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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
प्रत्यक्षा की कहानी— 'पिकनिक'


निरंजन कहीं आगे निकल गए थे। जिया धीरे–धीरे हर फूल, हर दूब, हर घास की पत्ती को छूते, देखते इत्मीनान से चल रही थी। निरंजन कहीं भी आगे बढ़ जाएँ, लौट कर फिर उसे तलाशते आएँगे।

सड़क एकदम सुनसान थी। टूटी–फूटी और संकरी। एक तरफ़ वादी और दूसरी तरफ़ पहाड़। जिया को बचपन में पढ़ी बॉटनी याद आई। ऊँचाई पर उगते मॉस और लिचेंस। उँगलियों से चट्टानों के दरारों को सहलाते, छूते, जिया कहीं पीछे भटक गई थी।
 
स्कूल में बॉटनी की अध्यापिका, सिस्टर स्टेला अपने उजले चोंगे में बेहद शांत और स्थिर। तब बचपन में लड़कियों में ये बहस चलती कि सिस्टर स्टेला के बाल किसने देखे हैं। नन्स हुड में सिर्फ़ उनका चेहरा दिखता, बेहद सौम्य। जब पढ़ातीं तब उनकी लंबी नाजुक उँगलियाँ हवा में तस्वीर बनातीं। ब्लैक बोर्ड पर चॉक से तुरंत किसी सेल, किसी जड़ की तस्वीर बिना मिटाए एक बार में बना डालतीं।

चट्टान के दरार में हरी सूखी घास के बीच दो नन्हे–नन्हे पीले उजले फूल हवा में काँप रहे थे। जिया ने उँगली बढ़ाई थी फिर हाथ खींच लिया था वापस, हल्के से छूकर। अभी निरंजन आएँगे वापस। थोड़ा खीजते हुए, "कहाँ अटक जाती हो, जिया। चलो न आगे उस पहाड़ी के पीछे। यहीं रुक जाओगी क्या?"
 
पर निरंजन को कैसे समझाए जिया। उस पहाड़ी के पीछे बिलकुल वही है जो इस पहाड़ी पर है। नहीं जिया को आज भागना नहीं है। आज अपने हिसाब से जिया चलेगी। जितनी देर जहाँ रुकना है वहाँ रुकेगी। और अगर आगे नहीं जाना तो बस नहीं जाएगी। आज निरंजन वाली भागदौड़ नहीं। आज जिया का ठहराव होगा। धीरे–धीरे इत्मीनान से जिया चल रही है। पीछे लटके झोले से एक चॉकलेट निकालकर खाते हुए, हल्की नर्म धूप में यों चलते जाना, बिना किसी गंतव्य पर पहुँचने की हड़बड़ाहट में। जिया के अंदर एक खुशी काँपती है, दिये की लौ सी।

आगे एक मोड़ है, टूटी रेलिंग से घेरा हुआ। जिया ठहरती है वहाँ। रेलिंग मज़बूत है, पकड़ कर जाँचती है, फिर नीचे वादी में झाँकती है। चीड के पेड़ जंगली झाड़, नीचे की ओर के ढलाव को रोकते खड़े हैं। कुछ और नीचे, जहाँ धूप बिख़री है, एक लाल छत वाला सफ़ेद घर थोड़ी सी समतल ज़मीन में अकेला खड़ा है। उसके और नीचे छोटे– छोटे खेतों के टुकड़े मेड से बँटे हरे ज़मीन के चौकोर छोटे बड़े टुकड़े। कोई आवाज़ कहीं नहीं। एक टूटा बेंच था। जिया बैठ गई। धूप की गरमाई में अंग के कसाव ढीले पड़े। पानी की बोतल निकाल कर दो घूँट भरा फिर चित्त लेट गई, निरंजन के लौटने के इंतज़ार में।

चेहरे पर धूप की किरने खेल रही थीं। जिया की आँखें मुँद गईं। दूर कहीं बकरियों के मिमियाने की आवाज़ आने लगी थी।
"तुम यहाँ लेटी हो!" निरंजन की आवाज़ कानों में सहसा गूँज गई। जिया की आँखें धप से खुल गईं। निरंजन की खीज अचानक कपूर की तरह उड़ गई, जिया के हँसते चेहरे को देखकर।
"तुम्हें पता है, अगली मोड़ पर बैठे कितनी देर तुम्हारा इंतज़ार किया? ...यहीं बैठो कुछ देर," जिया ठुनकी थी।

