ताई बचनी ने कथा पर जाने के लिए अपने घर का
दरवाजा खोला तो उसकी भवें तन गईं। एक बीमार पिल्ला उसकी दहलीज़
से सिर टिकाए पड़ा था। ताई की कैंची–सी ज़बान तुरन्त चल निकली,
"मरें हरामज़ादे, सुअर की औलाद। इस मुहल्ले के लड़कों को सोकर
जागना नसीब न हो। पैदा करने वाली हरामनें भी नहीं दिखती कि
औलाद मुहल्ले में क्या खाक उड़ाती फिरती है। कोख से निकाला,
फेंक दिया गली में। कर गए मुए मेरा धर्म भ्रष्ट।"
मुहल्ले वालियाँ ताई के स्वभाव से भली–भाँति परिचित थीं। अतः
उसकी आवाज़ पर किसी ने ध्यान न दिया। एक भी चेहरा किसी मकान की
खिड़की से यह झाँकने तक को न निकला कि माजरा क्या है। ताई ने
कुशल योद्धा की तरह इधर–उधर देखा और अनुमान लगाया कि तलवार हवा
में चल रही है तो उसने अपना ध्यान पिल्ले पर केन्द्रित कर
लिया।
"चच्–चच्–चच् . . .हट।" ताई ने दाएँ हाथ से उसे भगाते हुए रट
लगाई।
"दुर . . .दुर . . .अबे हट जा।"
लेकिन पिल्ला टस से मस नहीं हुआ। यहाँ तक कि उसने आँख उठाकर भी
नहीं देखा कि उसे कौन पुकार रहा है। कुछ क्षण अहिंसात्मक
प्रयत्न कर के ताई के भीतर हिंसात्मक भावना जाग उठी। वह भीतर
से झाडू उठा लाई। झाडू चलाने से पहले उसने एक बार फिर कोशिश की
कि पिल्ला बिना मार खाए ही उठ जाए।
कुछ क्षण अहिंसात्मक प्रयत्न कर के ताई के भीतर हिंसात्मक
भावना जाग उठी। वह भीतर से झाड़ू उठा लाई। झाड़ू चलाने से
पहले उसने एक बार फिर कोशिश की कि पिल्ला बिना मार खाए ही
उठ जाए। झाड़ू से तनिक हिलाकर ताई ने कहा,
"उठ जा नामुराद। एक धर दूँगी तो च्वाँ–च्वाँ करता भागेगा।"
झाड़ू के स्पर्श से पिल्ले की देह हिल गई। उसने बड़ी कठिनाई
से गर्दन उठाकर नितान्त करुणापूर्ण दृष्टि से ताई की ओर
देखा और फिर उसकी गर्दन पूर्ववत दहलीज़ पर जा गिरी। उसके
गले से सिसकी जैसी आवाज़ निकली "क्वाँ कूँ कूँ कूँ . .
.ऽऽऽ।"
भिक्षा माँगता हुआ गेरुए वस्त्रों वाला भिखारी जब ताई बचनी
के दरवाज़े पर पहुंचा तो 'अलख निरंजन' के दो शब्द उसके गले
में ही अटक गए।
"क्या करती हो मैया। झाड़ू मत मारो। कर सको तो प्राण–रक्षा
करो। आत्मा सब में समान हैं। यह यहाँ से नहीं उठ सकता।
इसके लिए यमदूत चले आ रहे हैं।"
"राम–राम बाबा।" ताई ने श्रद्धाभाव से भिखारी की ओर देखा।
"राम भला करें। माई! इसे दही में मिलाकर नीला थोथा दो। इसे
म्यूनिसपालिटी के लोग जहरीली गोली खिला गए हैं। कुछ ही
क्षणों का मेहमान है। इसकी माँ इसके दो भाइयों समेत कुएँ
के पास चित्त पड़ी है। हाय! माँ होती तो इसे दाँतों से
उठाकर ले भागती। राम . . .रा . . .म।"
भिखारी आगे निकल गया। जीव–रक्षा का उपदेश देना उसका धर्म
था।
ताई बचनी के हाथ से झाड़ू गिर गई। 'माँ होती तो . .
