मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह- मित्रता दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है भारत से नीलमणि शर्मा की कहानी— ड्रैसिंग टेबल


“आ गया सारा सामान श्यामली का! कुछ छूटा तो नहीं !” ...शांतनु ने अपने बेटे से पूछा।

’’जी पापा... सब कुछ ले आया हूँ... माँ की विदाई में कोई कमी नहीं रहने देंगे!...आखिर माँ को जीते-जी जब कोई कमी नहीं होने दी...तो अब भला अंतिम यात्रा में क्यों रहे...!‘‘ सिद्धार्थ सुबकते हुए अपने पापा के गले लग गया।
उसकी पीठ पर सांत्वना भरा हाथ फेरते हुए शांतनु ने फिर पूछा-’’ड्रैसिंग टेबल कहाँ है...बाहर रखी है क्या...?‘‘

सिद्धार्थ बार-बार अपने आँसू पोंछता। फिर बह आते...अपने आँसुओं के बाँध को रोकने की असफल कोशिश करते हुए सिद्धार्थ ने बताया-‘‘पापा, ड्रैसिंग टेबल तो नहीं लाया...!’’

अपराधी-सा महसूस करता सिद्धार्थ अभी अपने बचाव में कुछ कहता कि अंदर औरतों की भीड़ में से उसकी दादी बाहर आ गई-‘‘मति भरष्ट हो गई दीखे तेरी, जो छोरे को डाँट रया है ऐसे बखत में...मैंने मना करी थी डिरेसिंग टेबल लाने को...भला क्या याँ शादी-बिया हो रया है जो तू डिरेसिंग टेबल के लिए सापा करे बैठा है...! चल... दिन छिपने को है जल्दी करो। ..नाँय तो सारी रात ऐसे ही बितानी पड़ेगी...कोई ना बैठे फिर याँ...!’’

कहती-कहती अम्मा फिर से वहाँ औरतों को पार करती हुई श्यामली की मृत देह के पास चल दी दहाड़ें मारती हुई-‘‘अरी, मेरी उमर थी जाने की ! भला...तू काहे को चली गई...!’’

दादी की बात से सिद्धार्थ को कुछ हिम्मत आई-‘‘पापा, बाकी सारा सामान तो ले आया हूँ...ये शीशा भी...!’’ लेकिन शांतनु की क्रोध से लाल आँखों को देखकर वह सहम गया !

‘‘फेंक आओ इस दो रुपये के शीशे को...!’’ बहुत धीरे-से बोलने के बावजूद उसकी आवाज चारों तरफ फैल गई।

‘‘शांतनु सदमा बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है...!’’ कोई बोला-’’कहीं ज्यादा देर सामने श्यामली भाभी का शव पड़ा रहा तो ऐसा न हो कि शांतनु भाई के दिमाग पर असर हो जाए...!’’

यह सब देख-सुनकर शांतनु की छोटी बहन और भाई उसके पास उठकर आए-‘‘भैया...शांत रहिए...भगवान की मर्जी के आगे कोई क्या कर सकता है ?...चलिए, भाभी को ले चलने की तैयारी कीजिए...बस यहीं तक का हमारा और उनका साथ था...!’’

‘‘नहीं...! श्यामली की विदाई इस घर से ड्रेसिंग टेबल के साथ ही होगी। जो लोग यहाँ बैठे थक गए हैं...या जिसे अपने किसी काम से जाना है...वह जा सकता है। किसी पर कोई भी दबाव नहीं है यहाँ बैठने के लिए...मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा...।’’

अजीब-सा असमंजस वाला माहौल बन गया। न उठते बनता था किसी से, न बैठते। गहमा-गहमी-सी छा गई।

