''सर रेणु जी
ने महुआ घटवारिन की पूरी कहानी नहीं लिखी, उसका अंत क्या हुआ
ये पता नहीं चलता'' कुसुम ने प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा की ओर
देखते हुए पूछा।
''पूरी तो है, मेरे विचार में तो कहानी पूरी है, हाँ ज्यादा
विस्तृत इसलिए नहीं लिखा है, क्योंकि मूल कथा तो हीरामन और
उसकी तीन क़समों की है, महुआ घटवारिन की कहानी तो लोक कथा के
रूप में उसमें प्रवेश करती है।'' प्रोफेसर आनंद ने अपना चश्मा
ठीक करते हुए कहा।
''नहीं सर मेरे विचार में महुआ घटवारिन की कहानी में और भी कुछ
हुआ होगा, इतनी छोटी सी कहानी भला लोक गाथा कैसे बन सकती है।''
कुसुम ने दृढ़ता पूर्वक कहा।
कुसुम
प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा के मार्गदर्शन में फणीश्वर नाथ रेणु
पर शोध कार्य कर रही है। उसने हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तार
उपाधि प्राप्त की है, तथा संयोगवश प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा ने
ही कालेज में भी उसे हिन्दी साहित्य पढ़ाया है, इसलिए वह काफी
खुलकर अपने प्रश्न कर लेती है, उनके सामने विचार रख लेती है।
शोध विद्यार्थी तथा गाइड के बीच जो औपचारिकताओं का कुहासा रहता
है, वह उनके बीच नहीं है।
प्रोफेसर
आनंद कांत शर्मा उम्र के पचपन वर्ष पूरे कर चुके हैं, वे न
केवल हिन्दी विषय के प्रोफेसर हैं, बल्कि हिन्दी साहित्य में
भी उनका नाम काफी श्रध्दा के साथ लिया जाता है, एक अच्छे कवि
के रूप में भी और एक अच्छे कहानीकार के रूप में भी। पूरा
व्यक्तित्व अत्यंत गरिमामय एवं प्रभावशाली है, खादी का कुर्ता
पायजामा, जैकेट, चेहरे पर किंचित मोटे ऐनक का चश्मा, घनी
रोबदार मूंछें, और करीने से जमे आधे सफेद आधे काले बाल, और इन
सबके साथ बोलने का एक अत्यंत प्रभावशाली अंदाज़ जिसके चलते उनसे
मिलने वाला उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। एक हिन्दी
साहित्य के प्रोफेसर की, एक हिन्दी की वरिष्ठ साहित्यकार की
जैसी छवि होनी चाहिए, उसका हुबहू प्रतिमान हैं, प्रोफेसर आनंद
कांत शर्मा।
''तुम्हें रेणु पर पी.एच.डी करनी है, या महुआ घटवारिन पर? महुआ
घटवारिन की कथा ''मारे गए गुलफाम'' की एक अंतर्कथा है, और
अंतर्कथाएं ऐसी ही होती हैं, ये भी हो सकता है, महुआ घटवारिन
की कोई लोक कथा हो ही नहीं।'' प्रोफेसर आनंद ने कुछ झिड़की
लगाने वाले अंदाज में कहा।
''नहीं सर, ये तो हो नहीं सकता, महुआ घटवारिन की तो पूरी की
पूरी कथा होगी, बल्कि मैं तो जहाँ पर रेणु जी ने उसकी कहानी को
अधूरा सा छोड़ा है, उसके बाद की पूरी कथा को कल्पित कर सकती
हूँ'' हाथ में पकड़ी पुस्तक बंद करते हुए कुछ और दृढ़ स्वर में
कहा कुसुम ने।
''अच्छा...?'' उत्सुकता पूर्वक तथा प्रश्नात्मक लहजे में कुसुम
की ओर गहरी दृष्टि से देखते हुए कहा प्रोफेसर आनंद ने ''तो
बताओ फिर क्या हुआ होगा, तुम्हारे हिसाब से महुआ घटवारिन के
साथ, उसके बाद...?''
