कहानी
का शीर्षक पढ़ कर आपको ऐसा लग रहा होगा कि हो न हो ये सत्तर के
दशक की किसी फिल्म के खलनायक हैं, लेकिन बिल्ला और शेरा किसी
हिंदी फिल्म के खूँखार खलनायक नहीं बल्कि मेरे बचपन के वे दो
मित्र हैं जिनके बिना मेरे बचपन की कहानी अधूरी है।
गाँव में हमारे घर के पिछवाड़े में एक छोटा सा तालाब था। छोटा
तालाब तो क्या उसे बड़ा गड्ढा ही समझ लीजिए। उसके पास में ही
कनेर के फूल के साथ साथ ढेर सारे सरकंडे की झाड़ियाँ भी थीं।
सरकंडा खोखले तने वाली एक झाड़ी थी जिसकी तलवार बना के मैंने और
रमेश ने न जाने खेल खेल में कितने संग्राम लड़े हैं। ठंडी के
दिनों में एक दिन शाम को यूँ ही हमारा युद्धाभ्यास का खेल जोर
शोर से जारी था कि हमने तालाब के किनारे झाडियों में दो
पिल्लों को देखा। दोनों कीचड में सने हुए थे और उन्हें देख कर
लगता था कि पैदा हुए मुश्किल से बस एक या दो दिन हुए होंगे।
बचपन में मुझे कुत्तों से बहुत डर लगता था इसलिए मैंने रमेश को
मना किया कि उन्हें मत छू, हो सकता है कि इनकी माँ आस पास ही
कहीं हो। लेकिन रमेश ने अपनी प्रवृत्ति के अनुसार काम करते हुए
मेरी एक न सुनी और झाडियों में घुस के दोनों पिल्ले उठा लाया।
हम उन्हें कुएँ पर लेकर आये और ठण्ड की परवाह न करते हुए रगड़
रगड़ के धोया।
लेकिन कड़ाके की इस ठण्ड में ठंडा पानी दोनों पिल्ले झेल नहीं
पाए, और बुरी तरह काँपने लगे, साथ में कूँ कूँ की आवाज भी करने
लगे। थोड़ी ही देर में दोनों की हरकत बहुत कम हो गयी और सूरज
ढलने के साथ ही दोनों सुन्न हो गए। हम बहुत घबरा गए, हमें समझ
ही नहीं आ रहा था कि क्या करें। दोनों को बहुत हिलाया डुलाया
लेकिन दोनों बेहोश पड़े रहे। हमें एकबारगी लगा कि कहीं दोनों मर
तो नहीं गए, हम सोच कर ही सिहर गए। सौभाग्यवश तभी हमें शाम की
बाजार करके बब्बा वापस आते दिखे। हम दोनों पिल्लों को लेकर
उनकी ओर दौड़े और उन्हें सारा मामला कह सुनाया।
बब्बा ने तुरंत पिल्लों को मवेशीखाने के सामने रखी पुआल पर
रखवाया और लकड़ी इकट्ठी करने को कहा। हम दौड कर ढेर सारी
लकडियाँ उठा लाए। बब्बा ने आग जलाई और दोनों पिल्लों को बारी
बारी से सेंकना चालू किया। हम अभी भी आग के पास ही घुटनों के
ऊपर सर रखकर बैठे हुए कुछ चमत्कार होने का इंतजार कर रहे थे।
थोड़ी देर बाद दोनों ने थोड़ी हरकत करनी चालू की तो हमारी खुशी
का ठिकाना ही नहीं रहा। बब्बा ने रसोई से गरम दाल लाने को कहा।
दोनों को हमने एक एक कटोरा दाल पिलाई। गरम गरम दाल पीकर दोनों
की जान में जान आई।
फिर सुबह उठकर मैंने और रमेश ने उनका नाम-करण किया। काले रंग
के पिल्ले का नाम रमेश ने बिल्ला रखा और भूरे रंग वाला पिल्ला
मेरे हिस्से आया जिसका नाम मैंने शेरा या शेरू रख दिया।
दोनों बहुत जल्द हमारी दिनचर्या का एक अटूट हिस्सा बन गए।
दोनों रोज हमारे साथ ही स्कूल जाते और साथ ही वापस भी आते।
हमने बाज़ार से दो फीते भी ख़रीदे, लाल रंग का फीता बिल्ला के
