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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से किशोरी रमण शर्मा की कहानी— अंतिम पड़ाव


रामदयाल अपने पीछे अठहत्तर साल छोड़ आये हैं। छः फीट लम्बे रामदयाल अब कुछ झुककर चलते हैं। चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ पड़ गई हैं और गले की चमड़ी झूल गई है। सीधे-सादे सपाट व्यक्ति हैं। सामान्य से वस्त्रों में ही घर से बाजार या आसपास के पड़ोसियों से मिलने-जुलने के लिए निकल पड़ते हैं।

अक्सर उनके साथ उनकी पत्नी भी होती हैं। वह लम्बी, गौरवर्ण की और स्लिम। सत्तर पार करने के बाद भी पूरी तरह शौकीन हैं। रामदयाल के रंग-ढंग से कुछ विपरीत। घर में भी ठीक-ठाक ही रहती हैं। किन्तु यदि घर से बाहर जाना होता है तो बाल ठीक करती हैं, मुखमण्डल पर क्रीम, पाउडर तथा होठों पर हल्की लिपिस्टिक अवश्य लगाती हैं। कानों में टाप्स न पहनकर लम्बा झुमका या लटकन पहनती हैं और कलाइयों में पतली-पतली सोने की चूड़ियाँ, तन पर ब्लाउज और साड़ी मैचिंग। साड़ी कुछ-कुछ जमीन को छूती होती है। उनके पाँवों की खूबसूरत चप्पलें साड़ी की कोर से लुकाछिपी खेला करती हैं। वह कश्मीरी हैं। काश्मीर का पूरा सौन्दर्य उनमें दृष्टिगोचर होता है। किन्तु उनका प्रौढ़ और प्रौढ़ोत्तर काल का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के लखनऊ, इलाहाबाद और कानपुर में व्यतीत हुआ है।

रामदयाल के घर से दो-चार घरों के बाद संजय मोहन का घर है। संजय मोहन भी लगभग बासठ-तिरसठ के हैं। सेवानिवृत्त हैं। बहुत ही साफ और स्वच्छ छवि के हैं। रामदयाल अक्सर उनके यहाँ आया करते हैं कभी-कभी अपनी पत्नी के साथ भी आते हैं। संजय मोहन रामदयाल को भाई साहब तथा उनकी पत्नी को भाभी जी कहकर नमस्कार करते हैं या बातचीत के सिलसिले में कहीं संबोधन की आवश्यकता पड़ती है तब भी भाई साहब और भाभी जी ही कहते हैं। वह कभी-कभी रामदयाल के सामने ही उनकी पत्नी की प्रशंसा करते हैं- 'भाभी जी! इस उम्र में आप ऐसी दिखती हैं तो भरपूर यौवन में आपका जलवा कैसा रहा होगा ?' इस प्रश्न का वह उत्तर नहीं देतीं किन्तु अन्तर-मन से गद्गद् हो जाती हैं और अपनी स्मित मुस्कान में लज्जा मिश्रित करके सब कुछ कह जाती हैं। उनके हाव-भाव से अतीत में लुप्त हो गया उनका यौवन प्रतिबिम्बित होकर झलक पड़ता है। संजय मोहन और अपनी पत्नी की बातचीत के बीच रामदयाल कुछ बोलते नहीं हैं किन्तु एक हल्की हँसी की फुहार छोड़ते हैं। कहते हैं-'आप दोनों की बातें मुझे अच्छी लगती हैं। इनको कोई देवर नहीं है। बुढ़ापे में देवर मिला किन्तु अच्छा मिला।'

रामदयाल का बड़ा सा मकान है केवल एक तल का। उसमें वे पति-पत्नी ही रहते हैं। मकान अच्छा बना है-खुला-खुला सा। उसके ड्राइंग रूम में बाहर की ओर दीवाल व खिड़कियों की जगह पूरे में शीशा जड़ा है। उसको देखकर संजय मोहन को मिर्जापुर शहर से कुछ किलोमीटर दूर स्थित बिड़ला परिवार के एक गेस्ट हाउस की याद आ जाती है। उस गेस्ट हाउस के उत्तर की ओर दीवाल की जगह पर खूबसूरत शीशे और कीमती परदे लगाये गये हैं। परदे को हटाते ही गंगा की स्वच्छ धारा तथा प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य मन मोह लेते हैं। संजय मोहन रामदयाल के ड्राइंग रूम की तुलना उस गेस्ट हाउस के हॉल से करते हैं किन्तु गंगा के मनमोहक दृश्य की जगह कुछ खाली जमीन और कुछ सामान्य मकानों की उपस्थिति से बिदक जाते हैं।

