असीम राय निज़ामुद्दीन रेलवे
स्टेशन में मदन मोहन शर्मा का बेताबी से इंतज़ार कर रहा था।
रात के दस बज कर दस मिनट हो चुके थे और इंदौर एक्सप्रेस निकलने
में अब कोई पाँच मिनिट बचे थे। अचानक सीढ़ियों से भागते हुए
उतरता मदन उसके पास आ पहुँचा। वह हाँफ रहा था लेकिन सिगरेट तब
भी हाथ में थी।
एई दादा, अपना डिब्बा किधर है?
यही सामने वाला है। यह भी कोई समय है आने का? असीम गुस्से में
भी था और आश्वस्त भी हो चुका था।
सामान रखते-रखते गाड़ी चल पड़ी थी। दोनो सहकर्मी अपनी-अपनी
बर्थ पर चादर बिछा कर बैठ चुके थे। असीम अपनी उत्सुकता को
ज़्यादा देर तक रोक नहीं पाया। एई बताओ मदन कि झाबुआ जैसी
पिछड़ी जगह जाने के लिए तुम उतना ज़ोर क्यों लगाया?
उधर हमारा दूसरा बीबी रहता।
ओरी बाबा! तुम तो छुपा रुस्तम रे। आज तक किसी को बताया नहीं।
मौका ही नहीं लगा यार। अभी दो सुट्टे लगा कर आता हूँ।
जब मदन सिगरेट पीकर, फ़ारिग होकर लौटा तो असीम महाराज ढेर हो
चुके थे। इसे भी जल्दी सोने की बीमारी है मदन ने सोचा। मदन
बर्थ पर लेटकर अडोर्नो की कल्चरल प्रोडक्शन्स पढ़ने लगा। पर आज
भी भारत में पढ़ने का वह शौक कहाँ।
भाई साहब! रात काफी हो चुकी है बत्ती बंद कर दें तो बेहतर
होगा। ऊपर की बर्थ से आवाज़ आई।
मदन का मन तो कर रहा था कि वह कहे कि अभी उसे और पढ़ना है
लेकिन सोचा हर कदम पर बहसबाजी से क्या मिलेगा। बत्ती तो बंद हो
गई पर उसे नींद कहाँ आती थी इतनी जल्दी। लेटे-लेटे वह झाबुआ
में बीते अपने बचपन के दिनों के बारे में सोचने लगा।
१९६४ की बात है। शाजापुर से पिताजी का जब तबादला हुआ तो सब लोग
रेल से मेघनगर पहुँचे। दिल्ली से आने वाली राजधानी एक्सप्रेस
सुबह क़रीब साढ़े चार बजे वहाँ पहुँचती थी। छोटा सा सुनसान और
अँधेरे से भरा स्टेशन था। महाविद्यालय के कुछ शिक्षक और बाबू
लोग स्वागत के लिए आए थे। बस सुबह सात बजे मिलती थी सो वहीं
डाक बँगले में विश्राम करने का प्रबंध किया गया था। पर नींद
किसे आनी थी। माँ पलंग पर लधर गईं और बाहर के बरामदे में
पिताजी और हम अपनी नई दुनिया से वाकिफ़ होने में जुट गए।
अभी पिछले प्राचार्यजी ने तो मकान खाली किया नहीं है इसलिए
आपके रहने का प्रबंध सर्किट हाउस में कर दिया है। वैसे भी इधर
कम लोग आते हैं इसलिए जब तक आपके मकान में पुताई आदि होती है
आप वहीं रहेंगे। कालेज के भौतिकी के प्रोफेसर ने कहा।
बहुत पिछड़ा इलाक़ा है साहब, हेड बाबू ने जैसे चेतावनी देते
हुए कहा। बात-बेबात पर हत्या हो जाना तो यहाँ आम बात है। आजकल
भी यह लोग तीर-धनुष रखते हैं। हेड बाबू भी शायद किसी शहर से
तबादले पर ही आए थे ऐसा मदन को उनकी बातों से लगा।
तब तक माँ को भी उत्सुकता हो आई थी सो वह भी बाहर आ गई थीं।
हेड बाबू ने उनके मतलब की बात बताते हुए कहा माताजी आप तो बहुत
खुश होंगी यहाँ क्योंकि सब्ज़ी बहुत सस्ती है। पावली मतलब
चवन्नी में पूरी टोकरी साग-सब्ज़ी दे जाते है यह लोग। आप तो
