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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
सूरज प्रकाश की कहानी— 'सही पते पर'


आज का सारा शेडयूल बिगड़ गया। एक तो गाड़ी आठ घंटे लेट और ऊपर से मद्रास बंद। स्टेशन पर कोई ऑटो‚ टैक्सी नहीं। ऑफ़िस की गाड़ी आकर कब की चली गई होगी। किस्मत से सहयात्री मिलीटरी वाला है। उसी की जीप में लिफ्ट लेकर होटल तक पहुँच पाया हूँ।

अब एक पूरा बेकार‚ खाली–सा दिन मेरे सामने पसरा पड़ा है। बाहर जा नहीं सकता। इन बंद वालों को बस आज ही का दिन मिला था। पहले पता होता तो आता ही नहीं आज। पर अब क्या करूँ। आज शनि है। कल रवि। यानी सोमवार तक मुझे यों ही वक्त गुज़ारना है। समझ में नहीं आ रहा – क्या करूँ।

कुछेक फ़ोन ही कर लिए जाएँ। टेलीफ़ोन डाइरेक्टरी मँगवाता हूँ। लोकल ऑफ़िस के मैनेजर के घर फ़ोन करके अपनी पहुँच की खबर देता हूँ। बताते हैं वे‚ ड्राइवर तीन–चार घंटे इंतज़ार करता रहा स्टेशन पर। फिर बंद वालों ने भगा दिया। उन्हें यह जानकर तसल्ली होती है‚ होटल में ठीक–ठाक पहुँच गया हूँ। अपने कामकाज के सिलसिले में पूछता हूँ। बताया जाता है मुझे – आज तो कोई मिलने भी नहीं आ पाएगा। अलबत्ता‚ कल सुबह ही वे किसी के साथ गाड़ी भिजवा देंगे‚ घूमने–फिरने के लिए।

अब! फिर वही सवाल। इस अजनबी शहर में‚ 'बंदोत्सव' में मैं करूँ तो क्या करूँ।

याद आया‚ अरे‚ बनानी से भी तो मिलना है। मन एकदम रोमांचित हो आया। सारे रास्ते तो उसके ख्यालों ने व्यस्त रखा लेकिन मेरा सारा रोमांच क्षण भर में गायब हो गया। इस समय तीन बजे हैं। वैसे भी जब पूरा मद्रास बंद है तो युनिवर्सिटी भी तो बंद होगी। उसके घर का पता कहाँ है मेरे पास। डाइरेक्टरी देखता हूँ। युनिवर्सिटी के नंबरों में न तो अंग्रेज़ी विभाग का डाइरेक्ट नंबर है‚ न ही विभाग के हेड का नाम या उसका रेसिडेंशियल नंबर। बनानी के नंबर का तो सवाल ही नहीं उठता। काश! उससे आज मुलाकात हो जाती तो कितने अच्छे कट जाते ये दो दिन।

अब तो परसों तक इंतज़ार करना पड़ेगा‚ "कैसे तलाशा जाए आपको इस महानगरी में मिस बनानी चक्रवर्ती? किसी को भी तो नहीं जानते हम इस अजनबी शहर में मैडम। आपको खोज भी लेते हम‚ लेकिन यह 'बंद'।"

