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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से दीपक शर्मा की कहानी— बाप वाली


“बाहर दो पुलिस कांस्टेबल आए हैं, “घण्टी बजने पर बेबी ही दरवाजे पर गयी थी,
“एक के पास पिस्तौल है और दूसरे के पास पुलिस रूल। रूल वाला आदमी अपना नाम मीठेलाल बताता है। कहता है, वह अपनी लड़की को लेने आया है।”
सुनीता महेंद्रू की माँ को मोजे पहना रहे मेरे हाथ काँपे।

“तू चिन्ता न कर,” शाम की अखबार देख रही सुनीता महेन्द्रू ने अखबार समेट कर मेरी ओर देखा, “मैं तुझे नहीं जाने दूँगी।”
पाजी समझता है, तेरी माँ नहीं रही तो वह तुझे यहाँ से हाँक ले जाएगा,” सुनीता महेन्द्रू की माँ अपने चेहरे पर अपनी टेढ़ी मुस्कान ले आयी।
“लड़की को सामने तो लाइए,” बाहर के बरामदे की चिल्लाहट अन्दर हमारे पास साफ पहुँच ली।
“तू बिल्कुल मत जाना,” जूते पहन चुकी सुनीता महेन्द्रू की माँ धीमे से बुदबुदायी, “याद है, तुझे उससे दूर रखने की खातिर तेरी माँ आखिरी दम तक कचहरी के चक्कर काटती रही?”
“सब याद है,” मैं खिसिया ली, “मगर अब मिल लेने में क्या हर्ज है?”
“तेरे बाप ने तेरी माँ की इतनी दुर्गति बनायी,” बेबी ने जोड़ा, “फिर भी तू उस हैवान से मिलेगी ? तू उसे नफरत क्यों नहीं करती?”

अपनी माँ और नानी की सीख पर बेबी 'पिता' को छुतहा-रोग समान दूषित और खतरनाक जीव मानती है और यह बड़ी हँसी की बात है कि शहर के सबसे महँगे स्कूल की आठवीं जमात में पड़ रही बेबी, अपने दफ्तर से आठ हजार रुपया महीना पाने वाली सुनीता महेन्द्रू और एक इंटरमीडिएट कालेज की प्रिसिंपल रह चुकी सुनीता महेन्द्रू की माँ, सब, कोई, घर में 'पिता' का उल्लेख हमेशा 'बाप' के नाम से ही करती हैं। बेबी अभी छह महीने की ही थी, जब सुनीता महेन्द्रू अपने पति को हमेशा के लिए छोड़कर यहाँ अपनी माँ के पास अलग रहने लगी थी। बेबी का इसलिए अपने पिता से कभी कोई वास्ता न रहा था।

“दमयन्ती दमयन्ती!” सुनीता महेन्दू की आवाज मुझे बाहर के बरामदे में ले गयी।
कोई नहीं जानता था कि अपने पिता को मैंने ही टेलीफोन के द्वारा संदेश भेजकर, यहाँ अपने पास बुलाया था।
सुनीता महेन्दू के टेलीफोन और टेलीफोन डायरेक्टरी के इस्तेमाल और फैलाव की मुझे पूरी जानकारी थी। सुनीता महेन्दू को दूर-नजदीक के कई शहरों के नम्बर मिलाते मैं कई बार देख चुकी थी और पहला मौका हाथ लगते ही मैंने टेलीफोन पर कुछ अंक घुमाकर पूछा था, "मिस्टर सुधीर भदौरिया से मुझे एक जरूरी काम है। प्लीज बताइए, वे कहाँ मिलेंगे ?"
मेरे पिता के वकील का नाम और टेलीफोन नम्बर माँ के बक्से में धरे कचहरी के कागजों में रखा था। अपने जनता स्कूल की सातवीं जमात तक आते-आते अंग्रेजी के अक्षर ठीक से मैं पहचानने और समझने लगी थी।

