स्टेट हाइवे नं. एक सौ पन्द्रह
के किलोमीटर क्रमांक १ से ३० तक की चकाचक सड़क देखकर नेशनल
हाइवे वाले भी लज्जा खाते हैं। यह सड़क मेरे कस्बे को महानगर से
जोड़ती हुई आगे निकल जाती है।
लीला का ढाबा इसी रोड पर छठवें किलोमीटर पर है और वनस्पति घी
की फैक्ट्री भी इसी मार्ग में ग्यारहवें किलोमीटर पर बनी है।
पुरानी गुफाएँ और पहली शताब्दी में बने प्राचीन जैन मन्दिर भी
इसी रोड पर हैं।
आज मैं बहुत फुर्सत में हूँ, जनाब। चलिये कोई किस्सा हो
जाये। लीला के ढाबे का ठीक रहेगा ...न-न, आज वह नहीं और
वनस्पति घी की कहानी भी नहीं। वह फिर किसी दिन सही। जैन मन्दिर
से जुड़ी कहानी जरूर सुन सकते हैं। लेकिन मेरी दिली इच्छा है,
कि आज इनमें से कोई कहानी न सुनें। मैं आप को कुछ और सुनाना
चाहता हूँ।
आज आप को यादव साहब की कहानी सुनाने को जी चाह रहा है। सुनेंग
आप? शायद यादव सरनेम से आप समझे नहीं हैं, अरे वही मेरे
पड़ोसी यादव साहब जिनके दरवाजे पर टाइम कीपर से लेकर असिस्टेण्ट
इंजीनियर तक गाड़ी लिये खड़े नजर आते हैं। नाक पर मोटा चश्मा और
बदन पर ढीले-ढाले सूट को किसी तरह उलझाए यादव साहब को आप हमेश
ही सर्वे, नक्शे, ड्राइंग रूम और इस्टीमेट से उलझे
हुए पाएँगे। काम के कीड़े हैं। चौबीस में अठारह घण्टे तक काम
करते हैं। कहने को सब-इंजीनियर हैं मगर अनुभव किसी
एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से कम नहीं है। अरे भई छब्बीस साल की
सर्विस छत्तीसगढ़ में पूरी हुई है। यहाँ तो अभी आए हैं- दो साल
पहले।
छत्तीसगढ़ में हर तरह का काम कराया है, यादव साहब ने।
मजाल क्या कि सुपरिटेण्डेण्ट इंजीनियर ने भी उनके काम में
नुक्स निकाली हो। एक वर्ष दिल्ली भी रह आए हैं, म.प्र.
भवन में इंचार्ज ऑफिसर बनके मगर क्या हिम्मत कि एक पैसे का भी
किसी ने कलंक लगाया हो। ठेकेदार तो इनका नाम सुनकर ही घबराते
हैं, अरे बाप रे ! यादव साहब से तो राम बचाए। एक-एक इंच
का काम देखेंगे, भुगतान तब होने देगें।
अपने टाइमकीपर और असिस्टेण्ट (सब-ओवरसियर) को ही लगातार
फटकारते रहते हैं वे। ये नहीं देखा, वो नहीं देखा। इतना
नुकसान हो गया, उतनी बरबादी हो गई। सरकार का इतना नुकसान
कौन भरेगा अब? तुम्हारी लापरवाही से सब हुआ है, तुम्हारी
ही तनख्वाह से काटा जायेगा और हर माह बेचारे टाइमकीपर या
असिस्टेण्ट को सौ-पचास रुपये भरने पड़ते हैं। मौका पड़ने पर खुद
अपनी तनख्वाह काट लेते हैं, यादव साहब। सभी राम-राम करके
दिन निकालते हैं। परमानेण्ट गेंग हो या टेम्परेरी गेंग,
यादव साहब खुद सारा काम देखते हैं। लेबर को काम करने का तरीका
सिखाते हैं, खुद काम करके। चाहते हैं, सरकार की आठ
घण्टे की ड्यूटी हो सके, तो दस घण्टे काम लिया जाए,
काम चोरी न हो पाए।
सोते-जागते सरकार की ही सोचते हैं।
उनकी बिरादरी के दूसरे सब-इंजीनियर पीठ पीछे हँसी उड़ाते हैं।
