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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
गुरुदीप खुराना की कहानी— 'गरमाहट'।"


शो ख़त्म हुए घंटाभर से ऊपर हो चुका है, लेकिन बारिश है कि थमने का नाम नहीं ले रही। ऐसी धुआँधार बारिश होने लगेगी, कोई सोच भी नहीं सकता था आते हुए वर्ना सभी कुछ न कुछ इंतज़ाम करके आते, या फिर आते ही नहीं। बिरले ही होंगे जो अपने साथ छतरी या बरसाती लेकर आए। वे सब तो शो छूटते ही फटाफट निकल गए।

शो छूटा था तो सबके सब कैसे धक्का–मुक्की कर बाहर आ रहे थे जैसे निकलते ही चल देंगे। हरेक को जल्दी है घर जाने की। क्यों न हो, आख़िरी शो था यह और आधी रात होने को आई है। लेकिन इस बारिश ने उनके हौसले पस्त कर दिए। सब बाहर निकलकर बरामदों में भटकने लगे। बहुत लंबे–चौड़े बरामदे हैं इस पुराने सिनेमा हाल में, चाहे सीधे सादे, टीन की छतों के ही बने हैं।

दिसंबर का आख़ीर है और कड़ाके की ठंड। बातें करते हुए मुँह से भाप–सी निकलती है और दाँत किटकिटा रहे हैं। जिनके पास मफलर हैं वे उससे अपनी नाक और ठुड्डी ढँके हुए हैं, दूसरे अपनी ठुड्डी गले में दबाए अपनी ठिठुरती नाक को गरम–गरम साँसों से गरमा रहे हैं। कोई मूँगफली चबा रहा है तो कोई पान। कोई सिगरेट सुलगाए हुए है तो कोई बीड़ी। अच्छी–ख़ासी रौनक बनी हुई है।

जैसे–जैसे समय निकल रहा है। लोग नींद से बेहाल होने लगे हैं। बारिश ज़रा–सी हल्की होने लगती है तो दो–चार, दो–चार करके वे निकलते जाते हैं। आख़िर घर ही तो जाना है, भीग जाएँ
गे तो जाकर कपड़े बदल लेंगे और दुबक जाएँ
गे गरम–गरम बिस्तर में।

लेकिन ध्यान सिंह की समस्या कुछ और ही है। वह जो कपड़े पहने हुए है इसके अलावा बाकी जो दो–ढाई जोड़ी कपड़े उसके पास हैं उन्हें वह शाम ही धोकर सूखने के लिए डालकर आया है। ज़रा देर को धूप चमकी थी तो उसने मौका देखकर धो डाले थे। अब अगर वह इन पहने हुओं को भी भिगो लेता है तो उसे बगैर कपड़ों के ही सोना पड़ेगा।

बारिश थोड़ी हल्की पड़ती है, फिर तेज़ हो जाती है। धीरे–धीरे सब लोग निकल चुके हैं ध्यान सिंह को छोड़कर। बरामदे की बत्तियाँ भी बुझा दी गई हैं या शायद लाइट ही चली गई है क्योंकि सड़क पर भी कोई रोशनी नहीं नज़र आ रही। उसके हाथ की बीड़ी इस घुप अँधेरे में जुगनू की तरह चमक रही है।

क्या करे ध्यान सिंह? वह बीड़ी का एक लंब कश खींचता है। नेकर कमीज़ पहने हुए वह अकड़कर बैठा हुआ है। बस एक मोटा बाँहों वाला स्वेटर ज़रूर चढ़ाए हुए है ठंड ढँकने के लिए। अपनी नंगी टाँगों को उसने बाँहों से लपेट रखा है। सोच रहा है क्यों की उसने यह भूल पिक्चर देखने आने की। अच्छा भला मेम साहब ने समझाया भी था कि आज मौसम ठीक नहीं है फिर किसी दिन चले जाना। उसी की अक्ल पर पर्दा पड़ गया था। आख़िर बादल तो थे ही आसमान में। उसने क्यों नहीं सोचा कि यह बरस भी सकते हैं? अगर पिछले दो–तीन दिन से वे नहीं बरसे तो ज़रूरी तो नहीं था कि आज भी न बरसते।

