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कहानियाँ 

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
नरेन्द्र मौर्य की कहानी- 'इच्छामृत्यु'


मैं अपने आधे भारतीय, आधे अमेरिकी परिवार को नये वातावरण में ढालने, की आपा–धापी और यहाँ टूटे बिखरे संबंधों को सहेजने में बेहद व्यस्त था। फिर भी रहीम की एक अलग अस्पष्ट भागम–भाग पर मेरी निगाह थी। मैंने उस पर हमेशा हबड़–दबड़ का भूत सवार देखा। कई बार मैंने गंभीरता से जानने का प्रयास किया कि आखिर उसी के इर्द–गिर्द इतनी आपा–धापी क्यों है। किंतु इस सिलसिले में जब भी मैंने उसे बुलाने के लिए सोचा, नर्सिंग होम की कोई तात्कालिकता सामने आकर खड़ी हो गई। जैसे कोई डॉक्टर आने वाला है, कोई सीरियस है। ऑक्सीजन सिलेंडर ट्रांसपोर्ट पर आकर पड़े हैं ...आदि–आदि।

मैंने एक रविवार की शाम नैंसी से भी रहीम को लेकर चर्चा की थी। उसने मुझसे पूछा था, "आपने ग्रीस पुराण–पक्षी आकेरस का नाम सुना है?"

मैंने कहा, "हाँ–हाँ, पर उसका रहीम से क्या संबंध है?"
"आकेरस केवल महात्वाकांक्षा की निरंतरता की सीमा ही नहीं, असीम तत्परता का द्योतक भी है। रहीम उसी आकेरस की औलाद है, देखना वह बहुत दूर जाएगा।"

उसका घर करीब ही था। हमारे बँगले के पीछे वाले हिस्से में। तकरीबन दो–तीन कमरे का आउट–हाउस। अमूमन जैसे होते हैं। उसी आउट–हाउस में उसके दादा भी रहते थे। उनकी यादें मेरे सुदूर बचपन का हिस्सा थीं। मुझे वे बग्घी से अंग्रेज़ी स्कूल छोड़ने जाते थे ...लेने आते थे। फुरसत के समय मुझे उर्दू लिपि सिखाया करते थे।

बँगले के आस–पास के फूल पौधों को पानी पिलाते थे। छोटे फूलदार पौधों, गमलों को ही नहीं, वे बड़े–बड़े आम, इमली के पौधों को भी पानी पिलाते थे। बड़े वृक्षों को पानी पिलाने को लेकर मैंने उनसे पूछा था, "जंगल में इतने बड़े–बड़े पेड़ों को कोई पानी नहीं पिलाता ...फिर हमें ही क्या पड़ी है इन्हें पानी पिलाने की?" उन्होंने कहा था, "यों तो आदमी को भी दो दिन में एक बार खाना और दो गिलास पानी दीजिए, वह नहीं मरेगा। किंतु वह ज़िंदा रहना और बात होगी। वरना दिन में ए
क बार पानी तो हर किसी का हक है। ये पेड़ भी कुदरत के लिए इंसान से कम नहीं हैं।"

पापा ने कुछ दिन बाद ही अपने पुलिस अधिकारी दोस्त से कहकर उन्हें पुलिस में भर्ती करवा दिया था। उनकी जगह रहीम के पिता खालिद मियाँ काम पर आ गए थे, बिना किसी औपचारिक नियुक्ति के। वे दुबले–पतले नफ़ासत पसंद इंसान थे। तरतीब दी हुई दाढ़ी उन पर खूब फबती थी। वे तकरीबन चौबीस घंटे डयूटी पर रहते थे। दो वक्त की नमाज़ और थोड़े से निजी कामों में खर्च किए वक्त को छोड़कर।

मेरे डॉक्टर बनकर आने पर हॉस्पिटल में सभी प्रसन्न हुए थे। मैं पापा की टेबल के साथ कुर्सी लगाकर बैठता था। प्रारंभ में स्टाफ़वाले मुझे छोटे डाक संबोधित करते थे। इस पर वे सख्त ऐतराज़ करते थे। उनका मानना था कि ऐसे निक नेम चिपक जाते हैं और फिर उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल होता है। वे सबको समझाते थे, "छोटे डाक साब नहीं, नये डॉक्टर साहब कहा करो।"