अटठाइस बरस की नौकरी और घर में अटठाइस हजार का भी सामान नहीं
हैं। बच्चे टी. वी. को तरसते हैं, मगर उन्हें टेप या
ट्रांजिस्टर तक नसीब नहीं होता। बैठक में एक सोफा भी नहीं है
कि आगत व्यक्ति बैठ जाये। बस लोहे की छड़ी से बनी और बेंत की
बुनी चार कुर्सी पड़ी हुई हैं, उन्हीं पर सब आकर बैठ जाते
हैं, बतियाते हैं और चले जाते हैं मगर यादव साहब को किसी
की फिक्र नहीं है वे तो अपनी मेज पर फैले नक्शे में खोए हैं।
कभी अर्थ वर्क वाली सड़क तो कभी ऐसफाल्टिंग वाली रोड सामने पसरी
है। कभी किसी पुलिया का प्लान सामने फैला है और मुँह में जर्दे
की चुटकी दबाये यादव साहब उसमें डूबे हुए हैं। मैंने देर रात
को उनकी बैठक की लाइट को सदा जलते ही पाया है। खुद जागते हैं,
और बीच-बीच मैं पत्नी को जगाते हैं, चाय के लिए। हर
घण्टे पर उन्हें एक कप चाहिए। फिर यादव साहब निश्चिन्त हो जाते
है, अगले एक घण्टे तक जागने के लिये।
अगले दिन मैंने उनसे पूछा
- ‘‘ यादव साहब, कल देर रात तक जागते रहे, क्या बात है? कोई
विशेष काम आ गया?’’ बस इतना सुनकर गम्भीर हो जाते और ढेर सारे
काम दिखा देते, फिर अपने मातहत लोगों का रोना रोते - ‘‘क्या
बताऊँ शर्माजी, लोग काम ही नहीं करना चाहते। मजदूर चाहता है,
मैं सिर्फ दो घण्टे काम करूँ और बैठकर बीड़ी पीता रहूँ। अरे
भाई, फिर काम कौन करेगा? कैसे चलेंगीं ये सरकारी योजनाएँ? कैसे
होंगे सरकरी काम? मैं उनकी बात हँसी में टाल देता और कहता
-‘‘साहब! आपको क्या ए. जी. ने खास तौर से नियुक्त किया है कि
सरकारी धन की बरबादी रोकते फिरो ! अरे साहब काहे को गरीब लोगों
की बददुआ लेते हो। मजे करने दो लोगों को। खाओ और खिलाओ। ऊपर के
लोग भी ऐसे हैं, आप अकेले क्या कर लेगें?’’
सुनकर वे नाराज हो जाते और कहते- ‘‘ सरकारी ड्यूटी पूरा कराने
में काहे की बद्दुआ? आलसी आदमी को दण्ड देना ही पड़ेगा नहीं तो
कैसे चलेगा काम-धाम? और फिर सरकारी
पैसा बीच में खा जाना तो विष्ठा खाना है। अरे भाई, मस्टर
खोला जाता है, जनता के जरूरी काम के लिए, सुरक्षा
के लिये और हम उसे बीच में ही गायब कर दें तो विष्ठा खाना नहीं
हुआ? भाई, सरकार हमें तन्ख्वाह देती है, हमारी
मालिक है, हमारा परिवार पालती है। हम उससे कैसे गद्दारी
करदें। प्राइवेट कम्पनियाँ निचोड़ लेतीं हैं, आदमी को तब
छोड़ती हैं। ’’
मैं चुप रह कर सुनता रहता। बस इससे ज्यादा यादव साहब कभी न
खुलते थे। एक लौह कवच उनके इर्द-गिर्द व्याप्त था।
ऐसे यादव साहब पर उस नये इंजीनियर ने आरोप लगा दिया कि वे
सरकारी धन का गबन कर गये हैं और उसकी कीमत साहब की तनख्वाह से
काटी जायेगी। यादव साहब खूब तमतमाये और चिल्लाये। वह उनकी सही
बात काहे को सुनेगा। उसने बसूली के आदेश दे दिये। सो आज कल
यादव साहब की तनख्वाह से आधी रकम कट जाती है। गरीबी में आटा
गीला हो रहा है, खर्च चलना मुश्किल है परन्तु यादव साहब
के उत्साह में कोई फर्क नहीं है। वे उसी उत्साह से अपने काम