“कहिए, मैं सुधीर भदौरिया बोल रहा हूँ,” चार सौ मील की दूरी के बावजूद टेलीफोन के उस छोर की गर्मजोशी मुझ तक साफ चली आयी थी।
“मैं मीठेलाल से मिलना चाहती हूँ,” सुनीता महेन्दू वाला खास लटका मैंने अपनी आवाज में उतार दिया था, “सुना है, आप उनके वकील हैं।”
“आप मेरे दफ्तर में अभी आ जाइए,” सुधीर भदौरिया को शायद मेरे पिता वाला केस ठीक से याद नहीं रहा था, “मैं अभी मुलाकात करवा दूँगा।”
“मैं लखनऊ से बोल रही हूँ...., अभी आपके दफ्तर कैसे आ सकती हूँ ? आप मुझे मीठेलाल का टेलीफोन नम्बर क्यों नहीं दे देते? मैं मीठेलाल से टेलीफोन पर बात कर लूँगी...”
“एक नम्बर है तो....।” सुधीर भदौरिया की याददाश्त लौट आयी थी, “मगर इस समय मेरे पास वह डायरी नहीं, जहाँ वह नम्बर दर्ज था।”

“मैं मीठेलाल की बेटी हूँ,” मैं फफक ली थी, “बहुत तकलीफ में हूँ। मेरी माँ मर गयी है और मैं अब यहाँ नहीं रहना चाहती...यहाँ माहौल बहुत खराब है...मेरी पढ़ाई छुड़ा दी गयी है और मुझ पर घर का सारा काम लाद दिया गया है...आप मेरे पिता को मेरे पास फौरन भेज दीजिए...उन्हें कहिए, मुझे यहाँ से ले जाएँ...वरना मैं भी अपनी माँ की तरह मर जाऊँगी...”
मैं तुझे लेने आया हूँ,” मुझे देखते ही मेरे पिता का पुलिस रूल मेरी ओर लपक लिया।
पिता के भारी बूट के साथ-साथ पिता का पुलिस रूल मुझे पिता के नैन-नक्श से भी ज्यादा अच्छी तरह याद था। मेरी माँ की कई कडुवी यादें और डरावने सपने उन बूटों और उस रूल के साथ जुड़े रहे थे।
“दमयन्ती आपके साथ नहीं जाना चाहती,” सुनीता महेन्द्रू ने मेरी पीठ घेर ली, “यह यहाँ पर खूब खुश है...अच्छा खाती है, साफ पहनती है...”
“....और स्कूल जाने की बजाय आपकी ड्यूटी बजाती है,” पिस्तौलधारी कांस्टेबल गरजा, “क्या आप जानती नहीं, चौदह साल से छोटे बच्चों से बलपूर्वक काम करवाने के लिए कानून में सजा लिखी है?"

“दमयन्ती को मैंने सड़क से अगुवा नहीं किया है,” सुनीता महेन्द्रू ने अपनी सफाई दी, “इसकी माँ ने मेरे यहाँ आया के रूप में चार साल तक बाकायदा नौकरी की है और मरते समय भी बाकायदा इसकी जिम्मेदारी मुझे सौंप कर गयी है...”
“बाकायदा...बाकायदा...” पिस्तौलधारी ने अट्टहास किया, “तो क्या किसी स्टैम्प पेपर पर मरने वाली लिख गयी है कि इस लड़की से बिना तनख्वाह के काम लीजिए? बरदा-फरोशी में इसे टहलनी बना कर पीसिए और मार डालिए....”
“इसकी माँ को मरे महीना होने को आया,” मेरे पिता भी शेर हो लिए, “बताइए, आपने इसे इस महीने की क्या तनख्वाह दी ?"

