ! देवकुल का सर्वनाश होने को है... भूमि पर यज्ञ की अग्नि शांत हो रही है, शायद कुछ दिनों में कोई ब्रह्म का स्वर नहीं सुन सकेगा।’’ अब नासत्य भी मुखर हो उठा !
इंद्र का मुख क्रोध से तमतमा उठा वह भी चुप न रहा सके- ‘‘इन असुरों से क्या आशा की जा सकती है, यज्ञ विधि छोड़ चुके हैं, ब्रह्म को भी नहीं मानते... वरुण को भुला ही देंगे। हमें पग-पग पर इनसे अपमानित होना पड़ता है, इसका भी कभी विचार किया आपने ?’’

‘‘यह कैसे संभव है ? इनके पूर्व पुरुष तुम्हारे पूर्वजों के बड़े भाई हैं। पहले दोनों कुल एकत्रित होकर रहते थे, वरुण की स्तुति करते थे ! ऋषि ने बिना व्यग्र हुए कहा।’’
‘‘नहीं इंद्र सत्य कह रहे हैं, हमें स्थान-स्थान पर जंगली कहकर वे हमारा उपहास करते हैं।’’ अब दस्त्र भी उग्र हो उठा था।
‘‘यह तो सचमुच उनका अन्याय है।’’ ऋषि बोले।
‘‘गुरुदेव ! तभी तो हम सब मिलकर आपसे कह रहें हैं कि असुर ऋत से च्युत हो गये हैं ! इंद्र आज से ही उनके विरुद्ध विद्रोह करेंगे !’’
‘‘गुरुदेव ! आज ब्रह्म से भी भेंट होगी। आज इसका निर्णय करना ही होगा।’’- यह नारद का स्वर था !
‘‘यदि आज ब्रह्म ने आज्ञा दी तो उचित है, अन्यथा इंद्र अकेला ही संघर्ष करेगा।’’ इंद्र ने दृढ़तापूर्वक कहा !
‘‘तुम सब आवेग में अंधे हो गये हो। शांत मन से कल वार्ता करना।’’ ऋषि प्रवर ने समझाने का प्रयास किया।
‘‘कोई शक्ति हमें स्वराज्य प्राप्ति के पथ से विरत नहीं कर सकती।’’ इंद्र पुनः दृढ़ता से गरजे।
‘‘वरुण देव यदि यही चाहते हैं तो ऐसा ही हो... आज से मैं देवों से अपना संबंध तोड़ता हूँ।’’ ऋषि भृगु किंचित अनमने भाव से कहकर चले गये।

नारद कातर भाव से कहने लगे- ‘‘पता नहीं आगे कैसे चलेगा ? बिना गुरु के देवों की शक्ति भी तो निर्बल पड़ जाएगी।’’
‘‘असंभव !’’ इंद्र का स्वर अविचलित था। मरीचि और अत्रि, कश्यप और अंगिरा- जैसे स्वप्नदृष्टा नये सूक्त रचेंगे। नवयुग का प्रादुर्भाव होगा। रात्रि बढ़ चली थी, यज्ञ स्थल के समीप अन्य देवगण भी एकत्रित होने लगे थे। अर्यमा को जल्दी हो रही थी कि शीघ्र ही होम की विधि संपन्न हो और सोमपान का कार्यक्रम शुरू हो, तभी समूह में से एक स्वर उभरा- ‘‘देव कुलगुरु कहाँ हैं ? वे नहीं दीख पड़ते...।’’ यह इंद्र का पिता द्यौस था।
‘‘वह नहीं आएंगे ! वह चाहते हैं कि हम असुरों के अन्याय सहते रहें।’’ इंद्र ने संयत होकर उत्तर दिया।
अर्यमा भी चिंतित थे, ‘‘क्या तुम असुरों के विरुद्ध विद्रोह करने जा रहे हो ?’’
‘‘ठीक ही कह रहे हैं आप।’’ इंद्र ने उत्तर दिया।

