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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से सुभाष चंद्र कुशवाहा की कहानी— 'अपेक्षाएँ'


दशहरे की छुट्टियों में मैं गाँव में था। घर-बार, बाग़-बगीचे, ताल-तलैये, बँसवारी अपनी जगह थे, थोड़ी-बहुत आकार-प्रकार की भिन्नता के साथ। पुराने संगी-साथियों में कुछ थे, कुछ काम-धंधे के वास्ते बाहर गए थे। धान की कटाई हो चुकी थी। समीप के बाज़ार में बजते दुर्गापूजा के नगाड़े, देर रात तक सुनाई देते। बरसात से धुले मौसम का रंग-रूप निखरा हुआ था।

इस बार गाँव पहुँचने पर पहले जैसा उल्लास नहीं दिखा बाबू जी में और न पट्टीदारी की भौजाई चहकती हुई आई थीं। दोनों मामा मिलने नहीं आए थे। बहनें और जीजा भी नहीं।

यह नई बात थी। पता चला कि रिश्तेदार और पट्टीदार मुँह फुलाए हैं। माँ-बाबू जी पर दोनों मामा और बहनों की सोच का प्रभाव दिखाई दे रहा था। शायद उन लोगों ने माँ-बाबू जी को भड़काया हो या दुनियादारी के कुछ पाठों का पुनर्पाठ किया हो।

पट्टीदार की भौजाई के व्यंग्य बाणों की चुभन इधर-उधर से महसूस कर मैं अंदर ही अंदर आहत होता और कभी-कभी गुस्सा भी। मैं अफ़सर हूँ तो अपने लिए। अपने बीवी बच्चों के लिए। मेरे लिए किसी ने क्या किया है? मैं स्वयं से सवाल करता।

ऐसा पहले नहीं हुआ। रिश्तेदारों को मेरे आने की जानकारी पहले से होती। वे मेरे पहुँचते ही आ टपकते। कई बार वे माँ-बाबू जी के पास पहुँच कर मेरे आने का इंतज़ार करते। पट्टीदार दिन में कई बार हाजिरी लगा जाते। कोई दूध पहुँचा जाता तो कोई दही। सेवाभाव प्रदर्शित करने में कोई पीछे न रहता। सबके अपने-अपने स्वार्थ थे। बिना स्वार्थ कोई नहीं आता, ऐसी मेरी धारणा थी।

वे माँ-बाबू जी को पहले खुश करने का प्रयास करते। फिर उनकी बैसाखी के सहारे मुझ तक अपनी अपेक्षाओं को पहुँचाते और मन की मुराद पूरी न होते देख, अपनी वेदना को उलाहनों और तानों में व्यक्त करते लौट जाते।

सबकी अपेक्षाएँ अलग-अलग होतीं। मेरी साहबगिरी की खुरचन की आस में सब आते। दोनों मामा, माँ के माध्यम से अपना अधिकार जताते। वे यह जताना चाहते कि उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना भाँजे का दायित्व है। माँ की स्थिति बड़ी अजीब होती। वह समझदारी से कम, भावुकता से ज़्यादा काम लेती। दरअसल उसे मेरी सीमाओं की जानकारी न थी। वह जल्द रिश्तेदारों की बातों में आ जाती। वह भी यही समझती कि अफ़सर माने सब कुछ। वह मेरे इनकार से आहत होती। उसे लगता मैं बहू के इशारों पर रिश्तेदारों से विमुख हो रहा हूँ। फिर भी वह दोनों मामा के सामने मेरा बचाव करती और कभी-कभी रिश्तेदारों की स्वार्थपूर्ण अपेक्षाओं को सुन नाराज़ हो जाती।

