डाक्टर एब्राहिम मुस्कुरा
दिए। मैंने कभी नहीं सोचा था कि इंसान आकाश से डर सकता है और
साइकाइट्रिक्स में यह एक बीमारी है। रात के तारों भरे आकाश से
डरना याने सिडेरोफोबिया। डाक्टर इब्राहम ने यह भी बताया कि खान
को हैलियोफोबिया भी है। इस बीमारी का मरीज़ दिन के आकाश और
सूरज से डरता है। खान को दोनों बीमारियाँ हैं। यहाँ खान बहुत
से लोगों के लिए नई और अजीबोगरीब बीमारी को जानने का तरीका है।
मुझे बेदर्दी से आकाश की ओर खान का चेहरा घुमाते हुए सिपाही और
उसके गुलाबी चेहरे पर उतरने वाला काँपता काला डर याद आया।
मैंने सोचा मैं उन्हें रोकूँगा।
'आई हैव गिवेन हिम सम एलमेंट्स ड्रग्स, बट नो यूज। फ्राम टू
इयर्स आई एम हियर बट अनेबल टू गैट देअर फेथ इन द टास्क आई एम
डुइंग...'
एब्राहिम के चेहरे पर एक थकान उतर आई और वह उस फटेहाल कैंप की
तरफ़ देखने लगा। एक उम्मीद जो अब गुस्से में बदल रही है।
'व्हाट द हैल आइ एम डुइंग हियर, दीज पीपुल नेवर अंडरस्टैंड मी
नेवर...या नेवर।'
थोड़ी देर बाद हम दोनों
अपने-अपने रास्ते चल दिए। लौटते समय मैंने देखा कुछ फटीचर से
धूल भरे बदबू मारते बच्चे खेल रहे थे। एक अजीब-सा खेल। एक
पुतला जिस पर रुसी और अफ़गानी में कुछ लिखा था और लाल गेरु से
उस पर खून के निशान बनाए गए थे। वे उस पुतले को लकड़ी और
पत्थरों से मार रहे थे।
'मारो...काफ़िर रुसी काफ़िर...मारो-मारो...रुसी मारो...।'
दूर खड़ा एक बुजुर्ग उन्हें देखकर मुस्कुरा रहा था। क्या दिन
बदलेंगे...क्या अपने लोग फिर से मिलेंगे? क्या उस बूढ़े को उस
खेल को देखना संजीदगी के साथ सुहा रहा था।
उस दिन मैं खालिद की दुकान पर
चाय पी रहा था, तभी खान वहाँ आ गया। वह मुझे घूरने लगा। मैंने
उसे एक कप चाय दी वह डरता-सा चाय पीता रहा। उसके गुलाबी होंठो
से लगा काँच का गिलास काँप रहा था। काँच के गिलास पर नीला आकाश
थरथरा रहा था। मुझे डाक्टर एब्राहिम की बात याद आई, खान बीमार
है...हैलियोफोबिया, एक बीमारी जिसका मरीज़ आकाश से, सूरज से
डरता है।
मैंने उसे चबूतरे पर बैठने को कहा। गिलास पर से नीला आकाश हट
गया। मैंने उससे पूछा, उसे और चाहिए। उसने हाँ में सर हिलाया
और इस तरह चार कप चाय पी गया।
'तुम्हारा नाम खान है।'
उसने गर्दन हिलाई, याने-हाँ।
'पता है जब तुम चाय पी रहे थे तो गिलास के काँच पर आकाश काँप
रहा था।'
वह होटल की दीमक खाए लकड़ी के फट्टे पर धोकर रखे काँच के
गिलासों को देखने लगा। फिर अपना चेहरा घुमाकर सिपाहियों के
टैंटों की ओर देखने लगा। दूर तक धूल और रेत पर बहती गर्म हवा
पानी की तरह दिख रही थी और टैंट के तंबू उसमें लहरा रहे थे।
टैंट के पार बैरन, उदास, कठोर और पथरीला टीला था। वह उसी तरफ़
टकटकी लगाए था।
'आकाश बहुत ज़रूरी है। आकाश ना हो तो बरसात ना हो, सूरज ना हो,
चाँद ना हो, दिन और रात ना हो...बताओ पंछी फिर कहाँ उडेंगे।
हवा कैसे बह पाएगी बताओ...बताओ। पता है अगर आकाश नहीं होता तो
हम सब भी नहीं होते। कहते हैं आकाश ना होने से सारे आदमी मर
जाते। आकाश बहुत ज़रूरी है।'
वह मेरी बात अपनी आँखों से सुनने लगा। मानो मैं कोई उसे गहरा
राज़ बता रहा हूँ। कोई कहानी जिसे सुनने की ज़िद उसने अपनी माँ
से की हो और ना सुन पाया हो और हक्का-बक्का रह गया हो, जब पता
चले कि यह कहानी एक अजनबी जानता है। कहानी जो अजनबी जानता है,
कहानी जो उसकी माँ सुना नहीं पाई थी, छुटपन की कहानी, पता नहीं
यह किसकी कहानी है...अजनबी की या माँ की। उसकी आँखे अब कह रही
थीं, उन्होंने सुनना बंद कर दिया।
'तुम आकाश की ओर क्यों नहीं देखना चाहते?'