“इसकी माँ पर जिस हिसाब से मैंने अपना रुपया पानी की तरह बहाया,” सुनीता महेन्दू ने उन्हें मात देनी चाही, “उस हिसाब के मुताबिक तो इसे अभी कई साल तक एक पाई भी नहीं मिलनी चाहिए...फिर भी देखिए, इसके रहने-ओढ़ने और खाने का पूरा खर्च मैं खुले दिल से उठा रही हूँ...”
“ऊपर वाले से कुछ तो खौफ खाइए,” मेरे पिता के होंठ मुड़क लिये, “जिस औरत को आपने कोल्हू के बैल की तरह काम के बोझ तले मार डाला, उस औरत के इलाज की बात करती हैं...”
पिता की बात से मेरा सीना चौड़ा हुआ और सुनीता महेन्द्रू का हाथ पीठ से नीचे झटककर मैं पिता की बगल में आ खड़ी हुई।
पिता की शह पाकर मैंने सुनीता महेन्द्रू को खूब लज्जित करने की ठान ली...
पिता से सब कुछ कह देने की एक तीखी धुकधुकी मेरे मन में उग आयी...
...किस तरह इधर कुछ महीनों से माँ को बराबर बुखार आता रहा था, फिर भी नकचढ़ी सुनीता महेन्द्रू माँ से घर के काम में पूरी मुस्तैदी की उम्मीद रखती रही थी, ’आज मीट ठीक से गला क्यों नहीं?‘ ’आज फर्श ठीक से रगड़ा क्यों नहीं?‘ ’आज कपड़ों को ठीक से निखारा क्यों नहीं?‘

...किस तरह जब पिछले महीने एक बड़ी दावत के लिए ढेरों खाना बनाने की वजह से माँ का बुखार बेकाबू हुआ था, तो बेपरवाह सुनीता महेन्द्रू माँ को अस्पताल में फेंक आयी थी, 'इधर तुम्हारी देखभाल करने के लिए सरकारी नर्सें और डॉक्टर चौबीस घण्टे तुम्हारी कमान में रहेंगे, जबकि घर में तुम्हें सँभालने वाला कोई नहीं...'

किस तरह सुनीता महेन्द्रू की सख्ती के बावजूद अस्पताल मे जब माँ के पास बने रहने पर मैं अड़ गयी थी, तो चालाक सुनीता महेन्द्रू ने माँ को समझा-बुझाकर मेरे अस्पताल में घंटे तय कर दिए थे, 'रात को दमयन्ती का तुम्हारे पास रहना खतरे से खाली नहीं...कौन जाने अकेली लड़की पर किस वक्त क्या शामत आ जाए? दिन के दो बजे तुम्हारे पास दमयन्ती आ जाया करेगी और फिर छह बजे ही मैं अपने दफ्तर से लौटती हुई उसे अपनी कार में अस्पताल से घर लिवा ले जाऊँगी, बेबी के स्कूल के घंटों के दौरान फालिज की वजह से अपाहिज हुई अपनी माँ का घर पर अकेली रहना सुनीता महेन्द्रू को गवारा न रहा था।

...किस तरह अपनी बीमारी के चौथे रोज जब सुबह के साढ़े सात बजे माँ खत्म हुई थीं, तो मैं उनके पास न होकर सुनीता महेन्द्रू के बालों में मेहँदी लगा रही थी, खबर मिलने पर भी बेदर्द सुनीता महेन्द्रू का दिल न डोला था...रोज की तरह वह पूरे दमखम के साथ ही तैयार हुई थी और दफ्तर निकलने के अपने समय से केवल एक घंटा पहले अस्पताल में पहुँचकर माँ के दाह-संस्कार के पूरे इन्तजाम वहीं पक्के कर आयी थी, अस्पताल वालों को सुनीता महेन्द्रू से भी ज्यादा जल्दी रही थी और हमारे देखते-देखते वे माँ को अपने ठिकाने पर ले गए थे। सुनीता महेन्द्रू फिर उसी पल अस्पताल में माँ के लिए इस्तेमाल हुए बर्तनों और कपड़ों के साथ मुझे अपनी कार में अपने घर लौटा ले आयी थी, 'ममा का ध्यान रखना', रोज की तरह दफ्तर जाने से पहले उसका अंतिम वाक्य भी इन-बिन वही रहा था...

