सुन्दर
सजे घर में लक्ष्मी गणेश की आरती हो रही है। चाँदी के थाल में
धूप, दीपक, कपूर है, जिससे बारी बारी सभी आरती उतार रहे हैं।
छोटी श्रेया आरती का थाल पकड़ने को लपक रही है, बाबा ने हाथ
पकड़ कर उससे थाली घुमवाई। घंटी निरंतर बज रही है, आरती समाप्त
हुई। दादी ने प्रसाद बाँटना शुरू किया किन्तु घंटी फिर भी बजती
रही, ज्यों ही उसने प्रसाद ग्रहण करने को हाथ बढ़ाया उसकी आँख
खुल गयी। ओह, यह तो सपना था!
आँख खुली तो आदत के अनुसार त्वरित गति से उठ बैठी किन्तु फिर
याद आया कि आज तो छुट्टी है, दिवाली की छुट्टी। पलंग के
सिरहाने तकिया लगा अधलेटी सी हो गई, शरीर ज़रूर विश्रामावस्था
में गया पर मन को विश्राम कहाँ? सोचने लगी, आज दिवाली है, मन
में बचपन की सी पुलक तो नहीं पर हाँ रोशनी अवश्य है, वैचारिक
रोशनी! सकारात्मकता का प्रकाश जिसने आज की दिवाली की सुबह भी
रौशन कर दी है। बाबा ने हाथ पकड़कर राह तो दिखा दी लेकिन
प्रसाद मिलने में अभी समय था, बस ज़रा दूर और!
आज उसके इस अपने घर में पहली दिवाली है, अपना घर! कितने
अरमानों से तैयार कराया था उसने यह घर, हर कोने हर दीवार को
विशेष तरजीह देते हुए। उस घर के हर कण को प्रेम से सराबोर करते
हुए, हर कमरे को अलग रंगों में रँगाया। सागर की गहराई लिए
हरा-नीला बैठक में, धूप सा खिला पीला और नारंगी बच्चों के कमरे
में, और अपने शयनकक्ष की तपिश बनाये रखने के लिए बैंगनी और
गुलाबी का मेल चुना। पूजा का स्थान भी बहुत विचार कर निर्धारित
किया; चार सप्ताह पहले ही तो थी गृहप्रवेश पूजा, लगता था चार
युग बीत गए हों। जाने क्यूँ पूजा के ही दिन से सब गड़बड़ा गया।
वह तो बहुत दिन से उस दिन की प्रतीक्षा में थी जब पूजा होते ही
वे बरसों से सजाये किराये के मकान को छोड़कर अपने घर में बसेंगे
और अपने सपनों के आशियाने को आबाद करेंगे। पूजा के लिए
सामग्री, पंडित जी को आमंत्रण, हलवाई, सब की व्यवस्था उसने कर
ली थी। रिश्तेदारों व मित्रों को भी आमंत्रित कर लिया था।
बच्चों के नए कपड़े, पंडित का जोड़ा, मान के कपड़े सब के लिए
पिछले १०-१२ दिन से रोज़ बाज़ार चक्कर लगा रही थी। पाँव थक कर
चूर थे किन्तु उत्साह निरंतर संचालित किये जा रहा था, अपने घर
का उत्साह!
