शुरू
करने से पहले ही बता दूँ कि शीर्षक के अलावा यह कहानी किसी रूप
में अमिताभ बच्चन की मशहूर कॉमेडी फिल्म 'बाँबे टू गोवा' से
प्रभावित नहीं है। हालाँकि कहानी का नायक मुंबई से सतपुड़ा के
घने जंगल की यात्रा करता है, मगर उसकी यात्रा और अमिताभ की
यात्रा में फर्क है, जो कहानी पढ़ते हुए आप आगे महसूस कर सकते
हैं।
तो आइए इस स्पष्टीकरण मंगलाचरण के बाद हम अपनी कहानी शुरू करते
हैं। जैसा कि पहले ही ज़िक्र किया जा चुका है, कहानी मुंबई
महानगरी से ही शुरू होती है। बीच शहर में एक भव्य फ्लैट और उस
लंबे चौड़े फ्लैट में रहने वाले चार किरदार। सौरभ देव, विज्ञापन
की दुनिया का सफलतम कॉपी राइटर। महज अड़तीस साल की उम्र में
उसने जो सफलता पाई है उससे लोग रश्क के अलावा कुछ और कर ही
क्या सकते हैं। जिंगल उसके कलम से छूटते हैं और चंद रोज में ही
देश के कोने–कोने में गुंजायमान हो जाते हैं। यह सफलता भी उसने
दुनिया के दूसरे सफलतम लोगों के तर्ज़ पर ही पाई है, यानि निम्न
मध्यमवर्ग की देहरी से उठकर जूझते, लड़ते–झगड़ते। उसकी बीवी
रूबी, शहर के सबसे प्रतिष्ठित व्यापारियों में से एक की बेटी
है। लक्ष्मी स्वरूपा, पिता ने सिर्फ धन ही नहीं रूप भी दिया
है, मगर वर की तलाश उसने खुद की। प्यार करके नहीं, रोज बदलने
वाली इस दुनिया में अपनी तीक्ष्ण नजरों से परख कर कि यही वह
व्यक्ति है जिसकी यात्रा शिखर की ओर है और दुनिया के सर्वोच्च
शिखर से यह कुछ ही फासले पर है। उसके पिता की तरह नहीं, जो अब
अपने सर्वोच्च शिखर से धीरे–धीरे उतर रहे हैं और लगातार उतरते
जाना ही उनकी नियति है।
उन दोनों की छोटी सी बेटी तान्या। आठ साल की है। मॉम–डैड की
दुलारी। अकेली संतान, क्योंकि मॉम और डैड ने तय कर लिया था 'एक
ही हो, चाहे बेटा हो या बेटी हो'। दोनों ने एक बार यह भी सोचा
था कि बेटी ही क्यों न हो, बेटियाँ क्या किसीसे कम होती हैं।
और, उन तीनों का दुलारा 'टशन'। जी हाँ 'यारा दा टशन'। उसे देख
उस सुपरहिट कैच वर्ड की याद में सौरभ देव ने अपने डाल्मेशन पपी
का नाम रखा था टशन। खबरदार, उसे कुछ मत कहिएगा। घरवाले नाराज
हो जाते हैं। नाम नहीं मालूम हो तो पापी कहिए, डॉगी कहिए।
बहरहाल, वह शाम जिस रोज हमारी यह कहानी शुरू हो रही थी, उस
फ्लैट के ड्राइंगरूम में फर्श पर बिखरी किताब–कापियों के बीच
बैठी तान्या होमवर्क निबटा रही थी। सौरभ देव अभी–अभी अपने आफिस
से लौटकर जूते का फीता खोल रहे थे और रूबी तान्या के पास बैठी
नेलपालिश लगाने में जुटी थी। टशन वहाँ नहीं था, कहीं और होगा।
बालकनी में या बाथरूम के पास या किसी और कमरे में। मगर वहाँ उन
तीनों के बीच चर्चा टशन की ही हो रही थी।
तान्या ने बात शुरू की थी। 'डैड आपने एक बात मार्क की है? टशन
आजकल कुछ सेंटी टाइप हो गया है।'
लगातार सफलता के शिखर पर चढ़ता सौरभ देव उन दिनों में हमेशा
रंगत में हुआ करता था। उसकी बातों से लापरवाही का नशा झलकता
था। 'ओ ...के ...नो प्रोब्लम टाइप'। तान्या के सवाल पर भी उसने
उसी लहजे में कहा। 'इंपासिबल, टशन कभी सेंटी हो ही नहीं सकता।
तुमने ग़लत मार्क किया है। बेसिकली वह तुम्हारे डैड की संगत में
फिलासफर जरूर हो गया है।' लेकिन बीवियाँ शौहर की ऐसी
लापरवाहियाँ बरदाश्त नहीं करतीं, सो रूबी भी इस बात से चिढ़ गई।
'तुम्हारे डैड को हर जगह अपनी तारीफ घुसेडने के सिवा आता ही
क्या है? उससे कुछ भी एक्स्पैक्ट करना डफरनेस है।'
'मतलब?'
