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माटी की गंध

भारतवासी लेखकों की कहानियों के संग्रह में इस सप्ताह प्रस्तुत है
कानपुर से अमरीक सिंह दीप की कहानी—"हरम"।


वज़ीर की बात का बादशाह वाजिद अली शाह को यकीन ही न हुआ। उसे लगा, वजीर दून की हाँक रहा है। उसे बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहा है।
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अगले ही पल बादशाह ने सोचा, जो भी हो लेकिन वजीर की इतनी जुर्रत नहीं हैं कि वह उसे बेवकूफ बनाने की कोशिश करे। वह जानता है, ऐसी कोशिश करने वालों के उनके ज़माने में सिर कलम करवा कर रख दिए जाते थे। तो क्या उसका कहना सच है कि उसके मादरे वतन में अब हर घर में हरम हो गया है? लोगों ने घरों से निकलना छोड़ दिया है। पेट भर खाना जुटाने के लिए मजबूरीवश लोग घरों से निकलते हैं और नफरी पूरी होते ही सरपट घरों की ओर दौड़ लेते हैं। घर चालीस चोरों की 'खुल जा सिम–सिम' वाली गार हो गए हैं। अली बिन कासिम की तरह लोग अपना होशोहवास गवाँ बैठे हैं। बातें करना, हँसना–रोना, लड़ना–झगड़ना...  सब कुछ भूल गए हैं। बस एक ही धुन, एक ही राग... मेरा प्यार, मेरा जीवन, मेरी हरम।
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बादशाह से रहा न गया। उसने वजीर की बात का प्रतिवाद किया... 'ये कैसे हो सकता है? क्या मेरा मादरे वतन हिन्द फिर सोने की चिड़िया हो गया है? या कि मुल्क के सहरा में तेल के कुएँ निकल आए हैं? याकि आसमान से होने वाली बारिश की बूंदे अब पानी की जगह सोने की होने लगी है?' 'हुजूरेवाला, जैसा आप सोच रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं हुआ। बल्कि मुल्क की माली हालत पहले से भी

बदतर हो गई है। विदेशों से कर्जा लेकर जैसे–तैसे मुल्क की गाड़ी को धकेला जा रहा है। गरीबी, बेकारी और भूखमरी का यह आलम है कि रात को सोते वक्त किसी को यह पता नहीं होता कि अगली सुबह उसे रोटी नसीब होगी भी या नहीं?'

वजीर की बात ने बादशाह सलामत की हैरानी में और इज़ाफा कर दिया। उनका सिर घूमने लगा। कनपटियों में दर्द रक्कासा की तरह थिरकने लगा। बादशाह ने फौरन ताली बजा कर एक हूर को तलब किया और उसे बादाम रोगन से पेशानी और कनपटियों की मालिश करने को कहा।

हूर की रेशम सी मुलायम और ककड़ी सी नाज़ुक उँगलियों और बादाम रोगन से कुछ ही देर में बादशाह को दर्द से राहत मिल गई लेकिन हैरानी अपनी जगह वैसे ही कायम रही। वे वज़ीर की ओर फिर मुखातिब हुए, 'कैसी अहमकपने की बातें कर रहे हो तुम? एक ओर तो तुम मेरे मादरे वतन हिन्द में हर घर में हरम होने की बात करते हो, दूसरी ओर भूख, गरीबी, बेकारी और कर्जे की बात करते हो। दोनों बातें एकसाथ कैसे मुमकिन हो सकती है? खुदाया, हमारी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा।'

'आप की समझ में कुछ आयेगा भी नहीं हुजूर। आसमान पर रह कर ज़मीनी हकीकत को समझना मुमकिन ही नहीं है। ज़मीनी हकीकत जमीन पर रह कर ही समझी जा सकती है। यों भी आपको ज़मीन में दफन होने के बाद जन्नतनशीं हुए सौ साल से भी ऊपर हो चुके हैं। जमीन पर शहरे–लखनऊ में आपका महल एक छोटी सी जन्नत था। अल्लाह की जन्नत की कोई हद ही नहीं है। और ये बात जगजाहिर है कि बेपनाह ऐशोआराम इन्सान को काहिल बना देता है। उसकी अक्ल को जंग लग जाता है। उसकी सोचने–समझने की ताकत जाती रहती है। फिर आपकी ऐश के तो कहने ही क्या है? शहरे–लखनऊ तो आज भी आपकी ऐश का जिक्र छिड़ने पर ठण्डी आहें भरने लगता है... वाह! क्या बादशाह थे हमारे वाज़िद अली शाह भी। जब महल की सीढ़ियाँ चढ़ कर अपने हरम में आते थे तो हर सीढ़ी पर दोनों तरफ अलिफ नंगी कनीजें खड़ी रहती थी। बादशाह सलामत उनके जोबन पकड़–पकड़ कर सीढ़ियाँ चढ़ कर अपने हरम में दाखिल होते थे।'