जब मन और विचार एक दूसरे से मिलते हैं तो साथ-संगत दीर्घकालिक हो जाता है। फिर चल पड़ती है आत्मीयता में भूली-बिसरी बातों और घटनाओं की अभिव्यक्ति का सिलसिला। सुख-दुःख से उपजे द्वन्द्वों को भी मिलने लगता है आयाम। विलुप्त होने लगती हैं कुंठाएँ क्योंकि ग्रंथियाँ मुखर हो उठती हैं।

रामदयाल अब संजय मोहन को अपना सच्चा मित्र समझने लगे थे। एक दिन उन्होंने अपनी राम कहानी शुरू की-'भाई संजय मोहन! किसी प्रकार हाईस्कूल पास करके मैंने रेल विभाग में नौकरी आरम्भ की। माता-पिता का सिर से साया पहले ही उठ चुका था। नौकरी पाते ही मेरे विवाह के लिए लड़की वाले आने लगे। उन दिनों लड़की-लड़के को देखने-दिखाने अथवा रजामन्दी का रिवाज नहीं था। अभिभावक पता लगा लेते थे कि लड़की कैसी है? कानी, लँगड़ी, लूली या गूँगी तो नहीं है? पढ़ी-लिखी लड़की का होना भी आवश्यक नहीं था। विवाह में सात वचन और सात भाँवर का महत्व था। इस प्रक्रिया में गुजरते ही एक-दूसरे के लिए हृदय में असीम प्रेम, लगाव और बंधन का जन्म होता था। उसके सामने रूप, रंग सब फीके पड़ जाते थे। मेरा सौभाग्य था कि मेरी पत्नी लाजवंती मुझसे अधिक सुन्दर मिलीं, न केवल शारीरिक रूप से बल्कि आन्तरिक रूप से भी क्योंकि व्यावहारिकता अन्तर्मन से उद्भूत होती है। जवानी में मोक्ष की प्रधानता नहीं होती, उसमें तो धर्म, अर्थ और काम का वर्चस्व होता है। मेरी पत्नी इन तीनों की साक्षात देवी रहीं। मैं उनको कभी उर्वशी के रूप में देखता तो कभी सावित्री के रूप में। ये मेरी शक्ति बन गईं। मुझे नौकरी तक ही चिन्ता सताती शेष सारा घर यही सँभालतीं। मैं तो लट्टू की तरह इनके आगे-पीछे नाचता। अद्भुत आनन्द के दिन थे वे। मुझे तो राजा पुरुरवा बनना ही नहीं पड़ा। उर्वशी ने स्वतः इस गरीब को स्वीकार कर लिया। हम लोगों ने तीन बेटे और तीन बेटियों को जन्म दिया। विभाग में मेरी प्रोन्नति हो गई। मैं कामर्सियल इंस्पेक्टर हो गया। हम दोनों का लक्ष्य बच्चों को अच्छी शिक्षा देना, अच्छा संस्कार देना और स्वावलम्बी बनाना हो गया।'

जन्म और वय के क्रम में धनंजय, ममता, समता, रणंजय, कान्ता तथा दिग्विजय ने अपनी-अपनी शिक्षा पूरी की। तीनों बेटे और पुत्री ममता नौकरी में लग गई। दो बेटियों ने अपने ससुराल वालों के मंतव्य को दृष्टिगत कर नौकरी की ओर कदम नहीं बढ़ाए। बेटों में ज्येष्ठ पुत्र धनंजय की नौकरी रेल विभाग, रणंजय की बैंक तथा दिग्विजय की एक प्राइवेट कंपनी में लग गई और बेटी ममता जम्मू के एक महाविद्यालय में प्रवक्ता हो गई। इतना कहकर रामदयाल एकाएक ठमक जाते हैं। उनका गला भर आता है और आँखें डबडबा जाती हैं, कुछ क्षणों के बाद अपने को सँभालते हैं, आगे कहते हैं-ज्येष्ठ पुत्र धनंजय ने नौकरी पाते ही एक ईसाई लड़की से प्रेम विवाह कर लिया। उसकी हम लोगों को भनक तक उसने नहीं दी। उसका संज्ञान तो हमें तब हुआ जब हम दोनों उसके रहन-सहन को देखने उसके यहाँ इलाहाबाद पहुँचे। पता नहीं उसका प्रेम प्रपंच कब से चल रहा था। उसकी शिक्षा भी इलाहाबाद में हुई थी। मेरा लड़का तो अत्यन्त सीधा, व्यवहार कुशल और सामाजिक था किन्तु जवानी के चढ़ाव में आदमी कब क्या कर बैठे कहा नहीं जा सकता। इस घटना ने मेरे कुल, परिवार और परम्परा को एक त्रासदी दे दी। जिस ट्रैक पर मैं गाड़ी ले जाना चाहता था, लड़के ने ट्रैक ही बदल दिया। इस कारण न केवल मैं बल्कि मेरी पत्नी भी मानसिक तनाव में आ गई। अपने समाज में शीर्ष पर रहने वाले हम लोग झुक से गये। कुछ समय के लिए अन्य बेटे-बेटियों के विवाह का क्रम थम सा गया। धनंजय ने एक प्रकार से हम लोगों से संबंध तोड़ लिया।