दोनों मामा को लगता मैं बहाना बना रहा हूँ या मतलबी हो गया हूँ और उनकी समस्याओं पर ग़ौर नहीं करना चाहता। 'अब बहिना कि दुवार पर हम लोग झाँकने नहीं आएँगे' वे हर बार नाराज़ हो कर सुनाते जाते। जाने के पहले वे मेरे पट्टीदारों के दरवाज़े पर जा बैठते। ऐसे समय, पट्टीदार लोग उन्हें सहज उपलब्ध होते। तब वहाँ दोनों मामा की बातों को भरपूर समर्थन मिलता, वह भी सहानुभूति के घलुवे के साथ। गाँव के और लोग उतना उत्साह नहीं दिखाते जितना पट्टीदार। शायद औरों और पट्टीदारों में यही फ़र्क होता हो या यह मेरी नकारात्मक सोच हो।

मैं अब पहले की अपेक्षा, गाँव कम जाता हूँ। बच्चे बड़े हो गए हैं। अपनी छुट्टियों के साथ-साथ बच्चों की छुट्टियों और परीक्षाओं का ख़याल रखना पड़ता है। यही स्थिति मेरे छोटे भाई की है। वह साल में एक बार चक्कर लगा ले, वही बहुत है। या यों समझिए कि उसे गाँव जाना पसंद नहीं है।

हम लोगों की परिस्थितियाँ और सोच अपनी जगह हैं तो माँ-बाबू जी की पीड़ा अपनी जगह, ''बेटे लोग अपने बेटे-बेटी, मेहरारू के साथ हैं। हम लोगन को कौन पूछता है? बुढ़ापे में अकेला छोड़ दिए हैं।'' वे सबसे शिकायत करते। वे लोगों को यह नहीं बताते कि बेटे पिछले दो साल से शहर चलने के लिए मान-मनौव्वल कर रहे हैं, पर वे सुनते ही नहीं। एक बार ज़िद पकड़ ली तो पकड़ ली। कभी माँ ढीली पड़ती तो बाबू जी ऐँठ जाते। कभी बाबू जी पिघलने का मन बनाते तो गाँव वाले खुरपेंच लगा देते। कितनी बार समझाया-बुझाया, उम्र का आभास कराया, परंतु बाबू जी पीठ पर हाथ नहीं रखने देते। 'जब तक जांगर चल रहा है, चलाएँगे। यहीं पैदा हुए हैं, यहीं मरेंगे। कहीं और नहीं जाएँगे। केहू के आगे हाथ नहीं फैलाएँगे। मुझे पंखे की हवा नहीं खानी है। ज़िंदगी भर बँसवारी की हवा खाएँ हैं. वहीं खाएँगे। अपनी ज़मीन में दफ़न होंगे।''

बाबू जी की चिंता ज़र-ज़मीन को लेकर ज़्यादा थी, ''अरे जब बेटा लोग खेत-बारी की देख-रेख नहीं करेंगे तो लोग कब्जा कर लेंगे। पेड़ कटवा लेंगे। पट्टीदार तो मुँह बाए ताक रहे हैं कि कब बुड्ढ़ा-बुड्ढ़ी मरें और कब उनका घर-दुवार हथियाएँ।'' इस आशंका के जनक वह खुद थे। गाँव वाले जब-तब माँ-बाबू जी को सुना-सुना कर उनकी पीड़ा और सुलगाते रहते, ''जब बेटे गाँव-घर से लगाव नहीं रखेंगे तो पोते का रखेंगे? खेत-बारी का चिन्हेंगे? पढ़ाने-लिखाने का यही फल मिलना कुढ़ते, बोलते कुछ नहीं। पर माँ बँसवारी में बैठ गालों पर लोर चुवाती रहती। पट्टीदारी की भौजाई ऐसे समय में माँ को ढाढ़स बँधाने पहुँच जातीं, ''मत रोईए छोटकी माई! हम लोग हैं न। हम लोग आप लोगन को थोड़े छोड़ देंगे? बाबू लोग जीरात (ज़राअत) की देखभाल नहीं करेंगे तो हम लोग करेंगे। खानदान की ज़मीन-जायदाद किसी और को हड़पने देंगे?'' भौजाई की बातों से माँ की आशंका कम होने के बजाए और गहरा जाती।

छोटे जीजा ने बाबू जी के सामने एक बार प्रस्ताव रखा था कि अन्य लोगों को खेत बटाई देने के बजाए उन्हें दे दिया जाए। खेती वहीं करेंगे, सास-ससुर की देखभाल भी। जो अधिया बटाईदारों का होता है, वह उनका होगा। परंतु बाबू जी ने इनकार कर दिया। उन्हें लगा दामाद के जी में लालच समा गई है। एक बार ससुराल में पाँव जमाया तो हटाना मुश्किल होगा। क्या पता आगे कोई बखेड़ा खड़ा कर दे या गाँव के लोग भड़का दें तो क्या होगा? फिर दूसरा दामाद क्या सोचेगा?