'तुम किसी बात को सीरियसली तो लेते नहीं। आजकल उसने भूँकना ही
बंद कर दिया है। लोग उसके सामने से गुजर जाते हैं, वह उन्हें
देखता तक नहीं। यह फिलासकी नहीं बीमारी है – बीमारी। इसके
अलावा वह हर उस काम को करने की कोशिश करता है, जिसके लिए हम
उसे मना करते आए हैं। आजकल वह किचेन जाना कुछ अधिक ही पसंद
करने लगा है। एँड यू नो? ही वांट्स टू चीट अस। मतलब ऐसे
उटपटाँग काम वह हमसे छिपकर करता है। कई बार ऐसा होता है कि मैं
या तान्या उसे किचेन में घुसते देख लेते हैं, तो वह आधे रास्ते
से लौट जाता है। दैट मीन्स उसे मालूम है कि उसका किचेन जाना
हमें पसंद नहीं। और, कई चीजें. जो हम उसे छूने नहीं देते
उन्हें लेकर वह चुपके से गायब हो जाता है।'
'जैसे?' सौरभ पूछते हैं।
'जैसे मोबाइल, ब्रश ...और सनग्लासेज। वह इन्हें उठाकर सीधे
बालकनी में चला जाता है और वहाँ इन्हें उलटता–पुलटता रहता है।'
मिसेज रूबी देव लगातार बोलती जा रही थीं और मिस्टर देव बड़े
कंसंट्रेट होकर उनकी बात सुने जा रहे थे। कुछ–कुछ उसी तरह जैसे
वे अपने क्लाइंट या बॉस की बात सुनते थे। जाहिर सी बात है, कि
जब वे किसी को इतना भाव देते थे तो उसे बेवकूफ भी समझते थे।
रूबी के खतम होते ही वे कुछ इस अंदाज में उठे जैसे प्रेज़ेंटेशन
देने जा रहे हों—
'मिसेज रूबी देव ने अदालत के सामने जो तथ्य प्रस्तुत किए हैं।
इस पूरी दलील से एक बात साफ है मिस तान्या कि तुम्हारी मॉम का
आब्जर्वेशन पावर ग़जब का है। ...और जिस इंसान का आब्जर्वेशन
इतना स्ट्रांग हो, वह क्या किसी ग़लत नतीजे पर पहुँच सकता है?
नो ...न ...नो असरानी के अंदाज में- इसलिए बिना किसी शक और
शुब्हा के अदालत मिसेज देव से पूरी तरह सहमत है और इस नतीजे पर
पहुँची है कि वाकई ...कि वाकई उनका पालतू पपी, जिसका नाम उन
लोगों ने टशन रखा है, भारतीय दंड विधान कर पर पपीज की धारा–30
के मुताबिक कुछ खतरनाक किस्म के मानसिक हालातों से गुजर रहा
है। लिहाजा यह अदालत मिस्टर देव को निर्देश देती है कि वह
जल्द–अज–जल्द श्रीमान टशन को किसी एनिमल साइकॉलाजिस्ट के पास
ले जाए और उसकी मानसिक दशा की जाँच करवाकर अदालत में रिपोर्ट
करे।'
अपने डैड की इस लफ़्फ़ाज़ी पर तान्या खिलखिलाकर हँसना चाह रही थी
मगर सौरभ ने उँगलियों के इशारे से उसे मना कर दिया।
'येस–येस। अदालत को मालूम है मिस्टर देव क्या कहना चाहते हैं,
यही न कि वे आजकल विज्ञापन की शूटिंग में कुछ अधिक ही व्यस्त
हैं। पता नहीं वे क्या–क्या करते रहते हैं, घरेलू मामलों की तो
उन्हें कोई फिक्र रहती ही नहीं है। ऐसे हालात में संभव है कि
वे अपने इस फर्ज़ को ठीक से अंजाम भी न दे पाएँ।'
'इसके अलावा इस मामले में खुद उनका ज्ञान इतना सीमित है,
लिहाजा क्यों न मिसेज देव ही इस पुनीत कार्य को अपने हाथों से
संपन्न करें। यह देखते हुए कि पपीज के मामलों में उनका
आब्जर्वेशन ग़जब का है ...क्यों?'
