|   आजकल प्रफुल्ल बाबू बहुत खुश हैं। खुश होने की दो वजह हैं। यही 
					तो कुछ दिन हैं जब उन्हें लोग प्रफुल्ल बाबू कह कर पुकारने 
					लगते हैं। दूसरे, ये उनके कमाई के दिन हैं – सॉलिड कमाई के। 
					अपने ही शब्दों में आज कल वह चाँदी काट रहे हैं। 
 चौंकिए मत, प्रफुल्ल बाबू के चाँदी काटने का मतलब है सौ–ड़ेढ 
					सौ रुपए रोज़ की दिहाड़ी, साथ में खाना वगैरह और शाम को दारू का 
					इंतज़ाम भी। खाना–वाना ज़्यादा हुआ तो घर भी भिजवा दिया। और भी 
					कई तरह के दूसरे फ़ायदे हो जाते हैं। ज़रूरत पड़ी तो बेटे को भी 
					स्कूल से छुट्टी दिलवा देते हैं। और पत्नी शांति भी कारखाने से 
					वक्त निकाल कर यहाँ आ जाती है। कभी–कभार छुट्टी मार ली। कहने 
					का मतलब यह कि बाद की ज़िंदगी के कई महीने सुकून से गुज़र जाते 
					हैं। फिर तो गई कई साल को बात।
 
 आप भी सोच रहे होंगे कि मैं क्या पहेलियाँ बुझा रही हूँ। या 
					शायद मेरी बात अब तक आपकी पकड़ में आ ही गई हो। आजकल इलेक्शन के 
					दिन हैं। एक महीने बाद ही तो चुनाव होने हैं। इस महीने में 
					कंपेन की गंगा में जितना हाथ धो लिया, धो लिया, फिर तो गंगा बन 
					जाती है सरस्वती कई साल को। प्रफुल्ल बाबू यही कहते हैं। और जब 
					कहते हैं ठहाका मार कर हँसना नहीं भूलते। उनकी ऐसी खिलखिलाती 
					हँसी भी इन्हीं दिनों दिखाई सुनाई देती है। जैसे चाँदी के 
					रुपयों के खनखनाने की आवाज़ हुआ करती है।
 
 जब भी इलेक्शन होते हैं, एमपी का हो, एमएलए का हो, या निगम का, 
					हर कैंडीडेट उन्हें याद करता है। उन्हें प्रफुल्ल बाबू ही कह 
					कर पुकारता है। वह इस इलाके के कंपेन का अहम हिस्सा हैं। यह 
					अलग बात है कि इतने साल से यह खेल खेलते रहने पर भी उन्हें कभी 
					कॉरपोरेशन के टिकट के काबिल भी नहीं समझा गया। और न ही उनमें 
					बीच में से पैसा उड़ाने की कला ही आ पाई।
 
 इलेक्शन के कुछ दिन बाद ही वे पास वाले सतनाम के ढाबे में अपने 
					वही पुराने वेटर वाले काम पर लग जाते हैं। वहाँ उन्हें कोई 
					प्रफुल्ल बाबू के नाम से नहीं जानता। मालिक को उनका नाम बोलना 
					कभी आ नहीं पाया, सो उनका नाम गणेश रख दिया गया। और जब जोर से 
					आवाज लगाई जाती है तो गणेश, ओ गणेशी हो जाता है। बीच–बीच में 
					मैं कहीं उन्हें गणेश कह बैठूँ तो समझ जाइएगा, प्रफुल्ल बाबू 
					की ही बात चल रही है। वैसे मैं उन्हें यहाँ मैं प्रफुल्ल बाबू 
					ही कहूँगी। आखिर उन्हें इस नाम से पुकारे जाने के लिए अगले 
					इलेक्शन तक इंतज़ार करना पड़ेगा।
 
 गणेश गणेश का क्या है? पूरा दिन ढाबे पर वेटरी करता है। घर 
					चलाने के लिए ज़रूरी हो तो शराब भी बेच लेता है। इसमें नया कुछ 
					भी नहीं है। गणेश के पिताजी ने भी यही किया था जिंदगी भर। 
					ज़िंदगी भर कहना तो ग़लत होगा। जब ज़िंदगी ने धोखा देना शुरू कर 
					दिया। हाँ, उनकी हालत प्रफुल्ल से कुछ अच्छी थी। समाज में उनका 
					मान सम्मान भी ज़्यादा था। उसकी वजह वह खुद नहीं, बुआ थीं। बुआ 
					की शहादत।
 