“ऊपर वाले से ही क्यों?" पिस्तौलधारी ने सुनीता महेन्द्रू को धमकी दी, “आपको तो कानून से भी खौफ खाना चाहिए...भली-चंगी एक तगड़ी-तंदुरुस्त औरत आपके घर में काम करने के लिए रहने आयी और आपके घर पर चार साल के अंदर ही खत्म हो गयी...यह तो साफ-साफ पुलिस का केस बन रहा है...”
“दमयन्ती को आप अपने साथ ले जाना चाहते हैं, तो जरूर ले जाइए,” सुनीता महेन्द्रू सहम गयी, “मैं जानती हूँ आप मेरे अकेली होने का नाजायज फायदा उठा रहे हैं...”
“आप हमें गलत समझ रही हैं,” मेरे पिता के चेहरे का रंग बदल लिया, “हम किसी तरह भी आपका नाजायज फायदा नहीं उठाना चाहते-मगर आपको भी तो हमारा ख्याल रखना चाहिए। काम कराने की मुनासिब पगार तो देनी चाहिए...”
“ठीक है, “सुनीता महेन्द्रू ने मेरे पिता को अपनी गाल के गड्ढों वाली मुस्कान दी-अपनी यह खास मुस्कान सुनीता महेन्द्रू खास मौकों पर ही अपने चेहरे पर लाया करती हैं, “बताइए, दमयंती को अपने यहाँ रखने के अगर मैं आपको सौ रुपए दे दूँ, तो क्या ठीक रहेगा ?"
“जिस कोठी के क्वार्टर में मैं वहाँ रहता हूँ,” मेरे पिता अजीब ढंग से मुस्कराए, “वहाँ तो कोठी वाली मालकिन केवल कपड़े धुलाने के ही सौ रुपए दे देती है। इस तरह की चौबीस घंटों वाली चाकरी के लिए तो वह मेरी लड़की को पाँच सौ रुपया देने को तैयार है....”

“यहाँ हम सब औरतें हैं,” सुनीता महेन्द्रू की हिम्मत बढ़ी और उसने अपने गालों के गड्ढे फिर से उजागर कर दिए, “ऐसा-वैसा कोई झमेला नहीं। दमयंती जवान हो रही है, वहाँ दूसरे घर में इसके लिए दूसरे खतरे खड़े हो सकते हैं...आप ध्यान से सोच-देख लीजिए, आपको बेटी की इज्जत प्यारी है या पैसा?"
“पर सौ रुपया तो बहुत छोटी रकम है,” मेरे पिता ने अपना रूल हवा में लहराया, “आपको महीने में कम से कम चार सौ रुपया तो देना ही चाहिए...”
“चार सौ नहीं,” सुनीता महेन्द्रू अन्दर जाने के लिए मुड़ ली, “दो सौ।”
“चलिए, तीन सौ सही...”
“अढ़ाई सौ पर बात खत्म करेंगे,” सुनीता महेन्द्रू रुपया लेने अन्दर चली गयी।
“तेरी माँ ने मेरे खिलाफ इधर-उधर बहुत सच्ची-झूठी लगायी,” मेरे पिता ने अपने रूल से अपनी हथेली पर थाप लगायी, “पर तेरी खातिर मैंने वह सब बिसार दी...”
“मैं यहाँ नहीं रहना चाहती,” मैं रोने लगी, “मुझे अपने साथ ले चलिए...मैं पाँच सौ वाली नौकरी करूँगी...यहाँ बिल्कुल नहीं रहूँगी...”
“पाँच सौ वाली?" मेरे पिता ने एक जोरदार ठहाका लगाया, “वह सब तो इस मेम से पैसा उगाहने की खातिर कहा था...वहाँ तो मेरे पास अपना कोई ठौर नहीं, तुझे कहाँ रखूँगा? यह जगह ठीक-ठाक है। अभी तू चुपचाप कुछ साल यहीं पड़ी रह...”
“मगर मेरी पढ़ाई छूट गयी है...मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ...”
“आगे पढ़कर क्या करेगी?" पिस्तौलधारी भी हँसने लगा, “जिले की कलक्टरी?"
“उधर कचहरी में तो आप कहते थे, आप मुझे दूर तक पढ़ाएँगे...”मेरी जिद ने जोर पकड़ा।