चॉकलेट का अधखाया टुकड़ा उसकी ओर बढ़ाया था। निरंजन ने झपट्टा मारा था उसकी उँगलियों की ओर। चॉकलेट के साथ–साथ जिया की उँगलियों को काट खाने का नाटक किया फिर झटके से जिया का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। "अब चलो भी।" दूसरे हाथ से झोला कंधों पर टाँगा और लगभग खींचता हुआ सा जिया को ले चला। थोडी चढ़ाई अब शुरु हो गई थी। निरंजन के पैर लंबे थे। जिया को उसका साथ रखने के लिए उसकी दुगनी रफ़्तार से चलना पड़ रहा था। तेज चलने से और हँसने से जिया की साँस फूल रही थी।

"रुको न निरंजन। अच्छा, धीरे तो चल सकते हो!" अब दोनों एक रफ़्तार से चल रहे थे। साथ–साथ पाँव बढ़ाते, हाथों में हाथ डाले।

चढ़ाई तीखी थी अब। साँस झटके से आ रही थी। जाँघों से लेकर पिंडली तक के नस तड़तड़ा रही थीं। निरंजन की फिटनेस बेहतर थी।

"कहता हूँ तुम्हें हमेशा, कुछ शारीरिक मेहनत किया करो," निरंजन की हँसी गूँज गई।
जिया अब जवाब देने की स्थिति में नहीं। बस पहले कहीं बैठ जाएँ फिर बोलूँगी। उसने अब मुँह से साँस लेना शुरु किया। तेज़, बड़े गहरे घूँट। पर लगता कि अंदर जाने के पहले ही दूसरी साँस खींचने की ज़रूरत पड़ जाती, हर साँस पहले को धकेलती, अफरा–तफरी में जैसे। निरंजन को दया आ गई।
"अच्छा दो मिनट रुक लेते हैं," जिया खड़े–खड़े चट्टान से निढाल टिक गई।
"चलें? अब बस पहुँच ही गए।" जिया ने सिर हिलाकर हामी भरी।
 
सड़क के नीचे से टूटी–फूटी पगडंडी सी थी। झाड़ियों ने उसे लगभग लुप्त सा कर दिया था। हल्का सा ढलाव। एक मोड़, फिर एकदम तीखा उतार। निरंजन आगे हो लिए थे। हाथ बढ़ाकर जिया की बाँह थामी और एहतियात से नीचे उतार लिया। बायीं ओर मुड़े और जिया धक से रह गई। फूलों की वादी, एकदम छोटी और अपने में पूरी। एक अलग मायावी दुनिया। रंग बिखरे थे चारों तरफ़। छोटा सा समतल नर्म घास का टुकड़ा और उसके तीन तरफ़ ढेर सारे जंगली फूल। निरंजन विजयी भाव से खड़े थे। दोनों बैठ गए थे। जिया ने जैकेट और मफलर उतार दिया। फिर जूते और जुराबें। घास के दूब नंगे तलवे पर सुखद थे। निरंजन बाहों पर सर रखे चित्त लेटे थे। आँखें जिया के चेहरे पर जड़ी थीं, हँसती हुईं। जिया भी जवाब में मुस्कुरा दी थी। कुछ देर ऐसे ही बैठे रहे थे। फिर जिया व्यस्त हो गई।

पहाड़ की खुनक भरी हवा ने भूख को तेज कर दिया था। जिया ने सैंडविच निकाले, उबले अंडे, छोटे डिब्बों में नमक और कुटी हुई काली मिर्च, कटी हुई मूली, प्याज़ और टमाटर। काग़ज़ के लिफ़ाफ़े में संतरे और सेब। फ्लास्क में कॉफी।

"उठो, दस्तरखान बिछ गया।" निरंजन लेटे–लेटे चुपचाप जिया को ये सरंजाम करते देखते रहे। जिया के बाल खुल कर चेहरे पर गिर गए थे। उसने सैंडविच बढ़ाया निरंजन की ओर।
"प्लेटस और नैपकिंस रह गए कमरे में ही," जिया ने अफ़सोस ज़ाहिर किया।
"ऐसे खाने का मज़ा और है," निरंजन खा रहे थे स्वाद लेकर। हथेलियों पर जिया ने नमक और कालीमिर्च डाल ली थी। निरंजन की ओर हाथ बढ़ाया।

