सुबह सुबह
फोन मिला था ’‘सुरेन्द्र बोल रहा हूँ दीदी।”
सुरेन्द्र ..मैं कुछ समझ नहीं पाती कि यह किसका फोन है। तभी
उधर से फिर आवाज़ आई थी।”
एक बुरी खबर है, कौशल्या बुआ की डैथ हो गई।”
तब समझ आया था कि यह कौशल्या दी के क़ज़न का बेटा है, यहीं
इण्डियन ओवर सीज बैंक में मैनेजर हैं ‘‘ अरे कब, कैसे... कहाँ
थीं वे आजकल ?
’’आज ही आधी रात को। आज कल भोपाल में राजन भाई के पास थीं वे।”
’’तुम जा रहे हो भोपाल?’’
’’जी आज ही निकल रहा हूँ।”
मैं चुप रहती हूँ। समझ ही नहीं आता आगे क्या बोलूँ। कुछ देर
लाईन पर रहकर सुरेन्द्र ने ‘‘अच्छा दीदी’’ कह कर फोन रख दिया
था। फोन रखकर मैं काफी देर चुपचाप वहीं बैठी रहती हूँ।
कौशल्या दीदी नहीं रहीं। उनके जाने से मातम मनाने जैसी कोई बात
नहीं। न जाने कितनी बार मन में आता रहा था कि क्यों इतनी लंबी
उम्र दे रहा है भगवान उनको। अस्सी साल की तो हो चुकीं। किसको
ज़रूरत है उनकी। खुद उनको भी तो नहीं। जब भी लखनऊ आतीं तो दो
चार दिन मेरे पास ज़रूर रहतीं, और न जाने कितनी बार कितनी तरह
से कहतीं कि भगवान से मनाओ अब बुला ले मुझको... न जाने मेरी
तरफ क्यों नहीं देखता वह ...’’
सोच कर अजीब लगता है कि मैं यहाँ बैठी उनके बारे में सोच रही
हूँ और वहाँ भोपाल में उनकी निर्जीव देह पड़ी होगी। कोई ऐसा
नहीं जिन्हें उनके जाने की संवेदना देनी हो। इतनी बड़ी दुनिया
में कोई नहीं उनके लिए रोने वाला। कितना पुराना परिचय था उनसे
... चालीस साल पुराना। तब मैं इक्कीस साल की थी... जब कालेज
में नौकरी के लिए पहले दिन पहुँची थी। मेज़ के एक तरफ सकुचायी
हुयी सी बैठी थी। प्रिसिंपल मेरे साथ स्टाफ रूम तक आ कर
उपस्थित टीचर्स से मेरा परिचय कराकर चली गयी थीं... तभी वे
स्टाफ रूम में घुसी थीं।” आपके डिपार्टमैन्ट की नयी एपायन्टी आ
गई दीदी।” किसी ने धीमे से बताया था।
’’वासंती सिन्हा।” उन्होंने प्रश्न सूचक निगाह से मेरी तरफ
देखा था।
’’जी-’’ मैं उठ कर खड़ी हो गयी थी।
उन्होंने अपने हाथ का बैग पास की कुर्सी पर रख दिया था और
दोनों हाथ फैला कर वे बहुत अपने पन से मेरी तरफ बढ़ी थीं।”
स्टाफ रूम में न्यू एराईवल का स्वागत है।” स्वागत के इस अपनेपन
से मेरा मन भर आया था। इस नामी गिरामी अन्जान विद्यालय के लिए
मन में बैठा आतंक छटने लगा था।
मेज़ के दूसरे किनारे पर तीन टीचर्स बैठी थीं उनमें से एक ने
मुँह बिगाड़ा था और हम लोगों की तरफ देखा था...। ”ऊ हूँ।”
दूसरी मजाक के स्वर में फुसफुसाई थीं।” अब ये कहीं इन्हें गोदी
में ही न उठा लें।” और तीनों आपस में खी... खी... करके हँसने
लगी थीं।
मेरे पास खड़ी इंगलिश डिपार्टमैन्ट की दूसरी टीचर मिसेज
द्विवेदी ने नाराज निगाहों से उन तीनों की तरफ देखा था।” अजीब
हैं ये तीनों।” उन्होंने पास खड़ी मिसेज दीक्षित से कहा था।
कौशल्या दी चारों तरफ की बातों से बेखबर मेरे स्वागत में लगी
रही थीं।
धीमें धीमें उनके बारे में बहुत कुछ पता चला था... उत्तर
प्रदेश के नामी गिरामी परिवार चौधरी दीना नाथ सिंह के यहाँ की
बेटी हैं और उनके पति किसी बड़ी रियासत के जागीरदार के इकलौते
बेटे।
लखनऊ आ कर क्यों रह रही हैं इसके सबने अलग अलग कारण बताए थे।
दीदी के पति की अपने पिता से नहीं पटती इसलिए चली आई हैं वे।
किसी ने यह भी बताया था कि वे अपनी निसंतान मौसी को बहुत प्यार
करती थीं और मौसी के अकेले रह जाने पर उन्हीं के पास आ गई थीं
और यहीं रह कर पढ़ाई पूरी की और एलाटमैन्ट की बड़ी सी केाठी में
मौसी के निधन के बाद भी रहती रहीं। मौसी इस कालेज की फाउंडर
मैम्बरों में से थीं। शुरु में कौशल्या दी मौसी के साथ कालेज
के कामों में रुचि लेती रहीं... बाद में यहाँ पद रिक्त होने पर
उन्होंने इंगलिश डिपार्टमैन्ट ज्वाईन कर लिया था। खैर जो भी हो
मैं उनसे अंतरग होती गयी थी। उनके पास जा कर मुझे हमेशा अच्छा
लगता... भले ही वे कभी फनी लगतीं, कभी बेहद डामिनेटिंग... कभी