भाई संजय मोहन! आप तो विद्वान हैं, जानते ही हैं पहली सन्तान कितनी प्यारी होती है। श्रीराम के वन जाने पर राजा दशरथ ने तो प्राण ही त्याग दिया था। मुझ में वैसी क्षमता नहीं थी किन्तु मर्माहत होकर सदमे में तो आ ही गया। इतना कहते-कहते रामदयाल की आँखें फिर गीली हो गईं।

रामदयाल ने फिर आगे कहना आरम्भ किया-'भाई संजय मोहन ! मैं अपने परिवार अैर समाज का एहसानमंद हूँ। उन लोगों ने मेरी और मेरी पत्नी को मानसिक अधोगति से बचा लिया। एक-एक करके कनिष्ठ पुत्र को छोड़कर सबके विवाह सम्पन्न हो गये तथा सभी अपने-अपने परिवार में रच-बस गये। मैं सेवानिवृत्त हो गया। बेटे-बेटियों के दायित्व से कुछ हल्का हुआ तो मन में विचार कौंधा कि एक अपना घर होना चाहिए। सारा जीवन तो किराये के मकान में कट गया। बार-बार बदलना पड़ा। तब जवानी थी किन्तु अब तो बुढ़ापा है और शरीर को दिन-दिन क्षीण ही होना हे। किन्तु मकान तो दूर की बात थी जमीन क्रय करने के लिए ही अर्थ नहीं था किन्तु ईश्वर की माया। वह बड़े उदार और कृपालु हैं। उसने सूझ दी-तुम रेल विभाग में कामर्सियल इंस्पेक्टर रहे हो, उस अनुभव का लाभ उठाओ। फिर मैंने हाजीपुर से चिनिया केला की सप्लाई आरम्भ की और तीन-चार सालों में मेरे पास चार-पाँच लाख रुपये आ गये। शरीर भी थक चला। मैंने व्यापार का काम बन्द कर दिया। खाने-पीने भर पेंशन पाता ही था। उस रुपये से मैंने जमीन खरीदी और जिस मकान में आप बैठे हैं यह उसी का जीता-जागता स्वरूप है। संपूर्ण जीवन बड़ा ही कशमकश का रहा। आगे बुढ़ापा कैसे कटेगा यह तो ईश्वर ही जानता है।'

संजय मोहन ने रामदयाल की पूरी राम कहानी घैर्य और रुचि के साथ सुनकर अपनी प्रतिक्रिया में बस इतना कहा-'भाई साहब ! आप एक सिद्ध संकल्पी, कर्मनिष्ठ और भविष्यदृष्टा हैं। ईश्वर भी तो व्यक्ति की चाह के अनुसार उसका मार्ग प्रशस्त करता है। कहावत भी है- 'जहाँ चाह वहाँ राह।' सचमुच आप प्रेरणा के स्रोत हैं।'