.' यह वाक्य उसकी नसों में उतर गया। पिल्ले को फलांगकर,
जीवन में पहली बार किवाड़ खुले छोड़, वह बाज़ार की ओर भागी।
पीतल की कटोरी उसके हाथ में थी।
ताई बचनी विधवा थी। मुहल्ले वालियों को उससे कोई हमदर्दी न
थी। इसका कारण ताई की जबान थी। नारद मुनि के सभी करतब ताई
के दैनिक जीवन का अटूट अंग थे। जिस घर में ताई ने पानी पी
लिया, वहाँ सास–बहू में जूता चलना लाज़मी था। जहाँ ताई आधा
घंटा बैठ गई, वहाँ पति–पत्नी में बोल–बुलाहट हो गई। बच्चे
माँ से लड़ पड़े, भाई–बहनों में नाराज़ी हो गई। लेकिन ताई को
अपने यहाँ आने से रोकने का साहस पूरे मुहल्ले में किसी को
न था। कारण यह कि उन सभी के दुःख में ताई ही काम आती थी।
किसी का बच्चा बीमार हो गया है तो ताई भागी जा रही है
डॉक्टर को बुलाने। किसी की गाय – भैंस ब्याई है तो ताई
सोंठ का पानी उबाल रही है। किसी के घर में गमी हो गई है तो
ताई बैठी ज़ार ज़ार रो रही है, ऐसे जैसे उसका कोई सगा मर गया
हो। ताई मुहल्ले की जीवनी का वह अंश थी जिसे निकाल देने पर
पूरी जीवनी विशृंखलित, निरर्थक प्रतीत होने लगती थी।
दास्तानों को जोड़ने वाली कड़ी ताई बचनी ही थी।
कभी बहुत अमीर हुआ करती थी ताई। मुहल्ले की बूढ़ी औरतें
जानती थीं कि ताई बिना जूते के मौजे पहनकर गली में निकला
करती थी। शरीर पर मक्खी नहीं बैठने देती थी। लेकिन दिन जो
बिगड़े तो सम्पत्ति के रूप में घर के चार–छह बर्तन ही बच
रहे। दो सूती धोतियाँ थीं ताई के पास। एक को धो लेती,
दूसरी को पहन लेती। पति की जायदाद में से एक वह मकान बचा
था, जिसमें ताई रहती थी और एक दूकान बाज़ार में, जिसके
किराये से ताई का दाल–दलिया चलता था।
ताई बचनी की आवाज़ कर्कश थी, स्वभाव अक्खड़। गालियाँ वह
मर्दों की तरह बकती थी। मुहल्ले के लड़कों से उसका पिछले
जन्म का बैर था। यह एक बेहद अद्भुत बात थी ताई के स्वभाव
की – अद्भुत विसंगति। मुहल्ले के जिन बच्चों को ताई गोद
में खिलाकर पालती, वही बच्चे जब आठ–दस वर्ष के होते तो ताई
को फूटी आँख न भाते। ताई उनकी दुश्मन हो बैठती। बेगाने
अबोध शिशु को गोद में लिए वह उससे बड़े लड़कों को गालियाँ
देती, उनकी मौत का इन्तजार करती और उनकी माताओं को कोसती।
बात वास्तव में यह थी कि ताई को छेड़ने की परम्परा चलती आ
रही थी मुहल्ले में। जहाँ कोई लड़का बड़ा होता, उस परम्परा
का अंग बन जाता। ताई को 'माई फात्तां' कहकर छेड़ता और बदले
में तड़तड़ गालियाँ खाकर प्रसन्न होता। ताई पकड़ने को उद्यत
होती तो भागकर किसी के घर में घुस जाता, चारपायी के नीचे
छिप जाता। परन्तु यह क्रम निरन्तर चलता रहता। कभी–कभार पकड़
में आने पर, ताई का हाथ उठने से पहले ही, लड़का तौबा कर
लेता कि फिर कभी ऐसा नहीं करेगा, तो ताई तुरन्त क्षमा कर
देती। यह नुस्खा भी सभी को मालूम था। इसलिए भय की अधिक
गुंजाइश बाकी न थी।
बाज़ार से लौटकर ताई ने भीतर के संकोच पर बरबस काबू पाकर
पिल्ले को उठाया। दही में नीला थोथा घुलाकर उसके हलक से
नीचे उतारा और राख से अपने हाथ साफ कर लिए। कुछ ही क्षणों
में पिल्ले को कै हो गई। गोली का ज़हर बाहर निकला और पिल्ले
में प्राण लौटते दिखाई दिए। ताई मोंढ़े पर बैठी उसका तड़पना
देखती रही और म्यूनिसिपालिटी वालों को गालियाँ देती रही।
°°°
कथा में ताई की अनुपस्थिति अनहोनी बात थी। कथा समाप्त होने
पर उसकी दो–एक भक्तिन साथिनें कारण पूछने आईं तो देखा कि
ताई के घर के किवाड़ खुले पड़े थे और भीतर आँगन में बैठी ताई
कटोरी से पिल्ले को दूध पिला रही थी।
"नीं फोल चन्दरिये।" कुंती ने अनायास ही कहा।
"मरें नीं तू बचनीये! धर्म–कर्म कूएँ में डाल दिया।"
कर्मदेई से भी न रहा गया।
"अरी पापिनो! जीआ–जंत है। मरें सुसरे मुनसिपालिटी वाले,
इसे महुरा दे गए। मैं तो कथा पर जाने को निकली तो सोचा गली