यह सुनते ही रूबी उठी और उसने सौरभ की पीठ पर एक ज़ोरदार घूँसा
जमा दिया। जवाब में सौरभ ने पलटकर रूबी का थोबड़ा पकड़ लिया और
तीनों एक साथ ठहाके लगाकर हँसने लगे। तभी उनका प्यारा पपी
जिनकी वे इस वक्त चर्चा कर रहे थे, उनके पास आकर ज़ोर–ज़ोर से
भौंकने लगा। सौरभ ने कहा, 'कहीं इस नामुराद ने हमारी बातचीत तो
नहीं सुन ली, देखो सायकॉलाजिस्ट के पास ले जाने के नाम पर हम
पर भौंकने लगा है। ऐ टशन कम आन यार ...'
सौरभ की बात सुनकर टशन चुप तो हो गया, मगर सौरभ के पास नहीं
गया। सौरभ ने कई बार उसे पास बुलाने की कोशिश की मगर वह अपनी
जगह से हिला तक नहीं, चुपचाप तीनों को घूरता रहा। यह देखकर
रूबी हँसने लगी और बोलीं, 'देखा, तुम्हें टशन अब पहचानता तक
नहीं है, घर में टाइम नहीं देने का यह नतीजा होता है।' इसके
बाद उन्होंने खुद पुचकार कर टशन को बुलाया 'कम आन, बेबी।'
लेकिन रूबी के बुलावे पर वह उल्टे बालकनी की तरफ चला गया। इस
बात ने रूबी को फिर से चिढ़ा दिया और उसने फिर से साबित करने की
कोशिश की कि टशन के साथ कुछ न कुछ गड़बड़ है। तब सौरभ देव ने उस
मामले को हैंडिल करना अपना कर्तव्य मानकर पंद्रह मिनट का समय
टशन के साथ गुजारा। उन्होंने टशन को समझाने की कोशिश की कि उसे
ऐसे बिहेव नहीं करना चाहिए। खास तौर पर ऐसे लोगों के साथ जो
उन्हें इतना प्यार करते रहे हैं। इस बीच टशन उनकी आँखों में
टुकर–टुकर ताकता रहा, कुछ इस अदा में कि जो कुछ हो रहा है,
उसके लिए क्या वह अकेला ज़िम्मेदार है?
•••
इस तरह हमारी कहानी का पहला सीन खत्म होता है जो अपने साथ हजम
न होने लायक कुछ सवाल छोड़ जाता है जैसे कि क्या जानवर भी सोचते
हैं? क्या उनका मानसिक संतुलन भी गड़बड़ाता है और ऐसी हालत में
क्या एनिमल साइकॉलाजिसट से सलाह ले लेनी चाहिए। इन सब सवालों
का मेरे पास एक ही जवाब है कि टशन जानवर नहीं है। वह प्यारा सा
पपी है, सौरभ देव का घरेलू सदस्य। तो चलिए देखें अगले सीन में
क्या होता है।
•••
दो चार दिनों बाद शाम के वक्त एक बार फिर सौरभ देव अपनी बालकनी
के सोफे पर बैठे जूते का फीता खोल रहे थे। तभी रूबी सोफे के
हत्थे पर आकर बैठ गई। उसके चेहरे को देख कर साफ पता चलता था कि
वह रोमेंटिक मूड में है। लेकिन अपने जूतों में व्यस्त सौरभ ने
उसके मूड को देखा नहीं और पूछ बैठे, 'आज कैसा मूड है मिस्टर
टशन मुखर्जी का?'
'श. श. श. चुप रहो।' जवाब में रूबी उसके कानों में फुसफुसाई।
'आज बड़ी मुश्किल से शांत हुआ है। बाई उसे नहलाने ले जा रही थी
कि वह ज़ोर–ज़ोर से उसके ऊपर भौंकने लगा। मैंने सोचा मैं नहला
दूँ, तो मेरे ऊपर तो पागल होकर टूट पड़ा।' यह कहते ही वह सौरभ
के गले से लिपट गई। 'डार्लिंग। आज हमारे बहकने का दिन है।'
'रियली?'
'ओ श्योर'
'हंडरेड परसेंट।'
'कनफर्म, लॉक कर दिया जाए?'
तभी बालकनी की ओर से तान्या की चीखती हुई आवाज आई। 'ममा देखो
टशन ने क्या किया।' उसकी आवाज सुनते ही दोनों अलग हो गए और एक
साथ पूछ बैठे 'व्हाट हैपेंड?'