यों ही डाइरेक्टरी के पन्ने पलटता हूँ– 'सी' और 'सी' में चक्रवर्ती। अचानक सूझता है मुझे – थोड़ी–सी मेहनत की जाए तो बनानी को आज और अभी भी ढूँढा जा सकता है। आज पता भर चल जाए तो मुलाकात कल भी की जा सकती है। है तो बेवकूफ़ी भरा तरीका‚ लेकिन किसी को पता थोड़े ही चलेगा‚ इस तरफ़ कौन है। ऐसा हो ही नहीं सकता‚ यहाँ का बंगाली समुदाय और उनमें से भी चक्रवर्ती‚ बनानी को न जानते हों। आखिर कितनी होंगी ऐसी बंगाली लड़कियाँ मद्रास में‚ जो युनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी पढ़ाती हों और बँगला में लिखती हों। हिसाब लगाता हूँ– पूरे मद्रास में पच्चीस तीस हज़ार के करीब बंगाली होंगे। उनमें भी चक्रवर्ती होंगे‚ हज़ार से भी कम। और टेलीफ़ोन डाइरेक्टरी बताती है– कुल ४२ चक्रवर्तियों के पास फ़ोन हैं। इन्हीं से पूछकर देखा जाए तो। न भी मिले‚ कुछ वक्त तो गुज़रेगा। तीस–चालीस रुपये में यहीं बैठे–बैठे बनानी का पता चल जाए तो उससे बढ़कर क्या हो सकता है आज के दिन। हो सकता है‚ इन्हीं में से किसी परिवार में ही हो वह। वैसे डाइरेक्टरी में कोई बनानी चक्रवर्ती नहीं है। तो यह शरारत भी करके देख ली जाए।

पहले चक्रवर्ती से शुरू किया है। एक ...तीन ...पंद्रह ...सत्ताइस ...पैंतीस और ये बयालीस। कुल पचास मिनट लगे और पैंतीस जगह बात हुई बाकी नंबर दुकानों‚ ऑफ़िसों के हैं या लाइन नहीं मिली। हँसी आ रही है खुद पर–हर तरह की आवाजें‚ प्रतिक्रियाएँ‚ गालियाँ‚ हँसी। फ़ोन पटके गए। होल्ड कराया गया‚ पागल करार दिया गया मुझे। बेहद भले लोग‚ लेकिन नतीजा ज़ीरो। "हाँ‚ नाम सुना तो है‚ देखा भी है‚ पन किधर रहती‚ मालूम नहीं। आर यू क्रेज़ी‚ इज इट द वे टू लोकेट ए गर्ल‚ नो ...नो ...नो ...ऑवर बनानी इज ओनली एट ईयर्स ओल्ड ...यहाँ बनानी है‚ बट वह हमारा वाइफ़ है। वह कभी टीचर नहीं थी। हू आर यू ...यू मैड मैन ...विच बनानी चक्रवर्ती? यू मीन दैट गर्ल . . ड़ॉटर ऑफ प्रोताश चक्रवर्ती‚ बट शी इज टीचर इन प्राइमरी स्कूल ..."

मज़ा आ रहा है मुझे। कल तक पूरे शहर के बंग समाज में यह खबर फैल जाएगी – कोई सिरफिरा बंबई से आया है और किसी बनानी चक्रवर्ती को खोज रहा है। एक–एक घर में फ़ोन करके। क्रेज़ी फैलो। डाइरेक्टरी एक किनारे रख दी है। तो इन सब चक्रवर्तियों में हमारी वाली बनानी को कोई नहीं जानता। नहीं जानता का यह मतलब तो नहीं कि वह है ही नहीं। हो सकता है जो नंबर नहीं मिले‚ वहीं हो। कुल मिलाकर एक मज़ेदार एक्सरसाइज हो गई। न सही आज मुलाकात‚ परसों युनिवर्सिटी तो खुलेगी। उसे बताऊँगा इस बारे में कितना हँसेगी।

अजीब गोरख धंधा है इस युनिवर्सिटी का भी। दस जगह फ़ोन करके भी कुछ पता नहीं चल पाया है बनानी का ...कहीं कोई तमिल भाषी बैठा होता है तो कहीं कोई कुछ बताए बिना ही फ़ोन रख देता है। हार कर अपने स्थानीय साथी से अनुरोध करता हूँ–अंग्रेज़ी विभाग की बनानी चक्रवर्ती से बात करा दें जरा। वे भी कई जगह फ़ोन करते है। अधिकतर तमिल में ही बात करते हैं। बताते हैं – युनिवर्सिटी गर्मियों की छुट्टियों की वजह से बंद है और दूसरे‚ अंग्रेज़ी विभाग में इस नाम की लेक्चरर नहीं है। "अरे, तो फिर कहाँ गई बनानी‚ राघवेंद्र ने तो सिर्फ़ यहीं का पता दिया था। अब वह वहाँ है नहीं। पता नहीं मद्रास में भी है या नहीं। कैसे पता लगाया जाए। उसकी शक्ल‚ सूरत‚ पता–ठिकाना‚ घर–परिवार कुछ भी तो पता नहीं।"

