आसमान
काले-काले बादलों से भर गया ठंडी हवाओं ने तन मन को तरावट
दी उसका बेहद उकताया हुआ मन जैसे नई ऊर्जा से उमग गया अभी-अभी आग की बारिश करता मौसम बिल्कुल बदल गया जैसे किसी ने
जादू की छड़ी घुमा दी हो कितनी देर से उसकी खीझ अपने से होती
हुई मौसम के वाहियात रवैये पर आकर अटक गई थी, किन्तु यहाँ तो
पल में सबकुछ छू मंतर हो गया
हवाएँ देह को सहलाती धीरे-धीरे बह रही थीं, बादलों की नमी
आँखों के सहारे मन की गहराइयों में उतर रही थी और उसका मन
बूँद-बूँद भीगता क्रमश: गीली मिट्टी में तब्दील होता जा रहा
था उसने एक लम्बी साँस ली आँखें बंद कर कुछ पल अपनी
अनुभूतियों में समेट कर ऊपर देखा बादल न जाने किस देश दौड़े
जा रहे थे फिर भी वे इतने बेफिक्र भी न थे कि मिलने वाले जलद
खण्डों से खैरियत भी न पूछ सकें उसने स्पष्ट देखा- दो
मेघदूतों को आपस में कहते-सुनते और रुककर बतियाते ये मेघदूत
अपने-अपने आत्मीयों को अपना संदेशा ऐसे ही भेजा करते हैं
शायद! इनके लिए तो कोई कालिदास महाकाव्य की रचना नहीं करते पता नहीं ये क्या कहते सुनते होंगे? क्या बोलते होंगे एक
दूसरे को?
एक समय था जब वह घण्टों इन बादलों से बातें किया करती थी, उनसे
अपने मन की हर कथा कहा करती थी और हर वक्त उसे बादलों की
घुमड़न में एक मीठा स्वर सुनाई देता था- ‘कहो कहाँ जाना है?
‘क्या कहना है? और हवाओं पर तैरती धुन की तरह वह अपना आपा
खोलकर सबकुछ सौंप देती थी उसे फिर बड़े लाड़ से मनुहार
करते हुए गुनगुना देती- ‘कबहु वा बिसासी सुजान के आँगन, मो
असुँवानहि लै बरसो वे कुछ वैसे ही दिन थे, हवाओं पर तैरते बादलों पर सवार उसके आस पास का संसार कल्पनाओं की चादर से
ढँका हुआ- बिल्कुल अदृश्य! उस पर चारों ओर सिर्फ़ महकते फूल और
रंग-बिरंगी उड़ती तितलियाँ थीं जिन्हें कभी वह पकड़ लेती,
हौले से चू कर फिर बादलों में उड़ा देती और कभी-कभी उनका
पीछा करते वह हाँफ जाती, लेकिन तितली उसकी हथेली पर नहीं
बैठती तब उसकी शरारती मुस्कुराहट में एक ही जुबान होती-
‘अच्छा बच्चू कल देखना!
सुर्ख गुलाब की पंखुड़ियों की तरह नर्म और गुलाल भरे वे दिन
थे जिनका आना जाना पलक झपकते ही हो जाया करता जिनकी दशा
में खुशबुओं का डेरा था और जिनकी रात्रि जुगनुओं की दीप दीप
रोशनी से जगमग थी वे बिल्कुल झाग के बुलबुलों की तरह फिसलते
हुए दिन थे मुट्ठी में बंद इत्र की तरह महकते हुए वे उसकी
जिन्दगी में हर्ष के दिन थे हर्ष ही तो था जब उसकी जिन्दगी
बिना और किसी नाम के भी पूरी-पूरी भरी और छलक रही थी वे गजब
के दिन थे उसका मन हमेशा ही भरा और खाली दोनों हुआ करता था एक ही साथ अघाया और अतृप्त दोनों ही अनुभूतियाँ उसे समेटे रहती
थीं एक ही साथ बँधा और मुक्त पाने और खोने की समानांतर
आतुरता में उमगा तब मोबाइल की सुविधा के दिन नहीं थे लेकिन
फोन प्राय: सभी घरों में थे लेकिन चिट्ठियाँ सिर्फ़ सरकारी
द़फ्तरों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के शेयर होल्डरों के पतों पर
उतनी नहीं जाती थीं जितनी लड़कों और लड़कियों के होस्टल के
सामने घने छितनार छावों में बैठे या सड़क किनारे किसी
चाय-स्टॉल की कोने की बेंच या बाथरूमों में साँस रोके धड़कते
दिल से काँपते हाथों में!