''देखिए सर, महुआ घटवारिन की कथा जिस प्रकार चली है उसको पढ़ने
के बाद तथा यह जानने के बाद कि आज भी महुआ घटवारिन के गीत गाए
जाते हैं, मैं कम से कम यह तो कह ही सकती हूँ, कि महुआ घटवारिन
की कथा का अंत कोई सुखद नहीं हुआ होगा।'' कुसुम ने कुछ उदासी
भरे स्वर में अपनी बात समाप्त की।
''तो तुम्हारे विचार में किस प्रकार अंत हुआ होगा उस कहानी
का?'' प्रोफेसर आनंद ने धीरे मुस्कुराते हुए प्रश्न किया।
कुसुम कुछ देर मौन रही, शून्य में ताकती रही फिर बोली ''सर
महुआ घटवारिन की जो कथा है उसमें महुआ जो नदी किनारे की
घटवारिन है, वह अपनी सौतेली माँ के द्वारा दी जा रही यातनाएँ
भोगती भोगती जवान होती है, और जब वह जवान होती है, तो सौतेली
माँ उसे किसी सौदागर के हाथों बेच देती है। सौदागर उसे जिस नाव
में बैठाकर ले जा रही है, महुआ उससे कूदकर नदी में तैरती हुई
सौदागर के चंगुल से भागने का प्रयास करती है, जिसमें उसे कोई
मुश्किल भी नहीं होती है, क्योंकि वह एक घटवारिन है, तथा घाट
के पत्थरों और नदी की लहरों पर ही रह कर बड़ी हुई है, महुआ के
पीछे ही सौदागर का वह सेवक भी कूद पड़ता है जो इस बीच महुआ से
प्रेम करने लग गया है, दोनों तैरते जा रहे हैं और हीरामन वहीं
कहानी को समाप्त कर देता है।'' लंबी बात कह कर साँस लेने के
लिए रुकी कुसुम।
प्रोफेसर आनंद की मुस्कुराहट कुछ गहरी हो गई, बोले, ''हूँ ठीक
है इसके बाद क्या हुआ।''
''उसके बाद'' कुसुम ने बात फिर शुरू की ''उसके बाद यह हुआ होगा
कि महुआ तो चूँकि घटवारिन है, अत: वह तो नदी में धार के विपरीत
भी तैरती रही लेकिन वह सौदागर का नौकर लड़का डूबने लगा, उसे
डूबता देख महुआ उसे भी बचाकर किनारे पर ले आई जहाँ वे दोनों
महुआ की सौतेली माँ और सौदागर से छिप कर साथ रहने लगे।'' कुसुम
कुछ देर के लिए रुकी।
''और फिर वे दोनों सुखमय जीवन व्यतीत करते रहे।'' हँसते हुए
कहा प्रोफेसर आनंद ने ''लेकिन ये तो फिल्मी सुखांत है, तुम तो
दुखांत कह रहीं थीं।''
''कहानी यहाँ समाप्त नहीं होती है सर'' कुसुम ने विरोध के स्वर
में कहा ''बल्कि कहानी तो यहाँ शुरू होती है। दोनों साथ-साथ
जीवन व्यतीत करते हैं कि एक दिन वह लड़का महुआ को काफी पैसा कमा
कर लाने का वादा करके किसी नौटंकी कंपनी के साथ चला जाता है,
और फिर कभी नहीं लौटता महुआ उसकी प्रतीक्षा में परमार नदी के
घाटों पर बावरी होकर दिन-दिन भर बैठी रहती है। पागलों की तरह
दौड़-दौड़ कर हर आने वाले से उस लड़के के बारे में पूछती है,
लेकिन कोई कुछ नहीं बताता ऐसे ही घाटों पर प्रतीक्षा में
दौड़-दौड़ कर घाटों की पुत्री महुआ घटवारिन एक दिन उन्हीं घाटों
पर गिर जाती है। थककर, टूटकर और मरकर। हवा में गूँजते रह जाते
हैं केवल उसके गीत जो आज भी रात को लोगों को घाट पर सुनाई दे
जाते हैं। रात बे रात...!'' कुसुम की आवाज में पीड़ा के कारण
कंपन आ गया, उसने देखा कि प्रोफेसर आनंद कांत के चेहरे के भाव
कुछ बिगड़ गये हैं, तथा उनके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा
आई हैं। कुसुम को अपनी ओर ग़ौर से देखता पाकर प्रोफेसर आनंद
बोले ''ऐसा तुम कैसे कह सकती हो? यह भी तो हो सकता है, कि वह
लड़का लौट आया हो, या यह भी हो सकता है कि नौटंकी कंपनी के साथ
वह लड़का अकेला न गया हो, वो दोनों ही गए हों'', कुछ
अटकते-अटकते कहा प्रोफेसर आनंद ने।
''नहीं सर,'' प्रोफेसर आनंद की बात का विरोध करते हुए कुसुम ने
कहा ''ऐसा नहीं हो सकता, महुआ तो घाटों की पुत्री है, अत: वो
तो घाट छोड़ कर जा ही नहीं सकती और जहाँ तक उस लड़के का प्रश्न
है, वह इसलिए नहीं लौटेगा क्योंकि वह पुरुष है, छल देना तो
पुरुषों के स्वभाव में ही होता है। इस छल को वह एक सुंदर नाम
देता है, 'प्रेम' लेकिन वस्तुत: तो वह स्त्री को छलता ही है और
यह भी सत्य है, कि एक बार पुरुष को उड़ने के लिए विस्तृत आकाश
मिल जाए तो वह फिर भूल जाता है, कि कहीं कोई है, जो उसके लौटने
की प्रतीक्षा कर रहा है।” कुसुम ने अपनी बात ख़त्म करके देखा कि
प्रोफेसर आनंद के चेहरे के भाव काफी बिगड़ गये हैं, वे रुमाल
निकाल कर माथे पर छलक आया पसीना पोंछने लगे।
''क्या बात है, सर आपकी तबीयत तो ठीक है?'' कुसुम ने चिंतित
स्वर में पूछा।
''हाँ कुछ असहज लग रहा है, अब मैं आराम करूँगा।” प्रोफेसर आनंद