बादशाह का सुर्ख चर्बीला चेहरा गुस्से से तमतमा उठा – 'झूठ... सफेद झूठ। किसी गैर मुल्क के दुश्मन की उड़ाई झूठी अफवाह है ये। अगरचे ये हकीकत होता तो अल्लाताला हमें जन्नत की जगह दोज़ख में न डाल देता।

वजीर बादशाह के गुस्से से बेसुध रहा। उसने बेबाकी से कहा,' हुजूर, खुदा को खुदाई शहनशाहों, बादशाहों और अमीर उमरावों की बदौलत कायम है, गरीब गुरबाओं से नहीं। अमीर आदमी जब तक जिन्दा रहता है, जमीं पर रह कर जन्नत का लुत्फ उठाता है। और मरने के बाद आसमान की जन्नत तो है ही उसके लिए।'
बादशाह की आँखें शोलफिशा हो उठीं, 'तुम्हारी बातों से बगावत की बू आ रही है।'
'हुजूर, सच्चाई का ही दूसरा नाम बगावत है।'

वजीर की तंजमेज बातों से बादशाह का गुस्सा भड़क उठा। मन हुआ, इसी वक्त फरिश्ते को तलब कर इस नामुराद वजीर को जन्नतबदर करवा दें, पर बादशाह ये जानते थे कि वजीर के जाने के बाद वे अकेले पड़ जाएँगे। फिर वे अपने मन की बातें किससे किया करेंगे? हूरों और फरिश्तों की बातें इतनी मीठी होती हैं कि लगातार सुनते रहने पर भीतर मक्खियाँ भिनभिनाने लगती हैं। वजीर की बातें तीखी और करारी होती है, मसालेदार खाने से भी ज्यादा जायकेदार। मज़ा आ जाता है। ज़हन का हाज़मा दुरूस्त हो जाता है। बादशाह ने मौके की नज़ाकत देखते हुए अपना गुस्सा गुटक लिया,'खैर छोड़ो, ये बेमतलब की बहस। पहले यह बताओ कि हमारे मादरे वतन हिन्द का हर घर हरम में कैसे तब्दील हो गया है?'

'हुजूरेवाला, कुछ बातें न बताई जा सकती हैं, न समझायी जा सकती हैं। खुद अपनी आँखों से रूबरू देखने पर ही ये समझ में आती हैं।...  अगर आप जन्नत के हसीं ऐशो आराम से भरे माहौल को कुछ दिन के लिए छोड़ सकने की हिम्मत कर सकें और मेरे साथ दुनियाये–फानी में चलने की जुर्रत कर सकें तो हकीकत खुद–ब–खुद आपके सामने आ जायेगी।
•••

लखनऊ। बादशाह वाजिद अली शाह की दारूस्सल्तनत। शाम है लेकिन जिस शामे अवध का शेरो–शायरी और अदब में हमेशा से जिक्र होता आया है उसका कहीं कोई अता–पता नहीं है। सूरज गन्दे नाले से भी ज्यादा स्याह हो चुके गोमती के पानी में नाक बंद कर डूब रहा है। उसकी जर्द रश्मियाँ सड़े हुए अण्डे की जर्दी की तरह गोमती की जल सतह पर छितरायी हुई हैं। यों लग रहा है अंधेरा आसमान से नहीं गोमती के स्याह जल से निकल कर शहर पर छा जायेगा।

सड़कों पर लोग बेतहाशा भाग रहे हैं। जैसे शहर में कहीं आदम बू–आदम बू करता जिन्न निकल आया हो। अजीब सी भगदड़ और बदहवासी है। तेजी इतनी कि जैसे कमान से छूटा तीर। जो गिर गया उसे लोग रौंद कर भागे जा रहे हैं। गिरनेवाले की कोई चीख पुकार नहीं सुन रहा। किसी के पास वक्त है न फुर्सत। गिरे हुए को ठोकरें खुद–ब–खुद बुहार कर किनारे कर देती हैं।

अपने खस्ताहाल छतरमल में कुछ देर वादों के दरिया में बहने के बाद बादशाह वाजिद अली शाह गहरी उदासी और खामोशी में डूबे हुए महल से निकल कर अपनी बेगम हज़रत महल के मकबरे में आ गए। वजीर चुपचाप उनके साथ चलता रहा। मकबरे में उन्होंने अपनी बेगम की याद में फातिहा पड़ा। भारी मन से जब वे बाहर आये तो सड़क पर भागते ट्रैफिक को देख कर उनके प्राण सूख गए। वजीर का हाथ पकड़ कर किसी तरह उन्होंने सड़क पार की और गोमती के पुल पर आ खड़े हुए। जब उन्होंने गोमती में डूबते हुए सूरज को देखा तो उनकी रूह फना हो गई। उफ! सदी डेढ़ सदी में ही उनका जन्नत से होड़ लेने वाला शहरे लखनऊ नर्क से बदतर कैसे हो गया? कहाँ गए वो नज़ाकत–नफासत पसंद तहज़ीबदार लोग, जो दूसरे की सुविधा का ख्याल रखते हुए 'पहले आप – पहले आप' कहते नहीं थकते थे, वो रवायतें, वो अख्लाक, वो इल्म, वो अदब, वो पालकियाँ, वो बग्घियाँ, वो बाग–बगीचे, वो आबशार, वो फूल, वो खुशबुएँ, वो रोशनियाँ, वो आतिशबाजियाँ, वो साफ शफ्फाक गोमती का बिल्लौरी पानी, उस पर तैरते बजरे, वो महफिलें, वो रक्कासाएँ, वो... इस वो का एक लम्बा सिलसिला उनके ज़ेहन में चलता रहा।