‘‘श्यामली तो सदा ही सादा रहती थी। कभी बिंदी के अलावा किसी भी तरह के मेकअप में उसे नहीं देखा...फिर यह ड्रेसिंग टेबल की जिद क्या है...!‘‘
‘‘हाँ भैया...अब हमारी कौन सुने..., नए-नए चोंचले हैं सब...!’’ शांतनु की माँ अपना अलग-अलग राग अलापने लग गईं।
‘‘भैया...ये आप क्या कर रहे हैं...! अरे, बाद में दान कर देना कभी पंडितानी को भाभी का नाम करके...कौन-सा भाभी के साथ ही जाएगा ये ड्रेसिंग टेबल।’...
‘‘कमाल करते हो, भैया...जीते जी तो भाभी के पास ड्रेसिंग टेबल था नहीं और...!’’
‘‘इसीलिए तो...इसीलिए तो...!’’ कहते-कहते शांतनु स्वयं को सँभाल नहीं पाया।
बहन के कुछ भी समझ नहीं आया अेर फालतू में अपने दिमाग को चटकाती हुई वहाँ से सिर झटककर चल दी। तब तक सिद्धार्थ पुनः बाजार जा चुका था।
शांतनु वहीं सिर पकड़कर बैठ गया-ठीक दरवाजे के सामने, जहाँ अंदर श्यामली चिरनिद्रा में जमीन पर लेटी है-सोलह शृंगार किए...आँखें बंद किए, मानो शांतनु का इंतजार कर रही है-बिल्कुल उसी रात की तरह आज भी श्यामली उतनी ही सुंदर लग रही है...।

उसके रूप पर मोहित होकर शांतनु उस पर झुका ही था कि श्यामली चंचलता से हँस दी...हँसी की खनक ने शांतनु को चौंका दिया-काश, एक बार फिर श्यामली की हँसी गूँज जाए !

अम्मा के डर से सुबह जल्दी तैयार होकर श्यामली बाहर निकलने को ही थी कि शांतनु ने हाथ पकड़कर अपने पास खींच लिया। सास के आवाज लगाने पर अपना हाथ छुड़ाकर बाहर की ओर भागी।

‘‘अरे मैडम, बाहर जाने से पहले शीशे में खुद का मुआयना तो कर लो...!’’
‘‘शीशा तो अभी तक लगा नहीं, ऐसे ही बंद पड़ा है...आप ही बता दीजिए...!’’
‘‘तुम्हारी बिंदी...!’’
श्यामली सकुचा गई और हैंडबैग में से छोटा-सा शीशा निकालकर बिंदी ठीक की और चली गई।

छोटा-सा दो कमरों का घर, उसमें भी छोटा वाला कमरा-लगता था, जैसे स्टोर हो- शांतनु और श्यामली को सोने के लिए दिया गया था...मात्र सोने के लिए ! सिर्फ डबल बैड रखने लायक ही जगह थी कमरे में... इसीलिए किसी भी अतिरिक्त सामान के लिए पहले ही मना कर दिया गया था श्यामली के घर वालों को...! दीवार में ही एक अलमारी थी सामान रखने के लिए, जिसे पुरानी साड़ी का पर्दा बनाकर ढक दिया गया था। एक साइड खिड़की थी, जिसके सामने पलंग बिछाया गया था। एक तरफ एक के ऊपर एक पुराने जमाने के दो-तीन संदूक पड़े थे, कोई जगह ही नहीं थी, जहाँ श्यामली के घर से आया बड़ा सा शीशा लगाया जा सके।
रात होते ही श्यामली ने शीशा लगाने की बात की तो शांतनु चुप नहीं रह सका-‘‘पहले ही बता दिया था कि जगह नहीं है...फिर इतना लंबा-चौड़ा शीशा लाने की क्या जरूरत थी!’’

शादी के दूसरे ही दिन शांतनु का इस तरह का व्यवहार श्यामली को अप्रत्याशित लगा...उसी के साथ शांतनु को भी तुरंत अपनी गलती का अहसास हुआ...बात वहीं खत्म हुई।

दिन बीतते गए...एक महीना हो गया था शादी को। श्यामली की छुट्टियाँ समाप्त हो गईं। शांतनु तो शादी के दस दिन बाद से ही आफिस जाने लगा था। सुबह जल्दी-जल्दी काम निपटा कर श्यामली आफिस को तैयार होकर घर से निकलने को थी कि उसकी ऊँची साड़ी के लिए शांतनु ने उसे टोक दिया। पीछे से अम्मा और छोटी ननद खिलखिलाकर हँस पड़ी थीं। बिना कुछ बोले झटपट साड़ी दोबारा बाँधकर वह निकल ली थी शांतनु के पीछे बैठकर।

रास्ते में उसने कहा-‘‘इससे तो अच्छा था, मैं ड्रैसिंग टेबल ले आती...पापा ने जगह की कमी के कारण शीशा दिया लेकिन यहाँ तो शीशे के लिए भी जगह नहीं है।’’
उसके बाद भी श्यामली ने कई बार कहा-‘‘जगह तो अपने हाथ में नहीं है लेकिन अगर कोने में शीशे के पास लाइट का इंतजाम हो जाता तो...!’’