उबाऊ भी, पर फिर भी मन का कोई तार था जो उनसे जा कर जुड़ता
था... शायद उनकी जैनुइननैस ... बहुत सारी अड़चनों के बीच सिर
उठा कर चलने की ताकत... उनका स्वाभिमान। थोड़े थोड़े दिन पर
कौशल्या दी से फोन पर बात करना ... उनके घर जाना मुझे अपना
दायित्व जैसे लगते... जिसका निर्वाह मैं सदैव करती रही.. उनके
रिटायर होने के बाद भी।
विद्यालय में पढ़ाते कुछ माह बीत चुके थे। पहली बार उनके घर गई
थी। वे स्वागत की मुद्रा में दोनों हाथ फैला कर घर से बाहर
निकली थीं... फिर मेरा हाथ पकड़े - पकड़े ही घर में घुसीं थीं।
फिर ड्राईंगरुम से ही आवाज लगाई थी... चन्दर... स्वीटहार्ट
देखो कौन आया है... वह अपनी वासंती आई है। और आपका तो अभी
स्नान ध्यान ही नहीं हुआ...। डार्लिंग जल्दी से निबट कर बाहर
आओ... चाय नाश्ता लगवा रहे हैं।” मैंने कनखियों से घड़ी की तरफ
देखा था। गर्मी शुरु हो चुकी थी.. घड़ी की सुई साढ़े बारह के आगे
निकल चुकी है और कौशल्या दी के घर अभी चाय नाश्ता लगाया जा रहा
है। एक बार कुछ ऐसा ही कहा था उनसे तो अपने विशिष्ट अंदाज में
हो... हो... करके हँसती रही थीं ...।”देखो वासंती, मेरा मियाँ
रायल तबियत का इंसान है... सुबह सबेरे सो कर नहीं उठ सकता...
चाय नाश्ता नहीं कर सकता। मेरे घर की घड़ी मेरे मिंया की इच्छा
से चलती है... क्यों है न चन्दर डार्लिंग।”
बहुत बाद में समझ पाई थी कि इस तरह के संवाद उस घर में
रोजमर्रा की बात थी। चन्दर भाई बहुत कम बोलते। उनसे बात करते
समय कौशल्या दी हमेशा उत्तेजित सी दिखतीं। उनका बातचीत का यह
अंदाज हम सब के बीच में उपहास की बात रहता। आज सोचती हूँ उनके
प्रति अपना मुखर प्रेम प्रदर्शित कर वे अपना अभिमान ढँकतीं थीं
या उनका सम्मान- पता नहीं। या शायद दोनों की ही शान बढ़ाने का
उनका अपना ढूँडा हुआ तरीका था वह।
जिंदगी को लेकर उनका अपना नजरिया रहता था...एकदम साफ और
आदर्शवादी। अनुश्री अपने पति से अलग हुयी थी, वे बहुत दुखी हुई
थीं। दोनों के बीच समझौता कराने की बहुत कोशिश की थी उन्होंने।
हममें से कुछ और थे जो संबंधों के कगार पर खड़े़ थे, पर वे हाथ
के इशारे से वर्जित करतीं। बच्चों का हित अहित समझातीं...समाज
में अपने मान सम्मान की बात भी कहतीं। यह भी कहतीं कि टीचिंग
सिर्फ नौकरी ही नहीं होती, टीचर स्टूडैन्ट की रोल माडल होती है
इसलिए सब काम उसे बहुत सोच समझ कर करने होते हैं, नहीं तो एक
जन ही नहीं भटकता बहुत से और बच्चे भी भटकते हैं। उनका स्वर
एकदम निर्णायक हो जाता।” वी हैव जैनरेशन्स टु लुक आफ्टर।”
हमलोग आजिजी से हँसते। यह वाक्य वह न जाने कितनी बार, कितने
लोगों से, कितने संर्दभों में कहतीं। कुछ लोग उनकी इन बातों से
चिढ़ जाते,... कुछ लोग उनकी इन आदर्शबादी बातों का मजाक भी
उड़ाते पर वे हमारी नौकरी को हमारे मन पर पहरेदार बना कर खड़ा़.
कर देतीं। अपनी समस्याओं को लेकर हममें से कभी किसी का मन बहुत
विचलित होने लगता तो बहुल शान्त भाव से समझातीं। जैसे तसल्ली
का रास्ता बताती हों...’’सुनो बेटा अपने दुखों की गठरी भगवत
अर्पण कर दो वही सम्हालेगा सब कुछ।”
मैं उनकी तरफ देखती रह जाती। मैं जानती थी दीदी ने ऐसा ही तो
किया है। बहुत सम्पन्न घराने की बेटी, उससे भी अधिक बड़े घराने
की बहू... पर जिन्दगी ने क्या दिया। रियासतों के सूत्र भी
कन्धें पर लदे बोझ थे यह मैं इतने वर्षों की निकटता में अच्छी
तरह समझ चुकी थी। राज गए..रजवाड़े गए....बस दिखावटी शान शौकत रह
गई। कुछ घराने एकदम लुट चुके थे। उस पर चन्दर भाई जैसे
अकर्मण्य इंसान। बारह बजे तक सो कर उठते। शाम तक लंच और आधी
रात को डिनर। पिता बेहद नाराज़। माँ जब तक जीवित रहीं बेटे बहू
पर अपना लाड़ दुलार बरसाती रहीं। साल में दो बार अवश्य आतीं। पर
उनके निधन के बाद वह सूत्र टूट गया। पिता आते तो अपने रोब
दबदबे के साथ... रूठे से... उस घर में अजनबी से दिखते हुए...