 उनका यह मकान आज तो बहुत बड़ा कटरा बन कर रह गया है। हर कमरे 
					में अलग किराएदार हैं। उनका परिवार इस मकान के दो कमरों में 
					सिमट कर रह गया है। पुराने किराएदार हैं, पचासों साल पुराने। 
					चार–चार आने के किराए पर थे कभी। बढ़ते–बढ़ते दस–बीस–पचास रुपए 
					से ज़्यादा आज भी नहीं हो पाया किराया। उन किराएदारों को 
					निकालने की बिसात न कभी बाबा की रही, न ही उनकी। किराएदारों का 
					रुआब उन लोगों से कहीं ज़्यादा है। कभी–कभी तो डर लगता है कि 
					कहीं किसी दिन किराएदार ही उन लोगों को निकाल बाहर न कर दें। 
					और अगर हरचरण सिंह की तरह सब ने करना शुरू कर दिया तो जल्द ही 
					दूसरे किराएदार भी किराया देना बंद कर देंगे। उसे तो किराया 
					दिए पूरे दो साल हो गए हैं। प्रफुल्ल बाबू ने देखा तो नहीं, 
					सुना भर है, बाबा से ही। इस घर की बड़ी रौनक हुआ करती थी। नीचे 
					मकान के जितने हिस्से में वे लोग अब रहते हैं, उससे कहीं बड़ी 
					तो उनकी बैठक हुआ करती थी।
 
 यह आजादी से पहले की बात है। काफ़ी पहले की। दादा जी 
					क्रांतिकारी थे। घर की ज़मींदारी थी। आज़ादी के दीवानों का 
					आना–जाना लगा रहता था। तब बाबा बहुत छोटे थे। बुआ उनसे बड़ी 
					थीं। उनके घर से बीसेक कदम चलते ही बड़ा–सा चौक है। इस चौक पर 
					आज भी बुआ की मूर्ति लगी हुई है। प्रफुल्ल ने उनके फ़ोटो भी 
					देखे हैं। इसलिए बुआ को अच्छी तरह पहचानते हैं प्रफुल्ल। आज 
					बुआ की मूर्ति का वह आदर नहीं रह गया है तो उन्होंने बचपन में 
					देखा था। उनकी शहादत के दिन समारोह मनाना भी पिछले कई साल से 
					बंद कर दिया गया है। पहले मनाया जाता था धूमधाम से। बचपन में 
					देखा है प्रफुल्ल बाबू ने। एमपी साहेब आते थे। एमएलए आते थे। 
					और इलाके के सभी नामी–गिरामी लोग। बाबा उस दिन सफ़ेद कुर्ता 
					पाजामा और टोपी पहनते थे। वह भी कुर्ता पाजामा पहन कर उनके साथ 
					जाया करते थे। बुआ की मूर्ति को हार माला पहनाई जाती थीं। कुछ 
					भाषण होते थे। साल भर स्कूल में चपरासगीरी करने वाले बाबा बुआ 
					की शहादत वाले दिन नेता लोगों के साथ मंच पर बैठते थे। उन्हें 
					देखकर तालियाँ बजाई जाती थीं। बाबा भी बोलते थे, फिर तालियाँ 
					बजती थीं। वह बाबा के बोलने पर खूब तालियाँ बजाता था। लेकिन 
					फिर धीरे–धीरे बुआ के उस फंक्शन में बाबा का रोल छोटा होता गया 
					और दूसरों का बढ़ता गया। फिर बुआ का वह सालाना जलसा ही छोटा, और 
					छोटा होता चला गया। पहले एमपी साहेब आते रहे, फिर एमएलए ने 
					सँभाला। उसके बाद तो पार्षद ने वहाँ हीरो का रोल करना शुरू कर 
					दिया। और बाबा की मौत के साथ ही वह फंक्शन भी ख़त्म हो गया। 
					यानी प्रफुल्ल बाबू को उस फंक्शन में एक्स्टरा से ज़्यादा का 
					रोल भी कभी मिल नहीं पाया। हालाँकि मन ही मन वह सोचते रहे कि 
					कभी न कभी उन्हें भी बुआ के इस फंक्शन में स्पीच देने का मौका 
					मिलेगा ही।
 