'टशन हैज ब्रोकेन योर सेल।' सुनते ही दोनों एक साथ बालकनी की
ओर भागे। वहाँ बैठा टशन मोबाइल के टुकड़ों से खेल रहा था। यह
मोबाइल जी–फ़ोन का लेटेस्ट माडल था, जिसे पिछले महीने उन लोगों
ने डेढ़ लाख रुपये में खरीदा था। जाहिर सी बात है्, यह नजारा
देखकर उन दोनों की चीख उनके गले में ही फँसी रह गई।'
'नो वे, ही हैज गान मैड।' सौरभ फुसफुसाया। उसके आँखों में अजीब
सा वहशीपन भर आया। अचानक उसने टशन के बेल्ट में हाथ डाल दिया।
'पगला गया है साला।'
रूबी ने संभावित खतरे को देखते हुए उसे रोकने की कोशिश की तो
उसने उसका हाथ झटक दिया और उसे बेल्ट के सहारे खींचने लगा 'चल
बाहर।' रूबी और तान्या ने उसे घड़ी–घड़ी समझाया पर उसपर तो जुनून
सवार था। वह उसे खींचते हुए गेट की ओर ले जाने लगा। पल भर के
लिए सौरभ को अपनी पहली नौकरी याद आई जहाँ बीस हजार की मशीन
खराब कर देने के कारण उसे इसी तरह ऑफिस से बाहर कर दिया गया
था। इसके बाद वह और अधिक जुनूनी हो गया। फ्लैट के बाहर ले जाकर
उसने टशन को सीढ़ियों पर धक्का दे दिया और खटाक से अपना दरवाजा
बंद कर लिया। 'गेट आउट बास्टर्ड' पता नहीं दरवाजा बंद कर लेने
पर वह किस पर चिल्ला रहा था।
इस पूरे प्रकरण के दौरान लगातार चुप रहा टशन सीढ़ियों से
लुढ़कते–लुढ़कते ग्राउँड फ्लोर पर जा पहुँचा। लेकिन उसके मुँह से
एक कराह तक नहीं निकली।
साढ़े दस बजे तान्या ने अपने गुमसुम घर का सन्नाटा तोड़ा 'पापा,
अब तो हमें उसे तलाशना चाहिए।'
'तलाशना क्या है? दरवाजा खोलो, बाहर बैठा मिलेगा।'
मगर दूसरे कुत्तों की तरह टशन दरवाज़े पर बैठा घर वालों के
बुलावे का इंतजार नहीं कर रहा था। न जाने किसने उसे हड्डियों
के साथ–साथ स्वाभिमान का भी टुकड़ा खिला दिया था। फिर रात दो
बजे तक सौरभ अपनी कार से उसे आसपास के इलाकों में तलाशता रहा,
मगर वह कहीं नहीं मिला।
रात का थका माँदा सौरभ जब सुबह उठकर बालकनी में पहुँचा तो उसके
नजरों के आगे बड़ा अजीबोग़रीब नजारा था। सामने वाली बालकनी में
मि. चक्रधर बड़ी अदा के साथ अखबार पढ़ रहे थे और टशन उनकी बगल
में खड़ा दुम हिला रहा था। अब इससे पहले कि कहानी आगे बढ़े अपने
मि. चक्रधर के बारे में कुछ बातें साफ कर देना जरूरी होगा।
दिल्ली के एक प्राइवेट लिमिटेड फर्म में मैनेजर मि. चक्रधर
अपने पड़ोसी सौरभ देव के कैरियर की उछाल, उसके कास्मोपोलिटन
परिवार और खूबसूरत बीवी से जलते थे, और इस जलन के कारण उद्वेग
और उत्कंठा उन्हें कई तरह की कुचेष्टाओं के लिए मजबूर करती थी।
लिहाजा दोनों परिवारों में समय–समय पर जटिलतापूर्ण झड़प होती
रहती थी। इन हालातों में चक्रधर की बालकनी में खड़े दुम हिलाते
टशन को देखकर सौरभ देव को कमोबेश वैसी ही छटपटाहट हुई, जैसी
प्रतिद्वंदी फर्म द्वारा किसी फर्म के महत्वपूर्ण स्टाफ को उड़ा
लेने पर उस फर्म को हुआ करती है।
यह नजारा देखते ही सौरभ गुस्से में उबलता हुआ घर के अंदर भागा।
और रूबी से कहने लगा, 'देखा उस जलील की हरकत। साले ने टशन को
अपने घर में रख लिया है।'
'किसने?'