के बच्चे छोड़ गए नामुराद इसे मेरे दरवाज़े पर। वो तो एक
महात्मा जी ने बताया कि इसकी माँ और इसके दो भाई मर गए, पर
इसमें अभी जान बाकी थी। तो मैं भागी बाज़ार को। लाकर इसे
दही थोथा दिया। तब जाकर ये उलटा और इसकी जान बची।"
"पर बुद्धू औरते, तेरा किया–कराया तो जाता रहा एक कुत्ते
के पिल्ले की खातिर। अब तेरा कौन बाप बैठा है जो तुझे
हरिद्वार भेजे और तू गंगा नहाकर पवित्र हो।"
ताई बचनी ने इतनी दूर तक नहीं देखा था। पिल्ले के प्राणों
पर संकट था और ताई का हृदय पसीज उठा था। अब जो ताई को
चेतना हुई और उसके भीतर का धर्म–भय जागृत हुआ तो उसने
'फूटे मेरे भाग' कहकर पिल्ले को उठाया और बाहर गली में
फेंक दिया।
कर्मदेई कुंती को वहीं खड़े छोड़ अपने घर की ओर लपकी और
गंगाजल की बोतल उठा लाई। ताई बचनी के शरीर पर छींटें देकर
उसने शेष बोतल सारे घर में यहाँ–वहाँ छिड़क दी। ताई को
तनिक–सा पवित्रता का अहसास तो हुआ परन्तु उसके बार–बार
कहने पर भी न कुंती ने मोंढा लिया और न कर्मदेई ने बैठना
स्वीकार किया। उन दोनों का वहाँ बैठना वर्षों से कमाए
धर्म–लाभ को नष्ट करना था। इतना भी कर्मदेई बचनी के प्यार
में कर गई अन्यथा वह किसी दूसरे के लिए इतना मूल्यवान
गंगाजल खर्चने वाली कहाँ थी।
वे दोनों चली गईं तो ताई बचनी व्याकुल हो उठी। उसे बार–बार
अपने पर रुलाई आ रही थी।
"हे भगवान्! मैंने यह क्या किया? कहाँ से आ मरा वह महात्मा
गेरुआ? न मैं उसकी बातों में आती, न मेरा धर्म भ्रष्ट
होता। मर जाता पिल्ला हरामज़ादा। सैंकड़ों कुत्ते–बिल्ले रोज़
मरते हैं। अच्छा भला दण्डी स्वामी ने उस दिन कथा में बताया
था कि कुत्ते को छूने से सीधे नरक में जाना पड़ता है। मुझे
ही क्या पड़ी थी बुद्ध देवता बनने की . . .हाय! अब मैं क्या
करूँ?" ताई ने स्वगत कहा।
परन्तु उसके क्षोभ का शमन नहीं हो पा रहा था। ताई ने बाहर
वाला किवाड़ बन्द किया और पानी के दसेक मटके उंडेलकर घर का
फर्श दो बार धो डाला। फिर ककरी रेत से दसेक बार अपने हाथ
माँजे। यहाँ तक कि हाथों की चमड़ी लाल हो गई। तब ताई ने
चूल्हे की राख शरीर पर मली और स्नान किया।
"हे बजरंग बली! सहायी होना। मेरे पापों को काटना अपनी गदा
से हे बलवीर। हे अंजनी–सुत, इस बुढ़िया के गुनाह बख्शना।"
कहकर उसने घर में पड़ी चारों अगरबत्तियाँ जला डालीं।
ताई से उस शाम का खाना न पकाया गया। दिया–बत्ती जलाने का
मन भी नहीं हुआ। वही ताई जो आधे घंटे से अधिक अपने घर पर
रहती थी तो उसके तलवों में खुजली होने लगती थी, आज साढ़े
तीन घण्टे से अपने घर में बन्द थी। सर्दियों के दिन, ताई
की शाम को नहाई बूढ़ी देह और उस पर गीला घर। जाड़े से ताई के
दाँत बजने लगे।
दीवार से लगी बैठी ताई को अनुभव हुआ कि उसकी देह इस भयंकर
शीत को सहन न कर सकेगी। वह उठी। क्षोभ और वितृष्णा के उसी
अहसास में उसने संस्कारवश थोड़ा–सा आटा कटोरी में डालकर
गीला किया और उसका दिया बनाया। रुई का एक फाहा उँगलियों से
धुनकर उसने बत्ती बनाई और अलमारी में रखे घी के डिब्बे में
भिगो ली। दिया जलाकर उसने कृष्ण कन्हैया की मूर्ति के
सामने रखा और वहीं मूर्ति के निकट ज़मीन पर बैठ गई।
बैठे–बैठे सोचती रही। लोक–परलोक, पाप–पुण्य,
पश्चाताप–प्रायश्चित से सम्बंधित कथाओं में सुनी अनेक
कहानियाँ, अनेक घटनाएँ उसके मस्तिष्क में घूमती रहीं। कहीं
कोई समाधान मिल जाए ताकि उसकी पिल्ले के स्पर्श से दूषित
देह पुनः पवित्र हो जाए। उसका शापित धर्म फिर से जागृत हो
जाए। इसी उधेड़बुन में न जाने कब ताई की आँख लग गई।
रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। सारा मुहल्ला चुप की गहरी
नींद में डूब गया था। चारों ओर सन्नाटा सां–सां कर रहा था।
दरवाजे. पर पिल्ले की क्वां–क्वां से ताई की नींद उखड़ गई।
"मर जा हराम के कहीं जाकर। अब क्या मेरे प्राण लेकर टलेगा,
साले?"