अगर उसे अंदाज़ा होता कि ये अचानक ऐसे फट पड़ेंगे तो वह आता ही क्यों? लेकिन अब क्या करें? उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने सिर घुटनों में छिपा लिया।

याद आने लगी उसे अपने घर की। माँ की। सब की। मुश्किल से दो ही साल तो हुए होंगे जब वह घर छोड़ आया था। हरे–भरे पहाड़ों में बसा अपना वह गाँव। कितना कष्ट हुआ था वहाँ से निकलते हुए। लेकिन क्या करता? बड़ा हो गया था, तेरह–चौदह साल का। इस उमर तक आते–आते सभी निकल पड़ते हैं चार पैसे कमाने। उसके बड़े भाई भी एक–एक करके ऐसे ही आ गए थे, इसी शहर में। अब उसकी बारी आई थी। उससे बड़ी उम्मीदें हैं घर वालों को। पढ़ा–लिखा है। पाँचवीं पास की है उसने गाँव की पाठशाला से। उसके मास्टर जी का कहना था कि वह मेहनती भी है और होशियार भी। अगर गाँव में बड़ा स्कूल होता तो शायद वह दसवीं भी कर लेता। लेकिन चलो, जितना पढ़ लिया बहुत है। आख़िर कोई दफ़्तर में तो नौकरी करनी नहीं।

इस शहर में आते ही बड़े भाई ने उसे एक घर में नौकरी दिलवा दी थी। लेकिन साल–डेढ़ साल बाद उन साहिब का बाहर तबादला हो गया और ध्यान सिंह की नौकरी जाती रही। अब बड़ी मुश्किल से उसे इस घर में नौकरी मिली है, जहाँ वह पिछले पाँच–छः महीने से काम कर रहा है। वह नहीं चाहता यहाँ से कभी भी उसकी नौकरी छूटे। बहुत भले लोग हैं ये। ख़ासतौर से साहिब तो बहुत ही अच्छे स्वभाव के हैं। हमेशा बहुत प्यार से बात करते हैं। कभी गुस्सा नहीं आता उन्हें।

मेमसाहब भी अच्छी ही हैं। डाँटती तो ज़रूर है पर ख्.याल भी पूरा रखती हैं। आज भी जब उसने सिनेमा जाने के लिए कहा तो बस एक ही बार पूछा कि ऐसे मौसम में क्यों जाना चाहता है फिर किसी दिन चले जाना लेकिन जब उसके उतरे हुए चेहरे को देखा तो बस इतना ही बोली, "ठीक है, बहुत जी कर रहा है तो चले जाओ। बाकी काम निपटा देना, रोटी मैं अपने आप सेंक लूँगी।"

उसे मेमसाहब को देखकर हमेशा अपनी माँ की याद आती है। माँ भी तो कम नहीं डाँटती थी। उसे उसका खाली बैठना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। मेमसाहब को भी नहीं अच्छा लगता। वह खुद भी तो हर समय लगी ही रहती है, कभी तनु बाबा को पढ़ाते रहना, कभी झाड़, पोंछ, कभी सिलाई, कभी बुनाई। पिछले तीन–चार दिन से तो एक रजाई में सिलाइयाँ डाल रही हैं। बहुत खूबसूरत रजाई है। शनील की। डबल। उसमें बड़े डिज़ाइन बना–बना कर सिलाइयाँ डालती रहती हैं। बरामदे में बिछे दीवान पर पड़ी रहती है यह रजाई। मेमसाहब को जब–जब टाइम मिलता है उसमें जाकर टाँके डालने लगती हैं। अहा, क्या रजाई है वह ध्यान सिंह को लगता है जैसे वह कोई रंगीन सपनों की गठरी है, जिसमें मेमसाहब रोज़ कुछ नये सपने जोड़ती जाती हैं।

