वर्षों ना - ना
करने के बाद शिवानी ने अंतत:
हाँ
कर दी थी। चालीस के क्रिटिकल मोड़ पर
हाँ !
चलो,
देर आयद दुरुस्त आयद।
पहली बार खुद को आईने के सामने खड़ा कर गौर से निहारा कुँवर
वीरेन्द्र प्रताप ने - दूधिया गोराई,
नुकीली नाक,
चौड़ा मस्तक,
लंबे कान! अंग-अंग सांचे में ढला हुआ- सुडौल और संतुलित। वैसे
कद तनिक और उँचा होता आँखें तनिक और नीली और नाक तनिक और नुकीली तो अच्छा होता।
पंजों के बल उचके,
उँगलियों से नाक को दबाया फिर आँखों को एक विशेष कोण से देखा
तो नीली नज़र आईं। खुश हो गए। उन्हें यकीन हो गया कि वे शुद्ध
आर्य नस्ल के हैं और हल्का-फुलका-सा जो भी विचलन है,
वह महज भौगोलिक है। अब रहीं पत्नी शिवानी,
तो उन्होंने खुद ही देख-सुनकर उनका चयन किया था। हजारों
में... न न ..... हजारों नहीं लाखों में एक। विशुद्ध आर्य कन्या! ऐसे में उनकी भावी संतान
का उनकी प्रत्याशाओं के अनुरूप न होने का सवाल ही पैदा नहीं
होता। यह सब सोचते हुए उन्होंने एक विजयी मुस्कान खुद के
अक्स पर उछाल कर आँखें मटकायीं और अँगूठा तानकर जीत का संकेत
देते हुए मगन मन पूछा -
कहो,
कब पधार रहे हो छोटे कुँवर साहब?
यह पहला दिन था।
फिर दूसरा .....
फिर तीसरा .....
जब से शिवानी ने उन्हें यह शुभ संदेश दिया था,
आईने के सामने खड़े होकर अपने भावी शिशु के रूप-रंग की कल्पना
करना उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया था।
वह अमेरिका के न्यू जर्सी इलाके में एक निजी फर्म के सी.ई.ओ.
थे। शिवानी वहीं किसी बैंक में थीं। काम-लायक कुछ दौलत इकट्ठी
हो गई तो वतन याद आया। और जब वतन याद आया तो वतन से दूर होने
की वजह से कुछ ज्यादा ही वतनपरस्त होते गये - इसकी प्राचीन
गरिमा,
इसकी संस्कृति,
भाषा आचार-विचार सब... तर्कों पर रीझते-सीझते खुद को एक मुकाम तक ले
ही आते और वह मुकाम होता - शुद्घ आर्य रक्त! आर्यों के बारे
में चर्चा करना,
उनका लिटरेचर जमा करना उनका प्रिय शगल बनता गया। हालांकि ऐसा
करते हुए कभी-कभी चीज़ें किसी निश्चित निष्कर्ष पर न पहुँच
पातीं,
गड्ड-मड्ड हो जातीं। कभी-कभी कन्फ्यूज हो जाते। इससे उबरने के
लिए इधर उन्होंने एक नया तरीका निकाला है। अब वे उपलब्ध
जानकारियों से छाँट-छाँट कर उन्हीं अंशों को रखते जो उनकी
स्थापनाओं से मेल खातीं, जो बहुत कुछ इस प्रकार की होतीं -
आर्य कहीं बाहर से नहीं आये थे। उनका मूल निवास भारत ही था -
सिन्धु घाटी के आस-पास पंजाब, हरियाणा राजस्थान तथा पश्चिमी
उत्तर प्रदेश। यहाँ से वे ईरान,
जर्मनी और शेष यूरोप में फैले। आर्य नस्लीय रूप से श्रेष्ठ
होते हैं,
श्रेष्ठ ही नहीं,
सर्वश्रेष्ठ! उनका ब्लडग्रुप सामान्यत: ए-पॉजिटिव होता है।
यह संज्ञान उन्हें आस-पास के लोगों से खुद को उँचा उठा देता।
अब अगर श्रेष्ठ हैं तो श्रेष्ठ दिखना भी चाहिए,
सो कीड़ों-मकोड़ों की तरह रेंगते अपने बदहाल रिश्तेदारों से
उन्होंने कब का किनारा कर लिया था।
"डॉक्टर
के पास चलें ?"
