लाजवंती
गोखले एशिया के एक बहुचर्चित और विशाल साहित्यिक उत्सव में जब
पहुँची तो फेस्टिवल की शुरुआत हो चुकी थी और रंगायन हॉल में
वरिष्ठ रंगकर्मी व फिल्मकार विक्रांत सेठ का 'की नोट' चल रहा
थाl बाहर के फ्रंट लॉन में बहुत से लेखक एक गोल मेज के चारों
ओर कॉफ़ी पीते हुए सहज बातचीत कर रहे थे। शहर के बीचों बीच बने
"लेखक पैलेस" में गत पाँच सालों से पाँच दिवसीय फेस्टिवल हर
वर्ष जनवरी में ही आयोजित किया जाता है। सभी से एक ही मंच पर
मिलने जुलने का यह अवसर किसी दूसरी ही दुनिया में ले जाता है
!सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक अलग- अलग सत्र और सांस्कृतिक
आयोजन चलते रहते हैं। देश विदेश की प्रमुख प्रसिद्ध हस्तियाँ
गुलाबी नगर का मुख्य आकर्षण होती हैं। जहाँ निगाह डालो लेखकों
का जमघट नज़र आता हैl लेखक पैलेस के बीचों बीच एक लान है जहाँ
सर्दियों की ऊनी सी धूप में लेखको के समूह संवाद में डूबे नज़र
आते हैं।
हर बार की तरह इस बार भी उत्सव के अवसर पर मौसम में पतली सी
धुंध थी और हवा निस्पंद धूप का शाल ओढ़े झिर झिर चल रही थी।
लेखक पैलेस में चहल पहल थी और लान में फूलों से घिरा एक गोल
बाग था जिसके बीच से एक रंग बिरंगा फव्वारा हवा को फुहार से
भिगो रहा था ! वहीं इर्द गिर्द डंडों पर रंग बिरंगी फर्रियाँ
भी लहरा रहीं थीं ! धीरे धीरे भीड़ का शोर गहरा होता जा रहा था !
लान के एक किनारे पर राजस्थानी पगड़ी पहने एक बैरा पीतल के
चमचामते घड़े में से कुल्हड़ों में चाय भरते हुए सभी से
राजस्थानी भाषा में ही "राम राम सा...पधारो सा" कहते हुए
अभिवादन कर आकर्षित कर रहा था! उसे घेरे हुए हाथों में
कुल्हड़ पकड़े हुए बहुत से लेखक चाय का आनंद लेते हुए विमर्शों
में डूबे हुए थे तो बहुत से लोग लान में जगह जगह रखी हुई
कुर्सियों पर अधलेटे से बैठे थे। वे सोती जागती गुड़ियों की तरह
कभी आँखें खोलते तो कभी आँखें मूँद लेते।
सर्दी के इस निस्पंद धूप में फैले उनींदे मौसम में गर्माहट थी
तो दूसरी तरफ जोश, तभी तो समारोह में युवाओं की भी अच्छी ख़ासी
संख्या थी ! पंक्तिबद्ध स्कूली छात्रों का एक हुजूम भी अपनी
अध्यापिका के निर्देशानुसार पावन भक्त के सेशन में जाने की
प्रतीक्षा कर रहा था। सच कहें तो बड़ा ही उल्लासित करने वाला
नजारा था !
लाजवंती भी इस साहित्यिक उत्सव में एक कवयित्री सत्र का संचालन
करने के लिये आमंत्रित है, ज्ञान का यह उत्सव लाजवंती को बहुत
अच्छा लगता है, यहाँ आकर पूरे वर्ष के लिये जैसे उसे प्रेरणा
मिल जाती है। हर वर्ष इस प्रेरणा को समेटने वो आती है। लेखकों
का यह मेला उसके लिये एक बहता अनलिखा सा महाकाव्य होता है जिसे
अपनी स्मृतियों में सहेज कर वह ले जाती है। जनवरी की धुंध भरी
सर्दी से बेखबर देश विदेश के सुदूर कोणों से लेखक यहाँ आने
शुरू हो जाते हैं। "हाई", "हेल्लो", "नाईस टू सी यू" के
संवादों से घिरे इस "लेखक पैलेस" में सुबह नौ बजे से ह़ी चहल
पहल शुरू हो जाती है, इस उत्सव को देखने आने वालों की अंतहीन
कतारें भी सुबह से ही लग जाती हैं !