अजनबी सा मान सम्मान पाते हुए। वे आते तो कौशल्या दी के घर की
सारी फाईन क्राकरी... चाँदी के टी सैट, कटलरी, बर्तन बाहर आ
जाते। वे पिता के सामने उनके बेटे की ऐसी शान बिखेर देतीं कि
वे हतप्रभ रह जाते। न कौशल्या दी ने कभी अपने श्वसुर को अपने
अभाव अपनी परेशानियाँ बयान की थीं और न कभी राय साहब ने ही
उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाया था। शायद दोनों ही दूसरे से पहल की
प्रतीक्षा करते रहे। आत्माभिमान के शह और मात के इस खेल के बीच
शायद दोनों ही पक्ष एक दूसरे से आहत थे और शायद दोनों ही एक
दूसरे का बहुत आदर करते थे। और चन्दर भाई? यह स्थितियाँ भलें
ही उनके कारण जन्मी हों- पर उसके आगे उनकी कोई भूमिका नहीं थी।
राय साहब प्रतीक्षा करते ही इस दुनिया से चले गए पर दोनों ही
जन एक दूसरे के सामने खुल नहीं पाए।
उनके निधन पर कौशल्या दी काफी दिनों के लिए गई थीं। रियासत
सरकार पहले ही ज़ब्त कर चुकी थी .. घर का सारा सामान उन्होंने
अपनी दोनों नन्दों और उनके बच्चों को सौंप दिया था। हवेली का
काम चन्दर भाई को निबटाना था। उनके लौट कर आने पर मैं गई थी उन
दोनों से मिलने। कौशल्या दी अपनी आदत के विपरीत काफी चुप
गुमसुम सी लगी थीं। ऐसा लगा था जैसे वे सारी जिम्मेवारियों से
मुक्त एकदम शांत हो गई हों। चन्दर भाई अभी नहीं आए थे... हवेली
के लिए डील तय करनी है इसलिए वहीं रुक गए हैं।” मुझे अजीब लगा
था कि फिर दीदी ने आने की इतनी जल्दी क्यों की है। वे रिटायर
हो चुकी हैं। यहाँ उन्हें कोई काम नहीं। वैसे भी चन्दर भाई के
घर बाहर के सभी काम अभी तक वे ही निबटाती रही थीं। दीदी से कहा
था तो वे बेहद सुस्त सा हँस दी थीं...।” नहीं बेटा, चन्दर उसके
मालिक हैं... जैसा चाहें जो चाहे करें मैं कहाँ बीच में आती
हूँ..। मेरा अब वहाँ क्या काम।” इसके बाद उन्होंने उस विषय में
कोई बात नहीं की थी।
हफ्ते दस दिन बाद मैं उनके पास बैठने के लिए फिर चली गई थी। वह
पिछली बार की तरह सुस्त तो नहीं लग रही थीं पर अपनी आदत के
अनुसार चपल वाचाल भी नहीं थीं। तभी चन्दर भाई का फोन आया था।
वह बहुत प्यार से उनका हालचाल पूछती रही थीं... तभी उधर से कुछ
कहा गया था और दीदी की आवाज़ में तीखापन आ गया था।” देखिए चन्दर
जी... उस हवेली के बारे में कोई बात करना नहीं चाहती... कोई
भी.. कैसी भी। आई विल नाट। आपने मुझे बता दिया था कि वह आपकी
प्रापर्टी है... उससे जो पैसा मिलेगा वह भी अकेले आप का है...
मुझे उससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए तो वही सही... वैसे भी।
खैर छोड़िए..। ’’ फिर वे उनसे इधर उघर की बात करती रही थीं।”
अच्छा डार्लिंग अपना ख्याल रखना। ’’
मैं चुपचाप बैठी रही थी। उनका इतनी जल्दी लौट आना... उनकी
उदासी... उनके स्वर की थकान सबका कारण मुझे समझ आ गया था। यह
भी समझ आ गया था कि उन्होंने हवेली के एक भी सामान पर हाथ
क्यों नहीं लगाया... निशानी की तरह भी अपने लिए कुछ नहीं रखा।
काफी दिन बाद चन्दर भाई खाली हाथ लौट आए थे। हवेली की सेल पर
सरकार की तरफ से स्टे आर्डर आ गया था।
राय साहब के पितामह को वह हवेली किसी मुगल बादशाह ने उपहार
स्परूप दी थी... उसे हैरिटेज प्रापर्टी घोषित कर दिया गया था
और उस पर से परिवार के अधिकार निरस्त कर दिए गए थे। लौटने के
बाद चन्दर भाई वकीलों से राय मशविरा, मुकदमें का मसविदा और
स्टेट डिपार्टमैन्ट के चक्कर लगाने में व्यस्त हो गए थे। इतना
व्यस्त उन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था। और कौशल्या दी
उनकी देखभाल और ख़ातिर में लगी रही थीं।
यूनिवर्सिटी की परीक्षाएँ शुरु हो गई थीं... और मैं काफी समय
के लिए उसमें व्यस्त हो गई थी। कौशल्या दी के घर जाने का समय
ही नहीं मिला और न ही वे मेरे घर आईं और न उन्होंने फोन ही
किया । एक दिन समय निकाल कर उनके घर पहुँची थी... वे कोई लिस्ट
बना रही थीं और बहुत सुस्त लग रही थीं... एकदम पराजित और पस्त
हाल। मैंने पूछा था क्या लिख रही हैं तो धीमे से हँस कर
उन्होंने कागज समेट लिये थे... मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया
था। फिर मैंने भी कुछ नहीं पूछा। वह बहुत धीमे स्वर में मुझसे
बात करती रही थीं... उखड़े ढंग से... जैसे कुछ और सोच रही हों।
मैंने उनसे सुस्त होने का कारण जानना चाहा था। वे खिड़की के
बाहर देखती रही थीं... जैसे किसी गहरे सोच में हों... जैसे
अपनी बात का सूत्र पकड़ पाने में कठिनाई हो रही हो। उन्होंने
मेरी तरफ देखा था और उनकी आवाज़ भर्रा गई थी।” वासंती... मैं
चन्दर से अलग हो रही हूँ...।”
मैं एकदम स्तंभित रह गई थी ..‘‘ मतलब।”
’’मतलब।” वह सुस्त सा मुस्कुराई थीं...।” आई एम लीविंग हिम।”
“मगर क्यों दीदी ? ऐसा क्यों कह रही हैं। हम सब को कितना
समझाती सम्हालती रहीं आप...