में लगे हैं। कभी किसी ऐस्टीमेट में उलझे दिखते हैं तो कभी
ब्लूप्रिंट में। माथे पर जरा भी शिकन नहीं है। धन्य हैं,
यादव साहब।
मैंने सारा माजरा पूछा भी तो मुस्करा कर चुप रह गये। बताया कुछ
नहीं। उनकी इसी हँसी के पीछे कितना दर्द छुपा है, यह
आँखों से नहीं दिखता बल्कि अनुभव किया जा सकता है। मैंने अनुभव
किया है कि उनकी पत्नी अब रोज सब्जी नहीं खरीदतीं हैं। उनके घर
रोज अखबार भी नहीं आ रहा है। शयद दूध भी बन्द कर दिया गया है।
लेकिन पड़ोसी होने के बाद भी प्रगट में मुझे कुछ पता नहीं है।
वो तो मैंने उस दिन उनके टाइम कीपर को बाहर खड़े देखा, तो
यादव साहब के घर पर मौजूद न होने का अन्दाज लगा। टाइमकीपर को
अपने घर बैठा लिया था। तब उसने डरते-डरते मुझे गबन वाला किस्सा
सुनाया है।
दरअसल सारा झमेला शुरू हुआ था नये एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के
आगमन के साथ। नया आदमी होने से न तो ई. ई. जैन को ये पता था कि
यादव साहब का स्वभाव क्या है, प्रकृति क्या है, और
विचार क्या है? और न ही वह इस बात के लिए तैयार था, कि
किसी भी प्रकार का बिल बिना लिए-दिए पास किया जाए। अपने दूर के
रिश्तेदार को उसने ठेकेदार के रूप में रजिस्टर्ड करा दिया था
और येन-केन प्रकारेण उसे कोई ठेका उसे दिला ही देता था। सब कुछ
सामान्य गति से चल रहा था।
अचानक जिले में लोक निर्माण मंत्री का दौरा घोषित हो गया और जब
दौरे का प्रोग्राम आया तो पी.डब्लू.डी. वाले सब लोग परेशान हो
उठे थे। मंन्त्री जी की कार को उस रास्ते से होकर निकलना था,
जो यादव साहब के चार्ज में था। कहने को वह रोड स्टेट हाई वे
थी। वही रोड वनस्पति घी की फेक्ट्री तथा पुरातन गुफाएँ और
मन्दिर जोड़ती थी लेकिन यादव साहब के कई प्रस्तावों के बाद भी
वर्षों से उस रोड पर मरम्मत - कार्य नहीं हो पाया था इस कारण
उसकी हालत किसी एप्रोच रोड जैसी हो गई थी। जगह-जगह हो गये
गड्डे और कदम-कदम पर उखड़े डामर ने हालत ये कर दी थी कि तीस
किलोमीटर का यह टुकडा पार करते-करते दो घण्टे खर्च हो जाते थे।
आनन-फानन में बैठक बुलाई गई और जिले का सारा पैसा बटोरकर उसी
टुकड़े पर झोंकने का निर्णय लिया गया। पूरे मनोयोग से यादव
साहब ने रोड के गड्डे भरने का पैचवर्क कराना शुरू किया ही था,
कि तैयारी देखने आए विधायक ने रोड की दुर्दशा देखकर बुलन्दी से
घोषणा कर दी कि पन्द्रह दिन के भीतर जैसे भी होगा इस रोड पर
नया कारपेट बिछना शुरू हो जाएगा। विधायक की बात में दम था।
जिसे एस. ई. ने भी स्वीकार किया और यादव साहब से अच्छा काम
कराने के लिए विशेष आग्रह किया गया था। तमाम जगह मस्टर बन्द
होने के बाद भी इस रोड पर मस्टर वर्क स्वीकृत किए गए और सर्कल
आफिस का स्टोर यहाँ के लिए उदारतापूर्वक खोल दिया गया।
यह काम कराते वक्त भी यादव साहब के मस्तिष्क से शासकीय धन की
चिन्ता नहीं छूटी। उन्होंने सोचा जब इस रोड पर कारपेट बिछाना