कहकर ताई क्रोध से भरकर उठी। कृष्ण कन्हैया की मूर्ति के
सामने रखा दिया शान्त हो चुका था। अंधेरे से अभ्यस्त ताई
ने दीवार से सटी पड़ी झाड़ू उठाई और दरवाज़े की ओर लपकी।
पिल्ले की कूँ–कूँ निरन्तर जारी थी।
ताई ने जैसे ही दरवाज़ा खोला उसे लगा जैसे वही साधू महात्मा
सामने खड़े हैं। अंधेरे में आँखें फाड़कर उसने देखा, वहाँ
कोई नहीं था। केवल पिल्ले की कूँ–कूँ थी। उसे लगा जैसे
महात्मा कह रहे हों –– 'इसकी माँ होती तो . . . '
ताई ने झाड़ू वहीं रख दी और भीतर जाकर ढिबरी जला ली। हाथ
में ढिबरी लिए ताई द्वार पर आई और दो कदम गली में निकलकर
देखा। कोई साधू महात्मा वहाँ न था।
अकस्मात उसे पैंतीस वर्ष पहले की बर्फानी रात स्मरण हो आई।
यह स्मृति पहले पाँच–सात वर्ष तो ताई को बहुत रुलाती–सताती
रही थी परन्तु पिछले तीस एक वर्षों से उसने आत्मबल द्वारा
इस स्मृति को अपने भीतर ही दफना लिया था। इस स्मृति की
कब्र ही थी जो उसके भीतर से चिड़चिड़ाहट उगलती रहती थी। ताई
का पूजा–पाठ, कथा–वार्ता सब इसी कब्र पर और अधिक मिट्टी
डालने का निरन्तर प्रयास था ताकि इस कब्र में पड़ी स्मृति
कभी जागृत न हो।
तब ताई का पति जीवित था। उनका घर सुखों से सम्पन्न था। घर
के आँगन में बचनी के बच्चे की किलकारियाँ गूँजा करती थीं।
घर के कमरों में बच्चे की हँसी छनछनाया करती थी। लेकिन एक
दिन . . .अबोध शिशु ने कमरे के कोने में से उठाकर वे दो
काली–काली गोलियाँ खा ली थी, जो बचनी की नौकरानी ने चूहे
मारने के लिए कोने–अंतरे में फेंक रखी थीं.। कुछ ही देर
में बच्चे की हालत बिगड़ गई थी। तब घबराकर उसने अपने पति को
चौपाल पर से बुलवाया था और वह बेचारा भागकर वैद्य, डॉक्टर
तथा ओझा तीनों को पकड़ लाया था। परन्तु कोई उपचार काम न आ
सका था और शीत से ठिठुरती हुई उस रात के तीसरे पहर में
बच्चे ने गर्दन लुढ़का दी थी।
ताई किवाड़ बन्द करके पिल्ले को भीतर ले गई। वह शीत से
ठिठुर रहा था। ताई के घर में एक ही लिहाफ था। लेकिन अब ताई
के भीतर कोई संघर्ष न था, कोई संस्कार नहीं था। उसने सहज
स्वाभाविक ढँग से बरामदे में पड़ी अपनी खटिया खींची, उस पर
अपना एकमात्र बिछौना खोला और पिल्ले को साथ लेकर लेट गई।
एक क्षण के लिए उसे लगा कि वह ताई बचनी नहीं, माँ बचनी
हैं। अपने बच्चे की माँ है और बच्चा उसकी छाती से लगा सो
रहा है। |