लिए और नीले रंग का शेरा के लिए, और फीते उनकी गर्दन में बाँध
दिए। लेकिन फिर कुछ ही सालों के बाद मैं शहर आ गया था और फिर
बिल्ला और शेरा की कहानियाँ गाँव आने पर सुनने को मिलती थीं।
बिल्ला बहुत ही फुर्तीला चतुर और चालक कुत्ता था। बड़े होने पर
जब तक दिन भर में गाँव के बीस-पच्चीस चक्कर न काट ले तब तक
उसका मन नहीं भरता था। सिर्फ मेरे गाँव के ही नहीं बल्कि आस
पास के गाँव के सारे कुत्ते भी बिल्ला से डरते थे। कोई बाहरी
कुत्ता हमारे गाँव की सीमा में कदम भी रख दे तो उसकी खैर नहीं,
बिल्ला उसे दौड़ा दौड़ा कर काटता था, हालाँकि कुत्तों को दिन में
सोना और रात में जागना चाहिए, लेकिन बिल्ला दिन भर भाग-भाग के
इतना थक जाता था की रात में हमेशा रमेश की खटिया के नीचे सोया
मिलता था।
इसके विपरीत शेरा शांत प्रवृत्ति का धीर गंभीर कुत्ता था। गाँव
के सभी कुत्तों का वो मुखिया था और सभी कुत्ते उसका सम्मान
करते थे। दिन हो या रात वो हमेशा मुझे तो जागते हुए ही दिखाई
देता था। गाँव के चप्पे चप्पे पर उसकी पैनी नजर रहती थी। हर
दिन शाम को गोधूली की बेला के समय गाँव के बाहर बरगद के पास
वाले ऊसर में कुत्तों की संसद सभा होती थी, जिसमें मेरे गाँव
के ही नहीं बल्कि अगल बगल के गाँव के कुत्ते भी शामिल होते थे।
न जाने किन समस्यायों पर विचार विमर्श करते थे, जिसका कोई
निष्कर्ष निकलता होगा इस बात पर मुझे शक है। कई बार तो आपस में
ही झड़प हो जाती थी, लेकिन जैसे ही शेरा के इशारे पर बिल्ला की
एक भौंक आती थी, सब दुम दबा के कूँ कूँ करते हुए पीछे हट जाते
थे।
गाँव के पास में ही उन दिनों एक छोटा सा जंगल हुआ करता था,
उसमें बाँस, शीशम, बबूल इत्यादि के ढेर सारे पेड़ हुआ करते थे
और साथ ही सियारों का एक झुण्ड भी उसी जंगल में रहता था। रात
में गाहे-बगाहे सियारों का झुण्ड गाँव पर हमला बोल देता था और
मवेशी बच्चों को उठा ले जाता था। हालाँकि कभी किसी इंसानी
बच्चे को उन्होंने निशाना नहीं बनाया था लेकिन खतरा हमेशा ही
लगा रहता था। गाँव में कुत्ते रखने का असली कारण ये भी था कि
इन सियारों से थोड़ी बहुत सुरक्षा हो जाती थी। और फिर शेरा और
बिल्ला के आने के बाद से तो सियारों की शामत ही आ गयी थी। शेरा
ने कई बार सियारों के इरादों पर पानी फेरा था और उन्हें
लहूलुहान किया था, लेकिन इधर बीच कुछ दिनों से, इसे चाहे बाकी
कुत्तों की मक्कारी कहिये या सियारों की दिलेरी, सियारों की
गतिविधियाँ बहुत बढ़ गयी थीं और सभी गाँव वाले इससे बहुत परेशान
थे लेकिन गाँव वालों में कभी इतना साहस नहीं आया कि वो जंगल
में घुस कर सियारों को भगा सकें।
एक रात यूँ ही सियार दबे पाँव आये और गिलारू गड़रिये के बाड़ से
बकरियाँ चुरा कर भागे। शेरा तो जाग ही रहा था, उसने तुरंत ही
सियारों की फौज भाँप ली और उनके पीछे भौंकते हुए भागा। सभी
बहुत गहरी नींद में थे, जब तक गाँव वाले जागते और मशाल-लालटेन
इकट्ठा करते तब तक सियार दो बकरियों को लेकर जंगल में पहुँच