सोच रहा हूँ – यूनिवर्सिटी छोड़कर कहाँ गई होगी। फिर उसका यह पता भी तो तीन साल पुराना है। बता तो रहा था राघवेंद्र‚ तीनेक साल से संपर्क छूटा हुआ है। हो सकता है इस बीच कलकत्ता लौट गई हो या शादी कर ली हो। कुछ तो पता चले। अगर यहीं है तो मिलने की कोशिश की जाए और नहीं है तो किस्सा ही ख़त्म। अपने साथी से फिर अनुरोध करता हूँ – ज़रा फिर फ़ोन करके अंग्रेज़ी के हेड का नाम‚ पता और फ़ोन नंबर पुछवा दें। वे ही शायद बता सकें‚ बनानी अब कहाँ है। वे फिर दो–चार बार नंबर घुमाते हैं। आखिर हेड का नाम‚ पता लोकेट कर ही लेते हैं – डॉ। वाणी कुंचितपादम। अब मैं उनके घर का नंबर मिलाता हूँ। इंगेज आ रहा है लगातार। असिस्टेंस सर्विस की मदद लेता हूँ – फिर भी नहीं मिलता। लगता है फ़ोन खराब है। सोचता हूँ‚ खुद ही उनके घर की तरफ़ निकल जाऊँ। वैसे भी यहाँ शाम को कुछ करने–धरने को नहीं है।

मज़ेदार किस्सा बन गया है बनानी का। सिर्फ़ छः शब्दों के तीन साल पुराने पते के सहारे उसकी तलाश कर रहा हूँ इतने बड़े शहर में। न मुझे जानती है‚ न मैं उसे जानता हूँ। दो दिन पहले तक नाम भी नहीं सुना था उसका। कभी राघवेंद्र को मिली थी। ऑथर्स गिल्ड की कॉन्फ्रेंस में। तीन–चार साल हुए। तभी दोनों का परिचय हुआ था। बातें हुई थीं। किताबों का आदान–प्रदान हुआ था। पाँच–सात पत्र भी आए–गए‚ फिर नौकरियाँ बदलने के चक्कर में दोनों का संपर्क लगभग छूट गया था। अब मेरी मद्रास ट्रिप से राघवेंद्र को बनानी की याद ताज़ा हो आई। चलते वक्त कहा था राघवेंद्र ने –तुझसे झूठ नहीं कह रहा हूँ शेखर‚ बहुत ही ज़हीन और मैच्योर लड़की थी यार। ब्रेन एँड ब्यूटी का अदभुत ब्लैंड। उस लड़की में ग़ज़ब का आकर्षण था कि आप उसे इग्नोर कर ही न सकें। अगर तुम्हारी मुलाकात हो जाए तो तुम्हारी यात्रा सार्थक हो जाएगी।

अब जैसे–जैसे उससे मुलाकात में देर हो रही है‚ या मिलने की संभावना कम हो रही है‚ उससे मिलने की ललक उतनी ही बढ़ने लगी है। कल बाज़ार में घूमते हुए‚ किताबों की दुकान में वक्त गुज़ारते हुए और शाम को मरीना बीच पर अकेले टहलते हुए एक सुखद–सा ख्याल आता रहा। हो सकता है‚ वह भी यहीं कहीं‚ आस–पास हो। कोई उसे उसके नाम से पुकारे और ...फिर तेज़ी से ख्याल झटक दिया – मैं भी फ़िल्मी स्टाइल में सोचने लगा हूँ। पहले दिन तो फ़ोन करके उसे तलाशने की बेवकूफ़ी करता रहा और अब उसे सड़कों‚ चौराहों पर खोज रहा हूँ।