ही है और उसमें ठेकेदार का निजी सामान खर्च होना है तो विभागीय
सामान की अधिक बरबादी क्यों की जाय। फिलहाल काम चलाने लायक
लीपा- पोती कर ली जाए और बाद में ठेकेदार के सामान से जी खोलकर
काम कराया जाए।
मस्टर वर्क में यादव साहब ने इसी कारण सड़क के किनारे जोड़ने
का एजिंग वर्क भी नहीं कराया।
अन्ततःमन्त्री का वह दौरा ठीक-ठाक निबट गया था। समय से मस्टर
रोल का भी पेमेण्ट हो गया और कई दिन निकलने के बाद भी ई. ई. तक
उसका हिस्सा नहीं पहुँचा तो धैर्य खोकर उसने अपने प्रिय बाबू
सिघंई को यादव साहब तक पहँचाया था हिस्सा पहुँचाने का आदेश
देकर और यादव साहब ने खिन्न स्वर में जबाब दे दिया था कि मस्टर
रोल में से पैसा खाना और खिलाना उसके सिद्धान्त के खिलाफ है।
आइन्दा ई. ई. साहब मुझे कोई ऐसा काम प्रदान न करें।
ई. ई. जैन को अखर गई थी और वह मौके का इन्तजार करने लगा था।
विधायक की मेहनत रंग लाई और इस रोड के लिए रिन्यूअल स्वीकृत हो
गया। टेण्डर निकाले गये। मिल-जुल कर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ने
अपने रिश्तेदार बंसल का टेण्डर पास करा दिया और वर्क आर्डर
जारी कर दिया। काम शुरू हुआ। तीन इंच की पर्त बिछाने का ठेका
है, यह सोचकर ठेका लेने वाले बंसल ठेकेदार को यादव साहब
के चक्कर में फँसकर चार इंच की लेयर डालनी पड़ रही थी। क्यों कि
पुराने गड्डे अभी पूरे नहीं भरे थे, जब कि वह दो इंच की
लेयर डालने के चक्कर में था। एक किलोमीटर बीतते-न-बीतते बंसल
बौखला उठा। उसने साफ घोषणा कर दी कि वह भुगतान का न ३ प्रतिशत
एस.डी. ओ. को देगा और न १० प्रतिशत दफ्तर के लोंगो को देगा। ई.
ई. को और सब इंजीनियर को तो देने का सवाल ही नहीं है।
ठेका पूरे ढाई करोड का था। सारे जिले में हंगामा था इस काम का
लेकिन यहाँ तो मामला ठन-ठन गोपाल होने जा रहा था और वह भी इस
हरिश्चन्द्र की औलाद यादव की वजह से। फिर क्या था। दुन्दभी
बजने लगी। वीर सजने लगे। गोला-बारूद इकट्ठा होने लगा। बाकायदा
बंसल से शपथ पत्र पर शिकायत लिखाई गई। गुणवत्ता नियन्त्रण-कक्ष
सक्रिय हुआ। ई.ई ने एक आयोग जारी कर दिया सारे गड़बड़ की जाँच
के लिए। जगह-जगह रोड खोदी गई। पर्त की मोटाई नापी गई और कमीशन
ने अपना प्रतिवेदन बंसल के पक्ष में दिया। सारा मामला अपनी
टिप्पणी के साथ एस.ई को भेज दिेया।
उधर यादव साहब पर इन बातों का कोई असर न था। ठेके में कहीं भी
पर्त की मोटाई का जिक्र न था और उन्होंने ठेकेदार से ज्यादा
काम करा भी लिया तो क्या हुआ? काम सरकारी हित में कराया गया
है। किसी के आँगन में नहीं हुआ यह काम। वे तेज गति से काम
कराते रहे। काम अच्छे-से-अच्छा हो रहा था और एक-एक इंच की
पैमाइस चल रही थी। अपनी एम.बी. यानि मेजरमेण्ट बुक (माप
पुस्तिका) में यादव साहब ने कुछ नहीं छिपाया था उनकी नियत में
कोई खोट नहीं थी फिर काहे के लिए वे कुछ छिपाते!
