दिल्ली
की एक मशहूर बस्ती पश्चिमी पटेल नगर और शादीपुर डिपो के बीच एक
कोठी हुआ करती थी, जिसे नीली कोठी कहा जाता था। बात ज्यादा
पुरानी नहीं है, सिर्फ पचास वर्ष पहले की है। डी. टी. सी. के
बस ड्राइवर और कंडक्टर बस की रफ्तार धीमी करके यात्रियों से
पूछते- 'कोई नीली कोठी उतरने वाला!' और, कुछ सवारियाँ नीचे उतर
जातीं।
नीली कोठी के बाहर की पटरी बस-स्टैंड के रूप में बदल चुकी थी।
उस स्टैंड पर तिपहिया स्कूटर भी रुकने लगे थे।
उन दिनों मैं डी.टी.सी. कालोनी में रहा करती थी। सड़क के इस पार
मैं और उस पार नीली कोठी ! मैं अपने बरामदे में खड़े होकर बराबर
उस नीली कोठी को देखा करती।
उस दो मंजिला कोठी के ठाट-बाट निराले थे। घर के सभी लोग मोटरों
में आया करते थे। मुझे इतना ही पता चल सका कि उस कोठी में
चार-पाँच लड़के, एक लड़की और एक माताजी रहा करती थीं। उनकी
खूबसूरत साड़ी और घुटनों तक का कोट मेरी स्मृति में आज भी बसे
हुए हैं।
एक दिन मेरे दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने देखा कि मेरे सामने
नीली कोठी वाली माताजी खड़ी हैं। अपनी आदत के अनुसार मैंने चरण
स्पर्श किया और कहा- 'अंदर आइए !'
'अंदर आने के लिए ही तो आई हूँ न !' कहते हुए वे अंदर आकर सोफे
पर बैठ गईं।
वह कमरा इतना छोटा था, जिसमें पाँच ही लोग बैठ सकते थे। यदि
ज्यादा मेहमान होते, तो नीचे गद्दियाँ लगा दी जातीं। कमरे की
दोनों खिड़कियों पर मैंने खादी के रंग-बिरंगे पर्दे लगा रखे थे
और पर्दों के नीचे छोटे-छोटे घुँघरू। पंखा चलाने से जब वे बजते
तो दिन भर की थकान दूर हो जाती। बिना दरवाजे की एक अलमारी में
मैंने कुछ कलात्मक वस्तुएँ और कुछ किताबें लगा रखी थीं। मैंने
मीठा-नमकीन नाश्ता ट्रे में सजाकर रखा और कहा- 'लीजिए न,
माताजी !'
उन्होंने बेतकल्लुफी से नाश्ता करते हुए कहा- 'बहुत सुंदर घर
है तुम्हारा ! आँखों को सुकून देने वाला!'
'आपकी दुआ है।' मैंने कहा।
फिर मैंने उनकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा तो उन्होंने कहा-
'कल हमारे यहाँ भंडारा है। तुम नाश्ता हमारे यहाँ करना।'
इतना कहकर वह चली गईं।
अगली सुबह जब मैं नीली कोठी पहुँची तो बड़े गेट पर ढेर सारे लोग
जमा थे। उस धक्का-मुक्की के बीच दरबान आदर से अंदर ले गया।
नमस्ते के उत्तर में माताजी ने खुशी-खुशी मुझसे कहा-'आज से तुम
मुझे बीजी कहा करोगी क्योंकि सभी लोग यही कहते हैं।'
भंडारा शुरू हो चुका था और बीजी उस भंडारे का इतिहास सुना रही
थीं- 'कई पीढ़ियों से हमारे यहाँ चार बेटे और एक बेटी...पाँच
संतानें होती चली आ रही हैं! बेटी तो अपने घर चली जाती है। और
हर बेटे के जन्मदिन पर भंडारा किया जाता है। आज से तुम भी मेरी
बेटी हो!'
इससे पहले कि मैं कुछ कहती, कोने में रखी आरामकुर्सी पर बैठी
एक लड़की चिल्लाकर बोली- 'मत बनना इनकी बेटी! ये तुम्हारा
जन्मदिन कभी नहीं मनाएँगी!'
मैं बीजी से बात करने में इतनी मशगूल थी कि मेरा उस ओर ध्यान
ही नहीं गया था। यह वही लड़की थी जिसके लिबास पर मैं मोहित थी।
'नमस्ते, दीदी!' मैंने उनसे कहा।
'दीदी मैं नहीं, तुम हो! अपने पैरों पर खड़ी हो! अपनी रोटी खुद
कमाती हो! मैं जानती हूँ तुम्हारे बारे में! तुम्हारी तस्वीर
अखबारों में छपती है और तुम्हारी कलम का जादू सबके सिर पर चढ़कर
बोलता है!...अरे, हाँ! मैंने अपने बारे में तो कुछ बताया ही
नहीं! मैं इस घर की इकलौती बेटी हूँ- पारो! सामने बैठी दूध की
धुली औरत को तुम जैसा समझती हो, वो वैसी है नहीं। अपने हर बेटे
के जन्मदिन पर ये भंडारा करती हैं और बेअक्ल लोगों से उनका
जय-जयकार भी कराती हैं। सबके लिए प्यार का दरिया बहता है इनके
दिल में, पर बेटी तक पहुँचते-पहुँचते वह सूख जाता है। मैं,
मेरी बुआ, बुआ की बुआ और बुआ की बुआ की बुआ! न जाने कितनी बुआ
घुट-घुटकर मर गईं। सभी को उनकी माँओं ने बेमौत मार डाला! तुम
लिखतीं क्यों नहीं इस बारे में? मेरे हिस्से की दूध-मलाई
इन्हीं भाइयों को खिला देती हैं ये!'