जानती ही होंगी इन लोगों को भील कहते हैं, एक आदिवासी जनजाति
है। बहुत सीधे-सादे और भोले लोग हैं यह। बस गुस्सा आ जाए तब
खतरनाक हो जाते हैं।
सुबह होते ही सब लोग बस से झाबुआ के लिए निकले। काफी सूखी
ज़मीन लेकिन बीच-बीच में मकई के हरे-भरे खेत दिखाई पड़ते थे।
बस अड्डे से उतर कर सीधे वह लोग झाबुआ के सर्किट हाउस पहुँचे।
मदन और उसका बड़ा भाई दोनों खुशी से नाच उठे। जैसे कहीं स्वर्ग
में आ गए हों। अंग्रेज़ों का बनवाया हुआ शानदार भवन जिसके पास
ही एक सुन्दर सा तालाब था। चारों तरफ आम के बड़े-बड़े पेड़
जिनमें हरी-हरी केरियाँ लटक रही थीं। जून का महीना था मदन को
याद आया।
सोचते-सोचते पता ही नहीं चला कब मदन को नींद आ गई। सुबह साढ़े
सात बजे असीम बाबू की आवाज़ से नींद टूटी।
दूसरी पत्नी के सपने देख रहे हो क्या?
हूँ.. नहीं.. हाँ... कहाँ पहुँच गए दादा?
नागदा आने वाला है। तुम तो इधर बहुत रहा है ना …नाश्ते में इधर
का कोई खास चीज़ खिलाओ ..
ज़रूर बाबू मोशाय, यहाँ तो लोग नाश्ते में पोहा-सेंव खाता है,
आपनि खाबेन ...
इंदौर पहुँचने पर दोनों ने नहा धोकर तीन दिन के लिए टेक्सी तय
की और झाबुआ के लिए निकल पड़े। असीम बाबू सेन्सुई का नया
स्टीरियो प्लेयर कान में लगा कर संगीत सुनते हुए इधर-उधर का
नज़ारा देखने लगे और मदन को एक बार फिर आडोर्नो का लेख पढ़ने
का मौका मिल गया।
बीच सफ़र में जब दोनों अपने मनपसंद कामों से कुछ ऊब से गए तो
असीम बाबू ने सन्नाटा तोड़ते हुए कहा यार कुछ बताओ ना झाबुआ के
बारे में... अपनी दूसरी बीबी के बारे में...
मदन को एक बार फिर अतीत में जाने का मौका मिल गया। बहुत मज़ा
था झाबुआ में। बड़ा सा मकान और अनेक नौकर-चाकर मंगलू, वीरू,
आदि। सरकारी स्कूल में दाखिला हुआ जिसमें सरकारी अफ़सरों के
बच्चे भीलों के बच्चों के साथ पढ़ते थे। कहाँ पढ़े-लिखों की
तीसरी-चौथी पीढ़ी और कहाँ किताबों की शक्ल पहली बार देखती
पीढ़ी। असीम बाबू, जिस दिन मास्टरजी ने मेरे भील सहपाठी से
जवाब न मिल पाने पर मुझसे उसके कान पर कंकड़ रख कर मसलने को
कहा उस दिन मेरा मन दिन भर ग्लानि से भरा रहा।
पंद्रह अगस्त आया और जब प्रभात फेरी से घर लौट रहा था तो एक
बनिए की दुकान पर यों ही रुक गया। मुझे भीलों के रंग-बिरंगे
कपड़े बहुत अच्छे लगते थे। देखा क्या असीम, बनिया तराजू के एक
पलड़े पर भील का लाया हुआ घी रख कर दूसरी तरफ दाल और नमक तोल
रहा है। तब तो पता नहीं था पर बाद में जाना कि इसे बार्टर
व्यवस्था कहते हैं।
तुम सच बोलता है क्या? हमको विश्वास नईं होता।
अरे गज़ब की दुनिया थी वह उत्साहित हो कर मदन कहने लगा। स्कूल
से घर जाते समय रास्ते में जंगल भी पड़ता था। कई बार उसके भीतर
से भी आते थे। सुबह अनास नदी का पुल पार करते हुए दौड़ने जाते
थे चार-पाँच मील दूर... दूर-दूर तक पेड़ों पर टेसू के फूल लाल
या फिर भगुआ रंग के। देख कर ही पता चल जाता था कि होली आने
वाली है। लौटते समय पेड़ों के नीचे गिरे ताजे-ताजे फूल बटोर कर
ले आते थे...