साहिल के कार्यालय में कोई नई परियोजना आरंभ हुई थी और वह चाह
कर भी समय नहीं दे पा रहा था किन्तु श्रेया ने उसे अहसास भी न
होने दिया था। गिले शिकवों का पुलिंदा वह नए घर में ले जाना
नहीं चाहती थी। जो बीत गयी सो बीत गयी को आत्मसात करते हुए
पूरे उल्लास से तैयारी में लगी रही थी। किन्तु एक दिन पहले जब
उसकी सासु माँ पहुँचीं तो उनका सामान देखकर वह चकरा गयी थी,
लगता था मानो उन्हीं के घर में आकर बसने का विचार हो! थोड़ी ही
देर में स्पष्ट हो गया कि साहिल ने ही उन्हें लाव लश्कर के साथ
आने को कहा था। उसमें बुरा कुछ नहीं था, वह अपने माता-पिता को
कभी भी अपने साथ रहने के लिए आमंत्रित कर सकता था, वह
सेवानिवृत्त थे। उसे बुरा लगा सिर्फ यह कि जिस आशियाने को वह
इतने मनोयोग से सजा रही थी उसमें आने वाले परिंदों के बारे में
उसे समय से सूचित तो किया जा सकता था। साहिल ने इस संबंध में
चर्चा तक नहीं की; माँ को फोन करते समय तो उसी ने आग्रहपूर्ण
कहा था कि पूजा है तो उनके मार्गदर्शन की आवश्यकता होगी वह कुछ
समय पहले आयें और सप्ताह दो सप्ताह रुकें, बच्चे भी काफी याद
कर रहे है, पहले आना संभव न होगा क्योंकि परिवार में एक विवाह
है। किन्तु वह हमेशा के लिए उनके साथ आकर रहेंगी इस संबंध में
न साहिल ने, न उन्होंने स्वयं ही कुछ कहा था। वह नाराज़ हुई
किन्तु चुप रही। आने वाले दिनों में न साहिल ने कुछ कहा न उसने
पूछा। दिन बीतते रहे, संवाद के अभाव में दूरियाँ बढ़ती रहीं और
पिछले कुछ समय से वह अनायास ही कहाँ कहाँ उलझती गयी, भटकती रही
अँधेरों में, विश्वास को तोलती रही।
अपने सास-ससुर से उसका संबंध सदैव मैत्रीपूर्ण रहा था, कभी कोई
विशेष शिकायत का अवसर नहीं रहा किंतु कुछ समय से साहिल माता
पिता के प्रति कुछ अधिक रक्षात्मक होते जा रहे थे, मतलब बेमतलब
किसी भी बात को लेकर उनके प्रति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील हो
जाते और श्रेया से बहस में उलझ पड़ते। श्रेया ने अपनी ओर से
सदैव उनका पूरा ध्यान रखा। परिवार में किसी का भी जन्मदिन हो,
शादी की सालगिरह हो वह साहिल को याद दिलाती कि फोन करना है। हर
त्यौहार पर अपने व बच्चों के लिए बाद में, परिवार के बाकी
सदस्यों के लिए पहले उपहार खरीदती, फिर भी न जाने क्या कारण था
कि वह साहिल के व्यवहार में आये इस परिवर्तन को समझ नहीं पा
रही थी। अक्सर बात को न बढ़ाने देने के लिए चुप रह जाती। इस
बार के साहिल के व्यवहार से वह इतना आहत थी कि उसका मन ही न
होता था उनसे बात करने को, श्रेया सहज नहीं हो पा रही थी और
हैरान थी यह देखकर कि साहिल के माता पिता दोनों में से कोई यह
अनुभव नहीं कर रहे थे कि घर में किसी बात का तनाव है।
पहले ही दिन
माँ ने कहा था कि वास्तु के अनुसार मास्टर बेडरूम उनके लिए
उपयुक्त रहेगा तो साहिल ने उनका सामान वहीं जमा दिया था और
बेचारी श्रेया अतिथि कक्ष में आ गयी थी। नम आँखे लिए झेल गई थी
