हमेशा की तरह
आज भी शर्मा जी के घर से उनके टेप रिकार्डर पर बज रही गायत्री
मंत्र की मधुर धुन तथा ऊँचे स्वरों में हरे कृष्ण का जाप
बदस्तूर जारी था। यह परिचायक था कि भोर का आगमन हो चुका है।
शर्मा जी भी पूरी तरह लैस होकर हाथ में छड़ी ले तैयार थे सुबह
की सैर के लिए। नन्हा राहुल भी अपने चिरपरिचित अंदाज़ में अपने
बाबा के साथ तैयार था। यद्यपि सुबह
की सैर से उसका कोई लेना–देना नहीं था, वह तो जाता था, दाऊ जी
हलवाई की गरमा–गरम कचौड़ी के लिए।
आगे–आगे राहुल और पीछे उसके बाबा। आज फिर शर्मा जी उस ठूँठ के
सामने जाकर रुके और अपनी छड़ी को उसके साथ टिकाकर व्यायाम करने
लगे। नन्हा राहुल पास ही खेलता रहा। न जाने क्यों शर्मा जी को
इस ठूँठ से अत्यधिक लगाव था, तभी तो वे प्रतिदिन इसे बाहों में
भर अपने व्यायाम की शुरूआत इसी के साथ किया करते थे और राहुल
टुकुर–टुकुर निहारा करता था अपने बाबा को।
आखिर एक दिन जब उससे न रहा गया तो उसने पूछ ही लिया,
"बाबा– आप इसे रोज़ अपनी बाहों में क्यों लेते हो?"
"राहुल बेटा– यह ठूँठ सिर्फ़ ठूँठ ही नहीं, अपितु मेरा दोस्त
है। हमने बरसों इसके साथ गुज़ारे हैं। इसकी तरुणाई एवं इसके
यौवन का मैं साक्षी रहा हूँ। यह हमेशा से ठूँठ नहीं था। इसकी
ठंडी छाँव में बैठकर तेरी दादी, तेरे पापा तथा मैंने, भीषण
गर्मियों में इसका भरपूर आनंद उठाया है। आज समय के थपेड़ों ने
इसका यह हाल कर दिया है," और यह कहते–कहते न जाने शर्मा जी
अतीत की किस दुनिया में खो गए, मगर तभी राहुल ने उनकी बाँह पकड़
पुनः उनको उनकी दुनिया में ला खड़ा किया और आखिर राहुल ने पूछ
ही लिया – "बाबा – यह पेड़ आपका दोस्त यानी सबसे अच्छा दोस्त
भला कैसे हो सकता है?"
"अच्छा राहुल यह बताओ– "तुम दोस्त किसे कहते हो?"
"वही जो समय पे काम आए"– तपाक से राहुल ने कहा।
"बिल्कुल ठीक कहा राहुल– देखना मेरा दोस्त यह ठूँठ भी हमेशा
मेरा साथ देगा।"
राहुल की समझ में बाबा की बातें नहीं आ रही थीं। शायद वह सोच
रहा था कि बाबा सठिया गए हैं, भला एक ठूँठ मनुष्य का दोस्त किस
तरह हो सकता है।
"बाबा देखो– सूरज कितना निकल आया है, जल्दी चलो,"
"मुझे पता है, तेरे पेट में चूहों ने अपना तांडव शुरू कर दिया
है, दाऊजी लाला की दुकान तुझे बुला रही है, चल– तेरा कर्ज़ तो
मुझे चुकाना ही है, वैसे भी तू तो मेरा सूद है और फिर भला मैं
कैसे भूल सकता हूँ कि मूल से सूद अधिक प्यारा होता है" और फिर
बाबा–पोते जा पहुँचे दाऊजी लाला के यहाँ।
"क्यों राहुल आज वापस आने में देर कैसे हो गई?" राहुल की माँ
ने बाबा–पोते को घर में घुसते देख राहुल को पुकारा।
"बेटी, राहुल ज़िद कर रहा था, कचौड़ी के लिए।"
"बस–बस मैं समझ गई – तुम्हें तो इस उम्र्र में भी अपनी जुबान
के स्वाद पर काबू नहीं, नाम ले रहे हो, मासूम राहुल का।
"यह तुम क्या कह रही हो, बेटी, मैं तो ..."
इसी प्रकार शर्मा जी की दैनिक दिनचर्या जारी थी कि एक दिन उनका
पोता राहुल दौड़ता–दौड़ता उनके पास पहुँचा।
"बाबा–बाबा आप मेरे साथ चलिए, आपके दोस्त ..."
"अरे–कौन भला–कौन से दोस्त की बात कर रहा है तू।"
"अरे वही–ठूँठ।"
"क्यों क्या हुआ–उसे?"