पर बरसों-बरस बीत गए न तो शीशे को लगाने की जगह मिली खड़े होने को और न ही वहाँ लाइट लगी चेहरा देखने को।

श्यामली को धीरे-धीरे आदत हो गई...वैसे भी कौन उसे सोलह शृंगार करने होते हैं! ...ले-देकर बस एक सिंदूर की बिंदी लगाने का शौक था...टेढ़ी-मेढ़ी होने के डर से वह भी चिपकाने वाली लगानी शुरू कर दी। काटन की साड़ियाँ भी तो कितनी शौक से लाई थी, लेकिन सब शौक जगह और समय ने धीरे-धीरे समाप्त कर दिए।

अब अफसोस करने से क्या फायदा...! शांतनु ने लंबी साँस लेकर इधर-उधर ताका। अभी तक सिद्धार्थ लौटा नहीं था। महिलाओं का रुदन भी अब बातचीत में बदल चुका था। सामाजिक लोकलाज के कारण कोई भी वहाँ से हिला नहीं था...या शायद ड्रेसिंग टेबल वाली अंतिम यात्रा देखने की चाह में...! कौन कह सकता है!

वैसे तो श्यामली स्वयं ही इतनी मिलनसार थी कि अपने व्यवहार से अनजान को भी अपना बना ले। अपने दफ्तर में भी बहुत लोकप्रिय थी...तभी तो बाहर आफिस के लोगों का जमावड़ा लगा हुआ है। हर समय हँसते रहना, हर काम को खुशी-खुशी करना, उल्लसित रहना ही उसकी खासियत थी। वह एक अकेली ही घर-बाहर सँभाल लेती थी...।

घर में शांतनु के छोटे भाई की शादी की तैयारियाँ चल रही थीं। छत पर कमरा बनवाया गया। सीधी-सरल श्यामली ने कभी शिकायत नहीं की कि नीचे के दो कमरों के बराबर ऊपर एक कमरा बन रहा है...जबकि श्यामली के वेतन को अम्मा अपने हिसाब से ही खर्च करतीं...!

आज शांतनु मन ही मन स्वीकर कर रहा है कि श्यामली के चुप रहकर सब कुछ सहन करने का सभी ने नाजायज फायदा उठाया है स्वयं शांतनु ने भी तो...।
ऊपर कमरे में एक पार्टीशन डालकर छोटा-सा स्टोर बना दिया गया। अब श्यामली के कमरे में कुछ जगह हो गई थी। देवर की शादी से पहले श्यामली के मन में बरसों बाद एक बार फिर ड्रेसिंग टेबल लाने की इच्छा हो आई...पर अपने हाथ में इतने पैसे कहाँ ?...

अम्मा ने सुनते ही हंगामा कर दिया-‘‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना ! अरे, इतना ही शौक था तो बाप के घर से क्यों ना ले आई !’’ और उस दिन के बाद ड्रेसिंग टेबल हमेशा के लिए कहीं दफन हो गया।

शादी के पंद्रह साल बीत गए। इस बीच श्यामली एक बेटे और एक बेटी की माँ बन गई। श्यामली की अपनी गृहस्थी हो गई थी...अब उसे हर चीज के लिए सास का मुँह टापने की जरूरत नहीं थी। बेशक अब भी वह अपनी कमाई आफिस से घर तक लाने तक ही उसकी मालकिन होती थी...घर आकर सिर्फ तनख्वाह लेने वाले हाथ बदले थे...देने वाले नहीं। लेकिन हिम्मत करके, जैसे-तैसे ही सही, ड्रेसिंग टेबल का आर्डर दे दिया गया।

दरवाजे की घंटी बजी। ‘ड्रेसिंग टेबल आ गई...!’ बच्चों की तरह उछलती-कूदती शोर मचाती श्यामली भूल गई कि वह दो किशोर बच्चों की माँ है।

मजदूरों के जाने के बाद चहकते हुए अभी उसका रैपिंग पेपर खोलती ही कि कमरे के दरवाजे पर अम्मा ने आवाज दी-‘‘अरे वाह, शांतनु ! बड़ी फिकर की तूने बहना की...फर्नीचर भी मंगाना शुरू कर दिया ! हाँ...वैसे भी अब दिन ही कित्ते हैं ब्याह में ! और वो डबल बैड और सोफा भी तो आवेगा...टी.वी. तो छोटा ला देगा। फ्रिज तो तेरे मामा देंगे भात में...यहाँ मेरे पास एक ही तो कमरा है...फिर इसे उधर ही क्यों न रखवा दिया...!’’ और भी पता नहीं, अम्मा क्या-क्या बोलती रहीं लेकिन श्यामली को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