लॉन के दायीं ओर एक विशाल हिस्से में शामियाना लगा था जिसके
बाहर लिखा था "संवाद हॉल"। लाजवंती ने उत्सुकतावश अंदर झाँका,
एक मंच बना था... उस पर गद्दे ओर मसनद लगे थे, वहाँ कुछ
प्रवासी भारतीय
कवि बैठ थे, जो अपनी जड़ों से उखड़ने की भयावहता पर गंभीर संवाद
कर रहे थे,तभी पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा तो लाजवंती
ख़ुशी से चहक उठी। सामने सोनाली खड़ी थी, एक मशहूर लेखिका पर
उसकी बचपन की सहेली, दोनों ने तपाक से एक दूसरे को गलबहियाँ
डालीं तो क्षण भर के लिये संवाद कर रहे कविगण चौंक गए। फिर
वापस बातचीत में मशगूल हो गये। सोनाली लाजवंती का हाथ पकड़ कर
लगभग खींचते हुये बाहर आ गयी..."चल कुल्हड़ वाली चाय पीते हैं।''
और गपशप करते हैंl लॉन के कोने में जहाँ गर्म गर्म कुल्हड़ की
चाय का स्टाल लगा था, वहाँ खड़े कुछ नई पीढ़ी के लेखक भी सिगरेट
पीते हुए चाय की बारी आने का इंतजार कर रहे थे। वहीं कुछ दूरी
पर पहुँच कर दोनों सहेलियों ने चाय का कुल्हड़ हाथ में लिया और
एक कोने में बैठ कर भूली बिसरी बातें करने लगींl लेखक-पैलेस
में बहुत से कक्ष स्थापित किये गए थे उनही में एक था
'बुद्धिजीवी कक्ष', उसके बाहर डेलीगेट्स की भीड़ थी और कतार लगी
थी, वहाँ मौजूद लोग... बोर्ड पर लगी लिस्ट में वक्ताओं के नाम
पढ़ रहे थे। हॉल शायद पूरा भरा था। लोग झाँक कर देखते, कुछ
रुकते और बाहर आकर चर्चा में मशगूल किसी भी लेखक समूह के आसपास
जगह तलाश लेतेl
बाहर गलियारे में पंक्तिबद्ध प्रकाशकों ने अपनी स्टॉल सजा रखी
थी। किताबों पर धूप की म्लान रोशनी गिर रही थी। पंजीकरण काउंटर
पर बैठी एक लड़की का सिर मेज पर झुका था, वो डेलीगेट्स को बैग,
खाने के कूपन और रसीद क्रमवार पकड़ा रही थी, पैसे लेकर वह मेज
की दराज में रख रही थी, फिर रसीद भर कर उसे अपनी ऐनक के बहुत
पास ले आती, लेखक का नाम और टाईटल चेक करती और फिर अगली रसीद
फाड़ने लगती। जगह जगह पर साहित्यिक उत्सव के रंग बिरंगे बैनर
लगे थे जो बीच-बीच में हल्की हवा से सरसराते थे। लॉन के एक तरफ
लेखकों की किताबों का काउंटर था, वहाँ सबसे ज्यादा भीड़ थी।
किताबें पलटने और खरीदने का सिलसिला भी जारी था। किताब बिकती
थी तो खटखट करते कंप्यूटर मशीन से बिल बाहर निकल आता था।
लाजवंती ने सरसरी निगाह चारों तरफ दौड़ाई ...सामने से नीलकेनी
वाजपई जी चले आ रहे थे। उसने हवा में हाथ हिलाया, उनकी कविताएँ
पढ़ पढ़ कर ही तो लाजवंती इस स्तर तक पहुँची है। एक पत्रकार
सोनाली को पहचान कर उनसे साक्षlत्कार ले रहा था। सोनाली जी
संजीदगी से उनका जवाब दे रही थी l
दिल्ली से आया युवा लेखिकाओं का समूह किसी गंभीर विषय पर बहस
कर रहा था। पास बैठी कुछ युवा लड़कियाँ कुर्सी के सिरहाने पर
पैर टिका कर सिगरेट के कश ले रही थीं। वह बहस में हिस्सा नहीं
ले रही थी, बस अवाक सी सुन रही थी। कुछ गुजराती लेखक परिवार के