उन्होंने शिवानी से पूछा।
"तनिक
रुक जाओ। नवरात्र शुरू होने जा रहे हैं। रामनवमी को चलेंगे,
शुभ दिन है।"
पत्नी ने उत्तर दिया।
"ओ.के.
डार्लिंग।"
उन्होंने प्रशंसा भरी नजरों से पत्नी को देखा,
वैसे
तुम इस मायने में बहुत समझदार पत्नी हो। न जल्दबाजी की,
न देरी। पैसे कमाने की धुन में बच्चे के प्रस्ताव को हमेशा
टालती रही - इत्ती जल्दी बाल-बच्चों के बंधन में कैद होकर रह
जाना मुझे गवारा नहीं। फिर सही समय पर मान गयी। राइट थिंग्स
इन राइट ऑर्डर!
डॉक्टर ने थॉरो चेक-अप किया,
फिर मौन हो गये। कुछ बोलते क्यों नहीं?
एक-एक पल उन्हें एक-एक युग-सा भारी लग रहा था।
"क्यों
सब ठीक तो है डॉक्टर!"
उन्होंने डरते-डरते पूछा।
"वैसे
तो सब ठीक है,
बस जरा-सी दिक्कत है। ये दवाएँ लेते रहें,
वह भी दूर हो जानी चाहिए। तब तक वेट कीजिए।"
"पर
दिक्कत है क्या?"
"फेलोपियन
ट्यूब में हल्की-सी स्वेलिंग है।"
लेकिन दिक्कत दूर नहीं हुई। अगली बार डॉक्टर ने सैम्पल लेकर
बायप्सी के लिए भेज दिया और कहा,
"फेलोपियन
ट्यूब संकरी होती जाएगी,
फिर चोक्ड!"
क्या
कहते हैं संकरी...?
"हाँ,
बताया न एक गाँठ है,
अगर वह गल जाती तो... ! लेकिन.. "
"लेकिन
क्या?"
"देखिए
कोशिश तो कर रहे हैं,
मगर...
डॉक्टर ने रुककर उनकी आँखों में झाँकते हुए पूछा,
"एक
बात पूछूँ मिस्टर प्रताप,
आप गॉड में विश्वास रखते हैं?"
"बिल्कुल।"
"तो
प्रार्थना कीजिए और सब कुछ उस पर छोड़ दीजिए। अगर यह गाँठ गली
नहीं और मासिक रुक गया तो लंबे जटिल ट्रीटमेंट में जाना पड़ेगा
और फिर बायप्सी की रिपोर्ट तो है ही।"
चेहरे के रंग उड़ गए पति-पत्नी के।
उस दिन से नहा-धोकर
हनुमान
चालीसा,
संकट
मोचन
और रामचरितमानस
का पाठ शुरू किया उन्होंने। दिन पर दिन बीत रहे थे। घड़ी की
चुक-चुक पर चुक रहा था धैर्य - और एक दिन मानस की एक चौपाई पर
अटकने लगा पाठ -
एक दिवस भूपति मन माहीं,
भइ गलानि मोरे सुत नाहीं
हालाँकि सारी क्रियाएँ अपनी गति से चली रही थीं मगर यह चौपाई
एक दूसरी ही गाँठ बनकर उनके कंठ पर बैठ गई - अगर निःसंतान ही
रह गए तो...?
डॉक्टर ने कहा, "वैसे
तो ट्रीटमेंट चल ही रहा है,
पर आप रिस्क क्यों ले रहे हैं?
इसके पहले कि डिंब का आना बंद हो जाए,
आप दूसरे विकल्पों की ओर स्विच ओवर क्यों नहीं कर लेते?"
"दूसरे
विकल्प,
यानी...?"
"टेस्ट
ट्यूब थिरैपी!"
टेस्ट ट्यूब का नाम आते ही दंपति को साँप सूँघ गया। कभी सोचा
भी न था कि इसकी नौबत आयेगी।
"आप
चौंक क्यों गए टेस्ट ट्यूब बेबी के नाम पर?"
"मुझे
यह निहायत गलीज़ लगता है।"
"अरे
नहीं,
अब तो यह आम होता जा रहा है। वह बच्चा भी तो आपका और आपकी
मिसेज का ही होगा। फर्क सिर्फ इतना होगा कि वह पलेगा किसी और
की कोख में।"
किसी
और की कोख में?
