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					 कड़ाके 
					की हड्डी गला देने वाली ठंडी पड़ रही थी, और साथ ही साथ थोड़ा 
					थोड़ा कुहरा भी छाया हुआ था। धूप अभी निकलने की कोशिश ही कर 
					रही थी, लेकिन इन सब की परवाह न करते हुए रोज की ही भाँति 
					बब्बा का कौड़ा (लकड़ी का अलाव) जल चुका था। वैसे मैं रोज 
					बब्बा के जागने के बाद ही जागता था, इसलिये मुझे कभी पता नहीं 
					चला की ये कौड़ा बब्बा कब जलाते हैं और कौड़ा जलाने के लिये 
					इतनी ढेर सारी लकड़ी कहाँ से लाते हैं। लेकिन इतना पता था की 
					सूरज की पहली किरण निकलने से पहले गोशाला के पास में कौड़ा जल 
					जाता था और गाँव के सभी बूढ़े आ जाते थे। 
 जब मैं जगा तो गाँव के ५-६ बूढ़े पहले से ही बब्बा के पास पुआल 
					पर आसन जमा के बैठे थे और हुक्के की गुड़ गुड़ के साथ सर्दी की 
					सुबह वाली चाय का आनंद ले रहे थे। आज चर्चा का विषय ये था कि 
					चरखे पर किसके गन्ने की पेरेन होगी और किसका गुड़ बनेगा। गाँव 
					में सभी लोग मिल बाँट कर काम करते हैं, तो एक ही चरखे पर बारी 
					बारी से सब अपना गन्ना पेर लेते हैं। वैसे भी हमारे गाँव में 
					सिर्फ घर के इस्तेमाल भर का ही गन्ना लोग उगाते थे इसलिये 
					एक-दो दिन में ही एक खेत गन्ने की पेराई हो जाती थी।
 
 खैर मुझे इन सब मामलों में कोई बहुत रुचि नहीं थी, वैसे भी ६ 
					साल के बच्चे को इन सब मामलों में रुचि रहनी भी नहीं चाहिए। 
					गाँव से कोई १ किलोमीटर की दूरी पर के एक स्कूल में मैं पढ़ने 
					जाता था। बाकि बच्चों के विपरीत मुझे स्कूल जाना बहुत अच्छा 
					लगता था और साथ ही मुझे किसी ने सिखा दिया था की हमेशा नहा के 
					स्कूल जाना चाहिए। तो ठंडी पड़े, कुहरा पड़े, ओले पड़े लेकिन 
					मैं रोज सुबह सुबह दुदहिया बाल्टी लेकर दालान के पास लगे 
					सरकारी नल पर नहाने पहुँच जाता था। दुदहिया बाल्टी वह थी 
					जिसमें बब्बा दूध दुहते थे, ये बाल्टी बाकी बाल्टियों की 
					अपेक्षा छोटी थी और चूँकि मैं भी बहुत छोटा था और बड़ी बाल्टी 
					उठा नहीं पता था, इसलिये मैं हमेशा दुदहिया बाल्टी ही इस्तेमाल 
					करता था। अब कायदे से नहाना तो मुझे आज तक नहीं आया तो बचपन 
					में मैं तो क्या ही नहाता होऊँगा। आधा पानी मेरे ऊपर गिरता था, 
					आधा नल के चबूतरे के पास लगे छोटे से नीम के पेड़ पर।
 
 हर दिन की तरह आज भी जैसे ही जाड़े की गुगुनी धूप बढ़ी मैं नहा 
					धो कर आ गया। सिर पर ढेर सारा सरसों का तेल चुपड़ा, और खाने के 
					लिये बैठ गया। ठंडी के दिनों में अक्सर सबेरे खिचड़ी बनती थी। 
					ठंडी का दिन हो और सुबह सुबह आलू मटर की खिचड़ी मिल जाये तो 
					क्या कहने, और मैं तो जब तक दो-तीन चम्मच घी न डलवा लूँ खिचड़ी 
					में तब तक हाथ भी नहीं लगता था। यादवों के घर में पैदा होने से 
					ये एक फायदा तो हुआ था, बाकी किसी चीज की चाहे जितनी कमी हो 
					लेकिन दूध दही घी की कमी कभी नहीं रही। मैंने खिचड़ी खायी और 
					फिर बब्बा के पास जाकर बैठ गया। अब तक धूप भी अच्छे तरह निकल 
					आई थी।
 