आज सारा देव समाज अपमान से क्षुब्ध हो चुका है, इसका प्रतिकार आवश्यक है।’’ दस्र ने समर्थन किया।
द्यौस के लिए यह सब सहना संभव न हो सका। वह खड्ग उठाकर इंद्र की ओर दौड़े, ‘‘अरे यह इंद्र यदि जीवित रहा, तो असुरों के साथ सभी देवताओं का भी वध करवा देगा। मैं इसका ही वध करता हूँ।’’ उसने पूरे जोर से प्रहार किया। इंद्र तनिक पीछे हटे और वार को बचा लिया। भीषण कोलाहल होने लगा, द्यौस वार पर वार कर रहे थे। इंद्र निरंतर बचते जा रहे थे, कोई तीसरा इस बीच नहीं आ सकता था, यह इंद्र युद्ध का नियम था। दस्त्र और नासत्य इंद्र को ललकार रहे थे तभी एक किनारे से शची ने इंद्र के कान में चुपके से कुछ कहा। इंद्र जो अभी तक वार बचा रहे थे, अब उग्र हो उठे, जैसे बादल के दो छोरों से बिजली चमकी हो वैसे ही खड्ग चमका और पलभर में द्यौस शांत था।

‘प्राणघाती इंद्र ! पितृहंता इंद्र !’- जैसी ध्वनियाँ पूरे वातावरण में गूँज उठीं... सर्वत्र वातावरण स्तब्ध हो उठा था।
‘‘इंद्र ने हत्या नहीं की है। द्वंद्व युद्ध में एक की मृत्यु निश्चित होती...’’ यह दस्त्र का स्वर था।
‘‘इंद्र हत्यारा नहीं है,‘‘मरुत भी जनसमूह के बीच से निकलकर बोला। अभी भी वातावरण में उत्तेजना व्याप्त थी, अंगिरा सबको शांत करने में व्यस्त थे, कुछ क्षण रुककर बोले, ‘‘अपराध द्यौस का ही था। यदि इंद्र ने कोई अपराध किया था, तो ब्रह्म उसका निर्णय देते। द्यौस ने अधिकार अपने हाथ में लेना चाहा... नियम विरुद्ध कार्य किया और दंड भोगा।’’ अंगिरा की संयत वाणी से सूची भेद्य नीरवता छा गयी।
अर्यमा ने ब्रह्म को पुकारकर पूछा- ‘‘मैं प्रार्थना करता हूँ कि ब्रह्म इंद्र के लिए अपना निर्णय दें कि वह दोषी है अथवा निर्दोष।’’

भीड़ में से आवाज आयी- ‘इंद्र निर्दोष है, इंद्र निर्दोष है।’ जो विरोध कर रहे थे उनकी भी आवाज कोलाहल में छिप गयी... शची आहृद से भर उठी।
ब्रह्म भी इंद्र के निर्देशों पर अपनी सहमति दे चुके हैं अतः अब उचित है कि हम असुरों का नाश करने के लिए रणनीति बनाना प्रारंभ करें।’’ नासत्य गर्वित स्वर में बोला।
‘‘किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि असुर बहुत अधिक शक्तिशाली हो चुके हैं।

वृत्रासुर उनका अजेय अधिपति है। देवों में संगठित करने के लिए हमें नेता चुनना होगा। मैं चाहता हूँ कि अपार महिमा और शक्ति संपन्न इंद्र हमारा नेता बने।’’ नारद ने सुझाव दिया। मित्र और अर्यमा सहित सभी देव हर्ष ध्वनि कर उठे,‘‘ अपने जाल में बाँधकर सभी शत्रुओं को पराजित करने वाला इंद्र आज से हमारा नेता है।’’

वह इंद्र जो उत्पन्न होते ही अजेय योद्धा बन बये थे, उनकी निर्बाध गति के आवेग से पर्वत शिलाएँ, द्युलोक और पृथ्वी मानों काँप उठी देवों द्वारा नेता मनोनीत करने पर इंद्र और अधिक गर्व से भर गये। द्यौस के साथ हुए युद्ध में उनके शरीर पर भी आघात हुआ जिससे उनके कंधे से रक्त अभी भी बह रहा था। दस्र और नासत्य योग्य चिकित्सक के रूप में शची की सहायता से व्रण साफ करने लगे। सभी देव सोमपान की प्रतीक्षा कर रहे थे कि किसी ने देवों का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा- ‘‘अग्नि कहीं छिप गया है।’’

सभी यज्ञ-कुंड की ओर दौड़े। देवगण अपनी व्यस्तताओं के कारण कुंड में समिधा डालना भूल गये थे, अग्नि का कहीं नाम नहीं था।
अर्यमा घबरा उठे- ‘‘भृगु भी हमें छोड़कर चले गये हैं अग्नि भी कहीं अंतर्धान है शायद वरुण हम पर रुष्ट हो गये हैं।
‘‘मुझे ज्ञात है अग्नि कहाँ छिपा होगा ?’’ अंगिरा ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘ वह भागकर शमी वृद्वा के कोटर में छिप गया है।’’