और आज आप खुद... वह भी अब... अब इस उम्र में। चन्दर भाई क्या
रह सकते हैं आपके बिना।”
“क्यों नहीं रह सकते। रहना ही होगा, रहेंगे ही।” वह फिर चुप हो
गई थीं और खिड़की की तरफ देखती रहीं थीं।” मुझे पता है वासंती
जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं निकलता तब तक कोई भी औरत घर
छोड़ने की बात नहीं सोचती। अनुश्री ने घर छोड़ा उसकी तकलीफ समझती
थी मैं... तुमने घर छोड़ना चाहा तुम्हारी चोट भी जानती थी मैं,
पर वासंती मैं तो हमेशा तूफान के भीतर साँसे लेती रही और कभी
एक क्षण को भी घर छोड़ने की नहीं सोची। पर आज पैंसठ साल की इस
उम्र में।” उनकी आवाज भर्रा जाती है।
मैंने उनके कन्धें पर धीमे से हाथ रखा था।” फिर दीदी आज क्यों।
जो भी हुआ भूल जाईए। मैं ऐसा नहीं करने दूँगी आपको... एक बार
आपने रोका था मुझे आज मैं ..’’ वह मेरी बात बीच में काट देती
हैं।” इस रिश्ते के ढोंग को मैं कब तक निभातीं रहूँ-’’ वह सीधे
मेरी तरफ देखतीं हैं... उनकी आखों में आँसू हैं...।” फिर क्यों
वासंती... किसलिए... व्हाई शुड आई...’’ वे अपने शब्दों पर जोर
देती हैं।
मैं उस दिन लगभग पूरे दिन ही उनके पास रही थी। धीरे-धीरे वे
खुली थीं। चन्दर भाई हवेली के मुकदमें के सिलसिले में अपने शहर
गए थे.. वहाँ अपने मित्र के घर ठहरे थे...। यहाँ आकर अपने
मित्र को पत्र लिखा था... उसमें मित्र पत्नी की सुन्दरता की...
उनकी योग्यता की- उनके अच्छे स्वभाव की भरपूर प्रशंसा की थी।
लिखा था कि “ तुम कितने किस्मत वाले हो कि तुम्हें इतनी
सुन्दर, इतने मीठे स्वभाव की पत्नी मिली है, और सबसे बड़ी बात
यह है कि उस ने तुम्हें दो प्यारे प्यारे बच्चों का पिता बनाया
है।”
इस अन्तिम वाक्य ने कौशल्या दी को तोड़ कर रख दिया था। उनकी
आखों से आँसू बहने लगे थे।” मैंने तो सबके बीच में रहकर भी
अपनी पूरी जिन्दगी सन्यासिनी जैसी काट दी... चन्दर की जिस कमी
को मैं कभी अपने मुँह पर नहीं लाई... घर वालों को, बाहर वालों
को कभी अनुमान तक लगाने का मौका नहीं दिया, चन्दर ने कितनी
आसानी से उसका दोष मेरे सिर मढ़ दिया। हाऊ कुड ही।” उनकी आवाज
गले में फँसने लगी थी।” टैल मी वासंती व्हाई शुड आई टालरेट द
फार्स आफ दिस रिलेशनशिप एनी मोर’’
मेरे कुछ नहीं समझ आता कि क्या कहूँ...।” आपने चन्दर भाई से इस
विषय में कुछ बात की’’ मैं बड़ी मुश्किल से पूछ पाई थी। नहीं’’
वे बहुत दृढ़ भाव से बोली थीं। मैं इस बारे में कोई बात.. कोई
सफाई... कोई डायलॉग नहीं चाहती। इट इज ओवर नाऊ ..’’ वह मेरी
तरफ देखती रही थीं... आज लाकर जाकर गहनों का हिसाब कर आई हूँ।”
उन्होंने पास में रखे कागज उठाए थे।” लिस्ट बना दी है। चन्दर
के तरफ के गहनों में कौन कौन से किसको देना है यह लिख दिया है।
अपनी तरफ के गहने मैं अपने साथ ले जाऊॅगी, इधर के बच्चों में
देने के लिए।”
“साथ ले जाउँगी मतलब?” मैं चौंकती हूँ।“ यह घर तो आपके नाम ही
एलॅाटेड है न।”
“ हाँ है। पर मुझे ही जाना होगा। एक तो मैं चन्दर को जाने के
लिए नहीं कह पाऊँगी... फिर वे जाएँगे कहाँ। इस शहर में उनका है
कौन ?’’
“आप जाएँगी कहाँ ?’’