 बब्बा मेरे दादा जी थे। बब्बा को घर में सभी लोग, चाहे वो बड़ा 
					हो या छोटा, बब्बा ही कहते थे। मेरे पापा भी बब्बा को बब्बा 
					कहते थे और मैं भी बब्बा को बब्बा कहता था। घर के बहार उनका 
					दूसरा नाम था, सब उन्हें प्रधान कह के बुलाते थे। वो पहले १० 
					साल तक गाँव के प्रधान रह चुके थे, और इसलिये उनका नाम प्रधान 
					पड़ गया था, पूरा गाँव उन्हें प्रधान के नाम से ही जनता था। बस 
					चिठ्ठी के ऊपर प्रधान लिख दो चिठ्ठी अपने आप हमारे ही घर 
					पहुँचेगी, भले ही वो फिर वर्तमान प्रधान की ही क्यों न हो। 
					बब्बा को मैंने हमेशा सफ़ेद धोती कुरते में देखा था और उनके 
					साथ हमेशा एक बाँस की छड़ी रहती थी। शादी ब्याह में या किसी 
					खास मौके पर बब्बा कुरते के ऊपर एक जैकेट भी पहनते थे और बाँस 
					की साधारण छड़ी की जगह शहर से मँगाई हुई एक महँगी छड़ी का 
					इस्तेमाल करते थे। वैसे तो बब्बा घर पर हुक्का ही पीते थे 
					लेकिन उनके साथ हमेशा बीडी का एक बंडल रहता था। पूर्व प्रधान 
					होने की वजह से या किसी और वजह से ये तो मुझे पता नहीं, लेकिन 
					बब्बा का पूरा गाँव बहुत सम्मान करता था।
 
 स्कूल गाँव से काफ़ी दूरी पर था, इसलिये मैं अकेले नहीं जाता 
					था, मेरे साथ मेरा पक्का दोस्त रमेश भी जाता था। रमेश मेरी ही 
					उमर का था। मेरे विपरीत पढाई लिखाई में उसकी बिलकुल भी रुचि 
					नहीं थी, लेकिन खेल कूद में उसका कोई सानी नहीं था। स्लेट 
					रंगने के विभिन्न तरीकों से लेकर गाँव के बाहर पीपल और गूलर के 
					पेड़ों पर विराजमान भूतों के बारे में उसको पूरा ज्ञान था, और 
					ये ज्ञान वह मुझे मौका मिलने पर देता रहता था। साइकिल का टायर 
					दौड़ाने में वह हमारी बाल मंडली का चैंपियन था।
 
 जैसे जैसे सूरज चढ़ा, बब्बा की मंडली भी धीरे धीरे विसर्जित हो 
					गयी और बब्बा भी खेत में जाने कि तैयारी करने लगे। मैं भी अपना 
					झोला स्लेट लेकर रमेश के घर पहुँच गया। रमेश को स्कूल जाने के 
					लिये किसी तैयारी कि जरूरत नहीं होती थी। वह जिस हाल में रहता 
					था उसी हाल में अपना स्लेट लेकर स्कूल के लिये निकल लेता था, 
					वैसे भी पढ़ाई उसे करनी नहीं होती थी। मैंने एक दो बार 
					रमेश-रमेश आवाज़ दी और रमेश स्लेट लेकर हाजिर हो गया। हम दोनो 
					हरे हरे मटर के खेतों में दो नन्हे खरगोशों कि भाँति उछालते 
					कूदते स्कूल के लिये निकाल दिये।
 