"मैंने पापा के साथ कुछ दिन ही काम किया होगा कि मुझे पी.जी. के लिए अवसर मिल गया। मैं फिर से कॉलेज होस्टल की दुनिया में लौट आया। पी.जी. में एक डॉक्टर फास्टर हमें पढ़ाते थे। उन्होंने हमें अपनी अंतिम क्लास में पढ़ाया था, "एक अच्छा डॉक्टर एक अच्छा मनोवैज्ञानिक होना चाहिए। जो पेशंट स्वयं अच्छा होना नहीं चाहता, अत्याधिक निराशा
अथवा नकारात्मक मानसिक दौर तक जा पहुँचे, उसे ठीक नहीं किया जा सकता। जिसमें ज़िंदा रहने की अकूत इच्छा शक्ति हो, वे बहुत सहयोग करते हैं। उनके अच्छे होने का प्रतिशत बहुत अच्छा रहता है। हालाँकि भौतिक विज्ञान की अपनी सीमाएँ हैं।"

पी.जी. फाइनल की परीक्षा से निवृत्त हुआ ही था कि माँ नहीं रही। मेरे द्वारा देखी गई घर के किसी सदस्य की मौत, पहली घटना थी। पापा हमारे उस पहाड़ी कस्बे के सबसे व्यस्त डॉक्टर थे। वे माँ के लाख मिन्नतें करने के बावजूद कभी मेरे जन्म दिन पर समय से घर नहीं आ पाए। यहाँ तक कि तीज त्यौहार के दिन भी पूजा पर नहीं आ पाते। मेरे संबंध उनसे संवेदना के स्तर तक कभी नहीं रहे। उन्हें हम हमेशा उनकी व्यस्तता समझकर नज़रअंदाज़ करते रहे। वैसे व्यवहार में वह अत्यंत शालीन और हमारी आवश्यकताओं के प्रति बहुत उदार थे। घर–परिवार रिश्ते–नातेदारों से संबंधित किसी भी काम में वे माँ से केवल सहमत होते। किंतु माँ इतने भर से संतुष्ट नहीं थीं। वे केवल पिता का समय चाहती थीं। स्वयं अपने लिए, मेरे लिए और घर के लिए, जो हमें कभी नहीं मिला।

माँ की मौत के साथ ही घर नामक ढाँचा मेरे अंदर भरभराकर गिर पड़ा। हालाँकि तब तक मैं यहाँ छोटे से पहाड़ी कस्बे के अकेले ज़िम्मेदार डॉक्टर की ज़िम्मेदारी समझ चुका था। किंतु रात के ग्यारह बजे खाने को कई–कई बार गर्म करती माँ की याद आती तो पिता को माफ़ नहीं कर पाता। माँ के संस्कार से निपटकर मैं अपने कॉलेज होस्टल आ गया।

छुट्टियों में विद्यार्थी अपने घर चले गए थे। टीचर्स क्वार्टर्स में अकेले डॉ. फास्टर थे और स्टुडेंटस होस्टल में अकेला मैं।
यह मेरे लिए सौभाग्य था। उनके लिए पहाड़ से भारी ग्रीष्म अवकाश बिताने का साधन। उन्होंने अपने कई अनुभव मेरे साथ बाँटें। नयी दवाइयों, नयी खोजों, नये प्रयोगों से संबंधित नये व्यवहारिक ज्ञान से मुझे अवगत कराया। वे इस लंबे अवकाश में इंटरनेट पर ही बैठे रहते थे। तकरीबन सौ विद्यार्थियों की क्लास की तुलना में उनसे अकेले में पढ़ना सचमुच एक अनुभव था।

