दिल्ली
में बरसात की एक शाम कंक्रीट के जंगल पर धीरे–धीरे उतरती हुई।
शाम के धीरे–धीरे उतरने की बात सुनकर आप सोचेंगे कि यह शाम भी
शायद निराला की 'संध्या–सुंदरी' की भाँति होगी।
जी नहीं ...निराला की संध्या–सुंदरी धीरे–धीरे चलती तो है,
लेकिन इसके पीछे तरुणाई का भारतीय मनोविज्ञान क्रियाशील है।
उसमें एक शर्म है, एक संकोच है। एक सजगता और एक सतर्कता है।
अधिक तेज़ चलने पर शैतान हवाएँ बार–बार उसका आँचल उड़ाने का
प्रयास करेंगी, बार–बार उसका घूँघट उठाकर उसका मुखड़ा चूमेंगी।
सबके सामने उसके गालों से होली खेलेंगी, सबके सामने उसके बालों
को सहलाएँगी ...पर यहाँ दिल्ली में शर्म–संकोच, आँचल–घूँघट आदि
की अवधारणाएँ तो लुप्तप्राय हैं। इसलिए यहाँ की शाम भी ऐसी
नहीं हो सकती। वह तो आती है नीरस–सी, उसके अधर मधुर–मधुर नहीं
हैं। वह अलसता की लता और कोमलता की कली–सी भी नहीं है। वह
निराला की संध्या की तरह नीरवता के कंधों पर बाँह डाले हुए
नहीं आती।
वह तो आती है और भी शोर बढ़ाती हुई गली–गली, तमाम सड़कों पर। वह
शांत सरोवर पर कमलिनी–दल में या सौंदर्य–गर्विता सरिता के
विस्तृत वक्षस्थल में या हिमगिरि के अटल–अचल गंभीर शिखरों पर
नहीं सोया करती, बल्कि वह तो बड़ी–बड़ी इमारतों और होटलों की
भव्यता पर सोने वाली है।
पिछले दिनों प्रगति मैदान में एक अंतर्राष्ट्रीय मेला लगा हुआ
था। इसे ही देखने आया एक कवि मथुरा रोड और मैदान के प्रवेश
द्वार के बीच बने पैदल पथ पर खड़ा हो गया। वह अपने गाँव में हर
रोज़ अपने खेत की पतली–सी मेड़ पर खड़ा होकर शाम के सूरज द्वारा
अपनी प्रियतमा पश्चिम दिशा के गालों पर अनुराग की लालिमा
बिखराए जाते हुए टुकुर–टुकुर देखा करता था। उसे लगता था कि
पश्चिम दिशा बार–बार अपनी गीली आँखों से सूरज को मनाने का
प्रयास करती है– 'ऐ ...ऐ सूरज! देखो न, तुम्हीं तो मेरे माथे
पर लाल–लाल बिंदिया बनकर सुशोभित हो। तुम्हीं ने तो मेरी माँग
को सजाया है, तुम्हीं तो मेरी आँखों में भावुकता का गीलापन हो,
तुम्हीं तो मेरे अधरों की मुस्कान हो। सूरज, मैं तुम्हारे बगैर
कैसे रह पाऊँगी? मुझे छोड़कर मत जाओ न सूरज! ...सूरज ...सूरज!!'