किंतु फिर साहिल की दिनचर्या में शुमार हो गया था शाम को दफ्तर
से आने के बाद माता-पिता के पास जा बैठना और उसके बाद कुछ देर
बच्चों के कमरे में बैठकर नहाने चले जाना और खाना खाकर सोने
चले जाना। वह पूर्ववत अपनी नौकरी के साथ सब्जी, दूध, राशन सब
की ज़िम्म्मेदारी का भार ओढ़े चल रही थी। पुरुष अकसर भूल जाता
है कि स्त्री बाहर की दुनिया में कदम मिलाए तो घर में उससे भी
कदम मिलाना अपेक्षित होता है साहिल भी गृहस्थी व संगिनी के
प्रति अपने दायित्व भुलाए बैठे थे और इस निराशाजनक स्थिति का
कोई अंत उसे दिख नहीं रहा था। बच्चे भी प्रभावित हो रहे थे
क्योंकि वह उन्हें सम्पूर्ण ध्यान नहीं दे पा रही थी। हर समय
हर व्यक्ति के शब्दों को तोलना आदत बनता जा रहा था। जिस नए घर
को खुशियों से भरना चाहती थी उसे मानों ग्रहण लग गया था।
दिवाली आने
को थी और हमेशा दिवाली का विशेष उमंग के साथ स्वागत करने वाली
श्रेया कुंठा से ग्रस्त थी। किसी सहेली या परिचित से घरेलू
मामलों पर चर्चा करना उसे कभी न सुहाया था, क्योंकि वह जानती
थी ऊपर से सांत्वना प्रकट करने वाले सभी लोग किसी न किसी समय
हर विषय का उपहास बना लेते हैं। ऐसी ही मनःस्थिति में थी वह दो
दिन पहले तक जब घर आते समय उसने वह भीषण दुर्घटना देखी।
कारचालक का ध्यान शायद भटक गया था और गाड़ी पूर्ण गति से
डिवाइडर में जा टकराई थी, आगे का पूरा हिस्सा क्षतिग्रस्त था।
चालक का क्या हश्र हुआ था यह तो पता न चला पर जीवन और मृत्यु
की इस निकटता ने उसे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि जिन अनमोल
पलों को वह निराशा में गँवा रही है वह फिर कभी नहीं लौटेंगे और
उसने निश्चय किया कि वह इस स्थिति का हल खोजेगी। उसे अचानक
अपनी दादी की बात याद आ गयी, दादी कभी स्कूल नहीं गयी थी पर
जीवन दर्शन का उनसे बेहतर ज्ञान उसने किसी में न देखा था, रोज़
गीता पाठ करने वाली दादी ने उसे हमेशा सिखाया था कि कभी भी
किसी को अपने जीवन पर हावी न होने दो, जो जिंदगी तुम्हारी है
उसमें किसी और को इतना हस्तक्षेप न करने दो कि वह तुम्हीं से
जीतने लगे, अपनी खुशियों को कभी किसी और का मोहताज न होने दो।
श्रेया ने
निर्णय लिया लगाम सँभालने का, सबसे पहले अपने विचारों पर लगाम
कसनी थी और फिर बाह्य परिथितियों पर और इसका सबसे शांतिपूर्ण
तरीका था माफ़ कर देना और अपनी अपेक्षाएँ कम करना। उसने निर्णय
लिया था कि वह सिर्फ उन्हीं पर नियंत्रण रखेगी जिस पर उसका वश
है; और वह है वह स्वयं! और इसीलिए आज उसके जीवन की अनमोल
दिवाली है। ज़िन्दगी भी अजीब है, और उस से भी ज्यादा अजीब
इंसान; जिनसे सब से ज्यादा प्यार करते हैं उनसे ही अपेक्षा
रखते हैं, अपेक्षाएँ प्रेम के साथ साथ बढ़ती चली जाती हैं और
अनजाने ही प्रेम से बड़ी हो जाती हैं और विकराल दैत्य सी मुँह
खोलकर प्रेम को लीलने के लिए खड़ी हो जाती हैं। इस दीवाली उसने
अपने भीतर के अपेक्षा रूपी दैत्य का संहार किया था और बहुत