साथ आये थे। एक मेज पर उन्होंने घर से लाये टिफिन को खोल रखा
था, लाजवंती ने देखा...खाखरे, सैंडविच और ढोकले का नाशता कर
रहे हैं। लाजवंती को लगा कि जीवन में दिनचर्या का जरा सा
परिवर्तन हममे कितनी ऊर्जा भर देता है, इसी ऊर्जा का आदान
प्रदान करने हम यहाँ आते हैं शायद ! रंगायन हॉल से सुधीर जी के
शब्द माईक द्वारा हवा के साथ बाहर लॉन में तैर रहे थे, लाजवंती
ने ध्यान से सुना --" में संयोजकों का आभारी हूँ, जिनकी ओर से
आज मुझे लेखक की स्वतंत्रता जैसे महत्वपूर्ण विषय पर बोलने के
लिये आमंत्रित किया गया है, मुझे ख़ुशी होती है कि हर साल यह
साहित्यिक उत्सव आयोजित होता है, यहाँ साहित्य की हर समस्या पर
विचार किया जाता है... तभी सोनाली ने लाजवंती को झकझोरा, "अरे
कहाँ खो गयी, चल उठ, लोगों से मिलते हैं l"
तभी तेज तेज कदमो से संजीव राव जो उत्सव के सह निर्माता थे आते
दिखे, उन्होंने हाथ हिला कर सोनाली का अभिवादन किया और रोका
---"क्या हुआ संजीव जी, इतने परेशान क्यों हैं?"
"अरे नहीं सोनाली जी, आप तो जानती ह़ी हैं कि इतने बड़े आयोजन
में निर्धारित समय -सारणी में कुछ न कुछ फेर बदल करना पड़ जाता
है।" संजीव जी ने थकी आवाज में कहा l
"हुआ क्या?" सोनाली ने उनके कंधे पर हाथ रख कर पूछा.!
"बस एक दायित्व आपको सौंपना चाहता हूँ, बंगाल की प्रसिद्ध
साहित्यकार श्रीश्वेताम्बरी जी भी आ रही हैं, उनका सत्र ११ बजे
से १२ बजे तक का है, उसी समय में महानायक अरमान भूषण जी का
सत्र भी रखना पड़ रहा है, आप प्लीज "बुद्धिजीवी हॉल" में
श्रीश्वेताम्बरी जी का सत्र आरम्भ कर दीजियेगा ...पैनल आपको
पता ही हैl"
कुछ कागज पकड़ा कर संजीव जी ने सोनाली को रूपरेखा समझा दी !
"ठीक है, फ़िक्र मत करो। "सोनाली ने संजीवजी को आश्वस्त किया और
लाजवंती का हाथ पकड़ सोनाली जल्दी जल्दी सारी व्यवस्था करने हॉल
की तरफ चल दी l
लाजवंती जी ने देखा प्रसिद्ध फिल्मस्टार अरमान जी के आते ह़ी
सारा जनसमूह भागता हुआ फ्रंट लान की तरफ बढ़ गया। समारोह की
प्रसिद्धि के लिये पिछले तीन सालों से फ़िल्मी कलाकारों को
बुलाने का यह सिलसिला लाजवंती जी को कभी अच्छा नहीं लगा पर वो
तो इस आयोजन के एक छोटे से सत्र के लिये आई हैं, वह कोई सुझाव
देना भी नहीं चाहतींl फ्रंट लान में पुलिस की भारी भीड़ के साथ
गहमागहमी थी। इधर सोनाली पैनल के साथ मंच पर बैठ कर बराबर माईक
पर अनाउंस कर रही थी- "सभी लेखक जनों, पाठकों, दर्शकों,
दोस्तों और साथियों से मेरा अनुरोध है कि श्वेताम्बरी जी से
हमारा संवाद आरम्भ होने जा रहा है कृपया हॉल में आकर उनके
अनुभवों का लाभ उठाएँ। कुछ वरिष्ठ लेखिकाएँ धीरे- धीरे चलती
हुई हॉल में आयीं भी, पर लाजवंती ने देखा पूरे हॉल में मुश्किल
से दस लोग थे। बाहर वातावरण में सदी के महानायक अरमान जी के
भाषण के टुकड़े हवा के साथ "लेखक पैलेस" के हर कोने में तैर रहे