वह मेरी तरफ देखतीं हैं।”अभी सोचा नहीं। सुरेन्द्र के पास भी
जा सकती हूँ। ’’
पर चन्दर भाई शायद बेहद भाग्यशाली थे। पेट में असहय पीड़ा लेकर
लौटे थे। पेट में शायद अल्सर थे जो फट गए थे। कौशल्या दी उनकी
सेवा में जुट गई थीं... डाक्टर... अस्पताल... आप्रेशन की भाग
दौड़ के बाद चन्दर भाई की निर्जीव देह लेकर ही उस घर में लौटी
थीं।
चन्दर भाई की एक बड़ी सी तस्वीर दीदी के कमरे में लग गई थी।
दीदी पहले की तरह रहती रही थीं... लोगों के सुख दुख में शरीक
होती रही थीं ..रिश्तेदारों में... मित्रों में संबधों का
दायित्व निभाती रही थीं। आना जाना पूर्ववत बना रहा था... यदा
कदा पहले की तरह पार्टी डिनर भी हो जाते, वे पहले की तरह
सर्कुलेशन में बनी रही थीं। आठ दस साल ऐसे ही बीत गए थे।
दीदी जिस कोठी में रह रही थीं वह किसी मुस्लिम परिवार की थी...
पट्टीदारों के बीच जायदाद को लेकर कई वर्ष मुकदमा चलता रहा।
नियम कानून के प्रति सजग दीदी कोठी का किराया नियमित रूप से
कचहरी में जमा करती रहीं। एक दिन अचानक अहमद आए थे। दीदी
स्वभावानुसार इतने सालों बाद उन्हें देखकर खुश हो गई थीं। कोठी
का मुकदमा वह जीत गए हैं, उन्होंने बताया था। दीदी जल्दी से
फ्रिज में से मिठाई निकाल लाई थीं। अहमद अपनी तंगहाली बयान
करते रहे थे...।” दसियों साल के इस मुकदमें में जेब एकदम खाली
हो चुकी है- उस पर तीन बेटियों की जि़म्मेदारी।” अहमद जल्दी ही
मुद्दे पर आ गए थे।” दीदी इस कोठी को गिरा कर बिल्डर को देना
चाहता हूँ।”
आदर्शवादी सोच की दीदी ने कोई रुकावट नहीं डाली थी। सुरेन्द्र
ने सुना था तो बौखला गए थे “ऐसे कैसे खाली कर देंगे। बुआ आप
मुझे उससे डील कर लेने दीजिए ...आप एकदम अलग हो जाइए। इतना बड़ा
कैम्पस खाली करने के नाम पर किराएदार पूरा पूरा फ्लोर ले रहे
हैं... लाखों रुपया ले रहे हैं। ’’
कौशल्या दी ने हाथ के इशारे से वर्जना की थी...।”सुरेन्द्र ऐसी
बातें मुझे पसंद नहीं... न मेरे सामने तुम ऐसी बकवास फिर करना
कभी। इस कोठी के सहारे हमारी और चन्दर जी की जिन्दगी इतने आराम
से कट गई। इतना बड़ा घर ..इतना बड़ा कम्पाउंड, बाग बगीचा, पाँच
पाँच सर्वेन्ट क्वाटर। उसके शुक्रगुज़ार होने के बजाय उसे
परेशान करें हम।”
दोनों के बीच कहा सुनी बढ़ती गयी थी। सुरेन्द्र ने लाचार क्रोध
मे दाँत किटकिटा लिए थे... वह धीमें से बड़बड़ाए थे... अपनी औलाद
होती तब देखते।”
पर दीदी ने सुन लिया था... वह क्रोध से फट पड़ी थीं...।” अपनी
औलाद होती तब भी उसे बेईमानी की कमाई दे कर न जाती मैं।”
सुरेन्द्र चले गए थे। शायद उन दोनों के संबंधों के ऊपर यह
आखिरी चोट थी। कभी कौशल्या दी सुरेन्द्र के पीछे दीवानी रहती
थीं... कभी ऐसा लगता था कि उनकी दुनिया सुरेन्द्र के ही चारों
तरफ घूमती है और सुरेन्द्र बुआ के चारों तरफ मंडराते रहते। हम
सब यही सोचते थे कि उनकी वृद्धावस्था सुरेन्द्र के पास ही
कटेगी। पर इधर कई सालों से दोनों के बीच दूरी आने लगी थी। मुझे
ठीक से नहीं पता कि दोनों के बीच क्या हुआ पर इतना ज़रुर जानती
हूँ कि सुरेन्द्र उनसे नाराज़ थे और दोनों के बीच अनकही दूरी आ
चुकी थी। हालांकि थोड़ा बहुत अनुमान लगा पाती हूँ कि कौशल्या दी
ने जो अपने दोनों हाथों से “चन्दर के घर के गहने उनके घर वालों
के बीच और मेरे घर के गहने मेरे घर वालों के बीच।” बाँटना शुरु
कर दिए थे...शायद उससे आहत थे सुरेन्द्र। भले ही उन को गहनों
का लालच न भी रहा हो पर इतना तो सच है कि उन्होंने सुरेन्द्र
को भी सारे लोगों के बीच बनी हुई पंक्ति में खड़ा करके अपने