"कुछ लोग उसके ऊपर चढ़े हुए हैं तथा कुछ नाप–तोल सी की जा रही
है। आप जल्दी चलिये।"
और फिर राहुल अपने बाबा को लेकर आ पहुँचा, उसी ठूँठ के पास।
तभी शर्मा जी की निगाह एक व्यक्ति पर पड़ी। शक्ल कुछ
जानी–पहचानी सी थी। जब उनसे न रहा गया तो उन्होने पूछ ही लिया
–"बेटा– क्या तुम कपूर साहब के बेटे हो।"
"अरे, अंकल आप –आप यहाँ केसे?"
"पहले तुम बताओ, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"
"अंकल यह प्लाट मैंने खरीदा है।" "
ठीक है–चलो घर चलकर सब बातें बताना, इसी बहाने तुम हमारा घर भी
देख लोगे। राहुल! राहुल! देख तो बेटा कौन आए हैं।"
"क्यों शोर मचा रखा हैं पापा, राहुल खेलने गया है।"
"बेटी ज़रा दो कप चाय बना दे, हो अदरक ज़रूर डालना।"
"पापा– कुछ घर का ख्याल किया करें,"
"आपको तो पंचायत बैठाने का शौक लग गया है, अब तुम्हारे हर ऐरे
गैरे के खातिर के लिये पैसे कहाँ से आएँ।"
शीला की बातें शर्मा जी के कानों में पिघले शीशे की तरह पड़
रहीं थीं, उन्होने घूर कर शीला की ओर देखा और फिर आगंतुक पर
नज़र पड़ते ही बोले, "आओ बेटा बैठो, हाँ तो तुम क्या कह रहे थे।
अंकल यह प्लॉट मैंने खरीदा है मगर यह ठूँठ बाधा बन रहा है,
इसलिए मैं इसे काटकर इस जगह अपनी कोठी बनाना चाहता हूँ।"
"तुम ठीक कहते हो बेटा, ठूँठ तो हमेशा बाधा ही होता है, जब यह
फलदार, हवादार था तो दुनिया ने भी उसका भरपूर आनंद लिया, आज
अगर यह ठूँठ न होता तो क्या तुम इसे काटने की हिम्मत कर सकते
थे–बरखुरदार–सीधे हवालात जाते"
"आप कैसी बात कर रहे हैं अंकल? क्या मैं नहीं जानता कि हरे पेड़
को नहीं काटा जा सकता। यह ठूँठ है तभी तो ..."
"मैं समझ गया बेटा – करोगे तो तुम वही जो तुमने ठान रखी है,
मगर चूँकि तुम मेरे मित्र कपूर के बेटे हो, इसीलिये तुमसे कुछ
माँगना चाहता हूँ।" "कहिए अंकल, क्या मैं नहीं जानता कि आप
क्या हैं?"
"तो मुझे वचन दो कि जब भी तुम इस ठूँठ को काटो तो इसकी लकड़ी
मुझे ही देना, मैं तुम्हें इसकी भरपूर कीमत दूँगा।"
"कैसी बातें कर रहे हैं आप? मैं भला आपसे . . मेरा आपसे वादा
रहा कि यह ठूँठ आपका ही रहेगा। इस पर आपका अधिकार सुरक्षित
है।"
इतना आश्वासन पाकर शर्मा जी को लगा कि उन्हें तो मानो नियामत
ही मिल गई है। आँखों में एक विशेष चमक जाग उठी।
और फिर एक दिन शर्मा जी अपनी कुटिया के परिसर में धूप सेक रहे
थे। सामने था अख़बार। नन्हा राहुल भी पास ही खेल रहा था कि तभी
अचानक उसकी गेंद बाबा को जा लगी। शर्मा जी ने राहुल की ओर
देखा। राहुल सहम सा गया। डर के मारे उसक बुरा हाल था। उसकी
सूरत देख उसके बाबा अपनी हँसी को न रोक सके। उन्होने उसे अपने
पास बुलाया–"क्या धामाल मचा रखा है? दिन निकला नहीं कि बस शुरू
धमा–चौकड़ी, चल मुर्गा बन।
"सौरी बाबा–? प्लीज सौरी।"
"ठीक है, इधर आ, बैठ।" उसे बिठाकर उसके सिर पर हाथ फेर अपना
वात्सल्य उड़ेलने लगे। आज कुछ ज़्यादा ही प्यार आ रहा था, उन्हें
उस पर, तभी राहुल बोल उठा– "बाबा आपने कहा था कि आप ठूँठ का
अर्थ मुझे बताओगे, आज बताओ ठूँठ किसे कहते हैं?" तभी राहुल की
माँ चाय की प्याली ले वहाँ आ पहुँची, उसने राहुल की बात सुन ली
थी।
"अरे–बाबा से क्या पूछता है, ठूँठ का अर्थ मैं समझाती हूँ।
ठूँठ का अर्थ है– काम का ना काज का दुश्मन अनाज का।" और यह
कहकर एक निगाह अपने श्वसुर पर डाल कहने लगी –"अब समझा कि नहीं
या उदाहरण देकर समझाऊँ।" वैसे तो शर्मा जी को शीला की जली–कटीं