पी.जी. के रिज़ल्ट के साथ ही मुझे स्टेटस के लिए चान्स मिल गया। पिताजी से मैंने इस सिलसिले में परामर्श किया तो उन्होंने सहर्ष सहमति दे दी। फिर उन दिनों फारेन रिटर्न डॉक्टर का क्रेज़ था। किंतु वहाँ व्यस्त ज़िंदगी में फँसकर मैं रिटर्न भूल गया और केवल 'क्रेज़' के आस–पास घूमता रहा। इसी बीच सहयोगी नैंसी से विवाह कर लिया। नैंसी वहाँ स्त्री रोग विशेषज्ञ थी। शहर के सभी पंजाबी–गुजराती परिवारों से हिंदी में ही बात करती थी। यह उन्हें बड़ा अच्छा लगता। हालाँकि वे स्वयं बेचारे हिंदी से इतने परिचित नहीं रह गए थे। हिंदुस्तान में रहते हुए भी पंजाबी, गुजराती उनकी मातृभाषा थी जिसके माध्यम से विदेशों में बसने के लिए अंग्रेज़ी उन्होंने सीख ली थी। हिंदी उनके लिए तीसरी भाषा थी। एक पीढ़ी पहले बसे लोग तो इसी से संतोष कर लेते कि डॉ .नैंसी ने हमारे इंडिया के डॉक्टर से शादी की है और हिंदी भी जानती है। कुछ स्पष्ट ही कह देते, "वी आर सो ग्लैड बिकाज यू स्पीक हिंदी सो फ्रीक्वेंटली। बट वी कांट अंडरस्टैंड हिंदी।"

यहाँ बड़ा भवन, फार्म हाऊस सबकी अलग–अलग पासबुकों में आवश्यकता से कई गुने डालर्स ...पता नहीं दस वर्ष कब निकल गए। अंततः वह खुमार तब टूटा, जब पिता के न रहने संबंधी फ़ोन मिला। मुझे बहुत गंभीरता से मेरा घर, मेरा पहाड़ी कस्बा, मेरा निजी नर्सिंग होम याद आए। और याद आए बचपन के दिन, पीछे का आउट–हाउस, अहाते के आम की बौर, मेरी पुरानी बग्घी, उसे खींचने वाली सफ़ेद घोड़ी और इस सबके साथ एक व्यवहारिक दिक्कत ... हॉस्पिटल से जुड़े चालीस परिवारों के जीवन यापन की।

नैंसी मुझे मायूस देखकर भयभीत हो रही थी। हालाँकि तब तक उसने केवल भारत को नक्शे में ही देखा था। एक टी .वी .चैनल पर देखे गए कार्यक्रम में विधानसभा की कार्यवाही के दौरान एक महाबली विधायक को एक मंत्री की धोती खींचते देखा था। मैं भी जल्दबाज़ी में कोई निर्णय लेकर उसे अधिक परेशान नहीं करना चाहता था। खासकर उस स्थिति में जबकि अपने दो बच्चों का भविष्य भी इस निर्णय से प्रभावित होना था। यहाँ चमचमाता हुआ भविष्य उनके सामने खड़ा था। मेरा ग्रीन कार्ड बन चुका था। हम दोनों की पर्याप्त से ज़्यादा आमदनी थी। जॉब सॅटिस्फेक्शन था। भविष्य था, वर्तमान था और वह समाज, सुरक्षा, सुविधा, जिसके हम आदी हो चुके थे।

एक सप्ताह तक मैं ऊहापोह ...की मनःस्थिति में था। इस बीच मैं अपने काम पर तो गया पर नैंसी से कोई परामर्श नहीं
कर पाया। शायद वह भी इसी उधेड़बुन में थी। रविवार की सुबह मुझे वह पंजाबी सलवार सूट में दिखी। उसका चर्च जाने का कार्यक्रम भी मुझे स्थगित–सा लगा। मेरे सामने नाश्ता लगाते हुए उसने कहा, "जिंदगी भावुकता के सहारे नहीं चल सकती ...पर तर्क भी अकेले ज़िंदगी नहीं हो सकते।"
"क्या कह रही हो?"
"हम इंडिया जा रहे हैं। मैंने हॉस्पिटल भी फ़ोन कर दिया है। अपने दो बच्चों के भविष्य के पीछे हम उन पहाड़ों पर रहने वाले हज़ारों लोगों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते।"
यह सब उसने इतना फटाफट कहा कि मैं सन्न रह गया। मैंने पूछा, "तुम चर्च नहीं जा रही हो क्या ...आज रविवार है।"
"नहीं जा रही हूँ। मैंने प्रापर्टी डीलर से समय लिया है, वह रविवार को भी मिलता है।"
और हफ्ते भर बाद ही हम दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर उतर रहे थे। पालम से हमारे पहाड़ी कस्बे तक के लिए हमने टैक्सी ली। रास्ते भर मैं हॉस्पिटल के कार्यक्रम की योजना को तरतीब देता आया। बच्चे खामोश थे, एकदम चुप–चुप। नैंसी भी गंभीर थी। शायद उसके दिमाग़ में भी अपने गायनी डिपार्टमेंट को लेकर चिंता हो। सोनोग्राफ़ी और कुछ अन्य उपकरण वह साथ लाई भी थी।