ने कहा।
”ठीक है सर अब मैं चलती हूँ, आप आराम कीजिए।” कुसुम ने अपनी
किताबें और कागज़ात समेटते हुए कहा। किताबें वगैरह समेटने के
बाद कुसुम चली गई। प्रोफेसर आनंद अकेले रह गये। रीडिंग टेबल से
उठ कर वे खिड़की के पास रखी आराम कुर्सी पर आकर बैठ गए, उनके
कानों में कुसुम द्वारा कहे गऐ शब्द गूँज रहे थे- ''वह फिर भूल
जाता है कि कहीं कोई है, जो उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।''
सुधियों के दृश्य पटल पर उभरने लगा नर्मदा नदी के किनारे बसा
वह छोटा सा क़स्बा जिसे लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व वे इस तरह छोड़कर
आ गये कि फिर लौट कर देखा भी नहीं कि वह क़स्बा किस हालत में
है।
प्रोफेसर आनंद के सामने पूरा जीवन वृत्त स्मृति कोष से निकल कर
आ गया, वह जीवन वृत्त जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा,
नर्मदा के किनारे बसे उस छोटे से क़स्बे शाहगंज के विद्यालय में
उनके पिता हिन्दी के अध्यापक थे, उसी छोटे क़स्बे से इस महानगर
इन्दौर तक की यात्रा वास्तव में एक ठहरे हुए झील के पानी की
गाथा है। इस गाथा का सबसे विचारणीय पहलू यह है, कि यह उस जीवन
के झील हो जाने की कथा है, जो पला बढ़ा उस चिर कुंवारी नर्मदा
नदी के किनारे जिसे कोई नहीं बाँध पाया, जिसके पानी ने कभी
थमना नहीं सीखा, वह वेगवती नदी जिसने कहा कि जो मुझे एक रात
में बाँधा देगा तो मैं उसी की हो जाऊँगी अन्यथा चिरकुवांरी ही
रहूँगी। ऐसी सलिला के पट पर पला बढ़ा जीवन स्वयं तीस वर्षों से
झील के पानी की तरह ठहर कर एक ही स्थान पर खड़ा है, विश्वास
करना जरा मुश्किल है।
''वह फिर भूल जाता है, कि कहीं कोई है, जो उसके लौटने की
प्रतीक्षा कर रहा है।” एक ही वाक्य रह रह कर सदियों से सूने और
वीरान घर के दरवाज़े पर दस्तक की तरह गूँज रहा है। प्रोफेसर
आनंद ने आराम कुर्सी की पुश्त से सर टिकाया और अपना पूरा शरीर
ढीला छोड़ दिया, मानो युगों की थकान के बारे में अभी-अभी पता
चला है, कि ''अरे कब से थका हुआ हूँ मैं।''
शाहगंज के जिस विद्यालय में उनके पिता राम स्वरूप शर्मा हिन्दी
पढ़ाते थे, उसी विद्यालय में संस्कृत पढ़ाते थे पंडित पृथ्वी
बल्लभ दुबे, दोनों परिवारों में आपसी प्रगाढ़ता के काफी सारे
सुखद कारण थे, दोनों का मालवा क्षेत्रा से संबंध, दोनों
ब्राह्मण कुल और उस पर दोनों अध्यापन में, और अध्यापन में भी
दोनों ही भाषा के शिक्षक एक संस्कृत का तो दूसरा हिन्दी का।
पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे की ही बेटी थी शारदा, आनंद की
सहपाठिनी, मित्रा और हम दर्द। हमदर्द इसलिए कि पढ़ाई लिखाई में
लगभग औसत दर्जे का होने के कारण आनंद की हमेशा शामत रहती थी,
इधर राम स्वरूप शर्मा थे, तो उधर पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे,
लेकिन आनंद के मन को, उसमें भरी हुई यायावरता को अगर कोई समझता
था, तो वो थी शारदा। दोनों शिक्षकों के मन में आनंद के प्रति
जो भावना थी उसको बदलने का कार्य शारदा का ही था, जिसे वो
बखूबी करती रहती थी।
समय गुज़रता रहा, नर्मदा में पानी बहता रहा, आनंद के मन की नाव
हवा के झोंके के साथ असीम की ओर निकल जाने को मचलती रही और
शारदा उसे खींच कर वापस तट से बाँधती रही। अगर रिश्ते की
व्याख्या करना हो तो शायद अच्छे-अच्छे मीमांसकों को भी पसीना आ
जाए कि शारदा और आनंद के बीच के इस रिश्ते को किस प्रकार
परिभाषित किया जाए। एक तरफ आनंद था, घर, परिवार, शारदा यहाँ तक
कि स्वयं से भी अजनबी, और दूसरी तरफ शारदा थी, जिसके लिए आनंद
को सही दिशा में बढ़ जाने की प्रेरणा देना ही सब कुछ था। एक तरफ
आनंद था शारदा के हर प्रयास को जानकर भी बेख़बर था, और दूसरी
तरफ शारदा थी उस बेख़बरी को नगण्य मानते हुए अपने प्रयास में
जुटी रही। दोनों ने स्वयं ही कभी अपने बीच के रिश्ते को कोई भी
नाम देने का प्रयास नहीं किया। शायद इसलिए वो रिश्ता नर्मदा के
जल की तरह प्रवाहमान था दोनों के बीच।
आनंद को आज तक याद है शारदा का वह उत्तर जो उसने आनंद को उसके
प्रश्न के जबाव में दिया था। शाम का समय था, नर्मदा के किनारे
दोनों बैठे थे, आनंद ने कहा ''शारदा अगर मैं स्वयं को नर्मदा
में समर्पित कर दूँ, तो ये मुझे डुबाएगी या पार लगा देगी?''