 हम स्कूल पहुँचे तो काफी बच्चे पहले से आ चुके थे। मैडम जी भी 
					आ गयी थीं। कक्षा एक और दो को एक ही मैडम सबेरे से लेकर शाम तक 
					अकेले पढ़ाती थी। पढ़ाती तो क्या थीं, यूँ कहिये कि टाइम पास 
					करती थीं। वैसे भी गाँव के उजड्ड देहाती बच्चों को दिन भर रोके 
					रखना ही अपने आप में एक बहुत महान कार्य था। नीम के पेड़ के 
					नीचे जमीन पर हमारी क्लास लगती थी, और बगल में ही एक बहुत बड़ी 
					तलैया थी। क्लास में बैठने के लिये सबको अपना अपना कुछ जुगाड़ 
					लेकर आना पड़ता था। अमूमन बच्चे खाद या बीज इत्यादि कि बोरी 
					साथ में बैठने के लिये लाते थे और रमेश जैसे कुछ बच्चे वो 
					तकल्लुफ उठाने कि भी जहमत नहीं उठते थे और कोई ईंट का टुकड़ा 
					उठा कर उसी पर बैठ जाते थे।
 
 स्कूल खत्म होते होते मैडम ने उन बच्चों कि लिस्ट बताईं 
					जिन्होंने अभी तक इस महीने की फीस जमा नहीं की थी और साथ ही ये 
					भी बताया कि फीस न जमा करने पर नाम भी कट सकता है। इस लिस्ट 
					में मेरा और रमेश दोनों का नाम था। रमेश को कोई फर्क नहीं 
					पड़ता था, उसका तो मैडम को भी नहीं पता चलता था कि कब नाम कटा 
					हुआ है और कब लिखा हुआ। लेकिन मेरे साथ ये पहली बार ऐसा हुआ 
					था, मेरी फीस बब्बा समय रहते गाँव के किसी ना किसी आदमी के हाथ 
					भिजवा देते थे। मुझे न जाने क्यूँ डर लगा कि अगर मैंने कल तक 
					फीस जमा नहीं करी तो मेरा नाम कट जायेगा, इसलिये नाम कटने की 
					शर्मिंदगी से बचने के लिये मैंने फैसला किया की मैं आज ही शाम 
					को बब्बा से फीस माँग कर झोले में रख लूँगा और कल जमा कर 
					दूँगा।
 
 स्कूल में छुट्टी की घंटी बजते ही सभी बच्चे भेड़ के झुण्ड की 
					तरह निकले और अपने अपने रास्तों पर इधर उधर फैल गए। हमारे 
					स्कूल से घर के रास्ते में एक कुआँ पड़ता था। पुराने ज़माने 
					में जब पम्पिंग मशीन नहीं आई थी तब सिंचाई या तो नहरों से होती 
					थी, या तो कुओं पर पुराहट (ट्यूबवेल) चला कर, इसलिये ५-६ खेत 
					बाद एक न एक कुआँ दिख ही जाता था। हम जैसे ही कुएँ के पास 
					पहुँचे रमेश ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकते हुए कहा -
 “अबे रुक, एक चीज दिखता हूँ ”
 “क्या है? गाँव चल के दिखा देना, अभी देरी हो गयी तो माँ 
					पीटेंगी।”
 “अबे तुझे तो हमेशा ही देरी लगी रहती है, थोडा देर रुक के चलते 
					हैं” इतना कहकर उसने जेब से लाल पीले रंग की चमकदार चीज निकली 
					और कहा-
 “ये देख।”
 “ये क्या है?”
 “लट्टू"
 “यार देखने में तो बड़ा मस्त है। इसे चला के दिखाओ।”
 “हाँ हाँ दिखाते हैं, दिखाते हैं, धीरज रखो" रमेश ने भाव खाते 
					हुए अकड़कर कहा और दूसरी जेब से डोरी निकली, फिर बड़े इत्मीनान 
					से डोरी को लट्टू की कील से शुरू करके चारों और कई बार लपेटा। 
					मैं बड़े कुतूहल के साथ सब देख रहा था।
 “राजा अब देखो मजा। एक-दो-तीन" गिनकर रमेश ने झटके के साथ 
					लट्टू फेंका और लट्टू जमीन पर गिरते ही तेजी के साथ गोल गोल 
					घूमने लगा।
 