लेकिन सूरज कल फिर आने का वादा करता हुआ पश्चिम दिशा के माथे
पर अंतिम चुंबन अंकित करता है। इस पर वह भी निराश होती हुई
धीरे–धीरे अँधेरे में डूबने लगती है। कवि सोचता था कि सूरज भी
कम प्यार नहीं करता पश्चिम को। रात भर की जुदाई झेलने के
पश्चात बेचैन–सा वह हर रोज़ पूरब से चलकर एक बहुत ही लंबी दूरी
तय करते हुए पश्चिम से मिलने आता है। रास्ते में वह कितना
प्रखर होता है, किंतु पश्चिम के करीब पहुँचते–पहुँचते उसका
सारा ताप, सारा अहं अनुराग के अक्षत और प्रेम की शीतलता से
विगलित होने लगता है। और अंततः कितनी आसक्ति से समेट लेता है
वह पश्चिम को अपनी बाहों में! सूरज और पश्चिम का ऐसा
प्रणय–दृश्य देखकर कवि के रोम–रोम बज उठते थे, मन में अनेक
सितार एक साथ झंकृत हो उठते थे। वह भी अपने ख्वाबों में एक
प्रियतमा को सजाने लगता था और अनेकानेक सपने बुनता हुआ बिल्कुल
गीला–गीला हृदय, बिल्कुल गीली–गीली आँखें लेकर अपने गाँव की
पगडंडियों पर धीरे–धीरे टहलने लगता था।
वह वहाँ भी सूरज और पश्चिम का प्यार देखना चाहता था। सचमुच ही
कवि बहुत भोले होते हैं। आख़िर यह कैसे संभव था यहाँ पर? यहाँ
तो ऐसा प्रतीत होता था, जैसे आकाश को पीलिया मार गया हो। उसने
निगाह उठाई, लेकिन राह में कंक्रीट के जंगल आ गए। ...उनका
प्यार चल रहा होगा इस जंगल के उस पार कहीं दूर क्षितिज पर – इस
ख्याल से कवि व्यग्र हो उठा। वह निगाहों से ही छेद देना चाहता
था इस जंगल को, पर असहाय था वह! वह देख सकता था केवल इस जंगल
को, सड़क से गुज़रती हुई बसों, कारों, दुपहियों को! सुन सकता था
केवल शोर! सूँघ सकता था केवल धुआँ ...केवल प्रदूषण!
अब तो बस तनिक एकांत की तलाश थी उसे। लेकिन हर तरफ़ से
प्रवेश–द्वार की ओर बढ़ते लोगों की उमड़ती भीड़ उसकी इस तलाश को
धकियाते हुए बढ़ी जा रही थी। जैसे नदियों में पिछली लहरें अपनी
अगली लहरों पर चढ़ती, उठती और गिरती हुई उसके अस्तित्व को
महत्वहीन करती हुई, उसे रौंदती–मसलती हुई बढ़ती चली जाती है,
ठीक वैसे ही इस भीड़ में हर पीछे वाला अपने आगे वालों को धक्का
देते हुए, उन्हें कीड़े–मकौड़ों की तरह रौंदते–मसलते हुए उन्हें
एक तरफ़ करते हुए, उनके अस्तित्व को नकारते हुए आगे बढ़ जाना
चाहता था। कवि भीड़ के इस चरित्र से मायूस हो गया। सोचने लगा कि
दुनिया में हर जगह यही तो होता है। लोग अपनी जगह बनाने के लिए
औरों को वंचित कर देते हैं। बात सिर्फ़ जगह बनाने तक भी सीमित
हो, तो इसे क्षम्य मान सकते हैं, लेकिन लोग खुद आकाश में उड़ने
के लिए औरों के पैरों–तले से ज़मीन तक क्यों खींच लेते हैं?
कवि इस भीड़
में खुद को बहुत असहज महसूस कर रहा था। वह वहीं पर खड़ा इधर–उधर
ताकने लगा। शायद कोई अपना मिल जाए, जिससे जी भरकर बातें की जा
सकें। खट्टी–मीठी, ग़म–खुशी, आँसू–मुस्कान, दर्द–पुलक ...सब कुछ
जिसके सामने खोलकर रखा जा सके। तभी उसे ऊपर ...बहुत ऊपर आसमान
से गौरैयों का झुंड जाता दिखाई दिया। ...अरे वाह! यह तो
प्यारी–प्यारी गौरैयों का झुंड है। हाँ ...जिनसे वह गाँव में
अपनी छत पर बैठा–बैठा घंटों बतियाता रहता था। उसकी माँ हर रोज़
छत पर गेहूँ या धान के दाने बिखेर जाती थी। गौरैया दाने खाती
थी और गाने सुनाती थी। कवि भाव–विभोर हो उठता था।
बस फिर क्या
था! कवि ने छलांग दी। उड़ चला – आसमान में! तेज़ी से तैरता हुआ,
हाथ–पाँव मारता हुआ वह गौरैयों के झुंड में शामिल हो गया। उसे
देखकर सभी गौरैया एक साथ चहचहा उठीं। उन्होंने सोचा कि कवि अब
जेब से निकालकर उन्हें गेहूँ या धान के दाने देगा। लेकिन कवि
को तनिक उदास देख वे सब कुछ समझ गईं। थोड़ी देर तक आसमान में
मौन छाया रहा। अंततः गौरैयों ने ही मौन भंग किया– 'ऐ कवि, तुम
चुप क्यों हो? क्या तुम हमें देखकर आज कविताएँ नहीं लिखोगे?