इन्हीं दिनों ‘पत्र-मित्र कॉलम के जरिये परिचय के साथ
धीरे-धीरे हर्ष उसके जेहन में उतर रहा था उसे सिर्फ़ पढ़ने
का शौक था चिट्ठी-विट्ठी तो उसने कभी किसी को लिखी ही नहीं
थी वीनू के कहने पर उसने भी अपना नाम उसमें दे दिया था और
हाँ, पता भी, केयर ऑफ अपने डैडी के नाम से ही।
पहला पत्र ही हर्ष का आया पता लिखा लिफाफा वह भी हल्के
नीले रंग का कितनी सुन्दर लिखावट थी सुनहरे रंग से लिखा
उसका नाम सचमुच स्वर्ण अक्षर की तरह चमक रहा था- ‘खुशी! लेटर
बॉक्स से पत्र डैडी ही लेकर आए थे लेकिन उन्होंने उसे खोला
नहीं उसे दे दिया था खोलने और पढ़ने के लिए पहली बार पहली बार उसने बिल्कुल व्यक्तिगत तौर पर अपने नाम आया पत्र
खोला था खोलने के पहले पता नहीं कितनी देर तक बैठी उलट-पुलट
कर उस लिफाफे को ही देखती रही थी हर्ष ने लिखा था- डीयर
खुशी!'
‘पहले तो इस बात के लिए बधाई कि हमारे और तुम्हारे नाम में ही
एक आन्तरिक लय है! शायद इसी ने हमें यह संयोग दिया हो बाई
दि वे, मैं तुम्हें अपने बारे में कुछ बता दूँ- नाम तो तुम
जानती ही हो मेरी उम्र बाइस वर्ष है, मैं तुम्हें जन्मदिन का
कार्ड भेजूँगा तो अपनी जन्म तिथि उसमें लिख दूँगा मैं ‘हाँ
यानि कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एमएससी थर्ड इयर की पढ़ाई
कर रहा हूँ कभी-कभी कविताएँ वगैरह भी लिखता हूँ मेरे
मम्मी-पापा गाँव में रहते हैं एक छोटा भाई है जो इंजीनियरिंग
की पढ़ाई कर रहा है वैसे मैं हमेशा खुश रहता हूँ, कभी-कभी
ही मुझे गुस्सा आता है लेकिन आई प्रॉमिस यू मैं अब वह
कभी-कभी का जायका भी बदल दूँगा- बिकॉज नाऊ यू आर विद मी! है
ना खुशी! -तुम्हारा हर्ष।'
उसे लगा पल में कायनात पलट गई ब्रह्मा ने उसकी चिट्ठी
पढ़ते-पढ़ते सृष्टि को आदि से अंत तक नई रंगत दे डाली दिन
दिन नहीं, शाम शाम नहीं, रात रात नहीं, सब किसी जादूगर की
पिटारी में बंद हो गये- रह गया है तो सिर्फ़ एक जादूई संसार
जिसमें एक ही साथ सब कुछ घुला-मिला है रात वहीं सो रही है तो
दिन भी वहीं जग रहा है और शाम भी वहीं ढल रही है सिर्फ़ वह है
और उसके नीचे नर्म मुलायम रुई के फाहों की तरह धवल बादल,
जिन्हें वह कभी अपने आगोश में भर लेती है और फिर कभी बिछा कर
उन्हीं पर लेट जाती है।
सम्पूर्ण सृष्टि और उसके बीच एक आंतरिक लय है, एक रिद् जिसे वह
अच्छी तरह महसूस कर पा रही है जिसमें ही उसकी साँसें पूरी तरह
रच-बस गई हैं और कानों में लगातार किसी धुन की तरह एक ही
पंक्ति बज रही है- ‘हमारे और तुम्हारे नाम में ही एक आन्तरिक
लय है।' सपनों के राजकुमार के घोड़ों पर सवार दिन सरपट भाग
रहे थे।
एक दिन उसका फ़ोन आया फ़ोन तब ऐसे ही नहीं आया करते थे तार
और फ़ोन दिल धड़काने के लिए पर्याप्त साधन थे खुशी और गमी की
