'ब्रेकफास्ट
लिया कि नहीं?'
'नहीं लिया।'
'बच्चे स्कूल चले गए?'
'हाँ कब के चले गए। एक तुम ही हो देर में उठते हो। पता नहीं
कैसा दफ्तर है तुम्हारा। दफ्तर में देर से आने पर डाँट नहीं
पड़ती क्या? बच्चे कह रहे थे, उनके लिए फूलों वाला एक छाता ला
दो। बस स्टाप पर बस का इंतज़ार करते हुए धूप बर्दाश्त नहीं
होती। और सुनो। तुम्हारी आँखों की तकलीफ़ कैसी है। उफ, इतनी
गर्मी। अपने लिए भी एक छाता क्यों नहीं ले लेते। अरे चाय तो
पीते जाओ। क्यों, देर हो जाएगी। अच्छा शाम में कब तक आओगे...दोस्तों के साथ देर मत करना, शेरो–शायरी मत करने लग जाना...'
सुबह होते ही लगता है जैसे बातों के घने जंगल में घूम रहे हों।
मई, जून की गर्मी, झुलसाती, चिलचिलाती तेज़ धूप। सर से पैर तक
आग के शोले बदन से उठते हुए, दिमाग़ गर्मी से फटता हुआ...इतनी तेज़ घूप, अत्याधिक ताप, उफ़ ठहर जाइए जनाब। अब जो मैं
सुनाने जा रहा हूँ, संभव है आप उसे सिरे से कहानी ही न मानें।
मत मानिए आप की मर्ज़ी। लेकिन पूरी कहानी सुन लेने के बाद यह
ज़रूर बताइएगा कि फिर कहानी होती क्या है। उसी मई जून के महीने,
दोपहर की तेज़ झुलसाती धूप में यह दृश्य सामने आया– दृश्य ही
कहना ठीक होगा इस विश्वास के साथ कि ऐसे हज़ारों दृश्य आप ने भी
सैंकड़ों बार देखे होंगे। और उस दृश्य को सिरे से घटना भी
नहीं कहा जा सकता, तो दृश्य कुछ यों था।
बस स्टाप...कोई–सा भी बस स्टाप हो सकता है।
नगर...कोई–सा भी महानगर...
वही चिलचिलाती धूप, झुलसा देने वाली गर्मी और अपनी–अपनी बस का
इंतज़ार...
आदमियों से खचाखच भरा हुआ बस स्टाप...
बस नहीं आ रही है, हैरानी, परेशानी, उकताहट, गुस्सा...
'बस क्यों नहीं आ रही है?'
'लंच आवर है।'
'लंच आवर में बस की फ्रीक्वेंसी कम हो जाती है।'
'सरकार ज़्यादा बसें क्यों नहीं चलाती?'
चला रही है, डी.टी.सी. को लीप पोत कर रंग भरकर, ऐलान
होता है, तीन सौ नयी बसों की सर्विस शुरू। हरा रंग है तो ग्रीन
लाइन सर्विस। सफ़ेद है तो व्हाइट लाइन। लाल है तो रेड लाइन
सर्विस।
'जनाब आप लाइन से क्यों नहीं आते। देखिए हम सब बस का इंतज़ार कर
रहे हैं'
'कमबख्त कई दिनों से बारिश भी तो नहीं हुई।'
'बारिश होने से गर्मी और भी बढ़ जाती है।'
मैं भी घड़ी देखता हूँ। चिड़चिड़ाहट खुद पर हावी है। बीवी ठीक
कहती है। एक छाता क्यों नहीं ले लेते। पास ही स्कूल ड्रेस में
वज़नी किताबों का बस्ता कंधे से लटकाए बच्चे खड़े हैं और
चिलचिलाती धूप, चप–चप करता पसीना, चेमीगोइयाँ। तेज़–तेज़ बातें।
बस क्यों नहीं आती कमबख्त– अब तो आ जानी चाहिए। बस आती ही
होगी।
बच्चों के चेहरे पसीने से तर हैं, अफ़सोस होता है। बीवी ठीक कहती
है। फूल वाला छाता आ जाता तो...मेरे बच्चे भी तो कहीं इसी तरह
पंक्ति में खड़े होंगे। कहीं–कहीं तो स्टाप भी नहीं होता। बस
धूप में झुलसते रहिए। यहाँ सायबान तो है। धूप से तो बच रहे हैं
और यहाँ से बस एक कदम दूर, धूप ऐसे छिटकी है जैसे किसी खौफ़नाक
जानवर की तरह घात में हो। कदम बढ़ाओ तो लपक लेगी।
और वहीं। बस एक कदम के फासले पर। आँखें जैसे थम गईं...दो
छोटे बच्चे, दो छोटे गंदे–गंदे बच्चे आकर ठहर गए, लेकिन ठहरो...क्या यह सचमुच बच्चे हैं। उम्र तो बच्चों वाली ही होगी। एक
सात–आठ वर्ष का, लेकिन देखने में और भी कम लग रहा है। गंदा–सा
नीकर, फटी हुई गंदी शर्ट। चेहरे पर लगी हुई मिट्टी। दूसरा उससे
भी कम। पाँच–छः वर्ष–बस– लेकिन...क्या ये वास्तव में बच्चे
हैं। उन्हें देखते हुए तो बच्चों को 'बच्चा' बनाने वाली सारी
तारीफ़ साँप की तरह रास्ता काट जाती है। न शोख़ी न मुस्कुराहट, न
बच्चों वाला कोई–सा भी एहसास। उम्र बच्चे नहीं बनाती, बच्चा तो
एहसास से बनता है। तभी तो बूढ़ा आदमी भी कभी–कभी अपनी हरकतों
से बच्चा बन जाता है। ये बच्चे नहीं...धूप एक कदम के फासले
पर किसी खौफ़नाक जानवर की तरह आग उगल रही है। पैर में चप्पल भी
नहीं...एक के हाथ में छोटा–सा,
गोल–सा चक्का, जिसके चार अलग–अलग किनारों पर कपड़ों की तह लगी
है।
चल, खेल दिखा...यह
बड़ा बच्चा है...