उनके जाने के बाद श्यामली की इच्छा नहीं हुई उसे खोलकर देखने की। और इस तरह वह पैक का पैक ही आरती के साथ चला गया।

‘‘एक ही तो कमरा है !...हाँ, एक कमरे वालों को ड्रेसिंग टेबल रखने का अधिकार नहीं होता ! शायद खुद खरीदकर भी ड्रेसिंग टेबल नहीं लाई जाती...यह तो मायके से मिलने वाली चीज है...!’ इतने सालों में इस घर में श्यामली ने यही निचोड़ निकाला है। लेकिन हाँ, इस घटना के बाद शांतनु में अप्रत्याशित परिवर्तन आ गया था। फिर भी वह श्यामली की भावनाओं की तह तक पहुँच पाने में असमर्थ रहा।

कहते हैं, वक्त सदा एक-सा नहीं रहता। श्यामली की जिंदगी में भी वक्त ने करवट ली। एक कमरे में अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी गुजारने वाली भगवान की कृपा से आज चार कमरों के बड़े से मकान की मालकिन थी।

सोचा... अब अपना शादी के समय का बड़ा शीशा ऐसे फिट करवाएगी कि उसके ऊपर ही लाइट का कनेक्शन होगा और नीचे दराजों वाला एक स्टूल कारपेंटर से बनवा लेगी। एक शीशा उस शीशे के सामने भी होगा ताकि आगे पीछे का अच्छी तरह स्वयं को निहार सके। सच कितना अच्छा लगता है जब वह पार्लर में अपना पीछे का अक्स भी निहारती है ! ...जब कभी कहीं बाहर घूमने जाते हैं तो वहाँ होटल के कमरों में लगे खूबसूरत शीशे में तैयार होने में कितना मजा आता है !...बेशक श्यामली कुछ मेकअप नहीं करती...उसे जरूरत भी नहीं है...फिर भी...खुद को पूर्ण रूप से निहारना कितना आनंददायक अनुभव है...!

लेकिन हाय री किस्मत...! बीस साल पुराना शीशा जो अब तक बेकदरी से पड़ा रहा...जब कदर करने के दिन आए तो कील पर टाँगते ही नीचे गिर गया और चूर-चूर हो गया...श्यामली के सपनों की तरह।

ड्रेसिंग टेबल कोई इतनी कीमती वस्तु तो नहीं थी जो इन बीस वर्षों में खरीदी नहीं जा सकती थी। लेकिन चीज को खरीदने के लिए उसकी कीमत नहीं, महत्ता ही महत्वपूर्ण होती है। वह इतना तो कमाती ही थी कि अपनी यह छोटी-सी इच्छा पूरी कर सके, परंतु हर बार उसकी महत्ता छोटी पड़ती रही...कभी किसी कारण तो कभी किसी कारण। इतनी बार यह ड्रेसिंग टेबल की चाह प्रकट कर चुकी थी, अब वह चाहती थी कि कोई कहे कि बस अब और कुछ नहीं...पहले इस घर में ड्रेसिंग टेबल आएगी। वह कैसे सबकी कही-अनकही इच्छाओं का ध्यान रखती है !

वक्त गुजरता जा रहा था। सब कुछ सामान्य ही था...लेकिन हर सुबह तैयार होते समय ड्रेसिंग टेबल की कसक गाहे-बगाहे उसके मन में टीस छोड़ ही जाती।
शांतनु उसकी टीस तब तक नहीं समझ सका...और जब समझा तो बहुत देर हो चुकी थी। सोचते-सोचते शांतनु की आँखों से आँसू बह निकले। आँसू पोंछकर बेचैन-सा अपनी जगह से उठ गया अेर बाहर झाँकते हुए स्वयं ही बड़बड़ाने गला-‘‘पता नहीं, कहाँ रह गया सिद्धार्थ...अब तक तो आ जाना चाहिए था...!’ और वहीं सारे सामान के साथ बैठ गया।