संबंध को खास से आम का दर्जा दे दिया था। सुरेन्द्र का आहत
होना स्वाभाविक था।
मिसेज चौधरी कौशल्या दी की अच्छी मित्र थीं, उन्होंने समझाया
था उन्हें।” अपनी जिन्दगी में ही अपने हाथ ऐसे खाली मत करो
कौशल्या... न जाने कितनी लंबी जिन्दगी हो और न जाने कितनी
ज़रुरत पड़े। वैसे भी थोड़ा थोड़ा सबको देने के बजाय एक को वारिस
मान लोगी तो तुम्हारा मन भी नहीं भटकेगा इधर उधर और वह भी
तुम्हारे लिए जिम्मेदारी समझेगा...।”मगर अपने आदर्शों में
जिद्दी... हद दर्जे की अव्यवहारिक कौशल्या दी ने कुछ नहीं सुना
था...।” नहीं जी... मैं कौन हूँ कुछ सोचने वाली। मेरा क्या है
उसमें... मैं तो जिस तरफ से गहने मिले थे उसी तरफ के बच्चों
में बाँट दूँगी। और जब इन्हीं लोगों को जाना है तो अपने हाथ से
दे जाने की खुशी ही पा लूँ।” और घर की हर शादी में वे रिश्ते
की निकटता के हिसाब से हीरे पन्ने के सैट से लेकर भारी हल्की
सभी चीजें बाँटती चली गयी थीं। अन्त तक आते आते उनकी झोली लगभग
ख़ाली हो चुकी थी। उनके पास शरीर पर रहने वाले एकाध हीरे के
टाप्स, अँगूठियाँ और सोने की कुछ चूड़ियाँ और चाँदी के बर्तन
मात्र रह गए थे। चाँदी का काफी कुछ सामान राय साहब के बेटे बहू
के तद्नुरूप घर के रख रखाव को जुटाने में खर्च हो चुके थे।
अपने उन खुले हाथों से अपनी ऊँची हैसियत का भ्रम कब तक निबाह
सकती थीं वे। बहुत से खानदान वाले उनकी स्थिति समझने लगे थे
शायद... और शायद उनसे कतराने भी लगे थे।
कौशल्या दी घर खाली करने की तैयारी करने लगी थीं। मैंने पूछा
था। “दीदी अब कहाँ जाएँगी।”
“देखो। वे सोचने लगी थीं-। फिर उन्होंने आसमान की तरफ हाथ कर
दिए थे...। वही सोचेगा अब। उसी ने मेरी निभाई है अभी तक... आगे
भी निभायेगा ..’’ फिर हँसने लगी थीं...। “कोई इतना बुरा भी
नहीं किया उसने... अच्छा ही किया है।”
मैं परेशान होने लगी थी। वे आगे क्या करेंगी यह उन्हें स्पष्ट
ही नहीं था अभी तक। सगे संबंधियों में सब को पता चल चुका था कि
वह घर खाली कर रही हैं- शायद वह कहीं से निमंत्रण आने की
प्रतीक्षा कर रही थीं...। उन्होंने जो भी सोचा हो मुझे पता
नहीं। पर अन्ततः उनकी बड़ी नन्द के बेटे उन्हें जयपुर से आकर
सादर अपने साथ ले गए थे। आठ दस माह बाद पता चला था कि वह अपनी
दूसरी नन्द के बेटे के पास भोपाल चली गई थीं। बीच बीच में उनके
पत्र आते रहे थे- कभी कभी मैं उनसे फोन पर बात भी कर लेती थी।
दीपू की शादी में मैंने उन्हें बहुत आग्रह से बुलाया था...
उन्होंने आने का वायदा भी किया था पर आ नहीं सकी थीं...। शादी
के दो माह के भीतर ही विक्रम नहीं रहे।
सूचना पाते ही दीदी का फोन आया था... थोड़े थोड़े दिन के अन्तर
पर पत्र भी आते रहे थे।
एक दिन अचानक कौशल्या दी का फोन मिला था। वह सीधे मुद्दे पर आ
गई थीं...।” तुम्हारे पास आ रही हूँ वासंती... तुम्हारे ही पास
रहूँगी अब।” उन्हें शायद मेरे ऊपर भरोसा था इसलिए बिना कुछ
पूछे... बिना मुझे टटोले उन्होंने अपना निर्णय मुझे सुना दिया
था। कुछ क्षण को मैं कुछ समझ नहीं पाई थी। मैं हकला गई थी...।”
दीदी कब आ रही हैं आप।”
“एकदम फौरन...। कल चलना चाह रही हूँ।”
मैं हड़बड़ा गई थी।“नहीं दीदी...। मैं आजकल घर रेनोवेट करा रही
हूँ... पूरा घर उघड़ा पड़ा है। कमरों के खिड़की दरवाजे तक खुले
पड़े हैं। खड़े होने लायक जगह तक नहीं घर में। मैं खुद शाम को
अम्बिका के घर चली जाती हूँ।
उनका स्वर एकदम बुझ गया था .।“ अच्छा।” शाम को रोज की तरह
मज़दूरों को निबटा कर मैं अम्बिका के घर पहुँची थी। नहा धो कर
निकली तो चाय की ट्रे के साथ अम्बिका मेरे पास आ बैठी थी।”