वह मुझे घूरने लगा। तभी दो वर्दीधारी सिपाही वहाँ आ गए और चाय
पीने लगे। उन्हें देखकर खान खड़ा हो गया। लगा वह वहाँ से भाग
जाना चाहता है।
'मियाँ इसे क्या गुर सिखा रहे हो?' एक सिपाही ने मुझे चोर आँख
से देखते हुए कहा।
'जानना चाहता हूँ, आकाश की ओर क्यों नहीं देखता है यह। क्यों
आकाश से डरता है। आकाश कोई डरने की चीज़ नहीं।'
दोनों सिपाही खिलखिलाकर हँस दिए। उनमें से एक ने मुझसे धीरे से
कहा-
'साला बुरी तरह डरता है।'
'आकाश से?'
'हाँ।पागल है...पागल।'
वह तेज़ी से खान के पास गया और उसका चेहरा अपने हाथ में पकड़
लिया। खान काँपने लगा। उसने खान का चेहरा आकाश की ओर घुमा
दिया। खान की आँखे बंद हो गई।
'अबे देख...देख।'
'न...न...नहीं। छोड़ो...।'
मैंने पहली बार खान की आवाज़ सुनी। सिपाही हैवान की तरह हँस
रहा था।
'अबे आँख खोल।'
'जाने दो दरोगा जी।'
'अबे खोल।'
'आज नहीं बोल रहा क़ादिर..क़ादिर।'
'अबे देख ले, देख ले इस आकाश को। कब तक आकाश से डरेगा। यह
पाकिस्तान का आकाश है, अफ़गानिस्तान का नहीं कि दनदना के रूसी
जहाज़ घुसे आएँ और बस्तियों को जलाकर तबाह कर दें...। इस आकाश
में कोई रुसी जहाज़ नहीं आ सकता। रुस ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता।
यह तेरे कंधार का आकाश नहीं है,जिसका कोई ख़ैरख्वाह नहीं। हाँ
तेरे मुल्क के आकाश का कोई ख़ैरख्वाह नहीं। कभी रुस तो कभी
अमेरिका,तो कभी यू.एन.ओ., तो कभी पाकिस्तान और अब तालिबान भी
फिराक में है। कोई भी चढ़ाई कर सकता है जैसे कोई भी सिपाही तुझ
पर चढ़ सकता है। तेरे मुल्क का आकाश भी तेरी तरह ही है, जिसे
पकड़कर जिसपर कोई भी...कर सकता है। तेरे मुल्क का आकाश रांड
है... रांड, तेरी तरह...। पर यह पाकिस्तान का आकाश देख
इसे...इससे पाक कुछ नहीं...बारिश के पानी की तरह पाकीज़ा। इसे
देख ले..., देख ले हरामी।'
मैं उठकर खड़ा हो गया। मैंने
उस सिपाही का हाथ पकड़ लिया। उससे गुज़ारिश की। उसने खाने को
झकझोर दिया। खान ने पल भर को अपनी आँखें खोली। वह नीला आकाश बस
झपकी भर, एक मिचमिची भर उसकी नीली आँखो में काँप गया। खान के
चेहरे पर डर और पागलपन एक साथ उतर आया। उसने गिरते पड़ते अपने
को सिपाही के हाथ से छुड़ाया और पथरीले टीलों की और भाग खड़ा
हुआ। वह बुरी तरह से चीख रहा था।
'अबकी बार आकाश में बड़े-बड़े जहाज़ आएँगे और खूब आग गिरेगी।
सब ख़त्म हो जाएगा। सब मर जाएँगे। सारे जहाज़ जो आकाश में रहते
हैं और घरों को लोगों को जला देते हैं...