थे, बीच बीच में आयोजकों के भीड़ को संयत करने की कोशिश के
अनुरोध भरे स्वर बिखर रहे थे। जबर्दस्त सुरक्षा के इंतजाम थे
पर लोग फिर भी असंयत थे। सोनाली ने वक्त की नजाकत को देखते हुए
यथासमय दस लोगों के साथ सत्र की शुरूआत कर दी थी पर तभी बाहर
भगदड़ की आवाज़ें शुरू हुईं, लाजवंती जी के पास बैठी एक महिला
लेखिका ने बताया कि अरमान जी को देखने के लिये उमड़ी भीड़ के
कारण बहुत से लोग गिर गये हैं। बहुतों को चोट भी लगी है ...मैं तो घबरा कर यहाँ आ गयी"..! महिला लेखिका की बात सुन कर
लाजवंती जी ने आँखें मूँद ली, न जाने क्यों उनकी आँखों में
आँसू भर आये थे। वह अंदर से भीग गयी थीl
बाहर श्रीश्वेताम्बरी जी के रचनाकर्म को शब्दों में बाँधती
सोनाली के स्वर बारिश की बूँदों से बरस रहे थे .."हर रचनाकार
अपनी रचना प्रक्रिया में कुछ छोड़ता है, कुछ चुनता है, अनुभवों
के विशाल प्रदेश में इन बिम्बों और बिन्दुओं को रेखांकित करता
है जो हमारे जीने, मरने, देखने के निर्णायक क्षणों को आलोकित
करते हैं और अंतत वह कसौटी निर्मित करता है... जहाँ उसकी
रचना स्वयं अपने मूल्यों के आधार पर अपने को आँक सके!"
...अंदर सोनाली के शब्द थे, बाहर अरमान जी के एक एक शब्द
पर बजती तालियाँ थींl जाने क्यूँ लाजवंती को "नोवालिस" की वो
पंक्तियाँ स्मरण हो आयीं जो कभी अपने कॉलेज के दिनों में उसने
पढ़ी थीं ---"हम सत्य नहीं पा सकते, केवल अपने भ्रमों के आईने
से उसकी उपस्थिति का आभास पा सकते हैं !"
सारा परिसर सिनेमा की चमकदमक, अभिनेताओं की जगमगाहट, विदेशी
लोगों, विदेशी साहित्य, विदेशी आयोजनों से आक्रांत था। जिन
विदेशी संस्थाओं के चंदे से इसे आयोजित किया जा रहा था
उन्होंने इसे हर तरफ से घेर रखा था। उन्हीं की उपस्थिति थी,
उन्हीं के प्रशंसक थे उन्हीं का बाजार था। सिनेमा, सिनेमा के
साहित्यकार, विदेश और विदेशी साहित्यकार, उनके पाठक, उन्हीं की
किताबें, उन्हीं की बिक्री उन्हीं की जयजयकार। जैसे आक्रांता
की भाँति वे सब पर छा गए थे। हावी हो गए थे। हिंदी और भारतीय
भाषाएँ, हिंदी और भारतीय भाषाओं के बोलने वालों की तरह सिमटी
सँकुचाई इस प्रकार सिर झुकाए थीं मानो वे यहाँ बिना बुलाए ही आ
गई हों।
उनके
लेखकों और साहित्यकारों के पाठक और दर्शक दिखाई नहीं देते थे।
जैसे उनका कोई अस्तित्व ही नहीं था या अगर था भी तो इस चकाचौंध
में दिखाई नहीं देता था। भारत में हिंदी के गढ़ माने जाने वाले
एक सुविख्यात नगर में आयोजित होने वाले इस साहित्यिक पर्व में
हिंदी और भारतीय भाषाओं की कोई रौनक नहीं थी।
सत्र की समाप्ति पर लाजवंती जब हॉल से बाहर आयीं तो न जाने
क्यों उनका दिल बहुत उदास था! मन की ओट में उन्होंने जिस मोहक
स्वप्न को अपने मन में पाला था ...वो आज अचानक टूट-सा गया...
उनके-मन-में-जड़वत-चुप्पी
घिरने लगी ..लगा मानों बसंत में अचानक ही पतझड़ आ गया हो! |