क्या तुमने गाँव छोड़ दिया? ...कविऽऽ ...कवि ...ऐऽऽ कवि!'
कहते–कहते गौरैया फफक पड़ीं। कवि भी रो पड़ा। पर अपने आँसू
छिपाने का प्रयास करते हुए बोला– 'प्रिये, क्या तुम लोग गाँव
जा रही हो? ...मेरी माँ से कहना कि तुम्हारा बेटा बिल्कुल ठीक
है। ...अँ ऽ ...बिलकुल ठीक है। और हाँ ...बहुत खुश रहता है
दिल्ली में। कभी नहीं रोता! लेकिन ...ऐ ...ऐऽऽ गौरैयों तुम
क्यों रो रही हो? अँ ऽ ...मुझे नहीं बताओगी?' कहते–कहते कवि
बर्दाश्त नहीं कर सका और फिर रो पड़ा। कवि और गौरैया –– दोनों
एक–दूसरे का दर्द समझ चुके थे। उनके कंठ अवरुद्ध हो रहे थे।
काफ़ी देर तक वे सभी चुपचाप उड़ते रहे।
कवि ने नीचे प्रगति मैदान में देखा। इतनी ऊँचाई से भीड़ उसे
चींटियों की तरह रेंगती हुई दीख रही थी। कुछ आ रहे थे, कुछ जा
रहे थे। कुछ इस मंडप में घुस रहे थे, कुछ उस मंडप से निकल रहे
थे। जैसे चींटियाँ इस बिल से उस बिल में, उस बिल से किसी और
बिल तक आ–जा रही हों। कवि ने गौरैयों से थोड़ा नीचे होकर उड़ने
के लिए कहा ताकि सब कुछ साफ़–साफ़ दिखाई दे सके। गौरैयों ने कवि
के साथ–साथ अपनी ऊँचाई कम कर ली।
कवि ने देखा
– बड़े–बड़े मंडप, जैसे राजमहल हों! रोशनी – न जाने किन पर हँसती
हुई! कवि ने देखे बड़े–बड़े पोस्टर्स, बैनर्स, होर्डिंग्स,
बड़े–बड़े गुब्बारे! एैश्वर्य और वैभव का अद्भुत प्रदर्शन करने
वाली एक से बढ़कर एक दुकानें। उन दुकानों पर ख़रीदारों से
हँसती–बतियाती एक–से–एक लड़कियाँ! बॉय कट बाल, चेहरे पर
क्रीम–पाउडर मल–मलकर पैदा की गई मादकता, होठों पर
लाल–नीली–गुलाबी लिपिस्टिक, कानों और गले में आधुनिक फैशन के
आभूषण, शरीर पर शर्ट, जिनसे आधा शरीर बाहर झाँककर दर्शकों को
ख़रीदार में बदलने का प्रयास करता हुआ।
एक बूढ़ी
गौरैया बोली– 'लगता है, देश काफ़ी तरक्की कर गया है।' कवि उसके
व्यंग्य को समझकर चुप ही रहा। उसके मस्तिष्क में एक तस्वीर उभर
आई – पड़ोस के रमुआ की। रमुआ की माँ बहुत ग़रीब थी। एक व्यक्ति
ने उसके मन में उम्मीद जगाई कि वह उसके परिवार की मदद करेगा।
उसने रमुआ का पालन–पोषण अच्छी तरह से करने का वादा करके उसकी
माँ से उसे ले लिया। माँ ने तब सोचा था कि बेटा कहीं भी रहे,
सुखी रहे। और क्या चाहिए उसे? पर ...उस व्यक्ति ने धोखधड़ी की।
रमुआ ग़लत हाथों में पड़ गया। उसका शोषण किया जाने लगा। परिणामतः
वह कुपोषण का शिकार हो गया। उसके हाथ–पैर तुड़–मुड़ गए हैं। उसकी
एक आँख छोटी, एक आँख बड़ी हो गई, मुँह भी टेढ़ा हो गया है। अब तो
हकला–हकलाकर बोलता है रमुआ! कवि अचानक चीख पड़ा–
"रमुआ विकलांग हो गया है। हाँ ...हाँ ...रमुआ विकलांग हो गया
है।" जी हाँ, रमुआ विकलांग हो गया है। कवि दहल उठा। कहीं उसके
देश की हालत भी तो रमुआ जैसी ही नहीं हो गई है?