क्या बात है बहुत थक गई हो।”
“नहीं’’ तब भी मैं अपने में ही उलझी रही थी।
‘‘तुमने भी माँ न जाने क्यों घर ठीक कराने का यह प्रोजेक्ट
अकेले अपने बूते पर छेड़ लिया। रिटायर हो कर थोड़े दिन चैन से
बैठतीं सो नहीं... उससे पहले ही यह आफत बैठा ली सिर पर। मैं
उसकी बात का कोई जवाब नहीं देती।” आज भोपाल से कौशल्या दी का
फोन आया था।
“अच्छा... कैसी हैं वह।”
मैं अम्बिका से निगाह बचाते हुए प्याले में चाय ढालने लगती
हूँ।” मेरे पास शिफ्ट करना चाहती हैं
“वह चौंक कर मेरी तरफ देखती हैं।”शिफ्ट करना चाहती हैं। मतलब
हमेशा के लिए आना चाहती हैं वे? ’’
मैं तब भी उसकी तरफ नहीं देखती।” शिफ्ट करने का मतलब हफ्ते दस
दिन के लिए तो आना नहीं होता न।
’’सो तो ठीक है माँ... तुमने हाँ तो नहीं कर दी कहीं।”
मैं हड़बड़ा जाती हूँ “मौसी ने मुँह खोल कर कहा है बेटा, मैं न
तो नहीं ही कर पाऊँगी”
कैसी बात कर रही हो माँ.- तुम्हारे पास कोई हैल्प नहीं- कोई
सुविधा नहीं। खुद बी.पी. और शुगर की पेशैन्ट हो। फिर जानती तो
हो मौसी की झक को। उनके सगे तो झेल नहीं पाते उनको।
साल दो साल में कभी चार छः दिन तुम्हारे पास आ कर रह जाती हैं
सो ठीक है। पर तुम्हारी इस हैल्थ और इस उम्र में इतनी बड़ी
जिम्मेवारी... इतना बड़ा बंधन। अब रिटायर हुयी हो- फुर्सत से
हो... पापा भी नहीं हैं अब... अपने बच्चों के पास रहो.. मामा
मौसी के पास जाओ.. तो अपने पैर में बेड़ी डाल कर बैठ जाओगी। सब
चाहते हैं तुम उनके पास आओ... रहो- पर सोचो माँ तुम कौशल्या
मौसी को तो साथ बाँध कर नहीं ले जा सकती न - न ही वे सबके पास
जा सकती हैं।
अम्बिका की कोई बात ग़लत नहीं... मैं उसकी किसी बात को काट नहीं
सकती... इसलिए मेरे पास कुछ जवाब देने के लिए है भी नहीं। पर
वह मेरी मजबूरी नहीं समझ रही.. मेरे नजरिए से स्थिति को नहीं
देखना चाह रही। वह तो आजकल घर कहीं बैठने की स्थिति में भी
नहीं है... नहीं तो मैं उन्हें आज ही आने के लिए रोक न पाती।
अम्बिका मुझे देखती रहती है।” माँ मुझे तुमसे बहुत डर लगता है।
अब बुढ़ापे में सब कामों से निबट कर थोड़े दिन चैन से बैठो.. तो
तुम-। कौशल्या मौसी से बहुत हमदर्दी है मुझे... बहुत दुख होता
है मुझे उनके लिए...। पर क्या किया जा सकता है।” वह थोड़ी देर
चुप रहती है।” फिर माँ यदि मौसी को बुला लिया तुमने तो हमारे
लिए तो वह घर बंन्द’’
मैं चौंक कर उसकी तरफ देखती हूँ ‘‘.. क्यों... तुम्हारे लिए घर
बंद क्यों हो जाएगा। ’’
“और नहीं तो क्या... सोचो, दो बैडरुम का तुम्हारा घर है। वैसे
भी तुम क्या सोचती हो कि मौसी एकदम अकेली आएँगी... उनके साथ
उनका सामान नहीं होगा, उनका ज़रुरी सामान भी और फालतू भी”।
गुड़िया की तरह सजा कर तुम अपना घर रखती हो फिर क्या मौसी से कह
पाओगी कि इतना रखिए और यह फेंक दीजिए।”
मैं उस रात सो नहीं सकी थी। सारी रात उधेड़ बुन में बीती थी।
फिर लगा था चलो अभी तो घर में काम ही लगा है। भगवान से मनाती
रही थी कि इस बीच में इस समस्या का समाधान ही कर दे।
क्या उससे पहले मैं उनके अन्त की कामना कर रही थी। नहीं ..।
पता नहीं।
दूसरे दिन मैं सबेरे - सबेरे मजदूरों के आने से पहले अपने घर आ
गई थी। पूरे दिन मुझे बेटे-बहू भाई बहनों के फोन आते रहे थे।
लगता है अम्बिका ने सभी से बात की है। तरह - तरह से हरेक का एक
ही सवाल और एक ही राय कि यह हिमाकत मत करना। सबने तरह तरह से
यह भी समझाया था कि वह कोई अकेले नहीं आएँगी। लखनऊ की हैं...
उनके साथ उनके रिश्तेदारों का, मित्रों का आना जाना होगा...