 हाँ, कारपोरेशन के इलेक्शन में ज़रूर दोनों पार्टी वालों की 
					कोशिश रहती है कि उन्हें अपने साथ घुमाएँ उनके मुहल्ले टोले 
					में। इसकी वजह से काफ़ी पहले से ही दोनों पार्टियों में उनको 
					लेकर खींच–तान शुरू हो जाती है। बुआ की वजह से पुराने लोगों 
					में अब भी उनका मान है। हालाँकि अब इधर कई साल से काफ़ी नये लोग 
					यहाँ भी आ बसे हैं। और उन लोगों को उनके वेटर होने को लेकर 
					थोड़ा ऐतराज रहता है। इस बीच बुआ के बलिदान की यादों पर धूल 
					पड़ती गई है। इसलिए अब पहले वाली बात नहीं रही। आज़ादी मिले साठ 
					साल होने को आ रहे हैं। किसे याद रहती है आजादी से पहले की 
					शहादत। गाँधी बाबा की शहादत ही लोग अब भूलने लगे हैं। बुआ को 
					कौन याद रखेगा?
 
 जब तक आज़ादी नहीं मिली थी, बुआ की कहानी यहाँ घर घर में सुनाई 
					जाती रही। बुआ के गाने लोगों की जुबान पर थे। प्रफुल्ल बाबू ने 
					भी हज़ारों बार बाबा से ही सुनी है यह कहानी। बाबा के पास एक 
					यही तो कहानी थी सुनाने को। कहीं से भी शुरू होती, कोई भी 
					कहानी होती, बुआ की शहादत पर ही खत्म होती।
 
 बुआ अपने इलाके की पहली लड़की थी, जिसने छाती पर अंग्रेजों की 
					गोली खाई थी। इसी चौक पर आज़ादी का झंडा फहराए जाने की बात हो 
					रही थी। पूरे देश में उन दिनों यही दीवानगी थी। बुआ उस समय रही 
					होंगी यही कोई १३-१४ साल की। बाबा तब दसेक साल के थे।
 
 बुआ दिन–रात आज़ादी के गीत गा गाकर पूरी क्रांतिकारी हो रही थी। 
					घर का माहौल ही ऐसा था।
 सो, उस दिन सवाल था कि चौक पर तिरंगा कौन फहराए? पूरे देश में 
					उस दिन तिरंगा फहराने का अभियान चल रहा था कोई। बुआ आगे आई और 
					बोलीं, "मैं फहराऊँगी।"
 
 अंग्रेज़ दारोगा के सामने ही वह तिरंगा हाथ में लेकर ऊपर चढ़ गई, 
					वह मना करता रहा, बुआ वंदेमातरम कहती रही और ऊपर चढती गई। झंडा 
					फहराने लगी तो आखिरी बार दरोगा ने आवाज़ दी। बुआ नहीं मानी और 
					उसने गोली चला दी। तिरंगा हाथ में लिए बुआ जमीन पर आ गिरी। 
					उसके बाद तो बलवा मच गया। बुआ की शहादत रंग लाई। और शाम तक कई 
					लोग वहाँ घायल हो गए लेकिन तिरंगा फहरा ही दिया गया।
 
 किस्मत वाली थी बुआ। १३ साल की उम्र में ही शहीद हो गई। बाबा 
					कई बार ऐसा कहते थे। उनकी आँखों में देख कर ऐसा लगता था जैसे 
					कह रहे हों कि अच्छा हुआ जो शहीद हो गई, आजादी के बाद के दुखों 
					को झेलने से बच गई। आजादी के जुनून में ही बाबा पढ़ नहीं पाए। 
					बुआ की शहादत को सीने से लगाए लगाए ही बड़े हो गए। और जब तक 
					आज़ादी मिली, जवान हो चुके थे। पढ़ाई–लिखाई बहुत पीछे छूट चुकी 
					थी। छोटी–मोटी नौकरी से ज़्यादा कभी कुछ मिल ही नहीं पाया। हर 
					नेता की चिरौरी कर के देख ली, कुछ काम नहीं आया। नेता लोग 
					शुरू–शुरू में इलेक्शन के दिनों में जब उन्हें अपने साथ घुमाते 
					थे, तब कॉरपोरेशन के टिकट की बात ज़रूर कही जाती थी। बाबा को भी 
					लगता था एक–न–एक दिन उन्हें टिकट मिल ज़रूर जाएगा। आखिर उनकी 
					बहन ने देश के लिए शहादत दी है। लेकिन इलेक्शन आते रहे, जाते 
					रहे, वह उनकी आँखों की चमक और उदासी देखता बड़ा हो गया लेकिन 
					टिकट कभी किसी के भाई को मिल जाती, कभी किसी की बहन को, कभी 
					बीवी को। और लोग उनके भरोसे टिकट लेते रहे और इलेक्शन जीतते 
					रहे। वह उदास होते तो नेता जी कह देते, 'अरे, आपके आसरे तो यह 
					इलाका ही चलता है। आपको क्या टिकट की जरूरत है। चलिए हाई कमान 
					नहीं मानी, अगली बार सही। पक्का रहा।'
 और बाबा फिर दूसरों को इलेक्शन जिताने में लग जाते।
 