डूबते सूरज की लालिमा में आनंद ने देखा कि शारदा के चेहरे पर
दृढ़ता आ गई है। बोली ''यकीनन डुबो देगी क्योंकि नर्मदा ने कभी
भी कायरता को स्वीकार नहीं किया उसका तो कहना है, कि अगर
कायरता को स्वीकार कर लिया होता, तो आज मैं चिर कुंवारी नहीं
होती, समर्पण चाहे जिस भी रूप में हो लेकिन समर्पण हमेशा
कायरता ही कहलाता है। ईश्वर ने हमें जूझने के लिए भेजा है
पलायन के लिए नहीं, ज़िम्मेदारियों से मुंह फेर कर किया गया
त्याग, वैराग्य नहीं पलायन कहलाता है।” अपनी बात ख़त्म
करते-करते शारदा के चेहरे पर एक विचित्रा सी आभा आ गई थी। उस
दिन के पश्चात फिर आनंद ने इस तरह की कोई बात पूछने का साहस
नहीं किया था शारदा से, शारदा का बिल्कुल अलग ही रूप था वह।
यूँ तो पंडित रामस्वरूप शर्मा काफी समय से अपने गृह नगर महू
स्थानान्तरण चाह रहे थे लेकिन आनंद के वीतरागपन के चलते और
नर्मदा तट की इस उक्ति के चलते कि चिर कुंवारी नर्मदा का
सानिध्य मानव मन में वैराग्य भाव को पुष्ट करता है, वे अब
स्थानान्तरण के लिए पूरी शक्ति से प्रयासरत हो गए थे। मैट्रिक
की परीक्षा में आनंद के परिणाम ने उनके माथे की लकीरें गहरी कर
दी थीं। पुश्तैनी घर और जमीन भी महू में रख-रखाव के अभाव में
ख़राब हो रही थीं। इन्हीं सब कारणों के चलते अंतत: एक दिन पंडित
रामस्वरूप शर्मा ने अपने महू स्थानातंरण का आदेश लाकर पत्नी के
हाथ पर रख दिया था। एक तरह इतने वर्षों के साथ के बिछोह का दुख
था, तो दूसरी ओर अपने घर लौटने का सुख, जहाँ सेवा निवृत्ता के
बाद वैसे भी लौटना ही था।
विदाई के एक दिन पूर्व अंतिम बार आनंद और शारदा नर्मदा के तट
पर बैठे थे वही संध्या का समय था, सूर्य अपनी प्रखरता को त्याग
सौम्यता के साथ कल्पित क्षितिज के उस तरफ प्रस्थान कर रहा था,
चारों तरफ मौन था, नि:स्तब्धता थी, कोई स्वर था तो नर्मदा की
लहरों का स्वर था। दोनों के बीच कोई संवाद नहीं हुआ जब रात
गहराने लगी तो शारदा ने मौन तोड़ते हुए कहा ''अब घर चलें?''।
आनंद कुछ देर मौन रहा फिर बोला ''मैं तुमसे मिलने आता
रहूँगा।'' शारदा ने आनंद की बात सुनी और बोली ''आनंद तुमने
आम्रपाली की कथा पढ़ी है? उसमें अब आम्रपाली को वैशाली द्वारा
जबरदस्ती नगरवधु बना दिया जाता है, तब एक दिन उसका पूर्व
प्रेमी हर्ष सारे बंधन तोड़ते हुए आम्रपाली तक पहुँच जाता है,
और उसे अपने साथ भाग चलने को कहता है, तब आम्रपाली उसे कहती
है, कि ऐसे नहीं, सारे वैशाली में आग लगा कर आना मेरे पास, तब
मैं चलूँगी तुम्हारे साथ, अभी नहीं।''
आनंद ने कहा ''तो...? इस कथा को सुनाने का अभी क्या प्रयोजन
है?''