किसी और की यानी कि...?
उन्हें अचानक ही कई चेहरे याद आये - मोलैटोज! भद्दे वर्णसंकर!
एक चेहरे के नीचे कितने-कितने चेहरे,
परत-दर-परत उकेरते जाइए,
अंत नहीं होगा कि मिलावट कहाँ तक गयी है,
बाप रे वे गंदी औरतें होंगी,
उनके बच्चे की सरोगेट मदर। उन नापाक,
गंदी कोखों में पलेगा उनका आर्यवंशीय छोटा कुँवर...?
डॉक्टर की आवाज़ पर उनका ध्यान टूटा,
"यहाँ
सरोगेट मदर्स बहुत ज्यादा चार्ज करती हैं,
आप क्यों नहीं अपने देश इंडिया चले जाते हैं - वहाँ सस्ती भी
हैं और शुद्ध भी। यहाँ से काफी लोग इण्डिया जाते हैं -
लाख-दो-लाख इण्डियन करेंसी हाथ पर रखिए,
और किसी कोख में अपना भ्रूण सुरक्षित रखकर हाथ झाड़ लीजिए।"
"ऐन्ड
ह्वाट एबाउट द बायप्सी टेस्ट रिजल्ट?"
"अरे
आप को बताया नहीं,
ओ सॉरी! अनफॉरचुनेटली रिजल्ट तो पॉजिटिव है।"
दंपति उदास हो गये।
डॉक्टर बोले,
"बट
डॉन्ट वरी। कैंसर का प्रारंभ है। जितनी जल्दी ट्रीटमेंट शुरू
कर देंगे,
उतनी जल्दी क्योर हो जायेंगी।"
तैरत
थकें थाह जनु पाई!
कुँवर वीरेन्द्र प्रताप के मन को थोड़ी राहत मिली। दो-दो
खबरें सुकूनदायी थीं,
एक तो शिवानी का कैंसर प्राइमरी स्टेज पर ही डिटेक्ट हो गया
और वह ठीक हो जाएगी दूसरे किराये की कोख से जो बच्चा डिटेस्ट हो गया होगा,
वह उन्हीं का होगा। इसे यूँ माना जा सकता है जैसे उनका छोटा
कुँवर कुछ दिनों के लिए बोर्डिंग में पढ़ने गया हो। बहुत दिनों
के बाद मुर्झाए चेहरे पर रौनक आयी। बहुत दिनों के बाद एक बार
फिर आईने के सामने खड़े हुए। उन्हें लगा,
कद तनिक छोटा होने लगा था,
नाक तनिक मोटी और आँखें तनिक ब्लैकिश! उन्होंने उचकते हुए
टीप-टाप कर इन्हें ठीक किया। हाँ,
अब ठीक है। वे आर्य हैं तो आर्य जैसा दिखना भी चाहिए।
पुत्र की कामना! अमेरिका में बसो या पुरखों की धरती भारत में,
एक बेटा तो चाहिए ही चाहिए। तर्पण कौन करेगा,
मुखाग्नि कौन देगा मरने पर?
चक्रवर्ती राजा दशरथ तक इस दु:ख से मुक्त न हो सके,
फिर उनकी क्या विसात!