उस मखमली रजाई को याद करते ही ध्यानसिंह को अपनी गुदड़ी का ध्यान हो आया जिसे वह गाँव से साथ लेकर आया था। उसे याद आया कि आज उसने उस गुदड़ी को गोल बनाकर खिड़की के आगे रखा था जिसकी टेक बनाकर वह पुरानी फ़िल्मी पत्रिका को पलटता रहा था, उसी पत्रिका को जिसमें कि इस फ़िल्म का ज़िक्र था जो उसने अभी–अभी देखी। क्या उसने खिड़की बंद कर दी थी आते हुए? शायद नहीं? कहीं इस धुआँधार बारिश में उसकी गुदड़ी पर बौछार न पड़ रही हो, उसे चिंता हुई। लेकिन अब चिंता करने से क्या लाभ? उसने सोचा, जो होना होगा सो तो हो चुका होगा।

उसके हाथ पर चिंगारी–सी लगी। उई, यह क्या? ओहो, बीड़ी समाप्त हो चुकी है। अब बस दो ही और बची हैं। अब वह और नहीं पियेगा। ये दो अब घर पहुँच कर काम आएँगी।
घर का ख्.याल आते आज शाम के मीठे क्षणों की याद हो आई।
वह किचन के सिंक में बर्तन धो रहा था – गुनगुने गरम पानी में। माँजकर रखे बर्तनों को वह गरम पानी में डुबो–डुबोकर निकाल रहा था। क्या मज़ा आ रहा था इस सर्दी में ऐसे गरम–गरम पानी में हाथ डालकर।

और उसके सामने खिड़की के पार का वह नज़ारा...
हरी लॉन पर आराम कुर्सी डाले मेम साहब बैठी स्वेटर बुनती हुई। लॉन के बीचों बीच फव्वारे की मुंडेर पर बैठी तनु बाबा की दो सहेलियाँ। तनु बाबा उनसे कुछ अँग्रेजी में बात कर रही थी जिससे वे दोनों हँस–हँस कर दोहरी हो रही थीं। तनु बाबा सातवीं में पढ़ती है। उसकी सहेलियाँ भी शायद उसके साथ ही पढ़ती होंगी। ध्यान सिंह को उसकी बातें तो समझ में नहीं आईं लेकिन उसके मन में अजीब कसमसाहट शुरू हो गई। उसने आज इस फ़िल्म को देखने का फ़ैसला कर लिया। उसने सुन रखा था कि इस फ़िल्म में एक घर के नौकर पर एक करोड़पति की बेटी लट्टू हो जाती है।
और उसे मेमसाहब से पिक्चर देखने की इजाज़त भी मिल गई थी।
सिर घुटने पर रखे पता नहीं कब उसकी आँख लग गईं।
यह बिजली की कड़क थी या चौकीदार के डंडे के फटकार जिसने उसे चौंकाया, वह नहीं समझ सका।

"ऐ छोकरे, इधर क्या कर रहा है? फूट!

"ज़रा बारिश रुकने दो।"
"अबे चल!
 सब तो चले गए, तू ही रह गया है एक मोम का बना? चल भाग!
 हमें बंद करना है!

और वह अपने जूते हाथ में उठाए वहाँ से निकल पड़ा। घुप अँधेरा। झमाझम बारिश। तड़तड़ाती बिजली की चमक में रास्ता पहचानता। सड़क के पानी में पैर छपकाता, भीगता भागता, ठिठुरता काँपता, एक–एक कदम गिनता जैसे–तैसे वह घर तक आ पहुँचा। गेट पर ताला नहीं पड़ा। ताला तो उसी को लगाना है। जब भी वह आख़िरी शो में जाता है, मेम साहब ताला उसके कमरे के बाहर रख छोड़ती हैं।

उसके कमरे के बाहर यानि उसके भीतर खुलने वाले दरवाज़े के सामने। इस पुरानी किस्म की कोठी में जहाँ बाहर बड़े–बड़े लॉन हैं ही, भीतर भी एक आँगन जैसा छोड़ा हुआ है। चारों तरफ़ से बरामदों से घिरा एक छोटा–सा आँगन। ध्यान सिंह के कमरे का भीतर का दरवाज़ा यहीं पिछली तरफ़ वाले बरामदे में खुलता है। जब ध्यानसिंह बाहर जाता है तो अपने कमरे के बाहर की तरफ़वाले दरवाज़े पर ताला लगा कर जाता है।