''है,' शारदा ने कहा था ''प्रयोजन यह है, कि तुम्हारे परिवार
की यहाँ से विदाई के कई सारे कारणों में, मैं स्वयं को भी एक
महसूस करती हूँ। यह अपराध बोध है मेरे अंदर, जो तुम्हारे
बार-बार आने से और गहरा होगा, इसीलिए मैं भी वही कहती हूँ, कि
इस तरह मत आना मेरे पास, कुछ बन जाओ तब आना मेरे पास, मैं तब
तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर लूँगी, पर इस आधो-अधूरे पलायनवादी
अस्तित्व के साथ तुम्हारा बार-बार आना स्वीकार नहीं कर
पाऊँगी।''
दोनों के बीच यह अंतिम वार्तालाप था, दूसरे दिन शर्मा परिवार
बिछोह और विरह के पानी से भीगी कई सारी आँखों से विदा लेता हुआ
शाहगंज से महू की ओर प्रस्थान कर गया, अपनी कई सारी स्मृतियां
वहाँ छोड़कर और वहाँ की कई सारी स्मृतियां अपने साथ लेकर।
कालेज की पढ़ाई के लिए महू से इन्दौर आना जाना भी किया जा सकता
था, लेकिन आनंद ने इन्दौर में ही होस्टल में रहकर आगे की पढ़ाई
करने का निर्णय लिया था। समय फिर अपने कार्य में लग गया, और
स्मृतियां पर विस्मृतियों की परत बिछाता गया गुज़रता गया,
गुज़रता गया, गुज़रता गया।
स्नातक होने के पश्चात् जब हिन्दी में स्नातकोत्तार उपाधि लेने
के लिए आनंद ने एम.ए. में प्रवेश लिया, तब वह प्रोफेसर
विश्वेश्वर दीक्षित के संपर्क में आया था। वास्तव में प्रोफेसर
विश्वेश्वर दीक्षित के रूप में आनंद को शारदा के पश्चात जीवन
में दूसरा गुरू मिला था। शारदा के छोड़े हुए अधूरे कार्य को
प्रोफेसर दीक्षित ने ही पूरा किया। आनंद को तराशने, मन के
वीतरागीपन को साहित्य की समृद्धता की ओर मोड़ने, और आनंद को
प्रोफेसर आनंद कांत शर्मा बनाने में प्रोफेसर दीक्षित के गुरु
गंभीर व्यक्तित्व की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही। शारदा ने
जिस पत्थर को आधा गढ़ा था उसे पूरा गढ़ कर प्रतिमा बना दी
प्रोफेसर दीक्षित ने।
स्नातकोत्तार उपाधि लेने के पश्चात जब आनंद प्रोफेसर दीक्षित
के मार्गदर्शन में पीएचडी कर रहा था तभी एक दिन श्री और
श्रीमती दीक्षित महू पहुँच गए थे, अपनी पुत्री सरिता के लिए
आनंद का हाथ माँगने। आनंद के लिए यह बात स्तब्ध कर देने वाली
थी किन्तु फिर भी वह अस्वीकार करने वाली स्थिति में नहीं था।
जब परिवार के लोगों ने आनंद की राय जाननी चाही तो अपनी
स्वीकृति प्रदान करते हुए केवल उसने एक ही इच्छा रखी थी, कि
शादी अत्यन्त सादगी पूर्वक होगी इसमें केवल दोनों परिवारों के
लोग ही सम्मिलित रहेंगे। परिवार वालों के लिए आनंद की स्वीकृति
ही बड़ी बात थी इसलिए शर्त के स्वीकृत होने में कोई बाधा नहीं
आई। केवल दोनों परिवार की उपस्थिति में विवाह करके आनंद ने
शारदा का सामना करने से अपने आप को बचा लिया था।
पीएचडी पूरी होने के बाद प्रोफेसर दीक्षित ने अपने प्रभाव का
उपयोग करते हुए आनंद को भी प्राध्यापक के पद पर नियुक्त करवा
दिया, और उसके बाद घर, परिवार, बच्चे, व्याख्यान, साहित्य सेवा
सारा घटना क्रम चलता रहा। समय चक्र में फँसकर दिन, माह, वर्ष,
