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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से वर्षा ठाकुर की कहानी— ढलते सूरज को सलाम


मैं अस्त होते सूरज को सलाम करता हूँ।
सुबह का सूरज तो मुझे दिखता ही नहीं था। मेरे ब्लॉक के पीछे से कब निकल आता और सर पर चढ़ जाता पता ही नहीं चलता। जब नया नया कलकत्ता आया था तो बड़ा अजीब लगता था, कितना भी जल्दी उठ जाओ, सूरज सर पर ही मिलता था। फिर मैंने मॉर्निंग वाक का इरादा त्याग दिया।

पर मेरी मुलाकात अस्त होते सूरज से रोज ही हो जाती। बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि मुझसे मुलाकात किये बिना सूरज अस्त ही नहीं होता। और मुलाकात भी कैसी, शाम को छह बजे स्कूटर से घर लौटते हुए जब अंतिम चौराहे पर पहुँचता तो बाँयें मुड़ते ही सड़क के दूसरे छोर पर पेड़ों और इमारतों की कतार से ठीक ऊपर मेरा दोस्त डला रहता था, दिन भर की थकान से चूर पसरने को तैयार, बिलकुल मेरी तरह। बस यहीं से शुरू होकर गली के अंतिम मोड़ पर खत्म हो जाती हमारी मुलाकात। और इन दोनों मोड़ों के बीच लगभग दो सौ मीटर की दूरी जो मैं स्कूटर से अमूमन पंद्रह सेकंड में पूरी कर लेता, वही होता था हमारी दुआ सलाम का वक़्त। उस बीच कभी सूरज बादलों को अपनी लाली से लीपकर उनके पीछे आराम फ़रमाता तो कभी अपने पूरे उग्र रूप में हेलमेट के पीछे छुपी मेरी आँखों को चौंधिया जाता। कई बार एक्सीडेंट होते होते बचा। पर मैंने आज तक अपनी प्रेमिका के दो घंटे चले नखरों के आगे घुटने नहीं टेके, तो ये पंद्रह सेकंड क्या चीज़ थे! (प्रेमिका दो घंटे बाद छोड़कर चली गयी थी, पर ये कहाँ जाता। आना उसको पश्चिम में ही था डूबने के लिए। )

एक रिश्ता सा लगता था अस्त होते सूरज के साथ। दोनों में बस इतनी हिम्मत बची रहती थी कि नज़रें मिलाकर वो अपने रास्ते मैं अपने रास्ते। फर्क सिर्फ यही होता कि उसकी शकल में छह बजे होते थे और मेरी शकल में बारह। काम ही ऐसा था मेरा, मार्केटिंग मैनेजर था, अपने सिवा हर चीज़ को अच्छे दाम में निकाल सकता था। अपने आप को इसलिए नहीं क्योंकि अब भी थोड़ी इंसानियत बाकी थी मुझमें। पहले ज्यादा थी, उगते सूरज की ऊर्जावान आशावान किरणों की तरह। मेरा जोश, मेरा जज़्बा उन किरणों की तरह जहाँ जाता था टपकने लगता था। ज़िन्दगी धुली सुबह की तरह लगती थी। तब भी मैं इसी गली से होकर लौटता था, पर तब मेरा ध्यान उस अस्त होते सूरज की तरफ शायद ही जाता था। ऑफिस तो सिर्फ मेरा शरीर छोड़ता था, दिमाग तो तब भी स्ट्रेटेजी बनाता रहता था। बॉस भी बड़े खुश थे, इस उगते सूरज से।

एक साल हुआ, और फिर दो साल। क्या दुनिया का कोई ऐसा ऑफिस होगा जहाँ गन्दी बू नहीं आती हो? राजनीति की, गलाकाट प्रतिस्पर्धा की, सिर्फ प्रतिद्वंद्वी के साथ नहीं, अपने बगल के रूम में बैठे सहकर्मी दोस्त के साथ भी। वही ग्यारह बजे वाली कॉफ़ी जो कभी जोश और जिंदादिली से भर देती थी, अब एक कर्मकांड बन कर रह गयी थी। उस मुस्कराहट के पीछे का पर्दा मैला हो गया था, शायद वक़्त के साथ। ज़िन्दगी का चक्र भी ऐसा है जो किसी को साबुत नहीं बख्शता। ला पटकता है एक दोस्त को दोस्त के सामने, ज़िन्दगी को ज़िंदादिली के सामने। खुद सर्वाइव करने के लिए यार के अरमानों का गला रेतना होता है, तुम उसका नहीं करोगे तो वो तुम्हारा कर देगा। सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट।