 बचपन में हमें हर गोल गोल घूमने वली चीज से प्यार होता है। फिर 
					चाहे वो हवा से चलने वाली चरखी हो या स्प्रिंग से घूमने वाले 
					नचौने। रंग बिरंगा गोल-गोल लट्टू देख कर मेरा मन मोहित हो गया।
 
 “यार रमेश ये तो बड़ा मस्त है।”
 “क्या कहा था मैंने?” रमेश ने गर्व से कहा। फिर तो अगले आधे 
					घंटे रमेश ने अपनी लट्टू कला का भरपूर प्रदर्शन किया। कभी जमीन 
					पर नचाता था तो कभी कुएँ के चबूतरे पर। कभी जमीन पर नचा कर हाथ 
					में उठा लेता था तो कभी सीधे हवा में ही फेंककर हथेली पर लैंड 
					करा लेता था। लट्टू रमेश के इशारों पर नाच रहा था। मैं तो देख 
					कर मंत्रमुग्ध हो गया।
 
 “कब तुमने ख़रीदा और कब सीख भी लिया ?" लट्टू की चमक से जान 
					पड़ता था कि एकदम नया है, मैंने अपनी शंका निवारण के लिये 
					पूछा।
 “भैया का चुरा के सीख लिया था, ये वाला तो कल ही ख़रीदा बाजार 
					से एकदम नया नया।"
 फिर उसने लट्टू का और बखान किया "देखो रंग भी कितना मस्त है, 
					लाल और पीला। हरे रंग का भी था, लेकिन वो पसंद नहीं आया मुझे। 
					छूकर देखो कितना चिकना भी है। इसकी कील भी बहुत मजबूत है, कभी 
					टूटेगा नहीं लट्टू मेरा।”
 
 आप नयी चीज खरीदते हैं तो आपको लगता है की सामने वाला भी उसकी 
					तारीफ करे। उसी तारीफ की लालसा में रमेश मुझे लट्टू से जुड़ी 
					छोटी से छोटी चीज मजे से बता रहा था। और मैंने भी तारीफ करने 
					में कोई कसर नहीं छोडी। वैसे लट्टू था भी बहुत शानदार, और रमेश 
					ने जिस कुशलता के साथ उसका प्रदर्शन किया था, उसके बाद तो उस 
					लट्टू की तारीफ न करना खुद की अज्ञानता का परिचय देना था।
 
 “मुझे भी चलाने दो"
 “अबे कभी चलाया है?”
 “नहीं।”
 “फिर टूट गया तो?” मैंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया।
 उसने थोडा देर सोचा फिर कहा, “अच्छा ठीक है, अभी तो ये नया है 
					तो मैं अभी नहीं दूँगा, लेकिन तुम इसे कल सबेरे चला सकते हो, 
					सिर्फ हमारी पक्की दोस्ती की खातिर।”
 
 बचपन में, बचपन में ही क्या मैंने तो बड़े होने पर भी देखा है, 
					दोस्ती चाहे जितनी गहरी हो, कोई भी नयी चीज बिना एक बार खुद 
					इस्तेमाल किये दोस्त को देने का मन नहीं करता है। एकदम नयी नयी 
					शर्ट आप कभी दोस्त को नहीं देंगे, एक बार पहनने के बाद भले ही 
					आप जिंदगी भर के लिये दे दें।
 
 लेकिन मैं कल सुबह के वायदे से भी बहुत खुश था, फीस वीस सब मैं 
					भूल चुका था, अब मेरे दिमाग में सिर्फ लट्टू घूम रहा था, आज को 
					रात बड़ी लंबी होने वाली थी।
 