हल्का महसूस कर रही थी। कल यमदीप जलाकर उसने शुरुवात की थी
अँधेरे को दूर भगाने की। श्रेया ने साहिल की ओर देखा वह अभी
गहरी नींद में लग रहे थे तो श्रेया ने उठकर अपने लिए चाय बनाई
और बालकनी में पड़े झूले पर आकर बैठ गयी। हवा में हलकी सी खुनक
थी पर अच्छी लग रही थी। नीचे लॉन में आम के पेड़ तले दो
गिलहरियाँ कुछ खेल कर रही थी, निश्छल! शायद एक दूसरे से कुछ
अपेक्षा नहीं रखती इसीलिए।
आज वह अपने बच्चों को बचपन की दिवाली सी दिवाली देना चाहती है।
पूरे परिवार के संग, रिश्तों की गर्माहट से सिंझी हुई। जब दस
दिन पहले से घर की पूरी तरह सफाई होती थी, घर का हर व्यक्ति
उसमें जुड़ा होता था सबके काम बँट जाते थे, फिर सब घर को सजाते
थे। चाचा बड़ा सा कंदील लाकर ऊँचे बाँस पर लटका देते थे। रात
को उसमें लगे बल्ब की रंगबिरंगी परछइयाँ आँगन में खुशनुमा सा
रहस्य बिखेर देती थीं। घर के बाहरी हिस्से पर छोटे छोटे बिजली
के बल्बों कि लड़ियाँ लटकाई जाती थीं। माँ और दादी कितने
पकवानों के ढेर लगा देतीं। एक दिन पहले बाबा दिए खरीदने जाते
तो श्रेया उनके साथ जाने को मचल उठती थी। मिट्टी के दिए श्रेया
को बहुत पसंद थे और बाबा के साथ बाज़ार जाओ तो वह जिस दुकान पर
रुके वहाँ से कुछ न कुछ अवश्य दिलाते थे। लक्ष्मी गणेश व
सरस्वती माता की मूर्तियों के साथ ही आते थे कुम्हार के यहाँ
से सुन्दर सुन्दर मिट्टी के खिलौने, सैनिक, तोते और गर्दन
मटकाती बहूरानी!!! और बाज़ार से वापस आकर श्रेया का काम होता
था सभी दियों व कुल्हियों को धोकर छलनी में उल्टा रखकर सुखाना।
अम्मा कहती थीं ऐसा करने से दिए तेल नहीं पीते और ज्यादा देर
जलते रहते हैं।
दिवाली की पूजा संपन्न होने पर वह बुआ और चाचा के साथ पूरे घर
में दिए सजाती, आँगन में चबूतरे पर रंगोली के इर्द गिर्द और
फिर छत पर जाकर छत की मुंडेरों पर। सभी कतारें पूरी हो जाने पर
वहीँ खड़ी हो उन्हें तब तक देखती रहती जब तक कि कोई ऊपर आकर
उसे खाना खाने के लिए न बुलाता और फिर पड़ोस के दीनू काका की
आवाज़ लग जाती थी "अरे सब पकवान ही खाते रहेंगे या कोई पटाखे
भी छुड़ाने के लिए बाहर आएगा?" और माँ की हिदायतों को सुनते
सुनते सब बच्चे दौड़ पड़ते बाहर। श्रेया एक फूलझरी चलाती थी बस
और फिर छत पर जा बैठती दीपों को देखने। श्रेया को जलते दीप
बहुत सुन्दर लगते थे वह दादी से खूब लम्बी लम्बी बत्तियाँ
बनवाती थी ताकि दीप सारी रात जल
सकें।
सोने से पहले सभी दीपों में एक बार फिर तेल भर देती और न जाने
कितनी देर दीपों को जलते एकटक निहारती रहती। कोई दीप हवा से
बुझ जाता तो मोमबत्ती से उसे फिर जला देती।
श्रेया सोच रही थी जिस रिश्ते के दीप में वर्षों नेह का तेल
भरा और बाती बन जलती रही उसे वह कभी बुझने नहीं देगी, उसका
प्रकाश उसके जीवन की अंतिम दिवाली तक रोशन रहेगा, और इसी
संकल्प के साथ उठ खड़ी हुई अपने नए घर में पहली दिवाली की
तैयारी करने के लिए। |