बातें सुनने की आदत पड़ गई थी, मगर आज तो अति हो गई थी, अपने को
ठूँठ सुन शर्मा जी को तो मानो काठ मार गया। उन्होने एक नज़र
शीला पर डाली और उनके हाथ से पकड़ा चाय का कप भी अब छूटकर दूर
जा गिरा। उनका सारा शरीर काँपने लगा। राहुल से अपने बाबा की यह
दशा देखी न गई। वह अपने पापा को बुलाने घर के अंदर की ओर दौड़ा।
शेखर भी दौड़कर अपने पिता के पास पहुँचा, मगर बहुत देर हो चुकी
थी। प्राण पखेरू उड़ चुके थे। रह गया था सिर्फ़ शरीर जो सामने
पड़ा था। संभवतः एक तीव्र हृदयघात को शर्मा जी सह न सके और फिर
जंगल की आग की तरह यह खबर फैल गई। शर्मा जी नहीं रहे।
आने–जाने वालों का ताँता लगा हुआ था। जितने मुँह उतनी ही
बातें। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि अब शर्मा जी नहीं
रहे। नन्हा राहुल अपने बाबा के पास बैठा था। बाबा उठो, बाबा
उठो ...क्या आज अपने ठूँठ दोस्त के पास नहीं चलना है? बाबा चलो
न, मैं आपसे वादा करता हूँ कि आज आपसे कचौड़ी भी नहीं माँगूँगा।
प्लीज़ उठो न ..." काश राहुल की आवाज़ उसके बाबा सुन पाते, तभी
शेखर ने उसे अपनी गोद में उठा लिया। "बेटा – अब बाबा कभी नहीं
उठेंगे।"
राहुल भला कैसे जान सकता था कि माह के आखिर में एक वेतन भोगी
के घर किसी की मौत उसे जीते–जी मार डालती है, क्योंकि महँगाई
के दौर में मुर्दे को फूँकने के लिये हज़ारों की रकम जेब में
होनी चाहिए, तब कहीं जाकर मृतक का क्रिया–कर्म संपन्न होता
हैं, मगर तभी एक अपरिचित स्वर ने शेखर की तंद्रा भंग कर उसे
यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया।
"किस सोच में डूबे हो शेखर, होनी को कोई नहीं टाल सकता। अब
अंकल की अंतिम यात्रा की तैयारी करो।"
"मैंने आपको पहिचाना नहीं, आप कौन हैं? शेखर ने कहा– "मैं आपका
नया पडोसी, तभी राहुल की नज़र उस व्यक्ति पर पड़ी, "आप तो ठूँठ
वाले अंकल हैं"
"ठीक पहचाना राहुल, शर्मा अंकल ने मुझसे एक वायदा लिया था, आज
वह वायदा पूरा करने का समय आ गया है।"
"मैं समझा नहीं, आप किस वायदे की बात कर रहे हैं।"
"मैं सब कुछ तुम्हें समझा दूँगा। इस समय तो मेरी तुमसे विनती
है कि अंकल कि चिता मेरे प्लाट में स्थित ठूँठ की लकड़ियों से
सजाई जाए। ताकि मैं उनको अपना दिया वचन पूरा कर सकूँ।"
"मैंने कल ही ठूँठ को कटवाया है, ताकि अपने भवन निर्माण का
कार्य पूरा कर सकूँ।" यह सुनकर शेखर अपने आँसुओं के सैलाब को न
रोक सका। "बाबू जी आपने तो अपने जीते जी ही अपनी अंतिम क्रिया
का सामान भी इकठ्ठा कर लिया था और फिर शुरू हो गई, अंतिम
यात्रा। जिसने भी समाचार सुना दौड़ पड़ा शर्मा जी को कंधा देने
और शेखर को रह–रहकर याद आ रही थी, वह पंक्तियाँ जो कुछ दिनों
पूर्व बाबूजी ने उससे कही थी ...
‘जीवन में एक गुनाह तो हम भी करेंगे, सब तो चलेंगे पैदल, हम
काँधों पर सजेंगे।' देखते ही देखते अंतिम पड़ाव भी आ गया। ठूँठ
की लकड़ियों से ही बाबू जी की चिता सजाई गई। ऐसा लग रहा था कि
बड़े भाई ने अपने अनुज को अपनी गोदी में उठा रखा है। राहुल भी
अपने बाबा को टकटकी लगाए देखे जा रहा था। आखिर उनके दोस्त ठूँठ
ने अपनी दोस्ती निभा ही दी। बाबा सच ही कहा करते थे – दोस्त
वही जो समय पर काम आए और चिता जल उठी। उठती हुई लपटों को देख
ऐसा लग रहा था कि साक्षात अग्नि देव भी दोनों भाइयों के मिलन
को अपना आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं।
२४ मई २००६ |