"अंडे को इनके साथ खाओ" निरंजन ने एक कट्टा लिया "तभी स्वाद इतना!" जिया हँस पड़ी। निरंजन के गालों पर, होठों के पास टमाटर का एक टुकड़ा चिपक गया था।
"हटा दो," निरंजन ने चेहरा आगे बढ़ाया। जिया ने उँगली आगे की।
"न न न नॉट अलाउड़ बिना उँगलियों के हटाओ। " जिया ने अपना चेहरा करीब किया। होठों को गाल के पास सटाया और निरंजन ने हँसते हुए उसे बाहों में खींच लिया।

थोड़ी देर तक हरी घास पर दो बच्चों की तरह वे गुत्थम–गुत्था लड़ते रहे फिर निरंजन ने अचानक ही लड़ाई की मुद्रा छोड़ दी। जिया को शीशे की कीमती, नाजुक चीज़ की तरह सँभाल कर, सहेज कर छाती में समेट लिया। जिया भी निरंजन की छाती में दुबकी शांत पड़ गई। नीले आसमान में बादल के महीन फाहे, चिडियों का शोर रह–रह कर और निरंजन की उँगलियाँ जिया के बालों को एक सम्मोहित कर देने वाली लय से सहलाती रहीं। बड़ी देर तक दोनों ऐसे ही लेटे रहे, निशब्द तंद्रा में, एक दूसरे की बाँहों में, निस्पंद, शांत, सुकून की गुनगुनी चादर ओढे. हुए।

"उठो जिया," निरंजन उसके चेहरे को हरी दूब से गुदगुदा रहे थे। मेरी बाँह सुन्न पड़ गई। अब तो उठ जाओ," जिया बैठ गई थी। बाँहों में घुटनों को समेटे। बकरियों का मिमियाना कहीं पास से सुनाई पड़ रहा था।

अचानक झाडियों के पीछे से एक बच्चा दिखा। लालसुर्ख गाल और बहती नाक, लाल टोपी और ढीली, बड़ी सी स्वेटर पहने। पतलून के उटंग पाँयचे के नीचे रंगबिरंगी जुराबें और पुराना सा जूता। जिया ने एक संतरा उसकी ओर बढ़ाया। बच्चा चुप एकटक देखता रहा। जिया इसबार घुटनों के बल आगे झुकी। बढ़े हाथ से संतरा फिर बढ़ाया। एक झप्पटे से इस बार उसने संतरा छीना और भाग लिया। फिर झाड़ी तक पहुँच कर मुड़ा, जिया को एक खिलती हुई हँसी से देखा और मोड़ के पीछे गायब।
निरंजन चीज़ें समेट रहे थे। एहतियात से छिलके, बीज, खाने के बचे टुकड़े समेटते रहे। काग़ज़ के लिफ़ाफ़े में सब डाल कर वापस झोले में समेट लिया। दोनों उठ खड़े हुए। सूरज की किरणें अब तिरछी, लंबी और फीकी पड़ रही थीं।

"चलें, पहाड़ों पर अँधेरा अचानक घिर आता है।" मोड़ पर जिया ठिठकी। मुड़ कर देखा। एकदम साफ़–सुथरा, अनछुआ जैसे कि उन्होंने यहाँ पूरा दिन बिताया उसका कोई चिन्ह नहीं वहाँ।
"अगर इतना अच्छा लगा तो कल फिर आ सकते हैं, जिया।"

"नहीं निरंजन। अगर कल फिर आएँगे तो आज जो इस जगह का जादू था वो टूट जाएगा। आज का ये दिन, ये जगह मेरे मन में हमेशा ताज़ा रहेगा, साफ़ चमकता हुआ दिन, पानी के पारदर्शक बुलबुले के अंदर का एक मुकम्मल दिन जिसे कुछ छू नहीं सकता। इस बुलबुले को टूटने मत देना। ये ऐसे ही रहे स्वप्न मात्र सा।" चीड़ के पेड़ों पर हवा बतियाने लगी थी। गहराते सायों के बीच दोनों एक दूसरे को थामे, पहाड़ी घुमावदार रास्ते पर घर की ओर लौट चले थे।

 

९ फरवरी २००६

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