छोटा बच्चा थक गया है। वह अपनी जगह खड़ा है। स्तब्ध–
बड़ा बच्चा अपने गंदे मैले पैर से उसकी चूतड़ पर पैर मारता है।
छोटा बच्चा गिरता है। गुस्से में वह उसे मारना चाहता है– बड़ा
उसे ज़ोर का चपत लगाता है।
चल खेल दिखा। बाबू लोगों को खेल दिखा–
फिर छोटा सर के बल गिरता हुआ है और बड़े के हाथों में, थामे
हुए लोहे के चक्के में समा जाता है–
कुछ लोग अब भी बस का इंतज़ार कर रहे हैं। कुछ लोगों का ध्यान बस
से हट कर बच्चों की तरफ़ केंद्रित हो गया है– और...वह स्कूल में
पढ़ने वाले बच्चे भी वज़नी बस्ते की वजह से जिनके कंधे झुके जा
रहे थे, मुस्कुराते हुए उन 'बच्चों' को देखने लगे हैं। और यहाँ
से एक कदम के फासले पर धूप आग उगल रही है...
कुछ लोगों की आँखों में चमक उभरी है। कुछ मुस्कुराए हैं। कुछ
अब भी बस के इंतज़ार में खुद पर गुस्सा हो रहे हैं। और बच्चे...दोनों छोटे बच्चे, न उनके चेहरे पर खेल दिखाने वाली चमक है,
न खेल दिखाकर बस स्टाप पर खड़े लोगों को लुभाने की ख्वाहिश।
एहसास से खाली चेहरा– कुछ भी नहीं है वहाँ। होंठ पर गर्द की
पपड़ी जम गई है।
'खेल दिखा–'
एक चक्कर देकर छोटा बच्चा थम गया है।
बड़ा फिर उसे ठोकर मारता है। छोटा ज़मीन पर बैठकर रोने लगता है।
लोगों को अब खेल में मज़ा आने लगा है। लोगों की दिलचस्पी बच्चे
में बढ़ रही है। बड़ा उसे समझाने आया है। छोटे ने बड़े को कोई
गाली बकी है। बड़े ने कुछ कहा है। शायद कोई गंभीर बात– अब छोटा
उठ गया है।
और...
अब बड़े ने गोल चक्के के चारों खाने पर मिट्टी का तेल उडेल
दिया है। जेब से माचिस निकाल कर जलाया। गोल दायरा अब आग फेंक
रहा है। बड़ा चक्का थामे बच्चे को इशारा करता है। बच्चा सर के
बल गिरता हुआ आकर आग के गोले के पास ठिठक जाता है। अंदर समाने
की हिम्मत नहीं हुई। लोग हँसते हैं। पास में खड़े स्कूल के
बच्चे भी हँसते हैं। बड़ा उसे गुस्से में डाँटता है।
बस अब तक नहीं आई। सूरज का गोला आग बरसा रहा है। सिर्फ़ इस
सायबान से एक कदम के फासले पर झुलसा देने वाली धूप, आग उगल रही
है और तपती, झुलसती ज़मीन पर इन बच्चों का खेल, चल रहा है...
छोटा आता है। डरते–डरते सर के बल गिरता हुआ वह आग उगलते दायरे
में समा जाता है। एक बार। दो बार। तीन बार।
और जनाब।
कहानी ख़त्म हो गई...
आप मानिए, मत मानिए कहानी ख़त्म हो गई। इस दरम्यान सिर्फ़ इतना
हुआ कि बस आ गई। लोग पागलों की तरह बस की तरफ़ दौड़ पड़े। छोटे ने
खेल बंद किया। नन्हे–मुन्ने मैले हाथों को फैलाए वह लोगों के
पास जाना चाहता है। लेकिन बस आ चुकी है। अब बच्चे की तरफ़ कोई
नहीं देख रहा है। स्कूली बच्चे झट से बस के आगे वाले गेट से
अंदर चढ़ गए हैं।
और...उनमें से एक मैं भी हूँ। ख़ाली वक्त, दोस्तों में
शेरो–शायरी झाड़ने वाला मैं– वक्त–बेवक्त खुद के भावुक जज़्बाती
चेहरे को, दोस्त–यार के सामने डुलाने वाला मैं...मैं रुकना
भी चाहता हूँ और बस के निकल जाने का मोह भी है। मुझे लगता है
बस किसी चुंबक की तरह मुझे खींच रही है। और फिर वही होता है
बच्चे का ध्यान छोड़ कर मैं बस की तरफ़ लपक लेता हूँ।
और कहानी ख़त्म हो गई। बस के एक छोर पर लटके हुए मैंने देखा।
बड़ा कंबल ओढ़ा कर चक्के की आग बुझा रहा था। छोटा बस में समाये
लोगों को देख रहा था, बस जब चलनी शुरू हुई तो देखा। दोनों
बच्चे सड़क पार कर रहे थे।
क्या अब भी आपको विश्वास नहीं है कि यह कहानी है? |