अतीत का हिस्सा बनते रहे और आनंद को भी पता नहीं चला कि कब कल
का वीतरागी आनंद, प्रोफेसर कांत शर्मा हो गया, एक सम्मानित
प्रोफेसर और हिन्दी साहित्य का एक सशक्त हस्ताक्षर। पैंतीस
वर्ष बीत गए, इस बीच आनंद ने साहित्यकार के रूप में देश के
कोने-कोने की यात्रा की, नहीं जा पाए तो केवल नर्मदा तट पर बसे
उस छोटे से कस्बे शाहगंज, जिसे पैंतीस वर्ष पूर्व छोड़ आए थे।
अब तो दोनों बेटे भी सेटल हो गए हैं, और एक बार फिर सरिता और
आनंद बड़े से घर में अकेले हैं, जैसे तब थे जब गृहस्थ जीवन की
शुरूआत की थी दोनों ने, प्रोफेसर आनंद की निगाहें खिड़की के पार
किसी अदृश्य बिन्दु पर स्थिर थीं, शायद स्वयं को भुलावे में
रखने के लिए। और मन में गूँज रही थीं दो बातें, पहली पैंतीस
वर्ष पूर्व कही गई शारदा की बात ''कुछ बन जाओ तब आना मेरे पास,
मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर लूँगी, और दूसरी आज कही गई
कुसुम की बात ''वह फिर भूल जाता है कि कहीं कोई है जो उसकी
प्रतीक्षा कर रहा है।'' दोनों बातों के कहे जाने के बीच में
पैंतीस वर्ष का कालांतर है, किन्तु लग रहा है जैसे दोनों बातें
अभी की हैं आज ही की हैं।
''क्या बात है टहलने नहीं जाना है क्या...? शाम हो गई है।”
सरिता ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा। ''हाँ...''प्रोफेसर
आनंद पैंतीस वर्ष पूर्व के ठिठके हुए अतीत से वर्तमान में लौट
आए, ''शाम हो गई क्या? पता ही नहीं चला।” सरिता ने पास रखे हुए
स्टूल पर प्रोफेसर आनंद की चाय का कप रख दिया और स्वयं भी पास
की कुर्सी पर बैठ गई।
''कुछ परेशान लग रहे हो?'' सरिता ने पूछा।
''नहीं तो... बस यूँ ही सोच रहा था कि जब से शाहगंज छोड़ा तब से
एक बार भी नहीं गया अपनी जन्मभूमि और नर्मदा की याद नहीं आई
कभी।'' आनंद ने सरिता से नज़रे चुराते हुए कहा।
''वो इसलिए क्योंकि यहाँ इन्दौर में भी तो तुम नल चला कर
नर्मदा के पानी से ही तो नहाते हो।” सरिता ने हँसते हुए कहा।
आनंद ने कोई जवाब नहीं दिया, अपनी चाय का कप उठा कर पीने लगा।
कुछ देर बाद सरिता ने कहा ''जाना चाहो तो हो आओ, पुराने
दोस्तों से मुलाकात भी हो जाएगी, और तुम्हारा अपराध बोध भी कम
हो जाएगा।''
''दोस्त तो अब क्या मिलेंगे? हाँ जन्मभूमि को फिर से देखना हो
जाएगा।” कह कर एक क्षण को आनंद ने रुककर सरिता की तरफ देखा और
पूछा ''तुम चलोगी क्या?''
''ना बाबा ना मैं क्यों जाऊँगी, तुम अकेले ही आओ मुझे साथ ले
जाओगे तो खुलकर घूम फिर नहीं पाओगे, सबसे मिल नहीं पाओगे।”
सरिता ने कुछ मीठे स्वर में कहा।
''हूँ... देखते हैं क्या होता है।” कह कर आनंद ने चुप्पी साध
ली।
एक सप्ताह बाद जब प्रोफेसर आनंद शाहगंज पहुँचे तो ऐसा लगा जैसे
समय ठहर गया हो, जहाँ वे पैंतीस वर्ष पहले छोड़ गए थे। हाँ
प्रगति नाम की प्रक्रिया ने अपना पूरा प्रभाव इन पैंतीस वर्षों
में दिखाया था, किन्तु इस प्रगति के पीछे कहीं कहीं कुछ ऐसा
झाँक रहा था, निहार रहा था प्रोफेसर आनंद को पूरे अपनेपन के
साथ मानो छूना चाह रहा हो कि, अरे..! इतने बड़े हो गए तुम...?