...समय पंख लगाकर उड़ रहा था। देखते-देखते श्यामली की बेटी शादी लायक हो गई। अच्छा घर-बार देखकर शांतनु और श्यामली ने उसका रिश्ता पक्का कर दिया। श्यामली ने शांतनु के आगे स्पष्ट कर दिया-‘‘और जो कुछ भी सामान दो, लेकिन ड्रेसिंग टेबल जरूर जाएगा।’’

शांतनु ने सारा फर्नीचर आर्डर पर बनवाया था। रात को उसने श्यामली को बताया कि उसने दो ड्रेसिंग टेबल का आर्डर दे दिया है। ‘‘क्यों ?’’
‘‘तुम्हारी बहुत दिनों से इच्छा थी...सोचा, लगे हाथ तुम्हारे लिए भी...!’’
इतना सुनते ही श्यामली का मन बल्लियों उछल गया...बेटी के बहाने ही सही...बरसों की साध तो पूरी हो जाएगी।

शायद...नहीं...शायद नहीं, निश्चित ही उसकी किस्मत में इतनी छोटी-खुशी नहीं लिखी थी। शादी से दो ही दिन पहले, फर्नीचर हाउस के मालिक विजयेंद्र ने फोन पर बताया-‘सर, एक रोड एक्सीडेंट में मेरे पिता और छोटी बहन की मृत्यु हो गई और उसी कार में बैठी मेरी माँ और मेरा दस साल का बेटा गंभीर रूप से घायल अस्पताल में हैं। बेटी की शादी, इज्जत का सवाल है अतः मैं जैसे-तैसे करके उसका फर्नीचर तैयार करवाकर भिजवा रहा हूँ। ...दूसरी ड्रेसिंग टेबल भी जल्दी ही कोशिश करूँगा...वह तो अपको अपने घर के लिए ही चाहिए न...!’

अब ऐसे में भला शांतनु क्या कहता ! उसकी भलमनसाहत से गद्गद होकर उसने कहा-‘कोई बात नहीं, आप पहले अपनी माताजी और बच्चे को सँभालिए।’
बेटी विदा हो गई। श्यामली एक बार फिर ड्रेसिंग टेबल के लिए तरसती रह गई।
अभी बेटी की शादी को महीना भर ही बीता होगा कि बेटे सिद्धार्थ ने एक लड़की को अपनी माँ से मिलवाया। साधारण घर की पढ़ी-लिखी, सुशील-सुंदर बहू और सबसे बड़ी बात-बेटे की पसंद, और क्या चाहिए !...श्यामली और शांतनु दोनों ने अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।

श्यामली के पाँव जमीन पर नहीं रहे थे। बेटी के ब्याह के डेढ़ महीने बाद ही बहू के रूप में दूसरी बेटी से उसका घर एक बार फिर जीवंत जो हो गया था। सुबह बहू के गृह प्रवेश के बाद श्यामली को एक क्षण की फुर्सत नहीं थी। तभी फोन की घंटी बजी। फोन शांतनु ने उठाया-‘मैं आकार फर्नीचर हाउस का मालिक विजयेंद्र बोल रहा हूँ...! सर...आपने जो दूसरे ड्रेसिंग टेबल का आर्डर दिया था, वह तैयार हो गया है। कुछ ही देर में आपके घर पहुँच जाएगा। देरी के लिए मैं एक बार फिर आपसे माफी माँगता हूँ।’

शांतनु इस खुशी में उसकी माताजी और बच्चे का हाल पूछना भी भूल गया। वास्तव में वह और श्यामली दोनों ड्रेसिंग टेबल वाली बात भूल चुके थे...यह भी कि उसने उसकी एडवांस पेमेंट कर रखी है...याद रखने की फुर्सत भी कहाँ मिली थी दोनों को !... कितनी खुश होगी श्यामली !...इस सोच से ही शांतनु मन ही मन खुश था।

बहू का सारा सामान रखा जा चुका था। सिद्धार्थ बार-बार श्यामली को आवाज दे रहा था। घर की सेटिंग आज तक श्यामली ही करती आई है...उसने कोई इंटीरियर का कोर्स तो नहीं किया पर पता नहीं कैसे हर चीज को करीने से एडजस्ट कर देती है।...