 बुआ की शहादत पर आज़ादी का समय बढ़ने के साथ–साथ जैसे जैसे धूल 
					पड़ी, उनकी मूर्ति पर भी धूल बढ़ने लगी थी। पंछियों की बीट, 
					गंदगी और आगे पीछे भिखारियों का डेरा। कुछ साल से तो स्मैकिए 
					भी जुटने लगे हैं। पिछले दिनों तो उसने सुना था, कोई कह रहा था 
					कि यह मूर्ति हटा कर किसी और की मूर्ति लगा दी जाएगी। बाद में 
					पता चला था कि एमएलए का खेल था यह सारा। उसका कहना था कि उसके 
					दादाजी ने भी आज़ादी की लड़ाई में बलिदान दिया था, उनकी मूर्ति 
					लगाई जानी चाहिए। बहुत साल दे दिया एक शहादत को आदर! उसी साल 
					उनकी बगल वाली गली का नाम तो बदल कर उसके दादाजी के नाम पर कर 
					दिया गया था। बुआ की मूर्ति वहाँ से हटवाने की मुहिम उसने चला 
					रखी है। अभी हिम्मत नहीं पड़ पाई है। इलेक्शन फिर आने वाला था। 
					उसे लगा कि कहीं इस इलाके के वोट ही इस चक्कर में विरोधियों को 
					न चले जाएँ। पार्षद की और एमएलए की लगती है। एक दिन उसी ने 
					बताया था कि इस बार इलेक्शन के फ़ौरन बाद एमएलए का इरादा यहाँ 
					अपने दादा की मूर्ति लगवाने का है। हरामी का पिल्ला, प्रफुल्ल 
					बाबू के मुँह में गाली आते–आते रह गई। वह मन ही मन खून का घूँट 
					पी कर रह गए। बाबा की मौत पर इसी एमएलए ने तो लकड़ियों के पैसे 
					देकर इलेक्शन में उनकी मौत को भी भुनाया था। हरामी ने श्मशान 
					घाट पर ही यह बात फैला दी थी कि वह उनके परिवार की कितनी मदद 
					करता रहा है ज़िंदगी भर। उस दिन प्रफुल्ल बाबू को खुद पर कितनी 
					शर्म आ रही थी। बार–बार पूछते रहे खुद से, क्यों नहीं कर पाया 
					मैं कुछ भी। बुआ तक ही सिमट कर रह गया हमारे परिवार का आभा 
					मंडल। न बाबा पढ़ पाए, न ही मैं।
 
 एक ढंग की नौकरी का इंतज़ाम भी कभी नहीं हो पाया। बाबा की तरह 
					चपरासी की नौकरी भी नहीं मिल पाई। तीसरी चौथी तक पढ़े आदमी को 
					कोई नौकरी भी दिलाए तो क्या? एमएलए सिफ़ारिश तक करने को तैयार न 
					था। बाबा से कह देते थे, 'अरे, कहाँ रखी हैं आजकल नौकरियाँ? 
					पढ़े–लिखों के लिए नहीं हैं। दसवीं बारहवीं की होती, तब भी कुछ 
					हो जाता।'
 