कल जब यहाँ से गए थे तब तो....। आनंद ने लंबी साँस खींची वही
सौंधापन वही सुगंध, इतने सारे बदलाव के बाद भी मानो कुछ भी
नहीं बदला हो।
सबसे पहले नर्मदा के तट पर पहुँचे प्रोफेसर आनंद, नर्मदा को
प्रणाम किया जल को आँखों से लगाया। कुछ घाट नए बन गए हैं,
परंतु पुराने घाट अभी भी जस के तस हैं। अपने उसी पुराने घाट के
पत्थर पर बैठ गए प्रोफेसर आनंद। वहीं बैठे-बैठे पूर्ववत नर्मदा
की लहरों को निहारने लगे, ऐसा लग ही नहीं रहा था कि कई वर्ष
बीच में गुज़र गए हैं, ऐसा लग रहा है मानो कल ही की बात है, जब
वे शारदा के साथ यहाँ बैठे थे। शारदा...! शारदा की स्मृति आते
ही प्रोफेसर आनंद उठ कर खड़े हो गए और बस्ती की ओर चल दिये।
चारों तरफ चेहरे ही चेहरे थे, कुछ चेहरे सर्वथा अपरिचित तो कुछ
कहीं कहीं से परिचित होने का भाव लिये, लेकिन चूँकि दोनों तरफ
समय ने अपनी छाप छोड़ रखी थी इसलिए पहचान के चिन्ह ढूंढना
मुश्किल हो रहा था। कोई कोई चेहरा आनंद को देखकर ठिठकता, कुछ
संशय में पड़ता फिर चल देता। जानी पहचानी गलियों से होते हुए
प्रोफेसर आनंद पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे के घर पहुँचे, देखा कि
वे बाहर ही आँगन में बैठे हुए कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं।
काफी वृद्ध हो चुके पंडित पृथ्वी बल्लभ दुबे के चहरे पर अभी भी
वही तेज था। आनंद ने बढ़कर उनके चरण छू लिये। दुबे जी ने हाथों
की पुस्तक बंद कर कुछ अपरिचित नज़रों से आनंद की ओर देखा और कुछ
पूछना चाहा किन्तु उनके कुछ कहने के पूर्व ही आनंद ने कहा,
''मैं आनंद हूँ गुरूजी, राम स्वरूप जी का बेटा।''
आनंद के इतना कहते ही दुबे जी की ठोड़ी में कंपन सा हुआ, फिर
आँखों में चमक सी आ गई उठकर उन्होंने आनंद को सीने से लगा लिया
और भाव विह्वल होकर बोले ''अरे...! तू है बेटा।''
दो दिन तक दुबे जी के यहाँ मेहमान रहे आनंद, दिन भर घूमना
फिरना, और रात को अतीत की चर्चा करना कि कौन कब क्या था? अब
कहाँ है? और क्या हो गया? उस दौर के एक एक व्यक्ति से मिलाने
ले गए आनंद को दुबे जी, एक ही वाक्य कह कर मिलाते, ''अपने
रामस्वरूप का बेटा है, हिंदी का बड़ा प्रोफेसर और साहित्यकार हो
गया है।” प्रोफेसर आनंद ने देखा कि वाक्य का पहला हिस्सा बोलते
समय दुबे जी का स्वर अपनेपन से भीगा होता था, किन्तु दूसरा
हिस्सा बोलते समय उस स्वर में गर्व छलक आता था।
दुबे जी के बेटे बहुओं ने खूब सेवा की प्रोफेसर आनंद की। रात
को भोजन वगैरह करके जब दोनों बातें करने बैठते तो समय का पता
ही नहीं चलता, बातों में कुछ भी नहीं केवल अतीत की बातें, अतीत
से किसी भी पात्र को चुनना और उसको लेकर अपने प्रश्नों का
समाधान करना। इसी दौरान पता चला कि शारदा की शादी भोपाल में
हुई है, शारदा शादी के पहले ही शिक्षक हो गई थी, आजकल भोपाल के
किसी विद्यालय में प्राचार्य है। पति भोपाल में ही चिकित्सक
हैं। अपनी घर गृहस्थी में पूर्णत: ख़ुश है। शारदा के बारे में
सुनकर अच्छा लगा आनंद को, ऐसा लगा कि कोई अपराध बोध उतर गया है
मन से। शारदा के घर का पता और स्कूल का पता ले लिया आनंद ने,
जाना तो भोपाल होकर ही है, और फिर आने का प्रमुख प्रयोजन तो
शारदा से मिलना ही था।
दो दिन बाद प्रोफेसर आनंद रवाना हुए तो दुबे जी का पूरा परिवार
बस तक छोड़ने आया था, साथ में वे कई लोग भी आए थे जो आनंद के
पुराने परिचित थे सभी की आँखों में नमी थी जैसे कई वर्ष पूर्व
विदाई के समय थी।
भोपाल पहुँचते पहुँचते ही दोपहर हो गई, आटो रिक्शा लेकर सीधे
शारदा के स्कूल की ओर रवाना हो गए प्रोफेसर आनंद। तीन दिन हो
गए इंदौर से निकले, जाने क्यों घर की याद आ रही है। जबकि ऐसा
कभी नहीं हुआ। पहले भी साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में अक्सर
घर से जाना हुआ था, लेकिन इस बार जाने क्यों सरिता को इतने
दिनों के लिए छोड़ना कुछ अच्छा नहीं लग रहा, मन कर रहा है अब
जल्दी वापस लौटा जाए। स्कूल पहुँचकर शारदा के बारे में पूछा तो
ज्ञात हुआ मैडम अपने ऑफिस कक्ष में बैठी हैं। आनंद जैसे ही
प्रिंसिपल कक्ष के बाहर पहुँचे कि परदा हटा कर शारदा बाहर
निकली, निकलते ही आनंद को देखा कुछ चौंकी फिर हँसते हुए बोली
''अरे....! आनंद तुम....! आज कैसे याद आ गई?''