गये थे और उनका पीछा करते हुए शेरा भी जंगल में अन्दर तक घुस
आया था। सियारों को उन अनगिनत घावों का बदला लेने का एक अवसर
मिल गया जो कि शेरा ने उन्हें दिए थे।
सियारों ने दोनों बकरियों को जंगल में घुसते ही बाहर छोड़ा और
शेरा को चारों ओर से घेर लिया। शेरा बहुत बहादुरी से लड़ा, दो
सियारों को उसने चित्त भी किया, बाकी को गंभीर घाव भी लगाये।
लेकिन जंगल शेरा के लिए अनजान था, और रात के अँधेरे में दर्जन
भर सियारों का मुकाबला करना आसन काम नहीं था। जब तक गाँव वाले
जंगल तक पहुँचे सियार शेरा को मरणासन्न करके जंगल में भाग चुके
थे, हालाँकि शेरा की इस क़ुरबानी से दोनों बकरियों की जान बच
गयी थी।
सारे हो हल्ले से जब बिल्ला की नींद खुली तो वो जंगल की तरफ
भागा, और शेरा का मृतप्राय शरीर देखा। फिर तो उसने किसी की
परवाह नहीं की और सीधे जंगल में घुस गया। उसका साहस देख कर
उसके साथी कुत्ते भी जंगल में घुस गए। सियारों ने बिल्ला पर
प्रहार किये, घाव लगे, माँस कटा, खून बहा, लेकिन आज घावों की
परवाह कौन करता था, बिल्ला पर तो शेरा की मौत का बदला लेने का
जूनून सवार था। देखते ही देखते बिल्ला ने बाकी श्वान-वृन्द की
मदद से सियारों को चित करना चालू किया, कुछ सियार जान बचा कर
जंगल से बाहर भागे, लेकिन वहाँ गाँव वालों ने लाठी, गड़ासे,
तबली से उनकी खबर ली। उसी रात वो जंगल सियार मुक्त हो गया।
शेरा मर तो गया था लेकिन गाँव वालों के लिए शेरा साहस का
प्रतीक बन चुका था। सब उसके साहस की चर्चा किये जाते थे, कैसे
उसने सियारों को खदेड़ा, कैसे दो सियारों को मारा, कैसे पीठ
दिखा के भागने के बजाय उसने वीरगति को प्राप्त होना ज्यादा
पसंद किया। उसे बाकायदा पीपल के पेड़ के नीचे चिता बना कर आग दी
गयी, लेकिन शेरा के जाने के बाद बिल्ला भी अब शांत रहने लगा
था, और वैसे भी सियारों से युद्ध में मिले घावों की वजह से
उसके अन्दर अब वो चुस्ती फुर्ती भी नहीं रह गयी थी।
अपनी कॉलेज की पढाई के समय एक बार जब मैं गाँव गया तो एक दिन
मैं और रमेश रात के खाने के बाद कुएँ की जगत पर ऐसे ही बैठकर
कुछ बातें कर रहे थे। बिल्ला हमारे पास आया और सामने ही बैठ
गया। मैंने बिल्ला का सर अपनी गोद में लिया और धीरे धीरे उसे
सहलाने लगा, बिल्ला ने अपना अगला पैर मेरे हाथ पर रखा और आँखे
मूँद ली, और फिर कभी न खोलीं।
बिल्ला
को भी मैंने और रमेश ने पीपल के पेड़ के नीचे आग लगा दी। आज भी
हमारे गाँव में बच्चे शेर चीते की कहानी से ज्यादा बिल्ला-शेरा
की कहानी सुनना पसंद करते हैं। जब कभी मैं शहर में कुत्तों को
सजावट का सामान बने देखता हूँ तो मुझे लगता है कि अच्छा हुआ
बिल्ला और शेरा गाँव की खुली हवा में पैदा हुए। दिन-रात गाँव
की खाक छानना, तालाब के कीचड़ में लोटना-पोटना, खुली हवा में
बिना किसी करण भागना, साथी श्वानों के साथ दो-दो हाथ करना
श्वान प्रवृत्ति है न कि गर्म लिहाफ में दिन रात आराम से पड़े
रहना, वो तो इंसान प्रवृत्ति है। |