'और कौन? वही चक्रधर।'
रूबी ने संभावित लड़ाई को टालने के लिए कहा 'अरे नहीं, रात बाहर
भटकता देख उसने अपने घर में रख लिया होगा।'
'तुम क्या सोचती हो वह राजा हरिश्चंद्र है? ऐसी बात थी तो वह
सवेरे आकर टशन को लौटा जाता। लेकिन नहीं। साला हमारे फटे में
टाँग अड़ाना चाहता है।' यह बोलकर वह कूदते हुए बालकनी में
पहुँचा और चीखते हुए कहा, 'ए साहब, मेरा कुत्ता वापस कर जाओ।'
'ले जाओ।' चक्रधर ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
'तुम्हें इसे सवेरे ही वापस करना चाहिए था।'
'क्यों? क्यों वापस करूँ? इसे छोड़ दूँ एक वहशी इंसान के भरोसे।
जिसे न इसे रखने की तमीज है, न दम। मैं इसे वापस नहीं करने
वाला। तुम्हें जो करना है कर लो।'
'आई विल स्यू आन यू।' सौरभ ने कास्मोपोलिटन धमकी दी।
'ज़्यादा अंगे्रज़ी मत झाड़।' चक्रधर को मालूम था, इस धमकी में दम
नहीं। 'मैं तो तुम्हीं पर मुकदमा करना चाहता था कि एक मूक पशु
के साथ ऐसा बर्ताव कर रहे हो। जरूरत हुई तो करूँगा भी।'फिर
जमकर गाली–गलौज और लड़ाई हुई। पूरा मोहल्ला इस तमाशे को देखने
के लिए अपनी–अपनी बालकनी में जमा हुआ। रूबी सौरभ को अंदर खींच
लाई। लिहाजा तय हो गया कि टशन अब चक्रधर के घर में ही रहने
वाला है।
तो इस तरह अपनी कहानी में मुंबई वासी सौरभ देव परिवार का
दुलारा पपी टशन दिल्ली वासी मि. चक्रधर के परिवार में रहने
लगा। अब अगर आप यह सवाल उठाते हैं कि जब दोनों परिवारों की
बालकनी आमने–सामने है तो एक परिवार मुंबई में और दूसरा दिल्ली
में कैसे हो सकता है? तो इसका जवाब इतना ही है कि इस
सूचनाक्रांति के युग में, जब पूरी दुनिया एक गाँव सदृश्य हो गई
है, यह और ऐसी तमाम बातें संभव है।
दिल्ली की एक प्राइवेट लिमिटेड फर्म में मैनेजर के पद पर काम
करने वाले मि. चक्रधर अपने इस किराए के घर में ठेठ पुरवैया
मिजाज वाली अपनी बीवी, बगैर बच्चे और अपने छोटे भाई के साथ
पिछले चार साल से रहते आए थे और पिछले साढ़े तीन साल से अपने
सामने रहने वाले सौरभ देव की समृद्धि से लगातार जलते आए थे।
इसलिए येन–केन–प्रकारेण इस टशन नामक जीव को अपने घर में टिका
लेना उनके लिए अति आवश्यक हो गया था। हालांकि उनकी धर्मपरायण
पत्नी को घर में खुला रखने के नाम से ही चिढ़ थी, लेकिन वे
घरवाली की राय को यह कहते हुए झिड़क देते कि तुम क्या जानो? यह
मैनेजमेंट का फ़ंडा है। मि. चक्रधर का पचीस वर्षीय छड़ा भाई तो
उनकी पत्नी के हिसाब से इस मामले में हस्तक्षेप करने की कतई
योग्यता नहीं रखता था। क्योंकि सबसे पहले तो वह मैनेजर नहीं
था, साफ्टवेयर प्रोफेशनल था और फिर घर का मालिक भी नहीं था।
भला ऐसे व्यक्ति की राय कौन पूछता है? लिहाजा अल्पमत में होने
के बावजूद मि. चक्रधर की राय ही सर्वोपरि रही और टशन को घर में
टिकाने की कोशिश शुरू हो गई।
इस कार्य के लिए पहला कदम उठाते हुए मि. चक्रधर ने अपने आफिस
के बूढ़े प्रेमी अकाउँटेंट की डयूटी लगा दी कि वह हर रोज अपने
कुत्ते–पालन–ज्ञान का कुछ–कुछ हिस्सा उन्हें अर्पित करे। खुद
चक्रधर भी बहुत तेज़ी से इस ज्ञान को व्यवहार में लाने लगे।
खिलाना–पिलाना, डॉक्टर से चेक–अप कराना, नहलाना–धुलाना,