 कुछ दिन तो लगा कि बाबा कुछ करवा देंगे, अपने स्कूल में ही 
					कहीं। तंग आकर एक रेस्टोरेंट में वेटरी करनी शुरू कर दी थी। 
					रात बिरात दारू भी बेचनी शुरू कर दी। पेट पालने के लिए सब कुछ 
					करना पड़ता है। शांति कारखाने में काम करती है लेकिन उससे भी 
					पूरा नहीं पड़ पाता। हाँ, बेटे को ज़रूर पढ़ाना है। हाई स्कूल में 
					चला गया है। उसी ने छुटपन में बताया था कि उसके स्कूल की किताब 
					में है बुआ की शहादत की कहानी। उन्होंने भी बेटे से किताब लेकर 
					अटक–अटक कर पढ़ी थी वह कहानी। वैसे तो पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं 
					थी। बिना पढ़े ही बता सकते थे कि उसमें क्या–क्या लिखा हो सकता 
					है। उस किताब को उन्होंने थाती की तरह सँभाल कर रख लिया था। 
					कभी–कभी उसे उठा कर छूते रहते हैं देर तक। उलटते–पलटते रहते 
					हैं। अब तो पढ़ने की आदत भी छूट गई है। बस छूकर लगता है अतीत 
					में चले गए हैं, सुनहरे अतीत में। बाबा से सुनी कहानियों के 
					अतीत में। बड़ा सा घर। दादा जी, आज़ादी। खूब सारा पैसा। नेहरू, 
					गाँधी।
 
 अचानक प्रफुल्ल बाबू को होश आया, अरे आज तो नेता जी का जुलूस 
					है। जाना है वहाँ। पूछ रहे थे, बेटा स्कूल के बाद आ जाएगा। 
					जुलूस के बाद जलसा है। आज नेता जी के दादा जी का जन्म दिन है। 
					उसका समारोह मनाया जाएगा। समारोह क्या है इलेक्शन में लोगों को 
					बाँटने के लिए कुछ तो बहाना चाहिए। उनके काम की बात यह है कि 
					उस समारोह में साड़ियाँ बाँटी जाएँगी। वहीं बुआ वाले चौक के पास 
					ही। उन्होंने शांति को भी कह दिया है। आज काम निपटा कर जल्दी 
					वहाँ चली जाए। एक–दो साड़ी तो मिल ही जाएँगी। वह वहाँ पहुँच कर 
					एक–दो और दिलवा देंगे उसे। वैसे अकेले शांति के लिए ज़्यादा 
					साड़ियाँ निकालना मुश्किल हो जाएगा। कहीं ज़्यादा लोग पहुँच गए 
					तो शायद एक भी न मिल पाए। वह कभी भी बाबा की तरह इलेक्शन में 
					भावनाओं से नहीं जुड़े। पता है ना अपनी औकात! जितना पैसा मिल 
					जाए, अंटी में लगाओ और अगले इलेक्शन तक के लिए जै राम जी की।
 
 वह बैनर वगैरह भी उठा कर ले आते हैं घर पर। उनको जोड़ कर चादर 
					बनाती है शांति। अगले इलेक्शन तक काम आती हैं वे चादरें। खूब 
					सुंदर छापा करवा लेती है। कोई देख कर बता नहीं सकता कि ये 
					इलेक्शन के बैनरों से बनाई गई है।
 
 ०००
 नेता जी का जुलूस चल रहा था। पूरी दोपहर बीत गई थी उन लोगों 
					को। आज खाना भी बढ़िया बना था। अगले चौक पर रामजी बलरामजी साड़ी 
					शो रूम वाले केदार भाई की तरफ़ से था आज का खाना, नेताजी के 
					दादाजी के जन्मदिन की खुशी में। केसर का हलवा, पूरी, आलू की 
					सब्ज़ी क्या मसालेदार थी! अपने ढाबे में ऐसी सब्ज़ी कभी नहीं 
					खाई। बेटे के लिए दोपहर को वह थोड़ा सा खाना घर पर रख आए थे। 
					बहुत खुश थे वह। लगता है आज का दिन अच्छा रहेगा। उन जैसे लोगों 
					को और क्या चाहिए? अच्छा खाना, कभी–कभार अच्छा पीना औैर आज तो 
					साड़ी भी मिलनी है। थोड़ी देर में बेटा भी आने वाला है। प्रधान 
					जी कह रहे थे, उसे भी ड़ेढ सौ दिलवा देंगे। उस पर काफ़ी फख्र है 
					प्रफुल्ल बाबू को। वही करेगा उनकी उम्मीदें पूरी। वह तो खुद 
					कुछ भी नहीं कर पाए। बुरे काम भी करने पड़ते हैं। दादाजी गाँधी 
					बाबा के भक्त थे और उन्हें शराब बेचनी पड़ती है। कम से कम माँ 
					तो यही कहती है, उनके शराब बेचने को। वह भी क्या करें? कैसे 
					पाले पूरे परिवार को? पेट तो पालना ही है। ढाबे की वेटरी में 
					क्या परिवार पलता है? इतने बड़े मकान का किराया भी तो ज़्यादा 
					नहीं मिलता। कई–कई बार तकाज़ा करना पड़ता है, तब कहीं जाकर हथेली 
					पर रखते हैं पाँच रुपल्ली भी। स्याले हरामी किराएदार! जानते 
					हैं न उनकी औकात। मुकदमा तक नहीं डाल सकते किसी पर।
 