तभी कवि की
निगाह एक बूढ़े पर पड़ी। फटे–चिथड़े और मैले–कुचैले कपड़ों से
अधढँका वह बूढ़ा आँखों में शून्य भरकर लाठी टेकता हुआ आगे बढ़ा
जा रहा है। उसके चेहरे पर अनगिनत झुर्रियाँ उसे सूखी हुई ककड़ी
का सा रूप दे रही हैं। उसके साथ उसकी बहू और उसका नन्हा पोता
है। बेटा साथ नहीं है। क्यों नहीं है, नहीं पता। हो सकता है,
वह कभी बीमार पड़ा हो और दवाई के लिए पैसे नहीं जुटा पाए हों
परिवार के लोग। हो सकता है, वह किसी कारखाने में आता करता हो
और गैस टैंकर फट गया हो। हो सकता है, कभी किसी कोयला–खदान की
आग में फँस गया हो वह! हो सकता है, उसके गाँव में कभी बाढ़ आई
हो, अकाल पड़ा हो या कभी हैजा, डेंगू या प्लेग फैल गया हो। कुछ
भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि किसी दिन लड़ते–लड़ते उसने
स्वयं ही ज़िंदगी से अपनी हार स्वीकार कर ली हो।
जो भी हो
...उसी समय कुछ सजे–सँवरे, साफ़–सुथरे, अच्छे–अच्छे कपड़ों में
खरगोश जैसे दिखते हुए कुछ बच्चों के हाथों में एक से बढ़कर एक
सुंदर खिलौने देखकर बूढ़े का पोता ज़िद करने लगा कि उसे भी वैसे
ही खिलौने चाहिए। वह रोने लगा। समझाने की सारी कोशिशें बेकार
गईं। बच्चा रो रहा था और बूढ़ा बिल्कुल असहाय–सा हतप्रभ होकर
लाठी के बल खड़ा था।
उधर, आसमान
में कवि के साथ उड़ती गौरैयों में से एक नन्हीं गौरैया को भी
भूख लग गई थी। वह रोने लगी। उसकी माँ ने दुखी होकर कहा– "बेटी,
थोड़ी देर और सब्र करो। कुछ उपाय करती हूँ। क्या करूँ? यहाँ न
तो कोई खेत है और न ही किसी छत पर दाने लेकर कोई हमारा इंतज़ार
करता है। इतने बड़े मेले में भी हमारे लिए कुछ नहीं है।"
इस पर नन्हीं
गौरैया बीच में बात काटती हुई बोल पड़ी– "माँ, चलो न यहाँ से
अपने भारत देश! वहाँ हम लोगों को कोई कष्ट नहीं होगा। बूढ़ी
अम्मा अपने आँगन में दाने लेकर हमारा इंतज़ार कर रही होंगी।
वहाँ इतनी भीड़ नहीं है, इतना शोर नहीं है, इतना प्रदूषण नहीं
है। वहाँ हरे–भरे खेत हैं, झूमती–लहराती लताएँ हैं, पेड़ हैं,
पौधे हैं। वहाँ पश्चिम है, पूरब है, चाँद है, सूरज है। वहाँ
प्यार है, अनुराग है, प्रणय है, सुहाग है। अपना कवि है। वह
अच्छी–अच्छी कविताएँ लिखेगा। मैं उसे गाने सुनाऊँगी। हाँ माँ,
चलो न यहाँ से! चलो न! माँ, यह भारत तो नहीं है न माँ!
...माँ!!"
यह सुनकर कवि
धम्म से नीचे गिरा। उसने अचकचाकर इधर–उधर ताका– 'सचमुच! यह
भारत तो नहीं है। हाँ ...हमारे सपनों का भारत यह तो नहीं है
...तुम सच कहती हो नन्हीं गौरैया! ...हाँ, तुम सच कहती हो!!"
१ अगस्त २००६ |