दुलराना सब कुछ उनके घर में किसी पर्व की तरह शुरू हो गया। मगर
मि. चक्रधर सबसे अधिक तत्परता से जो काम करते थे, वह था टशन की
सुबह और शाम की सैर। क्योंकि इस काम से वे एक तीर से दो शिकार
करते थे। कुत्ते का टहलाना भी हो जाता था और घर के बाहर निकलकर
अपने पड़ोसी सौरभ देव को जलाना भी। वे खास तौर पर उस वक्त टशन
को लेकर बाहर निकलते, जब सौरभ देव या उनकी पत्नी बालकनी में
होतीं। वे उनके घर के सामने से टशन के साथ निकलते और जान बूझकर
बार–बार 'टशन–टशन' पुकारते कि अगर मिस्टर एँड मिसेज देव इधर न
भी देख रहे हों तो उनका ध्यान खिंच ही जाए। ऐसी हालत में
मिस्टर और मिसेज देव यह तय नहीं कर पाते कि वहीं खड़े रहें या
चुपके से अंदर चले जाएँ। अगर वे वहीं खड़े रह कर इधर–उधर देखकर
उन्हें इग्नोर करने की कोशिश करते तो चक्रधर भी जान बूझकर वहीं
ठहर जाते और किसी परिचित को रोक कर वहाँ तब तक बतियाते जब तक
वे आज़िज होकर अंदर न चले जाएँ। जाहिर सी बात है कि इस पूरे
अभियान में चक्रधर को गजब की संतुष्टि मिलती।
मगर पंद्रह–बीस दिन बीतते–बीतते मि. चक्रधर का मैनेजमेंट फेल
होने लगा।
बीवी अक्सर बोलने लगी, 'बहुत दिनों तक यह रोग सँभलने वाला नहीं
है, मैं कहे देती हूँ, हाँ।'
भाई भी टपकने लगा 'भैया यह कुत्ता नार्मल नहीं है।'
बीवी बोलती, 'खर्च जोड़ते हो कभी, कितने पैसे गल रहे हैं इसके
पीछे?'
वे सफाई देने की कोशिश करते, 'अरे, हर महीने डॉक्टर को थोड़े ही
दिखाना होगा, अगले महीने से देखना खर्च कम हो जाएगा।'
बीवी जवाब देती, 'मगर, इसका रसोई घर और पूजा घर में घुसना
मुझसे बरदाश्त नहीं होगा, ये बात अभी समझ लो।'
वे बोलते, 'सबसे अच्छा है, बाँध कर रखो।'
इस उपाय को तो बीवी बड़ी आसानी से यह कह कर टाँय–टाँय फिस्स कर
देती कि 'बाँधने पर तो बाप रे बाप। इतना हल्ला करता है कि क्या
कहें।'
भाई से कुछ गंभीर बातें हो जाती।
'भैया, वह यहाँ अनईजी फील करता है। कुत्ते को आप अगर बचपन से
नहीं पालते तो वह आपके साथ एडजस्ट नहीं कर पाता।'
'तो क्या उसे उस जालिम के हाथ मरने छोड़ दें।'
'अब तक तो वही इसे प्यार से रखते आए थे। एक–आध दिन ऊँच–नीच
कहाँ नहीं होता?'
अपने भाई के इस तर्क का जवाब तो चक्रधर बाबू दे ही सकते थे,
मगर वे खुद भी कम परेशान नहीं थे टशन से। वे बड़े शौक से टशन को
बालकनी में लेकर खड़े होते और ऐन उसी वक्त टशन उनकी पैंट पर मूत
देता। जब वे उसे टहलाने के लिए ले जाते तो अचानक वह जंज़ीर
छुड़ाकर भाग जाता और देर तक उन्हें दौड़ाता रहता। उसके पास वे
अकेले होते तो वह भूँक कर पहले उनका ध्यान आकृष्ट करता, फिर
घूर कर देखता जैसे कि कोई बाग़ी कर्मचारी हो। मन ही मन वे भी
मान चुके थे कि इस बला को अधिक दिन तक घर में रखना संभव नहीं।
पर सौरभ को नीचा दिखाने की ज़िद उन्हें मजबूर करती कि किसी तरह
अधिक से अधिक समय उसे अपने पास रखें। अब जबकि घरवालों ने
विद्रोह कर दिया, उन्होंने भी सोच लिया कि बहुत हो गया।
उस दिन रात के बारह बजे थे। वे टशन को खींचकर बाहर ले जाने की
कोशिश कर रहे थे, मगर टशन है कि टस से मस होने का नाम नहीं ले