अचानक एक नये अभिज्ञान पर वे चौंक उठे,
वहाँ भी संभवत: टेस्ट ट्यूब या ऐसी ही किसी वैज्ञानिक पद्धति
से पुत्र पैदा किए गए होंगे। राम,
लक्ष्मण भरत,
शत्रुघ्न ही नहीं,
हनुमान युधिष्ठिर,
अर्जुन,
भीम...... और भी कितने! अपना देश,
ज्ञान-विज्ञान में सदा से अग्रणी रहा है। हमने सिर तक
ट्रांसप्लांट किए हैं।
एज
तक ट्रांसफर की है,
मनी मैटर्स की तरह। ययाति... ! पश्चिम जो आज कर रहा है,
वह हमने कब का कर के रख दिया है - यह सब सोचते हुए उनका मन रूई
की तरह हलका होकर आकाश में उड़ने लगा। उन्होंने चटपट मुंबई के
गाइनोकोलोजिस्ट डॉक्टर मित्र प्रसाद से संपर्क किया। डॉक्टर
ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा -
"तुम
सारा कुछ मुझ पर छोड़ दो। भ्रूण भी मैं ही बनाऊँगा,
सरोगेट मदर भी मैं ही ढूँढ़ दूँगा और ट्रांस्प्लांट भी मैं
ही कर दूँगा। तुम बस इतना करो कि जितनी जल्दी हो,
भाभी को लेकर चले आओ। एक माह की छुट्टी लेकर मेरे पास। तुम
अपना काम करके ठाठ से जाकर बैठो अमेरिका में,यहाँ
किसी की कोख में पलता रहेगा तुम्हारा बच्चा। डेलीवरी पर आकर
ले जाना। उन्होंने
एक
फूल दो माली
का एक गीत अपनी भोंडी आवाज़ में पेश किया-
तुझे सूरज कहूँ या चंदा,
तुझे दीप कहूँ या तारा,
मेरा नाम करेगा रौशन,
जग में मेरा राजदुलारा"
कुँवर साहब को उनका भोंडापन भी पसन्द आया।
मुंबई पहुँचकर फिर परीक्षण-निरीक्षण का दौर-दौरा शुरू हुआ।
कुँवर साहब बार-बार घड़ी देख रहे थे।
"क्या
बात है,
कुछ परेशान-से लग रहे हैं,"
डॉक्टर ने पूछा।
"अरे
वो सरोगेट वाली औरत! तुम जानो,
सारा दारोमदार उसी पर है। अगर वो ऐरी-गैरी मिली तो यहाँ आना
ही बेकार हो जाएगा। यह सब तो वहाँ भी हो जाता,
प्राब्लम थी तो बस एक ही,
सरोगेट मदर की।
डॉक्टर ने सिर हिलाया और अंदर चले गए। थोड़ी देर बाद हाथ से
दस्ताने निकालते हुए बाहर आये,
बोले वो
रही तुम्हारी बेबी की सरोगेट मदर - देख लो।"
वीरेन्द्र दंपति ने उस औरत को देखा,
गोल चेहरा,
गोरा एक दो काली-काली चित्तियाँ,
चेहरे पर दीनता की झाँइयाँ... आयु
२५-३०
की लग रही थी।
"पसन्द
आयी?"
डॉक्टर ने धीरे से पूछा,
जैसे सरोगेट की नहीं शादी की बाबत पूछ रहे हों।
"यह
किस जाति की है?"
वीरेन्द्र प्रताप ने प्रतिप्रश्न किया।
"पानी पियो, पानी। जाति बाद में
पूछना। भाभी की जो हालत है, तुम वेट नहीं कर सकते।
तुम्हें तत्काल चाहिए थी। शुद्ध भी और सस्ती भी। तो बस
रिलैक्स करो। डॉक्टर ने कंधे दबाये, फकत दो लाख देने
हैं, दस लाख भी देते तो ऐसी
लड़की न मिलती इतनी जल्दी,
हाँ!..."
"नाम?"
"शेइला
!"
"ये
कैसा नाम है?
वे भीतर ही भीतर गुर्राये मगर प्रकटत: चुप रहे।
"औरत ने उठकर पति-पत्नी को प्रणाम किया।
"तुम
हमारे बच्चे की दूसरी माँ होगी।
वीरेन्द्र प्रताप ने कहा।
"जी...
?
जी!
औरत हकलायी।
"क्यों?
"औरत घबराकर डॉक्टर का मुँह देखने लगी।
"अरे
यार,
इसे पैसे की जरूरत है और क्या! इसका हसबैंड बीमार रहता है।
दवा करानी है।
"कौन-सी
बीमारी?
"लीवर
में कुछ प्रॉब्लम है! अब ये मत पूछना कि यह क्या बीमारी है,
कि छूत की तो नहीं है। यह सब पूछकर भड़का दोगे। बड़ी मुश्किल
से तैयार किया है इसे। अगर गरीब न होती और पति बीमार न होता तो
ऐसी औरत तैयार न होती इस काम के लिए...।"
"बस
एक बात और?"
"क्या?"
"इसका
थॉरो चेक अप कर लिया है?"
"हाँ,
हर तरह से फिट है।"
"बाल-बच्चे?"
"अभी
नहीं हैं।"
"चंद
एक सवाल और!"
"उफ,
तुम न! पूछ लो।"
"मेरा
बेटा हर तरह से सेफ तो रहेगा?"
"हंड्रेड
परसेंट!"