उनके साथ उनका बुढ़ापा आएगा... बीमारियाँ आएँगी, इन सबको झेलते
झेलते पस्त हो जाओगी। घर पर अकेले बैठे बैठे मैने कौशल्या दी
को लंबी सी चिटठी लिखी थी। उनको आने के लिए मैंने मना नहीं
लिखा था। यह भी लिखा था कि आज मेरी माँ जीवित होतीं तो मेरे
पास ही रहतीं....। पर साथ ही अपने साथ रहने की मुश्किलें भी
दबे छिपे तौर पर लिख दी थीं... उनकी लान के बड़े बड़े घरों में
रहने की आदत है और मेरा ऊपर की मंजिल पर दो बैडरुम का फ्लैट
है, जिसमें बाल्कनी तक नहीं है।
वह हमेशा नौकरों चाकरों के बीच में रही हैं पर मेरे पास तो
सुबह शाम आने वाली महरी धोबिन मात्र है। पर वह पत्र मैंने पूरा
नहीं किया था भेजने का तो सवाल ही नहीं है। उनको इस तरह के दो
तीन पत्र मैंने कुछ कुछ दिन के अन्तर पर ओैर लिखे थे... किन्तु
भेजे कभी नहीं...। रात को दीपू का फोन फिर आया था। झिझकते हुए
कहा था।” माँ मैं मौसी के छोटे जीवन की इच्छा नहीं कर रहा पर
तब भी सोचो अगर अपनी माँ और मौसी की तरह नब्बे पचान्वे साल जी
गईं तो क्या करोगी, कैसे करोगी। रात बिरात जरूरत पड़ गई तो किसे
बुलाओगी... कैसे मैनेज करोगी। हो सकता है कभी उनकी शु शु पाटी
तक कराने की नौबत आ जाए। इतनी बात तो कौशल्या मौसी को भी समझनी
चाहिए... उन्हें पता है तुम अकेली हो- बीमार हो।’’ वह थोड़ी देर
मुझसे इधर उधर की बात करता रहा था... किन्तु फोन रखने से पहले
फिर उसी विषय पर आ गया था। “माँ मैं मौसी के लिए इन्सैन्सिटिव
नहीं हो रहा... पर मौसी भी। ऐसे कैसे वह अपने बुढ़ापे के लिए
आखें मूँदे रहीं- कुछ प्लान ही नहीं किया।”
‘‘आईडियलिस्ट इंसान अपने लिए सोचता ही कहाँ है बेटा’’ दीपू
मेरी बात पूरी होने से पहले ही काट देता है-’’यह क्या बात
हुयी... फिर आईडियलिस्म कैसा। सोसायटी के लिए तो आदर्श समझ आता
है... ठीक है... पर लोगों के लिए - वह भी निकम्मे नालायक लोगों
के लिए... ऐसा भी आदर्श क्या कि इंसान खुद समाज पर बोझ बन
जाए’’
मैं सन्न रह जाती हूँ।
घर का काम जितने दिन को मैंने सोचा था उससे बहुत अधिक समय ले
रहा था। करीब तीन महीने बाद अनायास उनका फोन उस दिन मिला था। न
जाने क्यों मैं एकदम धक्क से रह गई थी। “लखनऊ आई हुयी हूँ।
कचहरी में अपना लाईफ सर्टिफिकेट देना है। बैंक के एक दो काम और
निबटाने हैं।”
“कब तक हैं आप यहाँ?” मैं अचानक पूछ बैठी थी और पूछ कर एकदम
खिसिया भी गई थी।
अगले सैटर्डे का रिजर्वेंशन है।”
मैंने एकदम हल्का महसूस किया था।“ मैं अभी आ रही हूँ आप से
मिलने, आप सुरेन्द्र के घर ही हैं न?”
’’हाँ’’। और कहाँ ठहरूँगी।” वह अजीब तरह से हँसी थीं।
मैं उन्हें हमेशा की तरह दो चार दिन के लिए अपने पास ले आई थी।
घर में काम अभी भी चल रहा है... पूरा घर ही अस्त व्यस्त है। बस
मैंने एक कमरे में फैले सामान के बीच लेटने बैठने की व्यवस्था
कर ली है।
मेरे मन पर से बहुत बड़ा बोझ थोड़ी देर के लिए हट गया था। अच्छा
हुआ दीदी ने अपनी आखों से मेरी बात के सच को देख लिया। उसके
बाद वह दो तीन रही थीं... दुनिया भर की बात चीत हम दोनों के
बीच होती रही थी... पर उस फोन के बारे में न उन्होंने ही मुझे
बुछ बताया था... न मैं ही पूछ पाई थी। कई बार मन आया था कि इधर
तीन महीनों में जो आधे अधूरे कई पत्र मैंने उन्हें लिखें हैं
वह उन्हें पढ़ने को दूँ। नहीं तो जो बातें उन्हें लिखी थीं वही
या उनमें से कुछ उनसे कहूँ। पर मैंने कुछ भी नहीं किया। ऐसा
लगा था जैसे उस विषय को लेकर वे मुझसे और मैं उनसे बचते से रहे
थे। आज अफसोस होता है कि मैंने उनसे बात क्यों नहीं की थी...।
घर मेरा था- मेरा जीवन था... सुविधा असुविधा भी मेरी थी...
कौशल्या दी से संबंध भी मेरा था। बच्चे और भाई बहन उस बीच में
कहाँ आते थे । भाई बहन कौशल्या दी से मेरी अंतरंगता को नहीं
समझ सकते थे- और बच्चे मुझसे एक पीढ़ी आगे- आज की सोच में पले
बढ़े। पर मुझसे वह चूक क्यों हो गई।
आज कौशल्या दी इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी कहानी लिखने बैठी
हूँ। सोचती हूँ कौन सा शीर्षक दूँगी इस कथा को। शायद मानिनी...
अभिमानिनी या कुछ ऐसा ही विशेषण सबसे उपयुक्त था उनके
व्यक्त्वि के। पर कहाँ? इस पिछले एक
वर्ष
में कितनी बार - कितनी तरह से कितना मान टूटा उनका मुझे नहीं
पता। आज सोचती हूँ पता नहीं क्या हुआ था उस दिन उनके साथ
...कुछ तो हुआ था जो उस दिन इस कदर हडबड़ा कर मुझे फोन किया था
उन्होंने। क्या पता किसी की किसी बात से बहुत अधिक आहत हुयी
हों वह ...क्या पता किसी ने अपमानित ही किया हो उन्हें। पता
नहीं कितनी घुटन कितना असहाय महसूस किया था उन्होंने ....शायद
सारे रास्ते बन्द देख कर ही फोन किया होगा उन्होंने मुझे। जाने
अनजाने मान तो मैंने भी भंग किया ही उनका। काश मैं समय को पीछे
लौटा पाती... अपने अपराध का प्रतिकार कर पाती...। काश...।
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