घर आया तो लगा फिज़ा बदल गई है। लंबे–चौड़े, खपरैल बँगले पर कांक्रीट की छत पड़ गई थी। अस्पताल में बिल्डिंग स्तर पर तो कमी शेष नहीं थी। पिता पढ़े–लिखे, पर पुराने ज़माने के डॉक्टर थे। सभी विभागों का काम देखते थे। सप्ताह में कुछ दिन देहरादून से कुछ विशेषज्ञ भी आते थे। कुछ के ऑपरेशन के दिन भी तय थे। एक ज्यूनियर डॉक्टर जोशी भी
आने लगे थे, जो पेशंट देखने के बजाय पेशेंट का फालोअप देखते थे।

रहीम बँगले के पीछे उसी आउट–हाउस में रहता था। उसके पिता किसी हादसे के शिकार हो चुके थे। रहीम कॉलेज की पढ़ाई करते हुए हॉस्पिटल में भी काम करता था। उसकी दादी थी जिसके नाम दादा की पेंशन आती थी। उसके वालिद साहब ने अस्पताल में परिवार नियोजन के प्रचार–प्रसार में ज़िंदगी गुज़ारते हुए खुद रहीम के पीछे एक मुकम्मल फौज खड़ी कर दी थी जिसकी परवरिश के लिए दादी को मिलने वाली पेंशन और रहीम का वेतन भर था। रहीम की परदानशीन माँ परदा छोड़कर अहाते में शाक–सब्ज़ी लगाने लग गई थी। बच्चों में छोटे लड़के स्कूल जाते थे। लड़कियाँ घर पर रहती थीं।

रहीम का काम भी हॉस्पिटल में कुछ उसी तरह का था जैसा उसके पिता खालिद भाई का था। पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर यानी कि वगैरह–वगैरह। मेरे सुबह हॉस्पिटल आने के पहले मेरा और मैडम नैंसी का टेबल जमाता। स्वीपर के साफ़ करने के बाद जो धूल गर्द बचती उसे झटकनी से झटकारकर साफ़ करता।

अभी कुछ दिन पहले वह अपनी दादी को दिखाने आया था। मुझे उसकी दादी अपने बुढ़ापे, झुकी कमर के बावजूद बड़ी जीवट की महिला लगी। उसे अपने स्वास्थ्य की अतिरिक्त चिंता रहती थी। जैसा कि आम बुजुर्गों में होता है, ये अपनी बची ज़िंदगी को बड़े सहेजकर रखते हैं, किसी कृपण के लगातार कम होते धन की तरह। यों वह अक्सर हॉस्पिटल आती रहती थी। सभी सिस्टर कंपाउंडर उनकी इज़्ज़त करते थे। कल आई थी तब सिस्टर राबिया उनसे पूछने लगी, "क्यों, बड़ी
अम्मा, खुदा के घर नहीं जाना है।"

रहीम बीच में कहीं से आ टपका, "मेरे बी.एससी. होने तक मत जाना दादी ...वरना, हमारा कबाड़ा बैठ जाएगा।"
दादी बड़े विश्वास के साथ कहती, "नहीं जाऊँगी, बाबा। मुझे भी चिंता है पर अपनी पढ़ाई होने के बाद मत रोकना। मैं तंग आ गई हूँ जीते–जीते।"
वह भी उसी इत्मीनान के साथ कहता, "ये आखरी साल है। फिर बिलकुल नहीं रोकूँगा रिज़ल्ट लेकर आते–आते कब्रिस्तान में जगह देख आऊँगा।"