मुझे काटो तो खून नहीं।
'तुम्हीं बताओ, बेटी! कुछ तो फर्क होता है बेटे और बेटी में!'
बीजी खाना लगाते-लगाते बोली थीं।
हमेशा की तरह मैं मौन-शांत थी।
'चलो, बेटी खाना खा लो। और तुम भी खा लो, पारो!'
'कुछ भी मत खाना! इस पाप की कमाई का खाना! इसमें पाँच-पाँच
बेटियों का खून बहता है। निचोड़कर देख लो! खून की बूँदें
टपकेंगी!'
मैं कभी पारो को देखती और कभी बीजी को। पूरे कमरे में घोर
सन्नाटा छा गया था। पारो जगह से उठकर डाइनिंग टेबल के पास आकर
खड़ी हो गई थी और उसने इस कदर रौद्र रूप धारण कर लिया था जैसे
दुर्वासा ऋषि शकुंतला को शाप दे रहे हों।
'और, हाँ बीजी! आज मैं इस कलाकार दीदी के सामने तुम्हें शाप
देती हूँ कि तुम्हारे चारों बेटों के यहाँ कोई लड़का नहीं होगा।
तुम किसी के जन्मदिन पर भंडारा नहीं कर सकोगी!'
स्थिति ऐसी पैदा हो गई थी कि मैं बिना खाए लौट आई थी। डिब्बे
में रखी बासी रोटी और अचार को ही अन्न देवता का प्रसाद समझकर
खा लिया था। सोफे पर पड़े-पड़े मैं बीजी और पारो के बारे में
सोचने लगी थी।
शाम को एक बार फिर मेरे दरवाजे पर दस्तक हुई। सामने पारो खड़ी
थी। वह बिना कहे अंदर चली आई थी।
'तुमने खाना नहीं खाया होगा, दीदी! चलो, बाहर चलकर खाते हैं।'
'क्या कहा? बाहर! उतने पैसे में तो मेरा हफ्ते का राशन आ
जाएगा!' मैंने सख्ती से कहा।
मैं रसोई में गई। जल्दी-जल्दी दाल-चावल, रोटी-सब्जी बनाई और
बाहर चली आई।
'सॉरी, पारो! दस रूपये में हम दोनों खा लेंगे।'
पारो बड़े चाव से खा रही थी- 'अमृत है अमृत, तुम्हारे हाथ का
खाना! 'अब मेरा सारा लहू बह जाएगा!' मेरा हाथ थामे, पारो बहुत
देर तक खड़ी रही थी।
मुझे होश तब आया, जब पारो जा चुकी थी।
लगभग एक हफ्ते बाद बीजी ने मुझसे कहा- 'पारो पता नहीं, कहाँ
चली गई है? वो सिर्फ यही कहती रही कि तुम्हारी ये गंदी कमाई
नहीं खाऊँगी। मैं क्या कहती?'
उनकी बात जारी रही- 'पता नहीं, क्या हो गया है इस लड़की को!
इतनी मीठी-मीठी बातें किया करती थी! अब तो हर समय अंगारे ही
उगलती है! जाते-जाते यही कह गई थी कि इस खानदान में किसी भी
बेटी का जन्मदिन नहीं मनाया गया। इसलिए तुम्हारी ये नीली कोठी
खंडहर हो जाएगी। और इसमें रहने वाले तुम्हारे लाड़ले सपूत भी!'
बीजी उदास मन से जैसे आई थीं वैसे ही लौट गई थीं।
अब मैं बरामदे में खड़े होकर नीली कोठी को नहीं देखती, क्योंकि
वह शापग्रस्त हो चुकी थी।
इधर मैं दो वर्ष के एसाइन्मेंट के लिए विदेश चली गई थी। जब
लौटी तो मेरे मन में नीली कोठी देखने की इच्छा जाग उठी। मैंने
वहाँ जाकर देखा कि मेरा डी.टी.सी. वाला सरकारी क्वार्टर ज्यों
का त्यों खड़ा था। नीली कोठी भुतहा बन चुकी थी। उस पर पीले रंग
की पुताई हो चुकी थी, जिसकी उखड़ी पपड़ियों के भीतर से नीला रंग
अपने अतीत का अहसास करा रहा था।
पड़ोस
से पूछने पर पता चला कि सभी लोग, पता नहीं, कहाँ चले गए। पहले
बेटी, फिर बीजी, फिर एक-एक करके सभी लड़के। वे कहते थे कि अब इस
कोठी में हमारे खानदान की सभी बेटियाँ भूत बनकर रहती हैं और
हमें डराती-धमकाती हैं।
मैंने कोठी के खुले दरवाजे से भीतर जाकर देखा कि जगह-जगह दस-दस
फुट के मकड़ी के जाले लटक रहे हैं। मेरे भीतर घुसते ही वे जाले
एक-दूसरे से गलबहियाँ डाले झूमने लगे थे। ऐसा लगा, जैसे मुझे
देखकर पारो झूम रही है। |