डॉ। वाणी कुंचितपादम का घर ढूँढने में खासी परेशानी हुई। "मैडम घर पर नहीं हैं। आधे घंटे में आ जाएँगी‚ आप बैठिए।" उनके पति बताते हैं। मेरे पास इतनी दूर आकर इंतज़ार करने के अलावा कोई उपाय नहीं है। वे दो–चार बार कुरेदते हैं‚ लेकिन मैं टाल जाता हूँ‚ मैडम से ही काम है। वे ड्राइंगरूम में मुझे अकेला छोड़कर गायब हो गए हैं। टिपिकल तमिल साज–सज्जा‚ तस्वीरें‚ तमिल पुस्तकें‚ पत्रिकाएँ‚ लगता ही नहीं‚ इंग्लिश की हेड के घर बैठा हूँ।

वे आईं। सामान से लदी–फंदीं। मुझे देखकर चौंकती हैं। आने का कारण जानकर राहत की साँस लेती हैं। बताता हूँ। फ़ोन पर ही पूछना चाहता था‚ पर ...हाँ‚ फ़ोन कई दिन से खराब पड़ा है। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा‚ एक अनजान लड़की का पता लगाने के लिए कोई इतनी मेहनत कर सकता है। बताती हैं – अब वह युनिवर्सिटी में नहीं पढ़ाती। दो साल से भी ज़्यादा हो गए। यहाँ वह लीव रिज़र्व थी। एक और सदमा मेरे लिए। "बता सकती हैं कहाँ होंगी आजकल?" एक आखिरी कोशिश। "हाँ‚ हाँ‚ क्यों नहीं।" वे बताती हैं‚ बनानी मद्रास में ही है। सेंट ज़ेवियर्स आर्टस कॉलेज में पढ़ाती है। वहाँ वह कन्फर्म हो गई है। अरे‚ तो बनानी अभी भी संभावना है। मैं हल्का–सा खुश हो गया हूँ। यहाँ आना बेकार नहीं गया‚ लेकिन वे बनानी के घर का पता नहीं बता पातीं। अलबत्ता‚ सेंट जे.वियर्स का पता बता देती हैं। वहाँ इकॉनोमिक्स के हेड हैं मिस्टर पद्मनाभन‚ उनसे मिलने की सलाह देती हैं। वहीं कॉलेज क्वार्टर्स में रहते हैं।

उनसे विदा लेता हूँ। वे अभी भी मुझे अविश्वास से देख रही हैं – एक अपरिचित लड़की के लिए ...इतनी भागदौड़ ...दरवाज़े पर आकर हाथ जोड़कर विदा करती है। होटल वापस आते–आते रात हो गई है। तय करता हूँ‚ कल किसी वक्त जाऊँगा। आज सात में से तीन दिन बीत चुके हैं।

जितना वक्त बीतता जा रहा है‚ उतना ही यह सवाल मैं खुद से बार–बार पूछने लगा हूँ –क्यों मिलना चाहता हूँ उससे! क्यों एक अनजान लड़की के लिए इतनी भागदौड़ कर रहा हूँ। एक ऐसी लड़की के लिए‚ जो मुझे जानती तक नहीं और जान भी ले तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि यह पहचान परिचय तक भी पहुँचेगी या नहीं। माना‚ बनानी एक संवेदनशील रचनाकार है‚ मैच्योर है‚ पढ़ी–लिखी है‚ उससे बात करना अच्छा लगेगा‚ लेकिन उस जैसी तो सैकड़ों हैं‚ हज़ारों हैं‚ तो क्या सबसे ...फिर पूछता हूँ खुद से। इतनी–इतनी तो मित्र हैं पहले से‚ फिर एक और की तलाश क्यों‚ क्या एक शादीशुदा‚ सुंदर व पढ़ी–लिखी बीवी के पति‚ दस साल की बच्ची के पिता‚ एक छोटे–मोटे अफ़सर और छोटे–मोटे लेखक को यह शोभा देता है कि वह एक मित्र के कहने भर से उसकी मित्र की तलाश में मारा–मारा फिरे। जितना सोचता हूँ‚ उलझन बढ़ती ही जाती है।