"कोई
ऑब्जेक्शन तो नहीं होगा इसके हसबैंड को?"
"उसी
के लिए तो लेगल फारमैलिटीज है। एक लाख अभी देना है,
एक लाख डेलीवरी के बाद बच्चा लेते समय।"
औरत में वीरेन्द्र दंपति का भ्रूण स्थापित करने के बाद डॉ.
प्रसाद ने कहा -
"अब
आप लोग हमारी तरफ से बेफिक्र होकर जाइए,
मिसेज का ट्रीटमेंट कराइए और वे स्वस्थ होकर बाकी एक लाख
देकर नौ महीने में आकर अपना बच्चा ले जायें।
डॉक्टर ने ऑर्डर ऐन्ड सप्लाई करने वाले एक कुशल बिजनेसमैन की
तरह मामले की विश्वसनीयता और उसकी शर्तें बता दीं।"
सृष्टि!
पुत्र जन्म! वंश-गरिमा का प्रतीक कुल दीपक! इतनी महत्वपूर्ण
बात को कितनी बाजारू,
भाषा में बोल रहा था डॉक्टर! गधा कहीं का!
उनका आर्यवंशीय रक्त उबाल खाते खाते बचा। वक्त वक्त की बात
है। हालात को देखकर इससे बेहतर कुछ और होना संभव भी न था। यह
सोचकर खुद को तसल्ली दी। दंपति अमेरिका लौट गए। शिवानी की
कीमोथिरेपी शुरू हुई। घर में
मानस, हनुमान
चालीसा,
संकट
मोचन
के साथ-साथ कुछ और प्रार्थनाएँ जुड़ गईं। फर्म प्रॉफिट की नई
बुलंदियाँ छलाँगने लगा था। डॉक्टर से अकसर हाल-हवाल मिल जाता
बेबी के ग्रोथ का। सब-कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। देखते-देखते नौ
महीने बीत चले।
निश्चित तिथि के एक सप्ताह पूर्व कुँवर दंपति अपना बच्चा
लेने मुंबई आ पहुँचा और दूसरे ही दिन नर्सिंग होम...!
"सब
कुछ ठीक-ठाक तो है डॉक्टर?"
कुँवर साहब ने आते ही सवाल किया।
"एकदम
ठीक-ठाक! एडमिट कर लिया है,
अभी घंटे-दो-घंटे में डेलीवरी हो जानी चाहिए।"
"लड़का
है या लड़की?"
उत्कंठा का ज्वार!
"बस
दो घंटे में पता चल जायेगा।"
"तुम
तो सोलहवीं शताब्दी की भाषा बोल रहे हो।
वे तिड़क उठे,
मैंने
जब-जब पूछा,
टालते रहे।"
"कौन-सी
भाषा सुनना चाहते हो?
मेल हो या फिमेल - इसमें तो न आप लोगों के लिए करने का कुछ बचा
था,
न मेरे लिए।"
"फिर
भी?"
"बेटी
है।"
"उफ!
कुँवर वीरेन्द्र प्रताप का मुँह जैसे असह्य वेदना से भर उठा।
आज
तक हमारे खानदान में बेटी नहीं हुई।
"बेटी
ही सही,
कहीं मुझे कुछ हो-हवा गया तो... मरने से पहले मैं अपने संतान
का मुँह देख लूँ बस्स।
शिवानी ने एक गंभीर आशंका से उनके विचलन पर लगाम लगायी।
घंटे भर में नर्सिंग होम में अंदर से इंटरकाम पर सूचना आ गयी।
डॉक्टर ने बनावटी मुस्कान चेहरे पर थोपते हुए कहा, बधाई
हो,
आइए,
अपनी बेटी को देख लीजिए।
नो!
नवजात शिशु को देखते ही कुँवर वीरेन्द्र प्रताप चीख उठे। वह
लाल माँस का एक भद्दा-सा लोथड़ा थी-
यह
तो काली है।
शिवानी को तो मूर्च्छा ही आ गई। दौड़ कर नर्सों ने सँभाला।
दोनों में से किसी ने भी उस औरत के चेहरे की ओर नहीं देखा
जिसने बेटी को जन्म दिया था।
एक
तो लड़की ऊपर से काली!
कुँवर साहब की कराह!