 रात भर मुझे लट्टू के ही सपने आते रहे। कभी मैं विशालकाय लाल 
					पीले रंग के लट्टू पर बैठा लट्टू के साथ नाच रहा हूँ तो कभी 
					लट्टू के ढेर में तैर रहा हूँ। कभी कोई राक्षस मेरा सोने का 
					लट्टू छीन कर अठ्ठाहास करता हुआ भगा जाता है तो कभी स्कूल के 
					पास वाले तालाब में मेरा लट्टू खो गया है और मैं उसे ढूँढ रहा 
					हूँ। कभी लगा लट्टू आकाश में उड़ा जा रहा है और उसके पीछे मैं 
					भी उड़ा जा रहा हूँ।
 
 किसी तरह रात बीती और सबेरा हुआ। रोज की भाँति नहा धो कर मैं 
					जैसे ही बब्बा के पास गया मुझे फीस की याद आ गयी। मैंने बब्बा 
					से फीस माँगी तो बब्बा ने कहा की किसी के हाथों भिजवा देंगे और 
					मुझे उसके लिये परेशान होने की जरूरत नहीं है। लेकिन पता नहीं 
					मुझे क्या हो गया, मैं नहीं माना और बब्बा से फीस के पैसे लेकर 
					ही उठा। फीस लेकर, खाकर मैं रमेश के घर आज आधे घंटे पहले ही 
					पहुँच गया, ताकि लट्टू नचाने के लिये थोड़ा समय मिले मुझे।
 
 रमेश के घर पहुँचा तो देखा रमेश मजे से गन्ना चूस रहा है, मुझे 
					देखकर बोला - “इतनी जल्दी क्यों आ गए? नौ बज गए क्या?”
 “नहीं अभी नहीं, लेकिन आज थोडा जल्दी चलेंगे, मुझे लट्टू भी तो 
					नाचना है।”
 मेरा ये बोलना था की रमेश ने मुँह पर उँगली रखकर मुझे चुप रहने 
					का इशारा करते हुए फुसफुसाकर कहा -
 “अबे तुम मरवाओगे। यहाँ ये सब बातें नहीं करो, अभी भैया ने सुन 
					लिया तो खाल उधेड़ के भूसा भर देंगे।”
 “फिर कहाँ नचाएँगे ?”
 “वहीं कल वाली जगह, कुएँ के पास। तुम थोड़ी देर रुको मैं कुछ 
					खा के आता हूँ। वैसे भी तुम्हें न जाने लट्टू का कौन सा भूत 
					सवार है जो तुम आधा घंटा पहले ही आ धमके।”
 
 मरता क्या न करता, वहीं खटिया पर बैठ कर इन्तजार किया। थोड़ी 
					देर में रमेश अपनी स्लेट लेकर आ गया।
 
 कुएँ के पास पहुँच कर मैंने कहा - “अब दो मुझे।”
 “हाँ हाँ इतने अधीर क्यों हो रहे हो, देते हैं ना। ” कहकर रमेश 
					ने जेब से लट्टू और डोरी निकली और मुझे दे दिया। ऐसे देखने में 
					तो लट्टू नचाना बड़ा आसान लगता था, लेकिन जब मैंने कोशिश की तो 
					पता चला कि इतना आसान काम नहीं है। मेरी कई कोशिशों के बावजूद 
					लट्टू नहीं नाचा, कभी डोरी हाथ से फिसल जाती थी, तो कभी लट्टू 
					कील के बल गिरने के बजाय उल्टा गिर जाता था।
 
 हारकर मैंने रमेश से सिखाने को कहा, रमेश ने बड़े इत्मीनान से 
					लट्टू नचाने की कला का बारीकी से वर्णन किया। किस तरह से डोरी 
					लपेटनी है, किस तरह से लट्टू को हाथ में पकड़ना है, और कितनी 
					तेजी से किस कोण पर हवा में फेंकना है सब कुछ बताया।
 