संजय मोहन एक सेवा निवृत्त प्रोफेसर हैं। वह इंग्लैण्ड के एक विश्वविद्यालय में कुछ सालों के लिए विजिटिंग प्रोफेसर होकर चले गये। रामदयाल उनके जाने के बाद स्वयं को अकेला महसूस करने लगे और असुरक्षित भी। उनके दोनों विवाहित लड़कों का आना-जाना भी कम ही होता था। बड़ा तो आता ही नहीं था, बीच वाला रणंजय आता भी तो दो चार घंटे के मेहमान जैसे। उसकी पत्नी अपनी सास के साथ पलभर भी नहीं रहना चाहती। हारा क्या न करता। रामदयाल ने अपना रूख बड़े बेटे की ओर किया। वह जब भी जाते पुत्रवधू तथा उसकी पुत्री ज्योति के लिए वस्त्र, कुछ आभूषण और मिठाइयाँ ले जाते किन्तु एक-दो दिनों के बाद ही पुत्रवधू के व्यवहार कटु हो जाते और वह वापस चले आते। इस बार रामदयाल अपनी पत्नी के साथ एक सप्ताह का प्रोग्राम बनाकर उसके यहाँ पहुँचे। दोनों लोगों ने इस बात का प्रयत्न किया कि ऐडजेस्टमेंट हो जाय। रामदयाल अक्सर शाम को बाजार जाते और घर में साग-सब्जी या जरूरत के अनुसार अन्य सामान भी खरीदकर लाते। घर में सास लाजवंती भी बहू की मुखमुद्राओं का ध्यान रखती। पुत्र और पूत्रवधू के रहन-सहन, घर गृहस्थी में ये लोग कोई बाधा नहीं पहुँचाते बल्कि नापसन्द होने पर भी मुख फेर लेते। फिर भी पूत्रवधू आभा सास-श्वसुर को अपने साथ रखना नहीं चाहती। घर में धनंजय का कुछ नहीं चलता, आभा ही सबकुछ थी। स्वभाव में वह चढ़बाँक थी और रहन-सहन में भी अन्तर था। उसने गरीबी नहीं देखी थी। वह हाई-फाई और ऐश की जिन्दगी पसन्द करती। वह श्वसुर को इंगित करके बड़बड़ाती-'चावल-दाल, सब्जी क्या खरीद लाते हैं, बाजार का सड़ा-गला साग इनको मिला है। दाल-चावल में कंकड़ इनको दिखते नहीं, मीट-मछली खाते नहीं, कौन बनाये इनके लिए अलग रोटी-दाल, दिन में चार बार चाय-कॉफी, कहने के लिए सास बूढ़ी हैं लेकिन ऐसे बनठन के रहती हैं मानो अभी डोली से उतरी हैं।'
दीवालों के भी कान होते हैं। बहू की ऊटपटाँग बातें सुनते-सुनते लाजवंती तंग आ गईं और चार दिनों बाद ही रामदयाल ने अपनी पत्नी के साथ लखनऊ की राह पकड़ ली।

रामदयाल अपने मकान में रहकर भी वृद्धावस्था की संभावित समस्याओं से चिन्तित रहने लगे। उन्होंने सोचा क्यों न कनिष्ट बेटे दिग्विजय का यहीं ट्रांसफर करा लें। वह मुम्बई में अकेला रह रहा है। उसका विवाह भी करना है। वह और उसकी बहू उनके साथ रहेंगे। रामदयाल ने इस संबंध में अपने बेटे दिग्विजय की राय भी जाननी चाही। उसने पिता की राय में हामी भर दी। दिग्विजय दो माह में मुम्बई से ट्रांसफर होकर लखनऊ आ गया और अपने माता-पिता के साथ खुशी-खुशी रहने लगा। रामदयाल ने उसका विवाह अपनी बड़ी लड़की ममता की राय से जम्मू में तय किया। लड़की योग्य और उच्च शिक्षा प्राप्त तो थी ही एक विद्यालय में अध्यापन कार्य भी कर रही थी। उसके माता-पिता ने भी उसके वर के रूप में दिग्विजय को पसन्द लिया। यह बात निश्चत हो चुकी थी कि विवाह के बाद लड़की जम्मू की नौकरी छोड़कर स्थाई रूप से लखनऊ आ जायेगी। रामदयाल ने धूमधाम से उसका विवाह जम्मू में किया तथा रिसेप्शन लखनऊ में दिया। दिग्विजय और उसकी पत्नी रामदयाल तथा लाजवंती के साथ आनन्द के साथ रहने लगे।

दिग्विजय के विवाह के लगभग छै मास व्यतीत हो चुके थे। वह अपनी पत्नी देवांगना से इस बात की चर्चा करने लगा-'बड़े भैया और मँझला भैया से पिताजी का संबंध टूट ही चुका है, अब बचा एकमात्र मैं तो क्यों न इस मकान को अपने नाम से करा लूँ।' देवांगना भी सोचती-'इस प्रकार के आलीशान मकान का निर्माण सहज नहीं होगा, वह भी लखनऊ जैसे बड़े शहर में।' दिग्विजय की महत्वाकांक्षा उस पर हावी होती गई और एक दिन अपने नाम से मकान लिख देने का प्रस्ताव उसने अपने पिता रामदयाल के सामने रख ही दिया। 'डैडी मैं और मेरी पत्नी दोनों आप और माँ की देखभाल और सेवा करते रहेंगे। यह मकान अब मेरे नाम से कर दीजिए न।' उस दिन दिग्विजय के इस प्रस्ताव को सुनकर रामदयाल हैरत में पड़ गये। कुछ भी प्रति उत्तर में वह नहीं कह सके। थोड़ी देर तक उत्तर की प्रतीक्षा के बाद दिग्विजय भी उनके पास से हट गया था।