खटाक!
ड्राइवर के सामने शीशे पर एक पत्थर आकर लगा।
क्या था? असीम बाबू ने पूछा।
वह देखो उस भील ने गोफन से कार का निशाना लगाया था। वह तो शुकर
करो कि दारू पिए हुए है, नहीं तो इनका वार चूकता नहीं। असीम
भाई इसका मतलब है कि झाबुआ आने वाला है और आपके स्वागत में
हवाई फायर होने लगे हैं।
जैसे ही कार ढलान पर आई तो मदन चिल्ला कर बोला देखो असीम भाई
वह रही अनास नदी!!
वो कोई नदी है? ऊ तो नाला माफिक दिखता है।
वाकई असीम सही कह रहा था। पर इसमें तो बहुत पानी होता था? मदन
ने ड्राइवर से पूछा।
अब कहाँ साब, अब तो वो देखो कृषि विभाग वालों ने ऐसे कई चैक
डैम बना दिए हैं।
मदन ने देखा कि विकास के इतने नारों के बाद भी बहुत कुछ वैसा
ही है इस शहर में।
शहर के कलेक्टर से मिलकर कल होने वाले उद्घाटन के बारे में
बातचीत की। उन्होंने मीनाक्षी होटल में हमारे ठहरने के प्रबंध
के बारे में बताते हुए हमें सलाह दी कि हम पाँच साल पहले खुले
पोलिटेक्निक को जा कर देख ज़रूर लें। कुछ देर होटल में आराम
करने के बाद मदन ने कहा यहाँ बैठे-बैठे भी क्या करेंगे असीम
बाबू। चलो वह पोलिटेक्निक ही देख आएँ।
ठीक ही है, चलो। असीम ने कहा।
पोलिटेक्निक अनास नदी के पास ही था। मदन ने ड्राइवर से कहा
ज़रा पुल के पास गाड़ी रोक दो। गाड़ी से उतर कर मदन और असीम उस
जगह पहुँचे जहाँ बचपन में मदन तैरा करता था। अब वहाँ तैरने
लायक तो दूर मुँह धोने भर का पानी भी नहीं था।
मायूस मदन गाड़ी की ओर लौट गया। पोलिटेक्निक के प्रिंसिपल ने
बताया कि इस संस्था को बनाने के लिए भारत सरकार ने सात करोड़
रुपए का अनुदान दिया है। फिर वह मदन और असीम को उन कार्यशालाओं
में ले गए जहाँ एकदम नई लेथ मशीनें जंग खा रही थीं। बड़े-बड़े
हाल लेकिन एक परिंदा तक वहाँ नहीं था।
साब, चाय नाश्ता लगा दिया है। वहाँ के चपरासी ने प्रिंसिपल
साहब को सूचना दी।
चलिए, जलपान ग्रहण कीजिए। प्रिंसिपल ने असीम और मदन से कहा।
जहाँ अग्रवाल साहब बैठे थे उसके पीछे एक ओर लकड़ी के बोर्ड पर
उनसे पहले यहाँ काम कर चुके प्रिसिपलों के नाम दर्ज थे।