 ट्रेनिंग लेकर मैंने फिर से कोशिश की, लेकिन ढाक के वही तीन 
					पात, लट्टू फिर भी नहीं नाचा। फिर मेरे नन्हें दिमाग में एक 
					ख्याल कौंधा, मुझे लगा कि शायद मैं अगर जमीन की बजाय कुएँ की 
					पक्की जगत (चबूतरा) पर कोशिश करूँ तो कुछ काम बन जाये। हम 
					दोनों चबूतरे पर चढ़ गए और फिर से डोरी लपेट कर मैंने लट्टू 
					हवा में उछाला। इस बार लट्टू जैसे ही पक्के चबूतरे पर गिरा, 
					तेजी से नाचने लगा। मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। रमेश 
					भी खुश हुआ की चलो सिखाना कुछ काम तो आया। हम दोनों चबूतरे पर 
					खुशी के मारे उछालने लगे।
 
 लेकिन ये खुशी बहुत देर नहीं रही, लट्टू नाचते हुए कुएँ के और 
					करीब पहुँच गया। मैं और रमेश लट्टू की ओर लपके, लेकिन इससे 
					पहले की हम कुछ कर पाते, लट्टू हमारी आँखों के सामने कुएँ में 
					गिर गया। मुझे लगा की लकड़ी का लट्टू तो डूबेगा नहीं, लेकिन 
					शायद लोहे की कील की वजह से पानी में गिरते ही लट्टू दुपुक की 
					आवाज के साथ डूबकर रसातल की ओर चला गया।
 
 
 मुझे काटो तो खून नहीं, लगा कि पैर जम गए हैं और चबूतरे में 
					धँसे से जा रहे हैं, दिल की धड़कन तो लट्टू के चबूतरे का किनारा 
					छोडते ही रुक गयी थी। दिमाग एकदम खाली हो गया, कुछ सूझना बंद 
					हो गया। रमेश कुछ देर तक तो कुएँ में ही देखता रह गया, शायद 
					उसे समझने में थोड़ी देर लगी कि लट्टू डूब गया है। फिर वो 
					चबूतरे से नीचे कूदा और जमीन पर पैर पटक पटक कर रोने- चिल्लाने 
					लगा।
 
 रमेश रोता जा रहा था और मेरा लट्टू डुबा दिया, मेरा लट्टू डुबा 
					दिया चिल्लाता जा रहा था। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या 
					करूँ। थोड़ी देर बाद जब रमेश रो, चिल्ला कर थक गया तो उसने 
					मुझसे कहा - “मेरा लट्टू वापस करो”
 “लेकिन वो तो डूब गया है” मैंने मासूमियत से कहा, मानो उसे ये 
					बात पता नहीं हो।
 “वो मुझे नहीं पता, मुझे मेरा लट्टू वापस चाहिये।”
 “मैं कहाँ से लाकर दूँ, दोस्ती की खातिर मुझे माफ कर दे।” 
					मैंने दोस्ती की दुहाई देकर रमेश को पटाने की कोशिश की।
 रमेश ने थोड़ी देर सोचा भी, लेकिन उसे उस समय लट्टू की अहमियत 
					दोस्ती से कहीं ज्यादा दिख रही थी। “नहीं, दोस्ती-वोस्ती नहीं 
					पाता मुझे। मुझे मेरा लट्टू दो, नहीं तो लट्टू के पैसे दो”
 
 पैसे का नाम सुनते ही मुझे याद आया कि फीस के पैसे मेरी जेब 
					में पड़े थे, पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगा कि रमेश को ये बात 
					पता चल गयी है, और इसीलिये वह पैसे माँग रहा है और मैं किसी भी 
					हालत में फीस के पैसे उसे नहीं दे सकता था। मैं शर्ट की जेब पर 
					हाथ रखकर वहाँ से भागा, लेकिन जैसा कि मैं पहले भी बता चुका 
					हूँ कि रमेश को खेल-कूद में कोई नहीं हरा सकता था, उसने मुझे 
					दौड़कर थोड़ी ही देर में धर दबोचा और मेरे पैसे छीन कर भागा। 
					मैंने थोड़ी देर तक उसका पीछा किया लेकिन उसकी तेज चाल के आगे 
					मेरी एक न चली और वह थोड़ी ही देर में नज़रों से ओझल हो गया। 
					मैं कुएँ के पास वापस आकर चबूतरे से टेक लेकर फूट फूट कर रोने 
					लगा।
 
 मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ। मेरे पैसे रमेश छीन 
					कर भाग चुका था, और वो भी कोई आम पैसे नहीं थे, फीस के पैसे 
					थे। ये बात बब्बा को पता लगी तो मेरी खैर नहीं थी। और कहीं 
					गलती से ये पता लग गया कि पैसे कैसे गए हैं तब तो और खैर नहीं 
					थी। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं होने के कारण पैसों 
					की बहुत अहमियत थी, वैसे भी एक किसान के घर में एक एक पैसे का 
					हिसाब रखा जाता है, तब पर भी पूरा नहीं पड़ता है।
 
 पैसे वापस मिलना भी संभव नहीं था, अब तक तो रमेश ने उन पैसों 
					से दूसरा लट्टू खरीद लिया होगा। अभी तो मैं स्कूल भी नहीं जा 
					सकता था। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं स्कूल गया तो मैडम फीस के 
					बारे में जरूर पूछेंगी और फीस नहीं मिलने पर मेरा नाम आज ही कट 
					जायेगा।
 
 बब्बा की नजर में मैं बहुत अच्छा लड़का था, पढ़ने में बहुत 
					होशियार, बड़ों का सम्मान करना, सभी काम समय से खतम करना जैसे 
					आदर्श बालक के सभी गुण मेरे अंदर थे। और इन सब का बब्बा सभी के 
					सामने बहुत बखान भी करते थे और गाँव के बाकी लड़कों, बड़े क्या 
					छोटे क्या, को मेरी मिसाल दिया करते थे। मुझे लगा कि अब मैं 
					बब्बा की नज़रों में गिर जाऊँगा।
 
 ऐसे ही कई विचार, जिनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था, 
					मेरे दिमाग में आने लगे। जब आप छोटे होते हैं तब आपकी दुनिया 
					बहुत सीमित होती है। घर, परिवार, स्कूल, दोस्त यही सब आपकी 
					दुनिया होती है, और इस दुनिया में थोडा सा असंतुलन आते ही आपका 
					बाल मन सोचता है कि अब सब खतम हो गया। मेरी भी हालत वही थी, 
					अंततः मार खाने और नाम कटाने से बचने के लिये मैंने मन बनाया 
					कि मैं भाग जाऊँगा। मैंने सुन रखा था कि बगल वाले गाँव के पास 
					जो बाजार है, उसके बाहर से जो सड़क जाती है उस पर इलाहबाद जाने 
					की बस मिलती है। वहाँ जाकर क्या करूँगा, ये अभी सोचा नहीं था।
 
 सड़क से मुझे बहुत डर लगता था, सड़क पर तेज भागती गाड़ियों का 
					खौफ गाँव के सभी बच्चो में था, आज तक मैं सड़क तक अकेले नहीं 
					गया था। सड़क बहुत दूर भी थी, लेकिन मैंने मन बना लिया था और 
					अपने नन्हें कदम तेजी से बढ़ाता जा रहा था। लेकिन जितना ही मैं 
					के सड़क के करीब आता गया, उतना ही मेरा डर बढ़ता गया। मैं सड़क 
					से कुछ दूरी पर आकर ठिठक कर रुक गया। सड़क पर बहुत गाडियाँ तो 
					नहीं थीं, लेकिन जो भी थीं वो बहुत तेजी में हॉर्न बजाती हुई, 
					इधर से उधर भागी जा रही थीं।
 