अगर उससे पहले ही दिन मुलाकात हो जाती तो राघवेंद्र का पत्र देकर छुट्टी पा लेता। वह फिर मिलना चाहती तो मिल भी लेता‚ लेकिन उसने न मिलने से जो यह उत्सुकता और बढ़ती जा रही है उससे मिलने की‚ उससे मेरी दुविधा ही बढ़ रही है और फिर राघवेंद्र ने चिट्ठी भी तो इतनी आत्मीयता से लिखी है कि मन करने लगा है – इस लड़की से मुलाकात होनी ही चाहिए। उस कवि–मन अनदेखी युवती के प्रति एक अनचीन्हा–सा अनुराग जागने लगा है। फिर राघवेंद्र की उसके नाम लिखी चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा हूँ :
बंबई‚ २९ मई

प्रिय बनानी‚
बहुत लंबे अरसे से तुमसे मेरा पत्राचार छूट गया है‚ पर तुम्हारे भीतर के संवेदनशील रचनाकार की छवि मेरे मन में अभी भी वैसी ही है। मन है‚ तुमसे मिलना हो‚ खूब बातें हों और लंबे अंतराल की उपलब्धियों की पोटलियाँ खोली‚ दिखाई जाएँ। मन खुशियों से सराबोर हो जाए। प्रिय शेखर मेरे अभिन्न मित्र‚ भाई और प्रखर संभावनाशील कथाकार हैं। और उससे भी कहीं अधिक एक प्यारे भाई‚ अंतरंग और मेरे सहचर। उनकी रचनाएँ ज़रूर तुम्हारी नज़रों से गुज़री होंगी। अचानक पता चला कि मद्रास जा रहे हैं तो तुम्हारी याद आना बहुत स्वाभाविक है। इनके साथ तुम्हारे सुख–दुःख की पहचान मेरे पास वैसे ही पहुँच जाएगी‚ जैसे कि तुम इनसे मिलोगी। शायद नये शहर में तुम्हारा संवेदनशील व्यक्तित्व इन्हें बहुत अपनत्व देगा।
मेरे नाम खत लिखना और शेखर के हाथ भेज देना। मैं लगातार नौकरियों के चक्कर में भटकता रहा। जल्दी ही तुम्हें अपना पता लिखूँगा। बहुत भाग दौड़ के कारण ही पत्राचार में तुमसे पिछड़ गया। बाकी‚ तुम्हारी उपलब्धियों को बहुत पास से देखने का मन है।
और क्या लिख रही हो। क्या कर रही हो। आगे क्या इरादा है। कलकत्ता में परिवार कैसा है। पत्र दोगी और ढेरों बातें लिखोगी। सकुशल होगी। नमस्कार।
सस्नेह तुम्हारा
राघवेंद्र

इस पत्र के एक–एक शब्द के पीछे एक खूबसूरत‚ शालीन चेहरा झिलमिलाता दिख रहा है। अलौकिक सौंदर्य से दिपदिपाता। संवेदनशील व्यक्तित्व। इस पत्र के ज़रिये और जो कुछ राघवेंद्र ने बताया था‚ उसके आधार पर मैंने बनानी के रूप‚ सौंदर्य‚ व्यक्तित्व‚ स्वभाव और यहाँ तक कि उसकी बौद्धिकता और कलात्मक अभिरुचि की भी एक तस्वीर–सी बना ली है। मन है‚ जब भी उससे मिलूँ‚ अपनी कल्पना के अनुरूप पाऊँ।

सेंट जै.वियर्स में पहुँचने पर पता चला है‚ पद्मनाभन जी नहीं हैं। सपरिवार कुल्लू–मनाली गए हैं। अगले हफ्ते आएँगे। पता नहीं क्यों‚ बहुत अधिक निराश नहीं करती यह खबर। शायद पूरी स्थितियाँ ऐसी बनती चली जाएँगी कि बनानी से मुलाकात नहीं ही होगी। या तो मैं अधबीच कोशिश छोड़ दूँगा‚ या कोई और कारण आ निकलेगा। वहाँ से लौटने को हूँ कि वहीं कोई और प्राध्यापक मिल गए हैं। बताते हैं–बनानी यहीं पढ़ाती हैं। पक्का तो पता नहीं‚ लेकिन शायद एग्मोर में वाइ।डब्ल्यू।सी।ए। के हॉस्टल में रहती हैं। वहीं एक बार पता करके देख लें। उनका बहुत–बहुत आभार मानता हूँ।