एस.ई. के यहाँ से फाइल लौटने में एक महीने की देर हुई तो
एक्जीक्यूटिव इंजीनियर जैन खुद मिलने जा पहँचा वहाँ और अपने मन
मुताबिक आदेश करा लाया। तब तक पी.डब्ल्यू. डी के आठों रोलर और
ठेकेदार की मजदूरों की मदद से यादव साहब पूरी रोड का काम निपटा
चुके थे। रोड लकदक थी, एकदम टनाटन। ठेकेदार की मजबूरी थी कि
काम समय सीमा में पूरा करना था और फिर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर
का आश्वासन भी था कि उसके एक-एक पैसे का भुगतान करा लेंगे हम
लोग। वह तो निस्संकोच काम किए जाए।
फिर यादव साहब से एक दिन एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ने सारी
मेजरमेंण्ट बुक्स अपने दफ्तर में मँगवाई और जब्त कर लीं। कीचड़
में फिंके पत्थर के कुछ छींटे तो उनके दामन तक आएँगे,
ऐसी आशंका यादव साहब को भी थी इसलिए वे शान्त मन से रिकार्ड
जब्त कराके अपने घर लौट आए।
दस दिन बाद यादव साहब को एक इत्तिला मिली थी, जिसमें
उनके पुरानी मस्टर रोल के झूठे होने की आशंका व्यक्त कर उन पर
गबन का आरोप लगाया गया था। ठेकेदार द्वारा कराए गए काम की
मास्टर बुक को आधार बनाकर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ने उन्हें
लिखा था कि जब चार इंच के गड्डे भरने का पूरा काम ठेकेदार ने
ही किया तो उन्होंने पेच वर्क किन गड्डों का करा डाला? अगर वे
दोनों गड्डे एक ही रोड पर थे तो कितने गहरे थे, कि उनको
दो-दो बार भरने का काम कराना पडा। आरोप-पत्र का जबाब दस दिन
में देना था और पत्र जारी होने के दसवें दिन यादव साहब के पास
पहँचा था वह पत्र।
वे उस पर विचार करते कि अगले दिन एक निर्णय पत्र उन्हें थमा
दिया गया था। पुराने मस्टर रोल के पूरे खर्च छब्बीस हजार तीन
सौ पिचहत्तर की राशि उनके वेतन से काटी जाएगी। पत्र पाकर यादव
नाराज हुए। अपना पक्ष रखा। न्याय के सिद्धान्त बताऐ। शासन के
आदेश सुनाए। लेकिन कौन सुनता? एक्जीक्यूटिव इंजीनियर की डोर से
जुडा एस.ई. काहे को एक अदने से सब-इंजीनियर पर विश्वास करेगा।
किसी तरह यूनियन को मामले की हवा लगी तो इंजीनियर नेता सक्रिय
हुए। बात उछाली गई। यादव साहब की ईमानदारी का हवाला दिया गया।
मगर मसल वही हुई कि धनी ढीले, दलाल चुस्त। खुद यादव साहब
विभाग से नहीं उलझना चाहते थे। सो बात ठन्डी हो गई।
एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को अपने मन की करने की छूट मिल गई। फिर
उसकी शह पर यादव साहब के उत्पीड़न का दौर शुरू हुआ। उनके हर बिल
में आबजेक्शन आते। हर माह उनकी तनख्वाह अटकती। हर
निर्माण-कार्य में गुण्वत्ता की कमी निकलती और उन्हें बेतरह