 सोच में अचानक रुकावट आ गई थी। आगे कहीं से आवाज़ें सुनाई दे 
					रही थीं। कुछ लोग भागते चले आ रहे थे। उन्हें कुछ समझ नहीं आ 
					रहा था। बस इतना ज़रूर समझ आया कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है। 
					चारों ओर, 'क्या हुआ, क्या हुआ?' की आवाज़ें । लोग पास आने लगे 
					तो शोर में कुछ–कुछ पल्ले भी पड़ने लगा। नेता जी के जलसे में 
					भगदड़ मच गई है। साड़ियों पर छीना झपटी हो गई है। कुछ पता नहीं 
					क्या हो रहा है। नेता जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। सब 
					लोग उसी तरफ़ भागे। सबको अपनी अपनी पड़ी थी। उन्हें शांति की 
					चिंता थी। किस हाल में होगी वह? नेताजी तो फ़ौरन जीप में चढ़ कर 
					चले गए थे। वह कुछ लोगों के साथ उधर भागे। जब तक वह वहाँ 
					पहुँचे ऐसा लगा जैसे थोड़ी देर पहले भूकंप आया हो। एक दूसरे पर 
					गिरे पड़े लोग। खिंची हुई साड़ियाँ। उनमें लिपटे हुए कुछ शरीर। 
					वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करे? शांति इन्हीं में कहीं पड़ी 
					है या घर चली गई होगी? या फिर आई ही न हो? 'हे भगवान वह यहाँ 
					आई ही न हो।' वह भगवान से धीरे–धीरे प्रार्थना करने लगे। उनका 
					दिल तेजी से धड़क रहा था। कुछ लोग लग चुके थे दबे कुचले लोगों 
					को अस्पताल पहुँचाने के काम पर। लेकिन उनके पाँव काँप रहे थे। 
					वह कुचले हुए लोगों के बीच ही शांति को खोजने लगे। एक–एक चेहरे 
					को पलट कर देखते। लाशों के ढेर एक ओर लगाए जा रहे थे। अस्पताल 
					पहुँचाए जाने वालों में शांति नहीं थी। वह लाशों के चेहरे 
					पलट–पलट कर देखने लगे। एक ओर एक औरत लुढकी पड़ी दिखाई दी। शांति 
					जैसी ही लग रही थी। दोनों हाथों में दो साड़ियाँ कस कर पकड़ी 
					दिखाई दे रही थीं। उन्होंने धड़कते दिल और काँपते हाथों से 
					चेहरा पलटा।
 
 वह चीख पड़े। धाड़ें मार कर चीखने चिल्लाने लगे। 'अरे, हमारी ही 
					किस्मत में लिखा है क्या शहादत देना। एक वो बुआ थी वो शहादत दे 
					गई देश के लिए। पर शांति देख कहाँ पहुँच गया है हमारा देश। देख 
					तो सही। आज उसी घर की बहू को एक साड़ी के लिए शहादत देनी पड़ी। 
					देख तो सही शांति, देख, उसी चौक पर आज तूने शहादत दी है। देख, 
					बुआ देख रही है तुझे, वो भी रो रही होगी तेरी इस शहादत पर। 
					तेरी शहादत तो किसी काम की भी नहीं, पाँच मिनट को भी कोई तेरी 
					शहादत को याद नहीं करेगा। मैं तो तबाह हो गया शांति। मैं तबाह 
					हो गया। देख, हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए। शांति . . .ओं शांति!'
 किसी को वहाँ इतनी फ़ुरसत नहीं थी कि उनको रोने कलपने से रोके। 
					वह शांति के शव के ऊपर ही लुढक गए। आँखें मुँद गई थीं लेकिन 
					ऐसा लग रहा था जैसे दूर बुआ की प्रतिमा पथराई आँखों से उन 
					दोनों को देख रही हो।
 
					९ जून २००६ |