और तब मेरी मुलाकात हुई ढलते सूरज से। उस दिन दोपहर में बारिश हुई थी। आसमान में भी और मेरे बॉस के रूम में भी। खूब जमकर बरसा था मैं। पर क्या कोई फायदा हुआ? क्या कभी भिखारी अपनी भीख को चुन सकता है ? गांधी का नहीं लिंकन का नोट चाहिए , कपडा नहीं बर्तन चाहिए। मैं भी क्या अलग था? भिखारियों की भीड़ में उस साल मेरी झोली में प्रमोशन की भीख नहीं गिरी। और मेरी मजाल देखो , बॉस को आँखें दिखाके आया था। गर्म खून था। आँखों से टपकता था। क्या मैं भूल गया था कि मेरा बॉस एक इंसान ही था, भगवान नहीं। चाटुकरों की भीड़ में घिरा, अदद इंसान।

मेरा जी घुटने लगा था। कुछ चीजें हमारे काबू के बाहर होती हैं, उनको पाने के लिए हमें अपना ज़मीर खोना पड़ता है। मेरे सामने एक बड़ा प्रश्न था, क्या खोकर क्या पाना चाहता था मैं? क्या मैं कभी खुश रह पाउँगा, चुप रहकर भी, कुछ कहकर भी?

और बारिश में धुले आसमान पर अब भी कुछ बादल लटके हुए थे, सूरज की आबरू बचाने के लिए। मेरे पास सोचने के लिए कुछ नहीं था, न कोई स्ट्रेटेजी न प्लान। खाली दिमाग था मैं। अंतिम चौराहा आ गया था। स्कूटर मोड़ते ही मेरी आँखें चौंधिया गयीं। सूरज की तपिश से नहीं, आसमान के खुले कैनवास पर बिखरे लाल स्लेटी रंगों से बनी बादलों की उमड़ घुमड़ती तस्वीरों से। एक पल के लिए जैसे मैं मंत्रमुग्ध होकर रह गया। और क्योंकि मेरे पास कोई प्लान भी नहीं था, इसलिए मैंने स्कूटर किनारे खड़ा किया और अस्त होते सूरज को निहारने लगा। खूब तसवीरें खींची, मोबाइल में भी, जेहन में भी। घर आकर काफी देर तक उन्हें अलट पलटकर देखता रहा।

ऑफिस में अब मन नहीं लगता था। बची खुची नकली मुस्कराहट भी गायब हो गयी थी। कॉफ़ी अड्डे पर जाना छोड़ दिया था मैंने। बस मशीन की तरह जो काम पकड़ाया जाता था उसे करता जाता था। पूरे दिन भर में एकमात्र कौतूहल इसी चीज़ का होता था कि आज बादल कौन सी तस्वीर परोसेंगे आसमान के कैनवास में। क्या स्लेटी रंग ज्यादा होगा या सूरज की लालिमा उनपर हावी हो जायेगी। जीने का जैसे यही एक मकसद रह गया था।

उस दिन रविवार को मैं अपनी प्रेमिका को लॉन्ग ड्राइव पर ले गया। बहुत खुश थी वो, सोचती थी शायद मैं अब धीरे धीरे नार्मल हो जाऊँगा, वापस उसी गलाकाट दुनिया में, तलवार उठाये। पर मैंने एक सरोवर के किनारे गाडी रोकी। शाम के छह बज रहे थे। मैं एकटक क्षितिज को देख रहा था। गली के नुक्कड़ से ढलने वाला सूरज, पहाड़ों के पीछे अस्त होने वाला सूरज, सबके अलग मिजाज थे।

प्रेमिका समझ चुकी थी कि मैं अब वो इंसान नहीं रहा जिससे उसने प्यार किया था।
उसके बाद मैं अक्सर अकेले ही लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाया करता था। भला रोज रोज कौन सूर्यास्त देखने मेरे साथ चलेगा। सनक की भी एक हद होती है।