रहा था। एक बार उन्होंने पूरा ज़ोर लगाकर उसे हिलने पर मजबूर
किया तो गुस्से में आकर टशन ने उनके बाँह पर दाँत गड़ा दिया।
दर्द से बिलबिलाते चक्रधर बाबू ने वह तरकीब छोड़ दी। आधे घंटे
बाद वे फिर टशन के पास पहुँचे। इस बार उनके पास क्लोरोफार्म की
शीशी थी, जिसने उनका काम आसान कर दिया।
अगली सुबह टशन ने खुद को एक खेत में पड़ा पाया। हाइवे के किनारे
एक खेत में पेड़ के नीचे पड़ा था टशन। खेत में कुछ ही दिनों पहले
बोई गई फसल दूबनुमा शक्ल में निकली हुई थी। उस पर इतनी ओस गिरी
थी कि अगर कोई उसके बीच से गुजरता तो उसका पैंट घुटने तक भीग
जाता। सुबह की हल्की धूप और पेड़ से टपकी ओस की बूँदों ने टशन
को जगाया। खड़े होकर उसने अपने कान फटकारे, पूरे शरीर को हिलाया
और चारों ओर चकित होकर देखने लगा कि कौन सी जगह है यह। खेत से
निकल वह सड़क पर आकर खड़ा हो गया। तभी एक ट्रक तेज़ी से उसके पास
से हार्न देती हुई गुजरी, डर के मारे छलाँग लगाकर वह फिर खेत
में आकर खड़ा हो गया। एक बार फिर उसके मन में वही सवाल उठा कि
कौन सी जगह है यह? यहाँ तो न सौरभ देव के घरवाले हैं, न ही
चक्रधर के। उसके टहलने का वक्त हो गया है और कोई उसकी जंज़ीर को
हाथ लगाने वाला नहीं। अचानक उसकी नजर गई उसकी जंज़ीर भी तो नहीं
और गले में पड़ा पट्टा भी गायब है। वह तो आजाद है। तो क्या वह
सचमुच आजाद है? इस मिट्टी में वह जिस तरह जी चाहे उछल–कूद करता
है, कोई टोकने वाला नहीं 'ऐ टशन, ऐसे मत करो मिट्टी लग जाएगी।'
उसने उछलकर, कूदकर, कलाबाज़ी खा कर, मिट्टी में लोटकर देख लिया।
नहीं, कोई भी टोकने वाला दूर–दूर तक नहीं, वह सचमुच आजाद है।
उसने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा दिन भी आएगा। सपने जरूर देखे थे,
मगर पूरे होंगे, ऐसी उम्मीद न थी। खुशी के इस अहसास से वह अंदर
तक भीग गया।
वह खेतों में कुलाँचे भरने लगा। फीट भर लंबे पौधों के बीच
उछलने–कूदने में उसे बहुत मजा आ रहा था। ओस की बूँदें उसके
पैरों को सुखद अहसास दे रही थीं। अचानक उसे याद आया कि इससे
पहले भी वह ऐसे सुख का उपभोग कर चुका है। 'कहाँ?' वह ठिठक कर
सोचने लगा। याद आया। हर रविवार सौरभ देव उसे कार में बिठाकर
किसी पार्क की सैर कराने ले जाते थे। वहाँ भी ऐसी ही घास हुआ
करती थी। सब कुछ भुलाकर ऐसे ही कुलाँचे भरते रहने से अधिक सुखद
कुछ भी नहीं। साथ में कोई साथी हो। सौरभ देव जैसा नहीं, तान्या
जैसा। सौरभ देव तो हमेशा टोकते रहते थे। ये नहीं, वहाँ नहीं,
ऐसे नहीं। अभी वह जिस तरह उछलकूद कर रहा है, उसके शरीर में
मिट्टी के धब्बे पड़ने लगे हैं। सौरभ देव देखते तो डाँटकर उसे
पास बुला लेते। पूरा शरीर साफ करते और दुबारा ऐसा नहीं करने की
सीख देने लगते। उस मस्ती से जो खुशी उसे मिली होती वह पलक
झपकते गायब हो जाती। लेकिन, आज यह सब नहीं है। उसने सोचा– आज
वह पूरी तरह आजाद है, जो चाहे कर सकता है। सुबह से शाम तक खेत
में उछलकूद मचा सकता है। इतनी कंटक विहीन आजादी का उपभोग उसने
आजतक नहीं किया था।
मगर तभी उसकी आजादी में कंटक बनने वाला एक आदमी निकल आया। वह
इस खेत का मालिक था। सवेरे–सवेरे शौच करने निकला था। देखा कि