स्वेटर में हाथ डालकर कमीज़ की जेब से उसने चाबी निकाल कर ताला खोला। कमरे में भीतर का अँधेरा और भी घना है। उसने स्विच टटोल कर दबाया। लेकिन लाइट तो है ही नहीं। उसने अपनी जेब से माचिस निकाल कर एक तीली जलाने की कोशिश की। नहीं जली। उसने दूसरी तीली निकाली फिर तीसरी। कहाँ जलनी थी? माचिस बुरी तरह से सील चुकी है। बड़े अरमान से बचा कर रखी उसकी दो बीड़ियाँ रखी ही रह गईं।

जैसे–तैसे भीतर का दरवाज़ा टटोल कर खोला और ताला उठाकर फिर बारिश में भीगते–भागते जाकर बाहर के गेट पर लगाया। चाबी लाकर वापस वहीं रखी और भीतर का दरवाज़ा बंद कर दिया। बारिश में गुडुच अपने कपड़ों को एक–एक करके उतारता गया और निचोड़ता गया। फिर निचुड़ी हुई कमीज़ से बदन को पोंछा। उसे सिर में रगड़ा।

अपने कमरे में नंगधडंग खड़ा वह सोच रहा है कि अब पहने क्या? अपना अँगोछा टटोल कर उसने नीकर के स्थान पर बाँध लिया और बिस्तर की चादर को खींच कर बदन ढक लिया। थोड़ा–सा चैन पड़ा। बस, थोड़ा–सा। ऐसी भयंकर ठंड में इतना भीग जाने के बाद यह बहुत नाकाफ़ी है। उसने अपनी गुदड़ी टटोली। लेकिन वह तो सचमुच भीगी हुई थी। बुरी तरह बौछार पड़ी थी उस पर।

क्या करे अब ध्यान सिंह? कैसे काटे इतनी लंबी रात? कैसे मुकाबला करे इस भयंकर सर्दी का। बदन काँप रहा है, दाँत किटकिटा रहे हैं, पैर सुन्न हुए जा रहे हैं। अपने शरीर को गरमाने के लिए उसने उठक–बैठक शुरू कर दी। साँस फूलने लगा तो बैठ गया। चादर अच्छी तरह लपेट ली। कुछ देर चैन रहा। फिर ठिठुरन शुरू हो गई। अब क्या करे? बहुत थक चुका है। और उठक–बैठक नहीं होतीं। क्या भीतर जाकर मेम साहब से कुछ माँग ले ओढ़ने के लिए। लेकिन वे तो सो रही होंगी गहरी नींद। उन्हें उठाने का साहस कहाँ से लाए? वह भीतर का दरवाज़ा खोल कर बरामदे में टहलने लगा है। इस उम्मीद में, कि शायद कोई खटका होने से मेम साहब जग जाएँ, उनके कमरे की लाइट जले और वह आवाज़ लगा सके। लेकिन नहीं। कोई असर नहीं हुआ उसकी खटर–पटर का इस तेज़ बारिश के शोर में। बहुत ठंड लगी तो वह उछल–उछल कर दौड़ने लगा। उधर से इधर, इधर से उधर।

बार–बार चमक रही बिजली में उसका ध्यान उस मखमली रजाई की तरफ़ खिंचा चला जाता है जिसमें मेम साहब पिछले कई दिन से सिलाइयाँ डाल रही हैं। रंगीन सपनों की उस गठरी पर।
आख़िर वह अपने आपको नहीं रोक सका। रजाई के पास पहुँच कर उसने उसकी मुलायम सतह पर हाथ फेरने का साहस बटोरा। इस गुदगुदे मखमली अहसास ने उसे इतना विचलित कर दिया कि उसका अपने आप पर बस ही नहीं रहा। पहले अपने दोनों हाथों से उसे सहलाता रहा, फिर अपना थकान से चूर सिर उसमें धँसा दिया। माँ की गोद का–सा सुख। कुछ क्षण ऐसे ही औंधे मुँह पड़ा रहा। बहुत गरमाहट मिल रही है लेकिन पीठ पर और बाकी शरीर पर ठंड का प्रहार वैसे ही बना हुआ है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि थोड़ी देर के लिए वह समूचा ही इस रजाई में घुस जाए। बस थोड़ी देर के लिए, जब तक शरीर में पूरी तरह गरमी नहीं आ जाती।