एक सप्ताह बाद दिग्विजय ने फिर अपनी बात को दोहराया अपने पिता से उसके नाम मकान लिखने के लिए किन्तु इस बार रामदयाल ने शालीनतापूर्वक बेटे के प्रस्ताव का उत्तर दिया-'दिग्विजय तुम तीन भाई और तीन बहन हो यदि तुम्हारी बहनों को दरकिनार कर दूँ तो भी तो मकान में तीनों का हिस्सा होता है।' रामदयाल के इतना सा उत्तर सुनकर दिग्विजय पिता के पास से चला गया। उसने एक माह के अन्दर गुप्त रूप से अपना ट्रांसफर हैदराबाद करा लिया। उसके पिता और माता को उसके ट्रांसफर का पता तो तब चला जब सामान ले जाने के लिए मकान के आगे ट्रक खड़ा हो गया। उसने अपने क्रय किये या शादी में मिले सामानों के साथ अपने पिता के भी कीमती तथा खूबसूरत सामानों को ट्रक पर रखवा लिया। पिता रामदयाल और माँ लाजवंती चुपचाप देखते रहे। हाँ या ना कुछ भी नहीं बोल सके जैसे उन दोनों की बोली को लकवा मार गया हो और आँखों का पानी सूख गया था।

मकान में रामदयाल और लाजवंती फिर दो ही रह गये। उनका कनिष्ट बेटा भी उनका साथ नहीं दे सका। उनकी ज्येष्ठ पुत्री ममता अब जम्मू में अपने महाविद्यालय की प्राचार्या हो चुकी थी। वह छोटे भाई दिग्विजय के व्यवहारों को जानते ही अवकाश लेकर लखनऊ आ गई तथा माता-पिता को अपने यहाँ ले जाने का उसने पुरजोर प्रयास किया। उसने अपने माता-पिता लाजवंती और रामदयाल को बताया कि वह अब महाविद्यालय की प्राचार्या है। उसके पास बड़ा सा बँगला है, कार है, मात्र एक बेटी और बेटा है, उसके पतिदेव फौज में कर्नल हैं। इस सबका श्रेय अपने माँ-बाप को देते हुए उनसे आग्रह किया कि वे उसके साथ रहें। उनको हर तरह से सुविधा और आराम मिलेगा। घूमने-फिरने, देशाटन, तीर्थाटन सारी सुविधाएँ उनके अनुकूल होंगी। अपनी बेटी ममता की बातों को रामदयाल ने बड़े गौर से सुना फिर थोड़े से शब्दों में उन्होंने बेटी को अपना निश्चय सुना दिया-'बेटी ममता ! मैं तुम्हारी भावना को भली-भाँति जानता हूँ, किन्तु बेटी। बेटी के यहाँ तो खाना और पानी पीना ही हमारी परम्परा में नहीं है तो मैं तुम्हारे यहाँ रह कैसे पाऊँगा? यह संभव नहीं है। देखो बेटी ! यह जगत बहुत विशाल है। मेरे नसीब में जो लिखा होगा, वही होगा और अच्छा ही होगा। तुम चिन्ता मत करो। हम अपने विषय में तुमको जानकारी देते रहेंगे।'

ममता के जाने के बाद रामदयाल ने अपनी पत्नी लाजवंती से विचार विमर्श करके कुछ ही महीनों में मकान बेच दिया। गृहस्थी के सामानों को पास-पड़ोस के लोगों को सस्ते दामों में दे दिया, मन्दिर जो काठ का अत्यन्त खूबसूरत बना था, उसको तथा देव-मूर्तियों को एक मन्दिर के पुजारी को समर्पित करते हुए कुछ सहस्र रुपये में उनको दे दिया। एक अटैची और एक होल्डाल लेकर जब वह पत्नी के साथ ऑटो पर बैठे, उस वक्त आस-पास के सारे लोग अपने घरों से बाहर निकल आये थे, सभी मायूस थे, उनकी आँखें भर आयी थीं, कुछ कहना चाहकर भी कह नहीं पा रहे थे। उनके घर के बगल के रामनारायण ने दोनों हाथ जोड़कर पूछा-आप लोग कहाँ जा रहे हैं ?

'महाभारत की समाप्ति के बाद पांडव हिमालय की ओर चले गये थे। जीवन के अंतिम पड़ाव पर हम दोनों के नसीब में देवलोक ही लिखा है।' रामदयाल ने अपने नेत्रों पर नियंत्रण और कंठ पर दबाव देते हुए उत्तर दिया। ऑटो आगे बढ़ चला।

२१ अक्तूबर २०१३

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