मानवेंद्र शर्मा, रघुराज सिंह, रजनीश माथुर, प्रीतम सिंह,
डी.एन.गुप्ता और फिर भोलानाथ अग्रवाल। दूसरी ओर आरंभ से अब तक
परीक्षा में सर्वोच्च स्थान पाए छात्रों के नाम थे मनोहर लाल
गुप्ता, कुंवर पाल सिंह, ओम शुक्ला, राधवेन्द्र सिंह, प्रमोद
श्रीवास्तव और मनोज मिश्रा। प्रिंसिपल ने बताया कि पिछले साल
से अनुदान न मिल पाने की वजह से शैक्षिक सत्र बंद हो गया है पर
पहले जिन बच्चों को इंदौर के पोलिटेक्निक में प्रवेश नहीं मिल
पाता था वही शहरी बच्चे यहाँ से डिप्लोमा करने आ जाते थे।
चाय पीकर प्रिंसिपल से विदा लेकर दोनों लौट आए और होटल में
थोड़ा सा आराम किया। रात को मेघनगर जो जाना था चेयरमैन साहब को
लेने जो उसी राजधानी से आ रहे थे जिससे करीब तीस साल पहले मदन
अपने परिवार वालों के साथ यहाँ उतरा था। शाम सात बजे जब असीम
और मदन महाराजपुर के लिए रवाना हुए तो मदन की यादों का सिलसिला
आगे बढ़ा।
असीम दा! तुम्हें एक दिन का किस्सा सुनाता हूँ। मदन ने कथा
आरंभ की।
हमारे घर के सामने एक बड़ा सा ढलान था। कालोनी के सभी बच्चे
वहीं सायकिल चलाना सीखते थे। आरंभ में कैंची सायकिल, फिर सीट
पर बैठ कर। बड़े भाई की खूब डाँट खा कर उस दिन मैंने पहली बार
कैंची सायकिल चलाई थी और मैं ढलान के आखिरी छोर से लौट रहा था।
अचानक मुझे लगा कि मैं सपना देख रहा हूँ। मेरे सामने से जो भील
आ रहा था उसके पीछे-पीछे कालोनी के कई बच्चे चल रहे थे, हक-बक
और बदहवास। पास जाने पर पता चला कि एक तीर उसके पेट को चीर कर
आधे से ज़्यादा पीछे की ओर निकल आया है। वह बहादुर भील बेहोश हो
कर गिरने के बजाय पाँच-छह मील से पेट की तरफ से तीर को पकड़े
चला आ रहा था। मेरे पूछने पर कि वह कहाँ जा रहा है उसने बताया
कि वह अस्पताल जाएगा जहाँ डाक्टर फाल की तरफ से तीर को काट कर
उसे पेट से निकालेगा और पट्टी कर देगा।
वही सुबह के साढ़े चार बजे मदन, असीम और एस.डी.एम. अंसारी
मेघनगर स्टेशन पर राजधानी के आने का इंतज़ार कर रहे थे। गाड़ी
आयी और वहाँ रुकी। पूरी ट्रेन से केवल एक यात्री फर्स्ट एसी के
डिब्बे से निकला। कोई और नहीं बल्कि हमारे कार्यालय के एम.डी.