ध्यान सिंह को सुबह जल्दी उठना होता है, सबसे पहले। उठकर उसी को गेट खोलना होता है। फिर दूध लेने जाना। फिर रात के बर्तन। आज तो सारे ही बर्तन पड़े होंगे। सुबह तो खूब जल्दी उठना पड़ेगा।
उसे ख्याल आया कि उससे पहले तो कोई उठेगा नहीं। अगर वह दिन निकलने से पहले–पहले इस रजाई का सुख ले ले और फिर चुपचाप लाकर वापस रख दे तो किसी को क्या पता चलेगा। लेकिन इस मुलायम गुदगुदे सुख को लपेट कर जो नींद आएगी उस पर उसका कितना वश चलेगा, इसका अनुमान लगाने की स्थिति में वह इस समय नहीं।

सुबह के सात बज चुके हैं। साहब अभी सो रहे हैं गहरी नींद। लेकिन मेम साहब की नींद खुल गई है। ध्यान सिंह अभी तक नहीं उठा, उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने आवाज़ लगाई। कोई जवाब नहीं मिला तो उठकर आँगन की तरफ़ आई। आकर उसके कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा तो आधा खुला ही पड़ा है। भीतर झाँका तो आँखों पर विश्वास नहीं आया। गुस्से से भड़क उठीं। "कमबख्त, तेरी यह मजाल!
 उन्होंने चीखते हुए फटकार लगाई, "सत्यानाश हो तेरा!

वे इतने ज़ोर से चीखीं कि साहिब भी हड़बड़ा कर उठ बैठे और आँखें मलते–मलते वहाँ आ पहुँचे, "क्या हो गया भई?"
"अरे यहाँ देखो आकर इस छोकरे के लक्षण!

मेम साहब की फटकार से हड़बड़ा कर उठा ध्यान सिंह दीवार के साथ लगा खड़ा है। उसके बदन पर केवल वही अंगोछा है जिसे उसने तहमद की तरह बाँधा हुआ है।
उसके बिस्तर पर मेम साहब की प्रिय रजाई फैली है लेकिन यह डबल बैड की रजाई है, उसकी छोटी–सी खाट पर कितनी समा पाती? आधी से ज़्यादा नीचे फ़र्श पर पड़ी है, जिसके नीचे से ध्यान सिंह के गंदे जूते और गीले पड़े कपड़े झाँक रहे हैं।
मेम साहब का खून खौल रहा है। वे फिर चीखने लगीं, "निकल जाओ! फौरन! मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती।"
साहब का दिल बहुत नरम है। वह उसे बिना कमीज़ सहमा हुआ खड़ा देखते हैं तो उनका मन पसीज जाता है। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछते हैं, "ऐसा क्यों किया, हूँ?" ध्यान सिंह की आँखें छलछला आई हैं। गला रुँध गया है। वह कुछ भी बोल नहीं पा रहा। मेम साहब गरज उठीं, "मत दिखाओ इससे हमदर्दी!
मैं इसे एक पल भी नहीं रहने दूँगी यहाँ ...किसी हालत में नहीं!
लेकिन साहब बहुत उदार हैं। कहते हैं, "ठीक हैं भागवान, नहीं रखना तो मत रखो, पर ग़रीब को ऐसे डाँटो तो नहीं!
फिर ध्यान सिंह की नंगी पीठ थपथपाते हुए कहते हैं, "घबराओ नहीं बच्चे!
हिम्मत रखो!
जो होगा अच्छा ही होगा।"

 

१६ फरवरी २००६

 
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