“माँ की तरह बड़ों से सवाल-जवाब करने छोड़ दे,” मेरे पिता ने अपना रूल मेरी ओर बढ़ाया, “माँ की लिखी तख्ती बनी रहेगी तो फिर गहरा दुख पाएगी... वह बड़े लोगों की पट्टीदारी करती थी...यह मेम को तलाक के बाद आजाद घूमते देखकर अपने पर निकाल बैठी...भूल गयी वह अपने गरीब चाचा के टुकड़ों पर पली थी, चाची की गालियाँ खाकर जवान हुई थी, मेरे बिना पूरी-भरी दुनिया में एको सहारा न था...फिर भी गरीब औरत आजादी और खुदगरजी की जंग लड़ने से बाज न आयी...”
“उधर और कौन-कौन रहता है?" माँ के आखिरी दिनों की फड़फड़ाहट मेरी आवाज में तिर आयी।

“सब हैं,” जाने मेरे पिता के मन के समुन्दर की तहों के नीचे से वह कौन-सी लहर उन पर यों भारी-बैठी जो उन्होंने एक ही झटकें से वह परदा उठा दिया, जिसके तहत वे कचहरी में माँ के सभी इलजामों के सच से मुकरते रहे थे, “तेरी दो बहनें, एक भाई, दूसरी माँ...”
“मैं उन सबसे मिलूँगी,” मैंने कहा। माँ की बातों ने मेरे दिमाग में जो धुँधले दायरे खींच रखे थे, मैं उनकी पूरी परिक्रमा करना चाहती थी।
“मैं तुझे जल्दी ही वहाँ ले चलूँगा,” मेरे पिता ने मेरी पीठ पर एक हल्का धौल जमाया।
“गिन लीजिए,” सुनीता महेन्द्रू ने रुपए मेरे पिता के हाथ में थमाए, “पूरे अढ़ाई सौ हैं।”
“ठीक है,” मेरे पिता ने रुपए गिनकर अपनी जेब में रख लिए, “मैं लड़की का पिता हूँ...लड़की को यहाँ कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए...इसकी खोज-खबर मैं बराबर लेता रहूँगा...”

“बदमाश किस्मत का कितना धनी है।” मेरे पिता के ओझल होते ही सुनीता महेन्द्रू ने अपने हाथ नचाए, “कहाँ तो कचहरी में इसकी आधी तनख्वाह जब्त होने वाली थी और कहाँ यह नए सिरे से तेरी तनख्वाह वसूल कर रहा है...”
अंदर से मेरा जी खट्टा रहा, फिर भी जवाब में मैंने अपनी गर्दन हवा में लहरा दी।
अपने पिता के पुलिस रूल की तरह।
मुझे यकीन था, सुनीता महेन्द्रू अब अपने टेंढ़े काम मुझे बताने से पहले दो बार जरूर सोचेगी।
खोटी किस्मत वाली अपनी माँ की तरह मैं अनाथ बेसहारा नहीं थी, बाप वाली थी....
और वह भी अपने पिता जैसे बाप वाली !

२ दिसंबर २०१३

अभिव्यक्ति के पाठकों के लिये एक मासिक प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इस प्रतियोगिता में पाठकों को उपरोक्त कहानी पढ़कर ५०० में एक संक्षिप्त समीक्षा नीचे बने टिप्पणी के स्थान पर करनी है। सबसे अच्छी समीक्षा लिखने वाले पाठक को एक सुंदर सा उपहार डाक से भेजा जाएगा। इस कहानी पर समीक्षा करने की अंतिम तिथि है- २० जनवरी २०१४, लेकिन अपनी समीक्षा के लिये अंतिम तिथि की प्रतीक्षा न करें क्यों कि पहले से लिखी गई समीक्षा का दोहराव जिनमें होगा वे समीक्षाएँ कम अंक प्राप्त कर पाएँगी। प्रतियोगिता का निर्णय माह के अंत में बताया जाएगा।
- टीम अभिव्यक्ति

इस कहानी पर आयोजित समीक्षा प्रतियोगिता में उर्मिला श्रीवास्तव की समीक्षा को सर्वश्रेष्ठ घोषित गया। कथानक के ताने बाने में गहरे जाकर उन्होंने कहानी में उठाई गई समस्या की बारीकियों को समझा और सधे हुए शब्दों में व्यक्त किया। इसके अतिरिक्त उर्मिला शुक्ल और अशोक शुक्ला की समीक्षाएँ भी अच्छी रहीं। - टीम अभिव्यक्ति

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