डॉक्टर ने जैसे कुछ सुना ही नहीं अपने कमरे में चले गए।
हेड नर्स आयी और व्यस्त कारोबारी भाव से बताने लगी,
"मिस्टर
प्रताप,
इस औरत को बाकी एक लाख देकर सात दिन बाद अपनी बेटी को ले जाइए।,
हम आपको कुछ प्रिकाशंस लिख देंगे। यू विल हैव टु फॉलो देम! सर,
वन लैक... "
"नो!
न मैं पैसे दूँगा,
न इस काली-कलूटी को ले जाऊँगा।"
"ऐसा
मत कीजिए सर। इसका हस्बैंड बीमार है।
बहुत
ही गरीब और नीडी है यह ज्यू औरत!"
"क्या
कहा ज्यू...
?
जैसे पाँव के नीचे बिच्छू आ गया हो। अंदर ही अंदर रो पड़े,
अभी
यह दिन भी देखना बाकी था,
मेरी बेटी,
पले यहूदी की कोख में!
पर प्रकटत: कुछ बोले नहीं।"
"सर
आप नाहक परेशान हो रहे हैं।
बेटी
तो सौ फीसदी आप ही दोनों की है,
इसने अपने कोख में इसे नौ माह रखकर अपना खून देकर इसे बड़ा भर
बनाया,
जिसे आना है वह तो आ चुकी,
इसे न हम लोग रोक सकते थे,
न आप लोग न ये औरत।
"यह
एक धोखा है,
सिर्फ एक धोखा! तुम्हें दूसरी कोई औरत नहीं मिली?
डॉक्टर लौट आये थे।"
"नहीं
मिली।"
डॉ. प्रसाद ने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया।
"लेकिन
ये हमारी बेटी हो ही कैसे सकती है?
मैं गोरा,
शिवानी गोरी... ना! यह दूसरे की संतान है।"
"तुमने
मेंडल साहब की लॉ पढ़ी होगी,
आनुवांशिकी की। तुम लोग गोरे हो तो तुम दोनों के मातृपक्ष या
पितृपक्ष में कोई काला रहा होगा।"
"हेल
टु युओर मेंडेल। मेरी और शिवानी की चौदह पीढि़यों में कोई काला
न था।
वे बरस पड़े।
उन्होंने आहत नजरों से बाहर देखा जैसे कोई काली बिल्ली उनका
रास्ता काट गई थी।"
कहानियों
के साथ अक्सर यूँ होता है कि आप उन्हें दफनाकर उनके ऊपर टनों
मिट्टी डाल कर निश्चिंत हो जाते हैं कि चलो किस्सा खत्म हुआ,
मगर एक दिन आप पाते हैं कि वर्षों बाद कहानी अपनी कब्र से
निकली आ रही है। वह बोलती है तो उसकी बातों से धूल झरती है,
ताकती है तो उसकी पलकों से...., चलती है तो उसकी चाल से...?
इस कहानी के साथ भी यही हुआ।
बारह वर्षों बाद...।
मुंबई के बाहरी क्षेत्र की एक मलिन यहूदी बस्ती! चारों ओर
गंदगी और विपन्नता का आलम! कुछ बच्चे एक गंदे नाले के बगल
में क्रिकेट खेल रहे थे कि बॉल नाले में गिरा और छींटे उस
अजनबी प्रौढ़ पर,
जो मलिन लोगों की मलिन बस्ती और छोटे लोगों के बीच कुछ सोचता
चला जा रहा था।
एक टपरे के सामने आ खड़ा होता है अजनबी। चौखट पर एक
चालीस-बयालीस की औरत सुई में धागा डालने की कोशिश में बेहाल
हुई जा रही है।
"आप...?
औरत ने मिचमिचाती आँखें उस पर टेक दीं।"
"मेरा
परिचय जानकर आप खुश नहीं होंगी।
आगंतुक तनिक ठिठका,
फिर बोला,
याद
है किन्हीं कुँवर वीरेन्द्र प्रताप की बेटी को सरोगेट मदर बनकर
आपने जन्म दिया था...। और उसने उस बेटी को ले जाने से इनकार
कर दिया था...?
डॉक्टर्स भी जिसे बाध्य नहीं कर पाए,
अदालतें भी... उसके पास पैसा था। तब का फरार मुजरिम आज खुद
सरेण्डर करने आया है।"
"लेकिन...।"
"मैं
वही कुँवर वीरेन्द्र प्रताप हूँ।"
"औरत ने गहरी साँस ली,
फिर सुई-धागे को प्लास्टिक बॉक्स में रख दिया।"
"मैं
अपनी उस भूल का प्रायश्चित करने आया हूँ - बेटी को ले जाने..."