वह भागता हुआ मुड़मुड़कर
सिपाही और मेरी तरफ़ देख रहा था।
'सब ख़त्म। हाँ सब कुछ खत्म...'
उसकी आँखों से बेतरह पानी बह रहा था। वह अपनी बाहों से अपनी
बहती नाक और आखें पोंछ रहा था। उसका चीखना दूर तक सुनाई दे रहा
था।
'तुम झूठ बोलते हो, सब आकाश एक है। इधर का भी और कंधार का भी,
सब आकाश एक है, हाँ सब। देखना वो जहाज़ इधर भी आएगा इधर के
आकाश में भी आएगा ...बहुत सारे जहाज़, जो आकाश में रहते हैं।
वो आकाश के रास्ते आएँगे, देखना...तुम देखना...। मुझे आकाश से
निकलने वाली आग से डर लगता है, वह सबको जला देगी, सब लोगों को,
तुम्हारे अपने घर के लोगों को भी...।
वह मेरी ओर इशारा कर चिल्लाने लगा।
'तुम भी झूठे हो।'
वह किसी जल्लाद की तरह मेरी ओर देखने लगा।
'ये सब रोटी और गोश्त देते हैं और तुम चाय पिलाते हो, कहते हो
मैं बहुत सुंदर हूँ।
वह मुझे गालियाँ देने लगा।
'आकाश ना होता तो हवा ना होती, आदमी ना होता, पंछी ना होते,
सूरज चाँद ना होते, आकाश ज़रूरी है। मेरे को चूतिया समझा है
क्या?'
वह फिर से मुझे गाली देने लगा। मैं हकबकाया-सा उसे गिरता
पड़ता, चीखता, रोता दूर तक जाता देखता रहा। खालिद और वे दोनों
सिपाही बुरी तरह से हँस रहे थे।
'पागल! अबे पागल! आज रात आना, तेरे को गोश्त रोटी भी दूँगा
और...'
उस रात मैंने अपनी डायरी में खान की कहानी का अंतिम भाग लिखा।
एक लड़का जिसके लिए आकाश का
मललब है, बम गिराते जहाज़ों का ख़तरनाक अड्डा, कंधार के पास की
एक खुशमिजाज़ बस्ती को जलाकर राख करती दिन की तरह चमकीली
लाल-पीली लपटें...आकाश का मतलब है बिखरकर कचरा बनते घर
रोते-चीखते लोग, जिसके लिए आकाश वह है जिसकी वजह से उसके माँ,
अब्बू और बहनों के अधजले, लटकते, बिखरते, खून से लथपथ और कचरे
की तरह फैंके जाते शरीर उसने देखे। आकाश खून और बरबादी की सबसे
बड़ी वजह है। खान के घर को अयकयश ने ही खाक किया था, आकाश ने
ही उसे पागल बना दिया है। आकाश से खान को बहुत डर लगता है।
मैंने मान लिया खान पागल नहीं है। डाक्टर एब्राहिम का
डायग्नोसिस, इलाज और साइकियाट्रिक्स के स्थापित नियम सब ग़लत
हैं। खान हैलियोफोबिक नहीं है। उस दिन मैंने फिर से मान लिया
कि वह पागल नहीं है।
कुछ दिनों बाद मैं वहाँ से
लौटने की तैयारी कर रहा था। मुझे अगले दिन वापस दिल्ली जाना
था। उस दिन शाम के खाने के ट्रक पर ज़बरदस्त हंगामा मचा था।
आदमी, औरतों और इक्का दुक्का बूढों का एक दूसरे को निर्ममता से
कुचलता, चीखता और एक दूसरे पर चढ़ता हुजूम...लाखों लोगों का