प्रोफेसर आनंद बोले ''तुमने मुझे पहचान लिया....!''
''आए दिन तो तुम्हारी कहानियों के साथ तुम्हारा फोटो छपता है
पत्रिकाओं में, पहचानती कैसे नहीं?'' उसी तरह हँसते हुए कहा
शारदा ने, ''चलो अंदर चलकर बैठते हैं।'' कहते हुए शारदा ने
अपने कक्ष का परदा हटा कर आनंद को अंदर चलने का इशारा किया।
''हाँ अब बताओ क्या पियोगे चाय या काफी?'' कुर्सी पर बैठते हुए
शारदा ने पूछा।
''कुछ भी मँगवा लो, तुम्हें तो पता है कि खाने-पीने के मामले
में मेरी कोई विशेष पसंद नहीं रही।” आनंद ने कहा, शारदा ने
घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और दो चाय लाने को कहा।
''कहाँ से चले आ रहे हो...?'' शारदा ने पूछा।
''शाहगंज से।'' आनंद ने संक्षिप्त सा उत्तार दिया।
''शाहगंज से...!'' शारदा ने कुछ चौंकते हुए कहा ''वहाँ किस
प्रयोजन से गए थे...?''
आनंद ने मुस्कुराते हुए कहा ''तुम से मिलने, तुमने कहा था ना
कि कुछ बन जाओ तब आना मुझसे मिलने, लेकिन मैंने आते आते कुछ
देर कर दी।''
इसी बीच चपरासी टेबल पर चाय का कप रख गया। चपरासी के जाने के
बाद शारदा ने चाय का कप उठाते हुए कहा, ''नहीं आनंद तुमने देर
कहाँ की, मैंने तुमसे कहा था कि कुछ बन जाओ तब आना मुझसे मिलने
तब तक प्रतीक्षा करूँगी।''
''हाँ वही तो तभी तो कह रहा हूँ कि मैं लेट हो गया।” आनंद ने
चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
''नहीं आनंद कॉलेज में प्रोफेसर हो जाने से मेरा आशय तब नहीं
था, वह तो हज़ारों लोग बन जाते हैं। मैं तो चाहती थी जो तुम आज
हो, आज साहित्य में तुम जिस स्थान पर हो वह स्थान वही है जिसके
बारे में मैंने कहा था, इसलिए तो मैं कह रहीं हूँ कि तुम सही
समय पर आये हो कुछ बन जाने के बाद।” शारदा ने कहा।
कुछ देर की चुप्पी के बाद आनंद ने कहा ''मुझे कुछ दिनों से यह
अपराध बोध था कि मुझे तुम्हारे पास बरसों पूर्व आना चाहिए था
तुम मेरी प्रतीक्षा में हो।''
''प्रतीक्षा तो मैंने की है लेकिन तुम्हारा अपराध बोध बरसों
पुराना न होकर केवल एक ही वर्ष का होना चाहिए।” शारदा ने कहा।
''कैसे....?' आनंद ने कहा।
''वो ऐसे कि पिछले साल तुम्हें शिखर सम्मान मिला है, बस तभी से
मुझे उम्मीद थी कि अब तुम्हें आना चाहिए क्योंकि अब तुम वो बन
गए हो जो मैं चाहती थी।” शारदा ने कहा।
''तुम्हारी बातों ने मेरा बोझ हल्का कर दिया।'' आनंद ने चाय का
कप रखते हुए कहा।
देर तक दोनों घर परिवार की बातें करते रहे। बातें करते करते
आनंद ने घड़ी देखी चार बज गए थे ''अच्छा शारदा चलता हूँ।” आनंद
ने कहा।
''अरे ये क्या बात हुई? घर नहीं चलोगे क्या?'' शारदा ने उठते
हुए कहा।
''नहीं शारदा आज नहीं, दस दिन बाद एक कार्यक्रम में भोपाल आना
है। तब आऊँगा सरिता को भी साथ लेकर आऊँगा, तुम्हारे घर ही
ठहरूँगा, अभी तीन दिन हो गए इंदौर छोड़े, सरिता वहाँ अकेली है।”
आनंद ने कहा।
''अच्छा लगा यह जानकर कि तुम्हें अपनों की परवाह है। तुम सचमुच
वही बनकर आए हो जो मैं चाहती थी।” कहते हुए आनंद के कंधे पर
धीरे से हाथ रख दिया शारदा ने, प्रोफेसर आनंद ने देखा कि शारदा
की आँखों में एक चमक सी आ गई है, अपनी कंधे पर रखे शारदा के
हाथ पर अपना हाथ रख दिया और धीरे से मुस्कुरा दिये। प्रोफेसर
आनंद को लगा अब वे कुसुम के साथ बहस कर सकते हैं, महुआ घटवारिन
की कहानी के बारे में, क्योंकि अब वह कहानी पूरी जो हो गई है।
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