''बाबू! मेरी ओर भी निगाह कीजिए।'' बड़े मामा अक्सर ख़ास स्टाइल में मुझसे अनुरोध करते। वह बात तब शुरू करते, जब मेरे पास कोई और नहीं होता। यद्यपि मैं उनकी बातों पर ग़ौर नहीं करता। बस अनमने मन सुनता और जब ऊब जाता तो अपनी मजबूरी बता कर उठ जाता। मामा इससे और कुढ़ते। उन्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता। उन्हें मेरा स्वभाव नहीं भाता। समझते कि भाँजा बहाना बना रहा है या हम लोगों से कोई मतलब नहीं रखना चाहता। वह अपने चेहरे के भावों से मुझे याद दिलाते कि किस प्रकार बचपन में ममहर में मेरा ख़याल रखा जाता था। गर्मी की छुट्टियों में आम के बगीचे में या नाना के संग चरवाही में मुझे शैतानी करने की छूट थी तो सुबह-शाम नानी सजाव दही सबसे पहले मुझे ही परोसती थीं। हर बार फसल कटते ही कुछ न कुछ सीधा (राशन/अनाज) की गठरी, पका कटहल या सुथनी मामा पहुँचा देते थे। गरीबी के दिनों में मेरे पढ़ने के लिए उन्होंने एक लालटेन भी ख़रीदी थी। कई मेलों में बड़े मामा ने कंधे पर बैठाकर मुझे घुमाया था, जलेबी और घुघुनी खिलाई थी।

शायद इसलिए मामा पुरानी स्मृतियों में डूबते-उतराते, स्वयं को कुरेदते हुए बोलते जाते, ''गाँव-जवार के लोग कहते हैं कि तोहार भगिना इतना बड़ा साहब हो गया है। ऊ जवन चाहे तवन कर सकता है। खाली हुकुम करने भर की देर है।''

मैं मामा की बात का आशय समझ जाता। वह हर बार अपने कक्षा आठ पास बेटे को काम दिलाने की सिफ़ारिश करते। कभी बाबू जी से तो कभी माँ से ज़ोर डलवाते। मैं उस स्थिति में खुद को फँसा महसूस करता। मेरी तरफ़ से मनमाफ़िक जवाब न पा कर बड़े मामा अंदर ही अंदर कुलबुलाते। फिर सहानुभूति बटोरने के लिए गाँव वालों को सुनाते फिरते, ''आगे बढ़ जाने पर लोग, गरीब-गुरबों को भूल जाते हैं। हित-मीत का ख़याल नहीं करते। निगाह फेर लेते हैं। गँवई, मनई उन्हें गन्हाते हैं।'' फिर गला खँखारने के बाद अपनी बात पूरी करते, ''...सारे जवार के लोग कहते हैं कि तोहार भगिना इतना बड़ा अफ़सर हो गया है, गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर सब कुछ है उसके पास। शहर मेम से शादी किया है। शहर में ठाट से रहता है और आप लोगों के लड़के बेकाम घूम रहे हैं? साहब होने का यही मतलब है? वह चाहे तो एक मिनट में काम दिला दे। असल बात चाहने की है? बड़े-बड़े फैक्ट्री वाले, ऐसे साहबों के आगे-पीछे घूमते हैं।'' लोग उनकी बातों के समर्थन में सिर हिला देते। इससे मामा की सोच और वेदना और मज़बूत हो जाती।

 

१६ अक्तूबर २००७

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