डाँटा जाता। उन दिनों वे बहुत तनाव में थे।
प्रायःसाँझ के समय उनका लौटना उसी वक्त होता जब मैं बाहर लॉन
में बैठकर हवाखोरी कर रहा होता। नमस्कार करके मैं उन्हें चाय
पीने का आमन्त्रण देता, प्रायः जिसे थके और श्लथ यादव
साहब विनम्रता पूर्वक ठुकरा देते थे। यदा-कदा यह कहते हुए वे
चाय पी लेते जैसे सम्पन्न लोगों के यहाँ की अच्छी गाढ़ी चाय
पीकर हमारी तो जीभ ही चटोरी हो जाएगी। आपका क्या, सरकारी
नौकर तो है नहीं कि बँधी-बँधाई तनख्वाह में गुजर करनी है।
इस तरह मेरा उनसे संवाद होने लगा था। इर्द-गिर्द की लौह-दीवार
दरकने लगी थी। वे कुछ खुलने लगे थे।
में प्रायः पूछ लेता - ‘‘यादव साहब, आज के जमाने में ऐसी
सिद्धान्तवादिता आपने क्यों ओढ़ ली? कैसे चला पाएँगे आप?’’
‘‘चल जाएगी शर्माजी, जैसे अब तक चलती रही। छब्बीस साल की
नौकरी हो गई है मेरी। बस कुछ वर्षों बाद ही प्रमोशन होना है।
खिंच जाएगी जिन्दगी।’’
एक दिन मैंने ज्यादा गहराई से पूछा तो उन्होंने अपने बचपन का
संघर्ष सुनाया था पिता का परिचय दिया था और उनका इतिवृत्त मेरे
सामने खुलता चला गया था।
अपने मजदूर पिता की आर्थिक सीमाओं के बाद भी उन्होंने मैट्रिक
की परीक्षा गणित विषय लेकर पास कर ली थी। ग्यारहवीं में प्रवेश
लिया तो पिता ने आगे पढ़ाने से मना कर दिया था। भाग-दौड़ करके
उन्होंने चार-पाँच ट्यूशनों की जुगाड़ कर ली थी और अपना पढ़ाई
खर्च निकालने लगे थे। जैसे -तैसे इण्टर किया था और वह भी अच्छे
नम्बरों के साथ। अंक-सूची के जगमगाते प्राप्ताकों के सहारे
उन्होंने पोलीटेकनिक में प्रवेश के लिए आवेदन किया। पहली ही
सूची में उनका नाम आ गया था। पिता को मनाने का सिलसिला एक बार
फिर शुरू हुआ लेकिन अपनी बैलगाड़ी के सहारे दिनभर अनाज ढोने
वाले उनके पिता की आमदनी में पोलीटेकनिक का खर्च निकलना बड़ा
मुश्किल था, सो वे हाँ नहीं कर पाए।
यादव साहब को शुरू से ही अच्छे अक्षर लिखने का शौक था।
मस्तिष्क में विचार आया तो एक दिन रंग और ब्रुश खरीद डाले। फिर
शौकिया ढंग से यहाँ-वहाँ कुछ लिखना शुरू कर दिया। पहले वाटर
कलर से और बाद में आयल पेन्ट से वे बैनर और बोर्ड लिखने लगे।
धीमे-धीमे एक पेन्टर के रूप में उन्हें कस्बे में जाना जाने
लगा। फिर काम मिलने लगा और वे अपनी पढ़ाई पूरी करने में जुट
गये थे। रात में पेंण्टिग करते, दिन में पढ़ने जाते।
रात-दिन के परिश्रम से आँखों में कमजोरी आ गई और चश्मा लग गया।
प्रायः बीमार रहने लगे। कभी-कभार पिता उनके पास आते और स्नेह
भरा हाथ सिर पर रख कर तबियत के बारे में पूछते। अपनी आर्थिक
सीमाएँ बताते, बहन और छोटै भाई के खर्चों का विवरण