बरों के दूत थे इस अवस्था में हर्ष ने फ़ोन किया और सिर्फ़
इतना ही कहा था, ‘खुशी, आई लव यू वेरी मच! अब बिना तुम्हें
देखे नहीं रहा जाता!' कितनी बार हर्ष ने पत्र में लिखा था कि
वह उसे अपनी एक फोटो भेज दे, पर न जाने कौन सा संकोच था जो हर
बार नई-नई वजहों से उसे रोक लेता और ‘फिर कभी' कहकर वह उसे टाल
देती।
कुछ भी तो अचीन्हा नहीं था सब कुछ कितना-कितना परिचित हो गया
था कभी-कभी आँखें बंद कर वह उसकी देहगंध तक को अपने भीतर
ज़ज्ब होते महसूस करती थी अपने होंठों पर उसके गर्म होंठों
की तपिश... माथे पर नर्म पलकों की छुअन और शरीर पर हौले-हौले
रेंगते स्पर्श को उसका पूरा वजूद उसी में समाया हुआ था वह
अलग कहाँ थी कभी-कभी उसे लगता कमरे की दीवारों को किसी ने
फूँक मार कर गायब कर दिया है और वह हरी-हरी वादियों में तैरते
बादलों पर सवार उड़ी जा रही है, कहीं कोई भी व्यवधान नहीं है,
हर्ष और उसके बीच ‘हाँ तक कि उसके अपने शरीर के आवरण को भी
धीरे-धीरे किसी ने हटा लिया है, बाकी है तो सिर्फ़ उसकी और हर्ष
के धड़कनों की घुलती हुई धक्-धक् ध्वनि।
ऐसे में उसकी चेतना पूरी तरह हर्ष के मादक एहसास से सराबोर हो
जाती उसे लगता हर्ष उसके कानों में करीब-बहुत करीब आकर कह
रहा है, ‘मैं तुम्हारा हूँ, सिर्फ़ तुम्हारा! हर्ष ने पूछा
था- ‘तुम कहो, तो मैं आ जाता हूँ तुमसे मिलने की बहुत इच्छा
है तुम्हें देखने और महसूस करने का मन करता है तुम्हें पास
और बहुत पास से देखना चाहता हूँ, जहाँ कहने-सुनने को कुछ न
रहे... सब कुछ स्वत: ही खुलता चला जाय, सिर्फ़ एक दूसरे को
देखते छूते और फील करते वह क्या करेगीअगर हर्ष सचमुच आ गया
तो? वह भी तो उसे पास से देखना चाहती है, छूना चाहती है,
महसूस करना चाहती है उसके वजूद को रेशमी दुपट्टे की तरह ओढ़
लेना चाहती है स्वयं को उसमें विसर्जित कर उसी में हो लेना
चाहती है सारी रात उसे नींद नहीं आई आसमान में
दौड़ते-भागते बादलों में भिन्न-भिन्न आकृतियों को
ढूँढते-ढूँढते सुबह हो गई।
सुबह सामान्य थी रोज की तरह लेकिन अचानक ही वह सामान्य से
कुछ अलग हो गई थी डैडी माँ से कह रहे थे क्या कह रहे थे
ठीक-ठीक तो उसने नहीं सुना था, लेकिन कुछ था जो गले में
आड़ा-तिरछा हो अटक गया था माँ की बातें स्पष्ट थीं-
‘अभी-अभी तो एम.ए. पास किया है, इतनी भी क्या जल्दी है? कुछ
दिन अपने मन से जी लेने दो मेरी बेटी को।' उसने हर्ष को पत्र
लिखा साफ-साफ लिख दिया ‘मुझे अपने से अलग मत करना मैं जी
नहीं पाऊँगी' और यह भी कि ‘जो कुछ करना है तुम्हें ही करना है
हर्ष! तुम आ जाओ जल्दी से जल्दी पत्र पोस्ट करने के बाद
उसने घंटों अपने स्टडी की सफाई की थी और लगातार एक ही धुन
बार-बार बजाए रखी थी ‘एहसान तेरा होगा मुझ पर, दिल कहता है तो
कहने दो...'