देव समूह अंगिरा के साथ उस शमी वृक्ष के पास पहुँचे, अंगिरा ने उसकी अरणियों को घिसा, घर्षण से अग्नि विचलित होकर तुरंत प्रकट हो गया। अंगिरा ने कुछ शब्द अस्फुट स्वर से पढ़े और अग्नि को कुंड में प्रविष्ट कर दिया।
इंद्र ने आदेश दिया, ‘‘तुमने जो कुछ भी अभी कहा उसे ब्रह्म को सुनाओ।’’
अंगिरा ने इंद्र से कहा, ‘‘तुम यज्ञ में समिधा डालो, मैं अग्नि की स्तुति में सूक्त पढ़ता हूँ-
‘अग्नि सूर्य की भाँति चमकता है और प्रज्ज्वलित होकर अंधकार का मार्ग खोल देता है, अग्नि का रथ भी कांतिवान है, यह अरणियों के घर्षण से उत्पन्न होता है, यह दोनों हाथों की अंगुलियों द्वारा मथी जाती है, मानो उसे दस युवतियाँ जन्म देती हैं, पुरातन होकर भी अग्नि नित्य एक युवक के रूप में जन्म लेते हैं।’’
देवगण विस्मय विमुग्ध थे। उनके स्वप्न साकार होने लगे थे। ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे पृथ्वीवासियों को सुसंस्कृत करने के लिए अवतरित हुए हैं।

इंद्र ओज से भर उठे थे। उसी ऊर्जा भरे स्वर में बोले- ‘‘मैं अंगिरा को आज से देव कुलगुरु बनाता हूँ। इसने कृषि के नये विधान असुरों से सीख लिये हैं, अग्नि को ढूँढ निकाला है। यह मेधावान है और स्वप्न दृष्टा भी। नये सूक्तों का रचयिता, अंगिरा हमारा कुलगुरु हो।’’
‘‘अंगिरा हमारा कुलगुरु, अंगिरा हमारा कुलगुरु।’’ देवगण हर्षध्वनि कर उठे। आज से हमारा नया युग प्रारंभ होता है। अंगिरा ने समीप रखे भांड से एक चषक में सोम पलटा- ‘‘आज सबसे पहले सोम के अधिकारी तुम हो इंद्र !’’
अपना प्रिय पेय पाकर इंद्र सोमपावन बन गये। बृहस्पति, अत्रि भी पहुँच गये थे। आखेट का मांस भूना जा चुका था। कृषि की भुनी बालियाँ, कंद-मूल, फल-फूल आदि भी भोजन के लिए प्रभूत मात्रा में जुटाये जा चुके थे। इंद्र का जयजयकार हुआ, सभी भोजन में लग गये। इंद्र ने कुछ याद करते हुए नारद से कहा- ‘‘नारद तुम शीघ्र ही गंधर्वों के देश जाकर उनके राजा से मिलो। उन्हें मेरा संदेश देना और कहना कि आज से देव और गंधर्व मित्र हैं। देव स्वराज्य जीत लें। गंधर्व भी असुरों के विरुद्ध खड़े होकर स्वराज्य जीत लें। इसके बाद उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी।

देवों ने क्रांति आरंभ कर दी थी। ‘‘इंद्र के नेतृत्व में देव असुरों के साथ संग्राम में प्रवृत्त होते हैं। वरुण अन्यायी वृत्र का शासन उलटने में हमारी सहायता करेंगे।’’ अंगिरा का स्वर ओज से भर उठा। अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘‘इंद्र को चुनने के बाद शची को इंद्राणी के पद पर अधिष्ठित करो।’’
‘‘ब्रह्म की राय ली जाए।’’
ब्रह्म समवेत था... ‘‘देव कुलगुरु ठीक कहते हैं। शची को इंद्राणी पद मिलना चाहिए।’’
‘‘शची इंद्र के वाम भाग पर स्थित हो और सोम ले।’’ शची का मुख दिव्य ओज से दीप्त हो उठा। त्वष्टा ने इंद्र के लिए भी एक विशेष चषक बनाकर दिया। रात्रि मदिर होने लगी थी। नारद, अत्रि, मरुतगण सोमपान कर आनंदित हो रहे थे। सोम की विशेष स्फूर्ति से पिछली शिथिलता समाप्त हो गयी... आनंद का वह वातावरण सभी दिशाओं को भी प्रफुल्लित बना चुका था। तंद्रालस देव कब निद्रा में मग्न हो गये, कोई जान न सका।

११ अगस्त २०१४

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