सुनाते तो वे चुप लगा जाते। पिता की बातों से लगता था,
कि वे भी कोर्स पूरा होने की प्रतीक्षा में हैं, जानते
है वे भी, कि ओवरसियर की ऊपर की आमदनी कितनी है। उनकी
इच्छा थी, कि जल्दी ही यह कोर्स पूरा हो जिससे
जन्म-जिन्दगी का दारिद्रय दूर हो जाए।
अन्ततः कोर्स पूरा हुआ और महीना बीतते-न-बीतते उनकी नौकरी लग
गई। पहले-पहले जो आदेश आया वह पी.डब्ल्यू.डी. का था। बिना
सोचे-विचारे यादव साहब ज्वाइन करने चले आये थे। उन्हीं दिनों
हुआ था, वह हादसा, जिसमें कुल चालीस बच्चे मारे
गये थे। नए बने स्कूल की पूरी छत भरभराकर गिरी थी और
हँसते-खेलते अबोध जीवन उसके नीचे दब गये थे।
बिल्डिंग के ठेकेदार और सब इंजीनियर को गिरफ्तार किया गया और
उन पर मुकदमा शुरू कर दिया था। नौजवान यादव का छात्र जीवन से
पतला सुनहरा सपना जीवन की कठोर सच्चाइ यों से रूबरू हो रहा था।
पिता की हसरतें पूरी होने जा रहीं थी कि उन्होंने एक कठोर
निर्णय कर डाला था। वे कभी भी रिश्वत नहीं लेंगे हर बार के
होने वाले भुगतान के पहले उनके मन में द्वन्द्व शुरू हो जाता।
वे रिश्वत लेने के मुद्दे पर अपने आप से भिड़ते रात-भर सोचते।
बहन के बारे में सोचते। भाई की इच्छाओं के विषय में विचार
करते। लेकिन यह न स्वीकार कर पाते कि वे लोंगो के जीवन से
खिलवाड़ करना शुरू कर दें। धीरे-धीरे एक दृढ और ईमानदार
व्यक्ति जन्म ले रहा था उनके भीतर।
उन्हें कभी तो अकल आएगी यह इन्तजार करते-करते पिता चल बसे। माँ
भी गई। पत्नी आई और थोड़े में गुजारा करने के काम में अपने आप
को प्रशिक्षित करने लगी। जैसे -तैसे करके बहिन का विवाह किया
और भाई को धन्धे से लगाकर उसका भी विवाह कर दिया। पर उन्होंने
रिश्वत लेना शुरू नहीं किया तो नहीं ही किया।
उनका मन छत्तीसगढ में लग गया था। वहाँ न ज्यादा षडयन्त्र थे,
न टुच्ची राजनीति। न घटिया काम करने वाले ठेकेदार थे और न ओछे
पत्रकार। वे उधर ही अपनी नौकरी पूरी करने के चक्कर में थे। एक
लड़की और एक लड़के के साथ छोटा- सा परिवार था जिसकी गुजर-बसर
हो रही थी। पत्नी सुहासिनी ने जिद की और छोटे भाई ने भाग-दौड़
करके अन्ततः उनका तबादला वहाँ से इधर करा लिया था। पर वे इधर आ
कर संतुष्ट न थे।
यादव साहब अपने साथ घटी तमाम घटनाएँ सुनाया करते थे। कभी किसी
की नाराजगी की तो कभी किसी की उदारता की।
उनकी पत्नी और बच्चों से भी मेरा परिवार खुलने लगा था कभी मेरी
पत्नी वहाँ चली जाती तो कभी वह हमारे यहाँ आ जाती। एक दिन मेरी
पत्नी ने पूछा था सुहासिनी से-‘‘आपको असंतुष्टि नहीं होती कभी?
आसपास के दूसरे सब इंजीनियरों के ठाट-बाट और शान-शौकत देखकर
कभी तो कोफ्त होती होगी!’’