यह रविवार की शाम होती है इसमें हॉस्पिटल के कर्मचारियों के माता–पिता, बच्चे–जच्चा दिखाने आते हैं। इसे थैंक्यू अवर इवनिंग कहते हैं। यही समय होता है जब दिन में व्यवस्था संबंधी काम देखता हूँ। नैंसी भी व्यस्त रहती है। दूर–दूर तक सोनोग्राफ़ी और सीनियर गायनी डॉक्टर नहीं थी, जिस पर हिंदी बोलने वाली अमेरिकन लेडी डॉक्टर का ठप्पा लगा हो। इसके बावजूद वह रिलेक्स थी यहाँ उसे न तेज़ गाड़ी चलानी होती और न चीज़ों के लिए आसमान–सी दूरियाँ नापनी पड़तीं। उसे आस–पास के झरने, ऊँचे–ऊँचे देवदार और सामने हिमालय की पवित्र छटा अच्छी लगती। बच्चे बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा दिए गए थे।

थैंक्यू अवर इवनिंग में कर्मचारी अपनी समस्या भी रखते, छुट्टी जाने वालों, डयूटी बदलने जैसे सारे काम होते। इस समय
अनुशासन भी थोड़ा शिथिल हो जाता। कभी छोले–समोसे भी आ जाते। अन्यथा वर्किंग डे में स्टाफ़ में बैठकर इतनी गप्पबाजी कभी नहीं होती है।

मेरे अपने बँगले की खिड़की आउट–हाउस की ओर ही खुलती है। मैं अक्सर देखता हूँ वह अपनी दादी का कुछ ज़्यादा ही खयाल रखता है। हालाँकि उसकी माँ की तबीयत भी नरम ही रहती है। शायद बच्चों को अपनी दादी से ज़्यादा ही लगाव रहता है। उसके अवचेतन में दादी की उपयोगिता को लेकर भी चिंता होगी। इतना बड़ा परिवार फिर दादी के रहते–रहते ही तो दादी की पेंशन मिलेगी। अभी पिछले हफ्ते भी मैंने उसे मज़ाक करते सुना था, "दादी अल्मोड़ा जा रहा हूँ। फ़ार्म भरना है कोई वादा खिलाफ़ी मत करना जैसा दादा कर गए थे। मुझे किसी ने बताया था कि रहीम के साथ उसके दादा ने वादा खिलाफ़ी की थी। छुट्टी आए दादा ने दस साला रहीम से वादा किया था कि जब वे फिर अगली छुट्टी में आएँगे तो मेले में निशाना साधने वाली चिड़िया बंदूक ज़रूर लाएँगे ...किंतु वे कभी नहीं आए। आई उनकी पेंशन और बड़ा–सा काला बॉक्स।

रहीम अपने दादा से कई दिन तक नाराज़ रहा। अब तो ख़ैर बड़ा हो गया, फिर भी उसे कई दिनों तक समझाया नहीं जा सका कि किसी आतंकवादी की गोली का शिकार उसका दादा भला अपना वादा कैसे निभाता।

बहरहाल रहीम अपनी दादी के वादे के प्रति आश्वस्त है फिर भी दादी की तबीयत ज़रा–सी नरम दिखती कि उसे याद दिला देता "बाबा की तरह तुम कुछ उलटा–सीधा मत कर बैठना।"

बु
ढ़िया भी बड़े इत्मीनान के साथ उसे भरोसा दिलाती, "यकीन कर, मैं तेरे बाबा जैसी नहीं हूँ और खुदा मुझे खींचकर ले भी जाए तो डॉक्टर साहब क्या जाने देंगे?"