आषाढ़ी मेघ की तरह उस धीमी स्वर लहरी में उसकी आँखें रिमझिम
बरसती रही थीं यातायात के साधन तो थे ही लेकिन फिर भी तब
यात्राएँ इतनी सहज नहीं थीं कोस दो कोस की बात और है, जब
इतनी लम्बी दूरी तय करनी हो तो जरूर सोचना पड़ता था कितनी
सारी कैफियत थी सात समंदर पार का परदेशी भूत अभी भागा नहीं
था और न ही बैरन रेल कुछ सहृदय हो पाई थी छत की मुँडेर से
काँव-काँव करता कागा दिल में उम्मीद का दिया जलाए रखने में
कामयाब था शाम-सबेरे अपने दरवाजे पर मुस्कुराता डाकिया
गोपियों के ऊधौ से कम नहीं था न जाने क्या था कि पलक झपकते
भागते दिन के पैरों में मोच आ गई थी दिन बीतने का नाम ही न
लेते थे और रात आ जाती तो सबेरा दिखता ही न था।
वे बेहद सुस्त दिन थे।
डरे और सहमे से दिन थे।
भय और आशंका में लिपटे हुए दिन थे।
वे हर्ष के इन्तजार के दिन थे।
वे खुशी की जिन्दगी में फैसलों के दिन थे।
हर्ष की चिट्ठी आई वैसा ही नीला लिफाफा वैसी ही सुन्दर
लिखावट स्वर्ण अक्षरों में अंकित उसका नाम- खुशी! बड़ी
आतुरता से खोला था... पत्र को पढ़ा और फिर कुछ देर के लिए
बैठी रही वैसे ही हर्ष ने लिखा था- ‘क्या बात है? इतने
दिनों से तुमने एक भी पत्र नहीं दिया नाराज हो क्या?' ‘हाँ
तो मैं तुम्हारी याद में दीवाना हुआ जा रहा हूँ और तुम्हें कोई
परवाह ही नहीं है हाँ, मेरे पास दो-दो सरप्राइज हैं तुम्हारे
लिए नहीं- अभी नहीं बताऊँगा ऐसे कैसे बता दूँ अच्छा चलो
एक बताए देता हूँ- मुझे यहीं एक स्थानीय कालेज में लेक्चररशिप
की नौकरी मिल गई है थोड़ी व्यस्तता बढ़ गई है बट डोन्ट
वरी... आइ एम ऑलवेज खाली फॉर यू, लव यू जानूँ!'