शुरू में टालती रही थी फिर एक दिन फट पडी थी -‘‘क्या बताएँ
दीदी, बहुत परेशानी उठाई है, इनके साथ हमने। न ढंग
से पहन पाए हैं, और न ढंग से रह सके हैं अब भला थोड़ी सी
तनख्वाह से गुजारा कहाँ होता है आजकल? इस पर इनकी बहन की शादी
और भाई को इलेक्ट्रिक की दुकान डालने में एक लाख खर्च हो गया
है। वो तो मेरा मायका समृद्ध है जोमौका मौका-बे-मौका मदद आती
रहती है वहाँ से, नहीं तो राम ही जाने क्या होता? बच्चे
टी. वी. देखने को तरसते हैं, और इनसे कहो तो डाटते हैं,
कि दुनिया के सभी बच्चे टी. वी. नहीं देखते हैं पढाई करो।
नन्हें बच्चों के लिए मुझको सुननी पडती है। न खुद पहनते हैं।
और न हमें पहना पाते हैं, ढंग के कपड़े। बच्चे तो कई बार
स्कूल जाने को कतराते हैं कि उन्हें सभी चिढ़ाते हैं। वहाँ
सस्ते से कपड़े और हल्के जूता-चप्पल पहना कर रखते हैं हम
उन्हें और उस पर भी समय की मार देखो कि इन दिनों आधी तनख्वाह
कट रही है। इनसे कहा कि कोर्ट में जाओ, अदालत में दावा
करो, मगर सुनते ही नहीं। कहेंगे, पकी-पकाई नौकरी
है। विभाग से दुश्मनी मोल नहीं लेंगे हम कहेंगे कि बहुत कर ली
सरकार की वफादारी अब छोड़ों ये सब न लो रिश्वत लेकिन टाइम से
काम तो करो। सरकार के चौबीस घण्टे के गुलाम तो नहीं हैं हम कि
रात हो या सुबह, काम ही खोले बैठे रहें तो मानते नहीं
हैं अब भला बिना जाँच और ईमानदारी के सरकारी काम का पैसा कटना
अन्याय नहीं तो क्या है? लेकिन इन्होंने तो ऐसी चुप्पी साध ली
है कि बस।’’
उन्हीं दिनों मायूस से यादव से मुलाकात हुई तो वे अपनी पीड़ा
छिपा नहीं पाए थे।
तब मुझे जानकारी मिली थी कि वे अब निराश होने लगे हैं ईमानदारी
और कर्मनिष्ठता से नहीं बल्कि इस मैदानी क्षेत्र से। वे
पुनःवनवासी अंचल में लौट जाना चाहते थे। और इसके लिए ट्रान्सफर
की दरख्वास्त भी दे दी थी उन्होंने। वे बेकरारी से
स्थानांन्तरण पत्र का इन्तजार कर रहे थे लेकिन काम में तत्परता
उन दिनों भी उनसे नहीं गई थी। वे भोपाल जा कर अपना ट्रांसफर
करवाने के लिए ई. एन.सी.से मिलने वाले थे। जिस दिन उनका जाना
मुकर्रर था उसके एक दिन पहले मैनें बात चलाई थी --‘‘यादव साहब,
उधर छत्तीसगढ के जिस गाँव में आप ट्रांसफर चाहते हैं वहाँ
बच्चों की पढाई के लिए उपयुक्त स्कूल तो होगा नहीं।’’
यादव साहब चुप रह गऐ थे। उनकी ठन्डी आँखों में छिपी सचाई मुझे
आज भी याद है जो शब्द तो न पा सकी थी, पर बात पूरी कह गई थी,
कि बच्चों का स्कूल देखें या खुद का मानसिक संतुलन।
लेकिन इस वर्ष यादव साहब का ट्रांसफर हो नहीं पाया और वे फिर
काम में जुट गये हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उनके
दरवाजे पर फिर से मातहतों और अफसरों की भीड़ जुटने लगी है और
उनका रतजगा फिर शुरू हो गया है।
यह उनकी निष्ठा है, या मजबूरी, वे ही जानें लेकिन बत्तीस
दाँतों में रहती इस बेचारी जीभ की कुशलता को लेकर चिंतित हूँ। |