वे ऐसे वक्ता थे जिनका कोई श्रोता न था,
मगर वे बोले जा रहे थे और उन्हें बोलते जाना था...
"ग्रोथ
दोनों तरफ हुआ मैडम - दोनों तरफ। इधर आपके आश्रय में मेरी बेटी
बड़ी होती रही,
उधर मेरी दौलत बढ़ती रही,
विधि का विधान। एक ग्रोथ मेरी पत्नी का भी था - कैंसर का
ग्रोथ! मैंने करोड़ों डालर कमाये मगर मेरी पत्नी शिवानी का
ग्रोथ ठीक नहीं हुआ। मैंने पैसा पानी की तरह बहाया मगर कैंसर ले ही गया उनको।
"बारह
साल पहले की बात! मैंने तब से संतान पाने के लिए तीन-तीन
शादियाँ कीं - तीन-तीन। दो जर्मन,
एक रशियन महिला से मगर कोई औरत मुझे संतान न दे सकी। फिर सवाल
गोद लेने का आया। मुझे किसिम-किसिम के लड़के दिखलाये गये,
लड़कियाँ भी। सुन्दर भी,
साधारण भी। मेरी अपनी बेटी अपने देश में मारी-मारी फिर रही है
और यहाँ मैं जाने किस-किस की जायज-नाजायज औलादों में अपने लिए
संतान चुन रहा हूँ। मुझ पर धिक्कार बरस रहे थे। मेरे अपने
कृत्य के लिए कोई क्षमा नहीं होनी चाहिए थी,
न हुई ही,
वे तनिक ठमके,
फिर बोले,
अब
रहा बदला!
वे इस अकेले शब्द के बोझ से इस कदर दबे हुए-से लगे कि हाँफने
लगे! बोले,
मगर
आपने बदला मेरी बेटी से लिया - यह ठीक नहीं किया।
उन्होंने टिशू पेपर से छींटों को साफ करने की कोशिश की,
फिर बुझे मन से बोले,
खैर
जो हुआ,
हुआ,
मैं अपने पाप का प्रायश्चित करने आया हूँ। मेरी बेटी मुझे वापस
कर दें चाहे जितनी चाहे,
उतनी कीमत ले लें। प्लीज मैडेम!
"मुझे
माफ करें,
सर,
मिस्टर...।"
वह अटक रही थी।
"कुँवर
वीरेन्द्र प्रताप..."
वीरेन्द्र प्रताप ने वाक्य पूरा किया।
"बदला!
वैसा गाली तो हमारा हसबैंड ने भी कभी नहीं दिया हमको। हम आप से
बदला ले रहा है?
थू!... और किस कीमत का बात करता आप?
इसका जो कीमत हमको चुकाना पड़ा है,
उससे भी ज्यादा...?"
वह दूर कहीं देख रही थी,
पर वास्तव में कुछ भी नहीं देख रही थी। उसके उदास चेहरे पर
कोई उदास मुस्कान खिल रही थी ज्यों घटाटोप अँधेरे में बादलों
के सुराख से कोई किरण झरे और धरती का एक छोटा-सा टुकड़ा झुलस
उठे... ऐसे कि देखकर डर लगे। वह धीरे-धीरे रुक-रुककर बोल रही
थी, शब्दों को खींच-खींचकर वाक्य पूरे कर रही थी, आपने तो
बाकी पैसा भी नहीं दिया,
बचने के लिए पुलिस को दो लाख दिया, लेकिन हमको नहीं! अपुन के
पास था - ई का? सिर्फ अपना खून! ओई खून दे-देकर पाला है बेटी
को। और आप कहते, बदला लिया! किस बदले का बात करते आप?
आप सेठ होगा पर अपन तो गरीब लोग। गरीब बस्ती दिया,
में जैसे-तैसे रहता हम लोग। घर नहीं,
पैसा नहीं,
रोजगार नहीं,
खाना नहीं,
कपड़ा नहीं,
स्कूल नहीं,
अस्पताल नहीं! जैसा-तैसा लाइफ बीतता। फिर भी बेटी को जितना बन
पड़ा अच्छा खिलाया,
अच्छा पहनाया,
अच्छा रखा और का करता?