तो! अब! सड़क पर खड़ा सोच रहा हूँ–तो मिस बनानी चक्रवर्ती‚ आप हमें मिले बिना जाने नहीं देंगी। घड़ी देखता हूँ–साढ़े आठ। वहाँ पहुँचते–पहुँचते नौ बज जाएँगे। क्या एक शरीफ़ लड़की से पहली बार उसके हॉस्टल में मिलने जाने का वक्त है यह। क्या पता‚ स्टाफ ही न मिलने दे। लेकिन अब जब पता चल गया है उसका‚ तो मिल ही लिया जाए। जो भी होना है‚ आज ही हो ले। मिले या न मिले। आज ही निपटा दिया जाए यह मामला। वैसे भी वापसी में सिर्फ़ तीन दिन बचे हैं।

वहाँ अगला सदमा मेरा इंतज़ार कर रहा है। इस नाम की कोई लड़की यहाँ नहीं रहती। मुझे अजीब–सा महसूस होने लगा है। एकदम तेज़ प्यास लग आई है। यह क्या मज़ाक है। बीच–बीच में अचानक यह क्या हो जाता है कि वह एक जगह होती है और दूसरी जगह से गायब हो जाती है। फिर अगली जगह फिर प्रकट हो जाती है। क्लर्क से पूछता हूँ–ज़रा अच्छी तरह देखकर बताएँ – शायद कुछ अरसा पहले तक रहती रही हो। वह मुझे अजीब निगाहों से घूरता है। मैं उसकी परवाह नहीं करता। यह आखिरी पड़ाव है जहाँ बनानी को होना चाहिए। अगर वह यहाँ नहीं है तो फिर कहीं नहीं है। वह रजिस्टर के पन्ने पलट कर मना कर रहा है – इंद पोन इंगे इरकरदिल्ले ...यहाँ नहीं रहती यह लड़की।

अब मैं इस हॉस्टल के रिसेप्शन में रुकने–न रुकने की हालत में खड़ा हूँ। क्लर्क फूट लिया है। हो सकता है‚ बनानी यहीं रहती आई हो‚ अब न रहती हो। इन गर्ल्स हॉस्टलों के नियम भी तो कुछ ऐसे ही होते हैं। ज़्यादा–से–ज़्यादा एक साल‚ दो साल। क्लर्क ने भी तो यही कहा है‚ नहीं रहती। अगर रहती थी तो अब कहाँ गई। कुछ तो पता चले। लेकिन पूछूं किससे। इतने में मुझे दुविधा में देख एक लड़की खुद आगे आई है – किसे पूछ रहे हैं सर?

उसी के सामने पूरा किस्सा बयान करता हूँ। यह भी पूछता हूँ कि इसी संस्था का और कोई भी हॉस्टल है क्या आस–पास। बताती है लड़की – हॉस्टल तो यही है अलबत्ता‚ बनानी ...दो–एक लड़कियाँ और जुट आई हैं। वहीं रिसेप्शन में इंतज़ार करने के लिए कहती हैं – अभी पता करके बताएँगी‚ पुरानी हॉस्टलर्स से‚ आया से‚ वॉचमैन से।

मैं अजीब–सी हालत में वहीं बैठा हूँ। यह मैं क्या कर रहा हूँ। यह कौन–सा तरीका है किसी को खोजने का? दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या? मिल भी गई वह तो कौन–सी क्रांति हो जाएगी। मैं ही तो सारे कामकाज छोड़कर उससे मिलने के लिए मारा–मारा फिर रहा हूँ। अगर मिल भी गई और उसने "ओह‚ थैंक्स‚ सो नाइस ऑफ यू। आप आए‚ बहुत अच्छा लगा।" कहकर संबंध पर‚ मुलाकात पर वहीं फुल स्टॉप लगा दिया तो। क्या कर लूँगा मैं तब?