 तभी अचानक से एक सवारी जीप तेजी से हॉर्न बजाते हुए, सामने 
					चलती बस को ओवरटेक करने के चक्कर में मेरे बहुत करीब से निकली। 
					ये इतना अचानक हुआ कि मुझे कुछ पता ही नहीं चला, अगले ही क्षण 
					मैं तेजी से वापस कुएँ की तरफ भाग रहा था। ठण्ड थी फिर भी मैं 
					पसीने से तर-बतर हो गया, हाँफ हाँफ के जान निकली जा रही थी 
					लेकिन फिर भी जब तक मैं कुएँ तक नहीं पहुँचा तब तक भागता ही 
					रहा, और कुएँ पर पहुँच कर उसके चबूतरे के पास ही गश खाकर गिर 
					गया।
 
 उसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं, जब मेरी आँखें खुली तो 
					मैं अपने दालान के बाहर खटिया पर पड़ा था। माँ धीरे धीरे मेरा 
					सिर सहला रही थी। खटिया के सामने बब्बा खड़े थे और थोड़ी ही 
					दूर पर रमेश भी खड़ा था।
 
 “ कईसन हए अब? ” बब्बा ने पूछा।
 “ठीक हूँ”
 “बिहोश कैसे होई गए?”
 “वो मैं वो ...” मैं इतना बोल कर चुप हो गया, मुझे लगा सड़क 
					वाली बात तो इन्हें पता नहीं होगी।
 “सरकिया पे काउ करइ ग रहे?” बब्बा को न जाने सब कैसे पता चल 
					चुका था।
 मुझे इसका कोई जवाब नहीं सूझा, मैं बस माँ की गोद में सिमट 
					गया।
 
 असल में हुआ ये था कि रमेश मुझसे पैसे छीन कर भागा तो, लेकिन 
					स्कूल नहीं गया और न ही मेरे पैसों से उसने लट्टू खरीदा। मैं 
					उसका सबसे अच्छा दोस्त था, और मेरे पैसे छीन कर वह बहुत दुखी 
					था। पैसे वापस देने के लिये वह वापस कुएँ पर आने लगा तो उसने 
					मुझे सड़क से कुएँ की तरफ भागते हुए देखा, कुएँ पर पहुँच कर 
					जैसे ही मैं बेहोश हुआ वह पास के खेतों में काम कर रहे बब्बा 
					को बुला लाया।
 
 “अगली बार भागिहो तो बताई के भागिहो” बब्बा ने हँसते हुए कहा, 
					और सभी लोग हँसने लगे। उन्हें सब पता लग गया था, मैं भी माँ की 
					गोद में बैठे बैठे मुस्कुराने लगा।
 
 अगली सुबह स्कूल जाने से पहले मैं रमेश के घर गया तो वह पहले 
					ही निकल गया था। शायद वो अब भी लट्टू की घटना के कारण मुझसे 
					नहीं मिलना चाह रहा था। मैं कुएँ पर पहुँचा तो रमेश पहले से 
					बैठा दिखा मुझे। मैं भी रुक गया। कुछ देर हमने कुछ बात नहीं 
					की। फिर उसने कहा - “माफ कर दे ना यार।”
 
 रमेश ने इस तरह माफ़ी माँगी तो मुझे लगा कि गलती तो मेरी थी, 
					लेकिन माफ़ी रमेश माँग रहा है। मैंने भी रमेश से
  कहा - “गलती 
					मेरी ही थी, मुझे लट्टू चलाना नहीं आता था, तो मुझे जिद नहीं 
					करनी चाहिए थी।” 
 “चल सिखाता हूँ तुझे लट्टू”, ऐसा कहकर उसने दो चमकते हुए नये 
					लट्टू जेब से निकाले।
 “कहाँ से मिले?”
 “बब्बा ने फीस के पैसे वापस नहीं लिये और लट्टू खरीदने को 
					कहा”।
 
 लट्टू नचाते उछालते हम स्कूल की ओर चल दिये।
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