श्रीधरन साहब। अंसारी ने कहा साहब, आप थक कर आये होंगे यहीं
डाक बँगले में थोड़ा आराम कर लीजिए फिर सुबह सात-आठ बजे तक
निकल चलेंगे। पर एम.डी साहब को लगा कि विश्राम घर से ठीक तो
झाबुआ के सर्किट हाऊस में जाना ही उनकी शान के मुताबिक होगा।
अंसारी ने अदब से कहा साहब रात में जाना ठीक नहीं है इस इलाके
में।
अच्छी बात है, चलिए।
डाक बँगले में तीस साल पहले की तरह चाय-पानी का कोई इंतज़ाम
नहीं था। एस.डी.एम अंसारी बहुत ही सरल स्वभाव के इन्सान थे
लेकिन उनके ओहदे का जादू था कि तुरंत ही सिपाही कुछ अच्छे वाले
बिस्कुट और दूध की स्पेशल चाय बनवा कर ले आया।
श्रीधरन साहब ने पूछा यह भील लोग कैसे होते हैं। अंसारी ने कहा
साहब बहुत भले लोग होते हैं पर पता नहीं कब क्या कर बैठें।
इनका एक त्यौहार होता है भगोड़िया जिसमें इनके जवान
लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे को पसंद करते हैं और भाग कर आपस में
शादी मना लेते हैं। अभी पिछले साल इसी त्यौहार में एक भील
ताड़ी पीकर एक इमारत की सीढ़ी पर बैठा था। मैं जब अपनी जीप पर
वहाँ से गुजरा और उससे मिला तो वह बहुत खुश था। अभी मैं घर तक
ही पहुँचा था कि वायरलेस पर संदेश मिला कि हमारे एस.आई. को एक
भील ने गंडासे से मार दिया है। तुरंत लौटा तो देखता हूँ कि वही
भील वहाँ बैठा है। पुलिसवालों ने बताया कि इसी ने इंसपेक्टर की
हत्या की है। उससे पूछा तो बोला हाँ साब, हमने इसे मारा। मैंने
पूछा क्यों मारा तुमने इसे, तो कहने लगा यों ही। पुलिसवालों ने
बताया कि एस.आई. ने इसे डाँटते हुए पूछा था यहाँ क्या कर रहे
हो तो इसे गुस्सा आ गया।
इनकी मज़ेदार बात यह है कि यह जुर्म करने के बाद भागते नहीं
हैं और इन्हें जेल भेज दो तो भी अपने बचाव में वकील करना
आवश्यक नहीं समझते।
सुबह होने तक ढेर सी बातें हुईं और फिर गाड़ियों का काफिला
झाबुआ की ओर चल पड़ा। उसी दिन दोपहर को हैलीकॉप्टर से दिल्ली
से हमारे मंत्री, यहाँ के मुख्यमंत्री, झाबुआ के संसद सदस्य
अलीराजपुर जाने वाले रास्ते के एक ऊबड़-खाबड़ मैदान के पास
उतरे। हमारे कार्यालय की नई शाखा की आधारशिला रखी गई। भाषण हुआ
और लोहे की चिड़िया फिर आकाश में गुम हो गई। उन्हीं लोगों के
साथ हमारे एम.डी भी उड़ चले।
मदन और असीम लौटकर इंदौर आए और रात की इंदौर एक्सप्रेस से
दिल्ली के लिए निकल पड़े। असीम की उत्सुकता अभी खत्म नहीं हुई
थी, उसने फिर दूसरी बीबी का प्रसंग छेड़ दिया।
मदन ने मन ही मन सोचा कि लोग अपनी पसंद की बातों को तुरंत सही
क्यों मान लेते हैं।
उस दिन जब मदन को झाबुआ में कार्यालय की शाखा खुलने की बात पता
चली तो वह खुशी से उछल पड़ा। वैसे तो वह हमेशा एम.डी. से मिलने
से कतराता था लेकिन उस दिन वह स्वयं उनसे समय लेकर उनके कमरे
में जा पहुँचा।
सर, झाबुआ किसे भेज रहे हैं?
भई दो लोगों को जाना पड़ेगा फिर अगले दिन मैं भी जाऊँगा।
क्यों?
सर अगर आपने नाम तय न किए हों तो मैं भी जाना चाहूँगा।
वहाँ तो कोई जाना ही नहीं चाहता, डी.ए. कम मिलता है न वहाँ का!
पर तुम्हें क्या दिलचस्पी है?
सर! बचपन में वहाँ रहा था। वहाँ एक नदी है अनास जिसमें नहाया
करता था..उसे देखने का मन करता है।
ठीक
है तुम चले जाओ असीम राय के साथ।
मुस्कुराते हुए मदन ने असीम की ओर देखा। यह असीम बाबू भी खूब
हैं। मैने कहा कि यहाँ मेरी दूसरी पत्नी रहती है तो मान गए। एक
मैं हूँ जो झाबुआ से लौटते हुए इसलिए उदास हूँ कि अनास नदी सूख
गई है और रंग-बिरंगे प्रिंट वाले कपड़े पहने मोटर साइकिल पर
घूमते सीधे-सादे भील आज भी प्रकृति के इतने नज़दीक हैं कि
उन्हें इस शोख नदी के मर जाने का शायद अहसास ही नहीं है। |