मैं एक झटके से उठ खड़ा होता हूँ। नहीं मिलना मुझे उससे। अब और बेवकूफ़ी नहीं करूँगा। चलने को ही हूँ कि एक लड़की भागती हुई आई है – सर आप ही ...मिस बनानी से ...मैं उसकी तरफ़ देखता हूँ – तो ...क्या ...यह लड़की ...बनानी "सर‚ वह मेरी रूममेट थी। अब यहाँ नहीं रहती। उसके एक अंकल ट्रांसफ़र होकर आए थे‚ दो–तीन महीने पहले। अब वह उन्हीं के साथ रहती है‚ मइलापुर में।"

लो। एक और पता। लंबी साँस लेता हूँ। चलो यही सही। उससे पता पूछता हूँ‚ पता उसके पास नहीं है। सिर्फ़ उसे छोड़ने गई थी टैक्सी में। तभी देखा था उसके अंकल का फ्लैट। हाँ‚ लोकेशन बता सकती है। वह काग़ज़ पर ड्रा करके लोकेशन बताती है। सेंथोम चर्च। उसके ठीक सामने एक तिमंजिली इमारत। बिलकुल सफ़ेद रंग की। ग्राउंड फ्लोर पर बायीं तरफ़ का पहला फ्लैट। दरवाज़े पर पीतल की नेम प्लेट। अंकल का नाम याद नहीं‚ लेकिन वे भी चक्रवर्ती। काफ़ी है मेरे लिए। जाऊँ या न जाऊँ‚ बाद की बात है।

अब वापसी में सिर्फ़ दो दिन बचे हैं। फिर दुविधा में पड़ गया हूँ। जाऊँ या नहीं। कल दोबारा उन्हीं स्थानीय लेखक मित्रों से मिलने चला गया‚ जिनसे तीन दिन पहले ही मिला था। वही–वही समस्याएँ‚ वही–वही रोना कि यहाँ सबसे अलग–थलग बैठे हैं‚ हमारे लिखे को कोई नोटिस नहीं लेता। और रचनाओं के नाम पर सब कुछ बासी पुराना–पुराना–सा। आज खाली हूँ। फिर बनानी के ख्याल आ रहे हैं। अब भी मिलने नहीं गया तो अफ़सोस होता रहेगा। इतनी कोशिश की‚ भागदौड़ की और मंज़िल का पता पूछकर लौट आया। फिर राघवेंद्र सुनेगा तो हँसेगा।

दूसरा मन कहता है – अब बचे ही सिर्फ़ दो दिन हैं। अगर इन दो दिनों में दो बार भी मुलाकात हो जाए तो गनीमत। अब तो घर–परिवार में है। पता नहीं कैसे लोग हों‚ घर पर कौन–कौन हों? लेकिन एक आखिरी कोशिश करके देख लेने में हर्ज़ क्या है? तय कर लेता हूँ‚ जाना ही चाहिए।

घर बिलकुल आसानी से मिल गया है। दरवाज़े पर साफ़–सुथरी चमकती हुई पीतल की नेम प्लेट लगी है–डॉ।चंदन चक्रवर्ती। घंटी पर हल्के से हाथ रखता हूँ। थोड़ा इंतज़ार। अब यहाँ पहुँचकर भी वह पहले वाली ऊहापोह नहीं रही है‚ जो चार–पाँच दिन पहले तक थी। इतना तो भटका दिया है इस लड़की ने कि मिलने न मिलने के बीच का अंतराल ही मिट गया है।