आज सुबह से बड़ी अम्मा का ब्लडप्रेशर शूट कर रहा था। उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया। कुछ इंजेक्शन मैंने दिए और अंततः सप्ताह में एक दिन देहरादून से आने वाले हृदयरोग विशेषज्ञ से परामर्श किया। उन्होंने भी देखा ब्लडप्रेशर लो था। उन्होंने भी कुछ नये इंजेक्शन दिए किंतु रिसपांस न के बराबर था।

मैंने रहीम को मानसिक रूप से तैयार करने के लिहाज से अपने चेंबर में बुलाया, "देखो तुम्हारी दादी सीरियस है। हमें चीज़ों को समझना चाहिए। यह कोई हँसी–मज़ाक की बात नहीं है कि उसने वादा किया था ...और ऐसा हो गया, वैसा हो गया। अब तुम बड़े हो गए हो, इतने वर्षों से अस्पताल में काम करते हो, तुम चिंता मत करो। किसी भी स्थिति में तुम्हारी पढ़ाई नहीं रुकेगी। हम यहाँ हैं।"

रहीम
दरवाज़े के पास ही खड़ा था। वह धीरे से खिसक गया। मुझे लगा वह मेरी बात समझ गया है। हो सकता है किसी अँधेरे कोने में बैठकर आँसू बहा रहा हो। मैं चेंबर से निकलकर बाहर आया ...पीछे वार्ड की तरफ़। रहीम काम कर रहा था, उसके चेहरे पर इत्मीनान बिछा था हमेशा की तरह।

घर जाने के पहले मैं फिर बुढ़िया की ओर आई.सी.यू. में गया। सिस्टर ऑक्सीजन सिलेंडर बदल रही थी। मैंने ब्लडप्रेशर फिर देखा ...बमुश्किल बी.पी. रिकार्ड हो रहा था। मैंने पत्नी को बुलवाया। वह हॉस्पिटल के दूसरे कोने में थी। उसका ओ.टी. डे था। आज उसके ऑपरेशन के लिए एनस्थेसिया देने अलमोड़ा से एक डॉक्टर आए थे। फिर भी वह भागती हुई आई। वह गायनी सर्जन थी। इस मामले में भला वह क्या करती। फिर भी उसने पिंजर को दबा कर फिर से साँस दिलाने में मेरी सहायता की। किंतु कोई फ़ायदा नहीं हुआ। वह अपने ऑपरेशन में चली गई। मुझे कहीं और से बुलावा आ गया।

इस बीच सिस्टर ने पल्स देखी ...और बहुत तसल्ली के बाद ई .सी .जी .ऑक्सीजन, आदि मेरे बिना कुछ कहे ही निकाल दिए। मुझे इस बीच रहीम नहीं मिला। यह रहीम भी सचमुच अपने तरह का एक ही आदमी है। भगवान न करे मुझे उसे
समझाना पड़े।

मैंने परमात्मा की ओर आकाश में देखा ...दरअसल मैं उससे तत्काल मिलने से बचना चाहता था। एकाउंटेंट ने बताया, सर वह किताब लेने गया है। नैंसी अपने एनस्थेसिया वाले डॉक्टर को भी उसे दिखाने लाई। यहाँ लाश को पलंग पर रखना अपशकुन माना जाता है। कुछ देर बाद वहाँ नर्सें, एकाउंटेंट, कंपाउंडर, आया सभी जमा हो गए। सब मेरे चेहरे को देख रहे थे ...और मैं उनके दो मिनट बाद मेरे मुँह से निकला, 'सब अपने–अपने काम देखो ...'

कुछ मिनट बाद ही रहीम पहुँचा, "सिस्टर्स ने उसे वेटिंग रूम में ही घेर लिया, बेटे हिम्मत रखना ..."
"क्या बात करती हैं ...राबिया आंटी आप भी ...मेरी दादी वादा खिलाफ़ी नहीं कर सकती ...आप क्यों रो रही हैं?"
वह अपनी दादी के कमरे में पहुँचा, "कमाल है, लोग मेरी बात पर यकीन ही नहीं करते ..."
अब तक मैं भी कमरे में आ चुका था। उसने दादी के कंधों के नीचे हाथ रखा, "चलो, दादी बाहर वेटिंग रूम में बैठते हैं यहाँ बहुत सफोकेशन है।"

दादी ...जी हाँ ...वही मृतक घोषित, सौ बरस की दादी की बुझी हुई पलकों में रोशनी हुई ...पोपले गालों में हरकत आई, "चल बेटे।"
मैंने अपनी भरोसेमंद आँखों से देखा कि रहीम का सहारा लिए बुढ़िया बाहर जा रही थी।
स्टाफ, डॉक्टर्स, मैं हतप्रभ!

 

९ दिसंबर २००६

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