शादी-ब्याह के घर में दरवाजे अक्सर खुले ही रहते हैं...सो खुले दरवाजे के बाहर एक छोटी-सी साइकिल रिक्शा रुकी। दो मजदूर उस पर से ड्रेसिंग टेबल उतारकर सीधे घर के भीतर चले आए। शांतनु वहीं आँगन में कुर्सी डालकर बैठा था। श्यामली बहू के कमरे की सैटिंग का जायजा लेने उसके कमरे में थी।

‘‘ठीक है न, माँ !...पलंग इस दीवार के साथ सही है न...और अलमारी मैंने दूसरी अलमारी के साथ उधर...!’’ सिद्धार्थ अपने किए हुए काम की शाबाशी के लिए अपनी माँ की आर देख रहा था।
‘‘हाँ...ठीक है...!’’

अभी कुछ और बात आगे बढ़ती तभी शांतनु ने बाहर से आवाज दे दी-‘‘श्यामली...जल्दी आओ...।’’ और दो ही मिनट में कम से कम चार आवाजें दे दीं।

शांतनु को प्यार से झिड़कती हुई बाहर आई-‘‘आप भी बस ! अरे, एक आवाज देकर साँस तो लो। सिद्धार्थ के कमरे की सैटिंग देख रही थी...।’’
‘‘अच्छा-अच्छा...बेटे का कमरा बाद में सैट करना ! देखो, तुम्हारे लिए क्या आया है!’’
‘‘मेरे लिए !...बताओ क्या है !’’ तब तक श्यामली का ध्यान पीछे की तरफ गया ही नहीं था। शांतनु ने उसके दोनों कंधे पकड़कर पीछे की तरफ घुमाया। ‘ड्रेसिंग टेबल...!’ श्यामली की आँखों में आँसू भर आए...मुँह से कुछ बोल नहीं फूटे...। नए-नए बेटी-दामाद और बहू-बेटे का लिहाज था, नहीं तो दौड़कर शांतनु के सीने से लग जाती। वह ड्रेसिंग टेबल को कुछ क्षण निहारती रही, फिर उसकी एक-एक दराज खोलकर देखी-शीशे से थोड़ा रैपिंग पेपर खिसकाकर शीशे में अपनी झलक देखी...आगे-पीछे प्यार से धीरे-धीरे उसको सहलाने लगी...फिर अचानक ही सिद्धार्थ को आवाज दी-
‘‘बेटा...यह ड्रेसिंग टेबल बहू के कमरे में रखवा दो।’’
‘‘श्यामली, यह क्या कह रही हो !’ शांतनु हैरान-सा उसे देखने लगा।
सिद्धार्थ ने भी कहा-’’ नहीं माँ...यह तो मंजुश्री के घर से नहीं आया।’’
‘‘घर से नहीं आया !...क्या मतलब है इस बात का? ...क्या जरूरी है कि उसके घर से ही आएगा तभी उसके कमरे में ड्रेसिंग टेबल रखा जाएगा !...नहीं बेटा...यह उसकी जरूरत है। ...सास की तरफ से बहू की मुँह दिखाई है यह।
चल मजदूरों को बता दे...ले चल इसे अंदर।’’

उनके जाने के बाद पीछे खड़े शांतनु ने उसके कंधे पर हाथ रखा और वह भावुक होकर उसके सीने पर टिक गई।

शांतनु ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसने मन ही दृढ़ निश्चय किया कि चाहे जो भी हो...श्यामली को उसकी ही पसंद का...एक बढ़िया-सा ड्रेसिंग टेबल उसके जन्म-दिन पर उपहार में देना ही है। लेकिन हाय रे मध्यम वर्ग !...इस बीच बेटी के पाँव भारी हो गए और उसका सामान देने के चक्कर में ड्रेसिंग टेबल फिर कहीं पिछड़ गया।

‘अगले महीने हमारी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह है...मैं उसी दिन श्यामली को वह गिफ्ट दूँगा !’ ऐसा शांतनु का प्लान था।
एनीवर्सरी से दो दिन पहले ही शांतनु श्यामली को एक बहुत ही आलीशान क्सासिक फर्नीचर शो रूम में ले गया।
‘‘इतनी महँगी ड्रेसिंग टेबल !...न बाबा...मुझे नहीं चाहिए।’’
‘‘महँगे, सस्ते की चिंता तुम मत करो...जितना लंबा तुम्हारा इंतजार है...उतनी महँगी तो कोई ड्रेसिंग टेबल यहाँ नहीं है...इसलिए बस तुम पसंद करो !...कीमत मत देखो।’’
और आखिर एक बहुत ही खूबसूरत ड्रेसिंग टेबल, जिसकी कीमत शांतनु के मना करने के बाद भी श्यामली पूछने से बाज नहीं आई, पसंद आई...पसंद क्या आई, श्यामली का मानो उस पर दिल ही आ गया।
शांतनु ने उसे ठीक दो दिन बाद अपने घर भेजने का आर्डर दे दिया।
‘‘दो दिन बाद क्यों...आज ही क्यों नहीं...जब पैसे भी दे दिए...।’’
‘‘नहीं, आज नहीं, ये तुम्हारे लिए मेरी ओर से हमारी शादी की सिल्वर जुबली का गिफ्ट है, सो यह तुम्हें परसों शाम को ही मिलेगा।’’