एक रंग–बिरंगा कुत्ता उसकी अच्छी खासी फसल को रौंदकर बर्बाद
करने में तुला है, तो जाहिर सी बात है वह आग–बबूला हो गया।
हट–हटकर उसने उसे भगाने की कोशिश शुरू कर दी। किसान की आवाज
सुनकर टशन ने पहले तो यही सोचा कि चक्रधर के घर से कोई उसे
वापस लेने आ गया है। लेकिन, ग़ौर से देखने पर यह आदमी उसे
अपरिचित लगा और उसके तेवर आक्रमक। बचाव के लिए वह उसपर ज़ोर–ज़ोर
से भूँकने लगा। टशन ने अपनी पूरी ज़िंदगी में यह एक महत्वपूर्ण
बात सीखी थी कि उसके भूँकने से अपरिचित इंसान डर जाते हैं और
फिर उसके पास भी नहीं फटकते। उसका वह तरीका यहाँ भी कामयाब
रहा। किसान सहम गया। अपनी जीत से खुश टशन उसपर और ज़ोर–ज़ोर से
भूँकने लगा। उसने सोचा अब तो यह यहाँ से भागकर ही दम लेगा।
लेकिन, कोई किसान अपनी फसल को बरबाद होता देख थोड़े ही भाग सकता
है। उस किसान ने भी पहले आसपास देखकर इस कुत्ते के मालिक को
तलाशने की कोशिश की जब वह नहीं दिखा तो पास में पड़ी टहनी को
उठाकर वह टशन की ओर दौड़ पड़ा।
अचानक किसान को आक्रमक मुद्रा में देखकर टशन इतना भयभीत हुआ कि
शब्दशः दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ। इससे पहले उसे कभी अपनी जान
बचाने के लिए भागना नहीं पड़ा था, सो इस बार वह पूरी ताकत लगाकर
दौड़ने लगा। सामने के जंगल ने उसे अपनी ओर आने का संकेत दिया।
उसे लगा कि जंगल के पास पहुँचकर वह बच सकता है। दरअसल यह
प्रागैतिहासिक इशारा है, जो पशुओं में पीढ़ी दर पीढ़ी
स्थानांतरित होता है कि इंसान से बचना है तो जंगल की ओर भागो।
वह जान लगाकर उस जंगल की ओर भागा। रास्ते में नाले, झाड़ियाँ,
पहाड़ और न जाने कितनी बाधाएँ थीं। वह सतपुड़ा का जंगल था। 'इन
वनों के खूब भीतर, मस्त मुर्गे और तीतर ...।' जंगल को छूते ही
जो सबसे पहला पेड़ उसे दिखा वह उसके नीचे जाकर ढेर हो गया।
दौड़ते–दौड़ते वह बुरी तरह थक चुका था। कँटीली झाड़ियों के बीच से
गुजरने के कारण उसका पूरा शरीर छिल गया था। बुरी तरह थक चुके
टशन ने नींद का सहारा माँगा। नींद ने हर बार की तरह उसे सहारा
दिया ताकि भूल जाए वह अब तक की तमाम अमंगल घटनाओं को और
आने–वाले संकट की चिंता–फिक्र को भी। अभूतपूर्व दर्द से दुख
रहे शरीर को वह नींद बहुत प्यारी लगी। ऐसी नींद से कौन प्यार
नहीं करता।
चार घंटे की गहरी नींद ने उसे दर्द और भय दोनों से छुटकारा
दिला दिया। गतिमान शरीर धीरे–धीरे शिथिल हुआ, रक्त संचालन की
गति सामान्य हुई। माँसपेशियाँ, जो इस लंबी दौड़ के कारण खिंच गई
थीं, फिर से पुराने रूप में लौटने लगीं।
उसे
इंसानों से चिढ़ हो गई थी, उनका दिया खाना नहीं चाहता था।
इंसानों के बुलाने पर उनके पास नहीं जाता। नहीं, इंसानों से
उसे चिढ़ नहीं थी। वह तो सिर्फ यही चाहता था कि खाने–पीने के
लिए इंसानों पर निर्भर न रहना पड़े। अगर कभी उन्होंने इंकार कर
दिया या वे ही दुनिया से गायब हो गए तो हमारा काम कैसे चलेगा?
इसलिए कुत्तों को इंसानों से अलग अस्तित्व बनाना चाहिए, जैसा
दूसरे जंगली जानवर करते हैं।
सारे कुत्ते उसकी बात सुनकर हँसने लगे और वह उन सबों की
उपेक्षा कर चुपचाप सिर उठाए खड़ा रहा, जैसे अपनी बात पर अडिग
हो। |