दरवाज़ा एक महिला ने खोला है‚ निश्चय ही आँटी होंगी‚ नमस्कार करके बतलाता हूँ – बंबई से आया हूँ‚ बनानी और मेरे एक कॉमन फ्रेंड हैं राघवेंद्र। यहाँ आ रहा था तो उन्हीं ने पता दिया था बनानी का। पूछते–पूछते यहाँ तक आ पहुँचा हूँ।
वे बड़े प्यार से अंदर बुलाती हैं। बिठाती हैं। दो–एक घरेलू नाम पुकारती हैं। पल भर में उनके पति और दो लड़कियाँ ड्राइंग रूम में आ जुटे हैं। लड़कियों को देखकर सोचता हूँ–कौन–सी होनी चाहिए बनानी इनमें से। एक लंबी–पतली–सी है‚ घने बाल‚ आँखों पर चश्मा‚ हाथ में किताब‚ दूसरी गाउन में है। शायद रसोई का काम छोड़कर चली आई है। थोड़ी साँवली‚ दूसरी से बड़ी‚ खूबसूरत चेहरा–मोहरा‚ पहली ही नज़र में ज़हीन होने का सुबूत देता हुआ।

महिला उन्हें मेरे बारे में बताती है‚ सबको आश्चर्य होता है मेरा इतना सोमांचकारी खोज अभियान सुनकर। मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी है – बताया क्यों नहीं जा रहा – इनमें से बनानी कौन–सी है। वैसे मेरी ख्याल से गाउन वाली ही होनी चाहिए। या क्या पता‚ इन दोनों में से हो ही नहीं।
आँटी पहले बँगला में शुरू करके‚ फिर हिंदी में बताती हैं – "बनानी कलकत्ता गई हुई है। उसकी माँ का ऑपरेशन हुआ था‚ उसके लिए गई थी। इसी संडे रात को वापस आ रही है। आप मंडे आएँगे तो ज़रूर मुलाकात हो जाएगी‚ आप ज़रूर आना।"

"तो मिस बनानी चक्रवती।" मैं आखिरी झटके से उबरने की कोशिश करता हूँ – आप नहीं ही मिलीं। मन–ही–मन मुस्कराता हूँ। अब इन लोगों को कैसे बताऊँ कि मेरी गाड़ी के जाने का वक्त भी लगभग वही है‚ जो बनानी के आने का है।
चलने के लिए उठता हूँ‚ लेकिन आदेश सुना दिया गया है – डिनर के बिना नहीं जाने दिया जाएगा। बनानी नहीं है तो क्या हुआ‚ घर तो उसी का है।

बैठ जाता हूँ। अब सबसे परिचय कराया जाता है। छोटी वाली बरखा बी।ए। में‚ बड़ी वाली श्यामली एम।ए।में। दोनों बनानी दी की ज़बरदस्त फैन। श्यामली भी लिखती है। छपी भी हैं उसकी रचनाएँ। ये लोग कई साल इलाहाबाद रहे हैं‚ इसलिए कई लेखकों से परिचय रहा है।

शुरू–शुरू में अटपटा महसूस करता रहा‚ लेकिन जब पूरा चक्रवर्ती परिवार इतने सहज‚ आत्मीय और खुलेपन के साथ बात करने लगा तो मेरी भीतरी गाँठें खुलने लगीं। मैंने देखा‚ उन लोगों की हर तीसरी बात में बनानी का ज़िक्र ज़रूर आता था। मैं बार–बार खुद को कोसने लगा – ऐसे वक्त क्यों आया! एक तो पूरे शहर की परिक्रमा करके उसके घर तक पहुँचा और यहाँ ...उससे मिलना कितना सुखद होता।

उस परिवार में दो–तीन घंटे बैठा रहा। अत्यंत शालीन‚ सुसंस्कृत लोग। बेहद आत्मीय। जब चलने के लिए इजाज़त चाही तो आग्रह किया गया‚ एक बार फिर आऊँ। उनके साथ एक और शाम बिताऊँ। मैं हँसकर रह जाता हूँ। फिर पूछा जाता है – बनानी के लिए कोई मैसेज देना चाहेंगे। एक इच्छा होती है–राघवेंद्र के पत्र के साथ अपनी तरफ़ से दो लाइनें लिखकर दे दूँ‚ लेकिन टाल जाता हूँ। दरवाज़े से बाहर आते–आते अचानक पूछ बैठता हूँ – क्या मैं बनानी का कमरा देख सकता हूँ।

१६ दिसंबर २००६

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