शांतनु को क्या पता कि श्यामली इस तरह अचानक उसे छोड़कर चली जाएगी। कितनी भयंकर सर्दी पड़ रही थी! पिछले एक हफ्ते से रजाई...हीटर सब कुछ के बाद भी ठंड जाती ही नहीं थी। ऐसे में...कल रात साढ़े तीन बजे...श्यामली ने रजाई उठाकर फेंक दी। ...वह पसीने-पसीने हो रही थी।...हीटर बंद किया...सारी खिड़कियाँ खोलकर भी उसे चैन नहीं था। ...पंखा चलाया। ...ठंड लगने पर शांतनु की नींद खुली।...श्यामली की हालत देखकर शांतनु घबरा गया।
‘‘सिद्धार्थ...सिद्धार्थ...बेटा, जल्दी से डाक्टर को बुलाओ !’’ शांतनु चीख पड़ा।
‘‘पापा, डाक्टर का इस समय इंतजार करने से अच्छा है, मैं गाड़ी निकालता हूँ...माँ को हास्पिटल ले चलते हैं इमरजैंसी में...।’
घर से अस्पताल की दूरी मात्र पंद्रह मिनट भी नहीं थी लेकिन श्यामली वह भी पार न कर सकी।

शांतनु रात का वह दृश्य याद कर बेचैन हो उठा। श्यामली का सिर उसकी गोद में था। ‘‘बड़े भागों वाली हूँ मैं...पति की गोदी में सिर रखकर इस संसार से जाने का सुख कितनों को नसीब होता है...!’’ श्यामली के अंतिम शब्द यही थे।

लेकिन शांतनु...! वह तो जड़ जो चुका था।
शांतनु की लाल आँखें रुलाई को रोक पाने में असमर्थ होती जा रही थीं। आज ही तो उसकी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह है...आज ही तो शाम को उसका ड्रेसिंग टेबल आने वाला था...शांतनु को पश्चाताप की अग्नि जलाए जा रही है...पच्चीस सालों में अपनी पत्नी की एक छोटी-सी इच्छा पूरी न कर सका...जबकि वह तन-मन-धन से शांतनु और उसके घर के लिए समर्पित रही। उस दिन वह कह भी रही थी कि आज ही ले चलो !...हाय...मैं उसी दिन क्यों न ले आया...कम से कम एक बार तो वह उसमें अपने को निहार पाती !

‘सिद्धार्थ को बोला था कि उसी दुकान पर जाकर वही ड्रेसिंग टेबल लाना है।...सब कुछ तैयार होगा।...शाम को तो दुकानदार से भेजने की बात हुई ही थी, दो-चार घंटे पहले भेजने में उसे क्या परेशानी हो सकती है?...फिर भी सिद्धार्थ अभी तक क्यों नहीं लाया...अब तो उसे गए भी बहुत देर हो चुकी है !’...सोचते हुए शांतनु ने अपनी जेब से फोन निकाला। तभी सिद्धार्थ की बाइक रुकी और उसके पीछे-पीछे वही ड्रेसिंग टेबल...साइकिल रिक्शा पर।

लोगों ने पहली बार चिता की अग्नि पर शव के साथ ड्रेसिंग टेबल को जलते देखा।

तभी अचानक तेज बौछार पड़ने लगी। सब बचने के लिए ठिकाना ढूँढ रहे हैं। लेकिन शांतनु वहीं खड़ा है-अचल-अविकल। वह जानता है, यह बरखा नहीं है...ड्रेसिंग टेबल पाने से मिली खुशी के कारण श्यामली की आँखों के आँसू हैं। वह इनमें डूब जाना चाहता है...।

११ नवंबर २०१३

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।