कई बार बारिश के चलते सूर्यास्त पूरी तरह ढँक जाता था। पर मैं निराश नहीं होता था। मैं, मेरा स्कूटर और कैमरा जैसे जिगरी दोस्त बन गए थे। और क्षितिज में ढलता सूरज हमारी प्रेमिका। बस यही अफ़साना चलता रहता था।
धीरे धीरे प्रेमिका का मेरी ज़िन्दगी में नामोनिशान मिटता गया। उस दिन जब मैंने उसे कॉफ़ी हाउस में अपने उसी फीकी और मैली मुस्कराहट वाले सहकर्मी के साथ देखा तो मेरा बचा खुचा कन्फ्यूज़न भी जाता रहा।
सब लोग उगते सूरज को सलाम करते हैं, और मैं तो ढल रहा था।

खैर, ज़िन्दगी का कीमा बन चूका था। पर मैं था कि दुखी होने का नाम ही नहीं लेता था। अब तो बस ये औपचारिक घोषणा होनी बाकी थी कि मैं अपने ढलते सूरज के साथ ढल चुका हूँ और इसका मुझे कोई खेद नहीं है। कुत्ते बिल्लियों की तरह दिनचर्या का निर्वाह करता, मानों मुझमें कोई सोचने समझने की शक्ति ही नहीं रही।
बीच में प्रेमिका आई थी, मिलने। शायद अपने सब नामो निशाँ मिटा देना चाहती थी मेरे कमरे से। नयी ज़िन्दगी की शुरुआत जो कर रही थी, फीकी मुस्कराहट वाले के साथ। कुछ सामान टटोला, कैमरे को भी, मुँह बनाते हुए मानों उलाहना दे रही हो कि तुम्हीं मेरी सौत निकली। मैं चाय बनाने चला गया किचन में, उसका चेहरा देखने का मन नहीं करता था।

मम्मी ने शादी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया था। उन्हें प्रेमिका के बारे में पता था, पर इस नए मोड़ के बारे में नहीं। उन्हें बेवजह का टेंशन नहीं देना चाहता था मैं। ज़िन्दगी खुद अपनी राह ढूँढ लेगी।
आज मुझे सूर्यास्त से बहुत बातें करनी हैं, चौराहे तक पहुँच चुका हूँ।
कल रविवार था। मेरे दो पुराने जिगर के टुकड़े जिन्हें अब मैं जिगर से काटकर अलग कर चुका था, आये थे। वही दोस्ती की फीकी मुस्कराहट, वही पुरानी मुहब्बत के आँखों में तैरते अवशेष। पता नहीं मुझे कहाँ लेके जा रहे थे, शायद कोर्ट मैरिज कर रहे होंगे, विटनेस चाहिए होगा तो मुझे घसीट लिए।

कोर्ट तो नहीं पर एक आर्ट गैलरी ज़रूर ले गए, जहाँ फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे के नाम से एक एक्सहिबिशन लगी थी। वही ढलता सूरज , वही नीला आसमानी कैनवास, और स्लेटी लालिमा लिए सूरज के अनगिनत आवरण, एक के बाद एक, करीने से दीवार में सँजोए। काफी भीड़ थी, लोग खासे उत्साहित होकर देख रहे थे। फीकी मुस्कराहट और मुहब्बत के तैरते अवशेष लोगों से ''फोटोग्राफर'' के बारे में बातें कर रहे थे, उसके जज्बे के बारे में, उसके अंदर के उफान के बारे में, उसकी खूबसूरती की पकड़ के बारे में। मैं खामोश सब सुन रहा था। थोड़ी देर में कला के ये कद्रदान मेरे इर्द गिर्द इकट्ठे होकर मुझसे अनगिनत सवाल करने लगे और उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ होश नहीं।

चौराहे से बाएँ मुड़कर मैंने अपना स्कूटर खड़ा कर लिया है। अस्त होते सूरज के इर्द गिर्द आज कोई आवरण नहीं, मानों कह रहा हो हमारा यहीं तक का साथ था। मैंने आज इस्तीफ़ा दे दिया है। कल सुबह का सूरज मुझे नयी दुनिया में ले जाएगा, मेरी प्रेमिका के प्यार और मेरे दोस्त की शुभकामनाओं के बूते एक नयी ज़िन्दगी की शुरुआत करने। ढलते सूरज को मैं सलाम करना चाहता हूँ, पर आँसुओं को सँभाल पाऊँ तब तक सूर्यास्त हो जाता है।

६ अक्तूबर २०१४

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