पागल और ख़तरनाक हुजूम। पुलिस वालों के दो टैंट भी गिर गए।
पुलिस जानवरों की तरह लोगों को डंडो से पिटती रही। मैं इस
आवाज़ का अभ्यस्त था, पर उस दिन की चीख पुकार और बेरहमी से
कुचले पिटने वालों की आवाज़ भयंकर थी। पता चला दो दिन से खाने
के ट्रकों की संख्या कम हो गई है। दो सौ पैंतीस ट्रकों से घटकर
एक सौ पचहत्तर। यू.एन.ओ. के अधिकारियों ने पाकिस्तान पुलिस और
लोकल अधिकारियों को ज़बरदस्त फटकार लगाई है।
काफ़ी देर बाद सब कुछ शांत हो गया। रात घिर आई थी। सिपाहियों
के टैंट और रोड़ के बीच जहाँ छह घंटे गदर और बेरहम लूटपाट मची
थी, वहाँ से किसी के सिसकने की आवाज़ आ रही थी। कोई नीले बुरके
वाली अफ़गानी औरत थी, जो किसी आदमी के कुचलकर मरे शरीर के पास
बैठी सुबक रही थी। मैंने अपना कैमरा उठाया, उसमें फ्लैश अटैच
किया और इस दृश्य की फ़ोटो लेने चल पड़ा। ऐसे दृश्य मेरी आमदनी
के सबसे अच्छे स्रोत हैं...पत्रिका का संपादक इसके लिए ख़ासे
पैसे देता है। बेरहम दृश्यों में मुझे नोटों की गडि्डयाँ दीखती
हैं।
सिपाही खाना खाकर सो चुके थे।
किसी टैंट से पियक्कड सिपाहियों के हँसने और गालियाँ देने की
आवाज़ आ रही थी। पास ही अँधेरे में कोई चपर-चपर कर कुछ खा रहा
था। जब मैं उस अँधेरे के पास से गुज़रा तो वह चपर-चपर बंद हो
गई। उस तरफ़ अँधेरा था। एक छाया-सी दिखती थी। ग़ौर से देखने पर
उस छाया की दो आँखें दीखती थीं, जिस पर चाँद का काँपता-सा बिंब
था। वे आँखें मुझे घूर रही थीं। मुझे खालिद की बात याद आई, खान
इस तरफ़ रोज़ रात आता है। गोश्त और रोटी का लालच...। मैंने
धीरे से पुकारा - खान।
वे आँखें यथावत रहीं। मुझे
बचपन में हमारे घर में पले खूँखार लेब्रेडोर कुत्ते की याद आ
गई। जब वह खाने के बरतन में मुँह घुसाकर चपर-चपर खाता था, तब
उसके पास जाकर खड़ा होना काफ़ी खौफ़नाक था। वह खाना छोड़कर
अपनी आँखों को चौड़ाकर घूरता। उसके ऊपरी जबड़े से दो नुकीले
दाँत बाहर निकल आते, उसके दोनों खड़े कानों के बीच की खाल पर
गहरी सर्पाकार नालियाँ-सी बन जातीं और उसके गुर्राने की हल्की
पर खौफ़नाक आवाज़ आती। मुझे खान की आँखें देखकर डर लगने लगा।
वे अब पागल की, हैलियोफोबिक की आँखें नहीं थीं, उन्हें मैंने
अब तक कुछ और नहीं जाना था। लगा जैसे कुत्ते की तरह लपकर वह
मेरी गर्दन में अपने नुकीले दाँत घुसा देगा। मैं डर के मारे
उल्टे पाँव खालिद के होटल वापस आ गया।
उस रात मुझे नींद आने तक उस औरत के सुबकने की आवाज़ सुनाई देती
रही।
15 अगस्त 2007
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