आप बोलते,
बौत कीमत चुकाया आपने! कितना कीमत?
हमसे ज्यादा?
जिस बीमार हसबैंड के लिए हम सरोगेट बना,
वो भँड़वा भी नहीं बचा लेकिन जब तक जिन्दा रहा खून थूकता रहा,
नफरत थूकता रहा,
जो भी चीज हाथ में होता,
फेंक कर मारता - ये देखो,
ये देखो ये देखो...
उसने कंधे,
पीठ और जांघें उधेड़ दीं,
ऐसाइच
कितना दाग है। बोलता,
तू रंडी है। तेरे गंदे पैसे की दवाई से मैं कब्भी ठीक होने
वाला नहीं।
बोलते-बोलते वह हाँफने लगी। इस बीच उसको घेरने वाला मजमा और
घना हो गया था।
"हूँह
कीमत!
औरत ने दुबारा बोलना शुरू किया तो लगा वह बोल नहीं रही,
शब्दों को थूक रही है,
आपको
पता है,
हसबैंड के मर जाने के बाद अपुन का दोबारा शादी नहीं हुआ। सब
समझते,
इ तो रंडी है,
इसका का शादी?
फिर भी बर्तन,
झाड़ू-पोंछा करके किसी तरह पाला बेटी को। खुद का दवा नहीं करा
पाया। मुझको अब दिखलायी भी कम पड़ता है,
आँख गया,
जवानी गया,
जिंदगी गया लेकिन पूछो,
बेटी को कोई तकलीफ़ दिया... और आप कहते,
बदला लिया।"
"मुझे
माफ कर दे।
वीरेन्द्र प्रताप ढीले पड़े,
दरअसल
मेरे पास बहुत बड़ी प्रापर्टी है अमेरिका में और इस बेटी के
सिवा अपना कहने वाला कोई नहीं।"
आवाज भर्रा गई।
"हमारा
भी इस बेटी के सिवा अपना कहने वाला कोई नहीं।"
दोनो वाक्य टकराकर झनझना कर टूट गये थे और अब वहाँ एक गहरा
सन्नाटा था। थोड़ी देर बाद वह बोली,
"आपका
तो बहुत बड़ा प्रॉपर्टी भी है अपुन का तो प्रॉपर्टी भी येई है,
अपना कहने वाला भी कोई है तो येई... आगे-पीछे कोच्छ नहीं।"
"मैं
तुम्हें इतने पैसे दूँगा कि बाकी जिंदगी कोई तकलीफ नहीं होगी।
वे आप
की दूरी से
तुम
की नजदीकी पर उतर आए थे।"
"साहब,
आप ऊँचा खानदान का लोग,
पैसे वाला लोग और हम छोटा लोग,
कंगाल लोग! आप हम जैसा औरत को रानी बनाकर का कर लेगा?
हमारा बाकी भाई-बहन लोग तो अइसाइच है। बौत ई कमजोर लोग है हम,
बौत-ई...
उसने आधी बात कही और आधी बात उसके आँसुओं में लिबलिबा गई,
कीमत...?
हम आपका जैसा कोई सौदागर नहीं,
कौई सौदा नहीं। कोई एहसान नहीं किया हम किसी पर। बेटी था,
जिला कर बड़ा किया लेकिन आगे इसका फ्यूचर हम हों - ये हम नहीं
चाहते। उसका इच्छा
हो,
हम रोकेगा नहीं,
ले जाइए। हमारा बेटी सुख से रहे,
अपुन का गारत का जिन्दगी न जिये...।
उसकी आँख भर आई,
फिर उसने पुकारा,
लीजा ओ बेटा लीजा जरा सुनना तो।"
"सब
सुन लिया मॉम... "
"अरे
तेरा फादर लेने आया तुझको,
फिलिम में जैसा माफिक देखते,
वैसाइच! जा चली जा बेटी।"
"ना।"
लंबी ढीली नाइटी पहने एक किशोरी टपरे से बाहर आकर खड़ी हो गई।
उसका रंग काला था। कुँवर वीरेन्द्र प्रताप को लगा,
एक काली बिल्ली उनके सामने अँगड़ाई ले रही थी और उसके हर अंग
से,
हर भंगिमा से उनके लिए नकार और धिक्कार बरस रहा था। |