आसमान बादलों से बिल्कुल रिक्त था गाढ़े नीले रंग की चादर
बिछी हुई थी जिनकी ओर रंग-बिरंगे विहगों का झुण्ड उड़ा जा
रहा था, लेकिन वे ऊपर और ऊपर जाकर न जाने कहाँ खो से जाते नीला रंग और भी गाढ़ा होता जाता उसे लगता आसमान के एक छोर
पर वह खड़ी है और दूसरे छोर पर हर्ष है, जहाँ तक उसकी आवाज
पहुँच ही नहीं पा रही है जब-जब वह उसे पुकारना चाहती शब्द
नीचे फैले सागर की गहराइयों में न जाने कहाँ चुपचाप गिर जाते आगे बढ़ने की कोशिश करती तो पैर जैसे दलदल में धँस जाते हाथ
बढ़ा कर छूना चाहती तो हवा के थपेड़ों से ऐसी जोरदार आँधी
आती कि वह आँखों से ही ओझल हो जाता।
वे बड़े भारी दिन थे।
बड़े कठिन और मुश्किल दिन थे।
वे आषाढ़ के दिन थे।
लगातार बारिश हो रही थी लग रहा था पूरा बरसाती मौसम ही
बूँद-बूँद चू जाएगा आसमान पर बादलों का जमावड़ा था सब एक
से बढ़कर एक काले-काले भरे-भरे गरजते-चमकते और झमझमाकर
बरसते दो-दो दिन डाक नहीं आती आती भी तो उसमें नीला लिफाफा
न रहता।
खुशी की तबीअत ठीक न थी उसने हर्ष को लिखा- ‘प्लीज हर्ष! एक
बार! एक बार मेरे पत्रों का जवाब तो दो तुमने अपना पता बदल
दिया क्या? तुम्हें मेरे पत्र क्यों नहीं मिल रहे? प्लीज!
प्लीज! पाँचवें दिन डाक थी हर्ष का पत्र मिला हर्ष ने
लिखा था- ‘अभी नई नई सर्विस है ना- व्यस्तताएँ ज्यादा हैं!
तुम समझ सकती हो, आखिर तुम मेरी अच्छी खुशी हो ना! हाँ, एक
बात और, तुम्हारी पढ़ाई तो हो गई ना? पी.एचडी. में क्यों
नहीं रजिस्ट्रेशन करवा लेती, फ्यूचर सिक्योर रहेगा वैसे जो
भी करना बताना जरूर आजकल तुम बेहद चालाक हो गई हो मुझसे सब
कुछ छुपाकर करना चाहती हो, इसीलिए तो इतने-इतने दिन होते जा
रहे हैं तुम्हारा कोई अता-पता नहीं है कहीं कोई शादी वादी का
चक्कर तो नहीं है? अरे रे... नहीं भाई, मैंने तो मजाक किया
था भला ऐसा होगा कि मुझे बिना बताये...'
बहुत जोर की हवा चली आसमान छूते पेड़ तक ऐंठ गए कई
टहनियाँ टूट कर जमीन पर गिर गईं कई छोटे-छोटे पौधे धरती पर
लोट गए एक भीषण आवाज के साथ आसमान का कलेजा चर्रा गया खुशी
ने हर्ष को लिखा-
‘डीयर हर्ष,
थैंक्स कि तुमने मुझे याद दिलाया मैं सचमुच इधर कुछ व्यस्त
हो गई थी इसीलिए तुम्हें लिख न सकी कांग्रेचुलेशन!
तुम्हें
इतनी अच्छी जॉब मिली है! मैं तुम्हारे सुझाव पर विचार
करूँगी इधर मैं एक प्रोजेक्ट में व्यस्त थी, इतनी व्यस्त कि
तुम्हें बताना भी भूल गई- बड़ी उलझन वाला प्रोजेक्ट चुन लिया
था, पर क्या करूँ... एनी वे... मुझे तुम्हारे सारे के सारे
पत्र मिले हैं, फुर्सत से सबका जवाब दूँगी, लेकिन इंतजार न
करना तुम जानते हो न मैं थोड़ी आलसी हूँ, कमिंग जून में
मेरे यहाँ एक फंक्शन है अगर आ सको तो... मैं फोर्स नहीं कर
रही, आई नो योर न्यू जॉब... हाँ, जानते हो आजकल मैंने भी
तुम्हारी देखा-देखी कुछ लिखना शुरू किया है यह एक छोटी-सी
कवितानुमा चीज! यह मत पूछना किसके लिए... दिस इज सीक्रेट... यू
नो! लेकिन पढ़ना तो पहले तुम्हें ही है ओ के- टेक केयर। |