उन्हें समझ नहीं आ रहा... ये भागते हुए भयभीत लोग किस मुल्क के बाशिन्दे हैं? शक्ल औ' सूरत से तो ये हिन्द के निवासी नज़र आते हैं पर लिबास और पहनावे इनके अंग्रेजों जैसे हैं। अंग्रेजों का ख्याल आते ही इनके जेहन का जायका बिगड़ गया... हरामज़ादे, झूठे, मक्कार, फरेबी। सुअर के तुख्.म... जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। वे कैसे भूल सकते है कलकत्ते के मटियाबुर्ज के किले की कैद के वो हौलनाक दिन! वो तिल तिल कर मौत को अपने जिस्म में उतरते हुए महसूस करना। वो अन्धेरा, वो तनहाई, वो दर्द, वो छटपटाहट। उनका बस चलता तो वे बेतहाशा भागे जा रहे लोगों के कपड़े उतार कर तार–तार कर डालते।

आखिर उनसे रहा न गया। अपने वजीर से पूछ ही बैठे – 'आखिर ये लोग इस तेजी से भागे कहाँ जा रहे हैं?'
'हुजूर, ये सारे लोग अन्धेरा उतरने से पहले हर हाल में अपने–अपने हरम में पहुँच जाना चाहते हैं।'
'ये फटेहाल बदहवास मुफलिस लोग और हरम? अच्छा मज़ाक कर लेते हो तुम।'
'मज़ाक नहीं हुजूर, ये हकीकत बयानी कर रहा हूं मैं। इस वक्त इस मुल्क पर अंग्रेजों की नहीं, इसी मुल्क में रहने वाले दौलतमंदों और सौदागरों की हुकूमत है। इन सरमायेदारों और सौदागरों का एक ही मज़हब है – दौलत। दौलत के लिए ये अपना दीन–ईमान ही नहीं अपनी बीवी, बेटी, बहन यहाँ तक कि अपनी माँ को बेचने तक में गुरेज़ नहीं करते।'

'दरअसल इस मुल्क को अँग्रेजों से आज़ादी एक लँगोटी धारी बूढ़े फकीर ने दिलाई थी। लेकिन हुजूर इन नामुरादों ने उसके सीने में गोलियाँ दाग कर उसे मार डाला और अपनी चाण्क्य–चालाकी से कुछ ही सालों मे इस मुल्क की हुकूमत पर कब्जा कर लिया। ये जानते हैं कि आज़ादी का स्वाद चख चुके लोग इनकी चालाकी गाहे–बगाहे ताड़ ही जाएँगे। इसलिए ये जितनी जल्दी हो सके इस मुल्के–हिन्दुस्तान को बेच कर अपनी ऐशगाहों में भर लेना चाहते हैं। अपनी चालाकी से इस मुल्क के लोगों को गाफिल रखने के लिए इन्होंने हर घर को हरम में बदल डाला है। कि लोग सिर्फ रोजी–रोटी के लिए घर से बाहर निकलें और आधी–पौनी रोटी हासिल होते ही फौरन ही घर
की ओर लपक लें।'

वाजिद अली शाह को अपने वजीर की बातें अब भी तिलस्मी अफसाने जैसी लग रही हैं। अपनी सारी दिमागी मशक्कत के बावजूद उसकी मुठ्ठियों में सिर्फ हवा ही आ रही है, जो मुठ्ठियाँ खुलते ही काफूर हो जाती है। पहले उन्हें लगा कि लगातार जन्नत में रहने के कारण वजीर की सोचने समझने की ताकत कुन्द पड़ गई है पर बाद में उन्हें अपनी इस सोच पर शर्मिन्दगी महसूस हुई। जन्नत में वजीर से ज्यादा ऐश और आनन्द तो वे लूट रहे हैं। हर सुबह हूरें साज़ बजा कर उन्हें जगाती हैं, सुगन्धित तेलों से पूरे शरीर की मालिश करती हैं, इत्र और दूध से नहलाती हैं। फिर नाश्ते के लिए दस्तरखान पर जन्नत के सबसे उमदा भोज्य पदार्थ और पेय सजाती है। नाश्ते के वक्त, नाश्ते के बाद रक्स। रक्स देखते–देखते, राग रागनियाँ सुनते–सुनते, हूरों के हाथ से जाम पीते–पीते सो जाना। दोपहर उठ कर फिर वही कार्यक्रम। रक्स, जाम, संगीत, शराब, खाना इन्हीं के प्रवाह में बहते हुए फिर सो जाना। रात को फिर इसी कार्यक्रम की पुनरावृत्ति और अन्त में मनचाही हूर को लेकर ख्वाबगाह में सो जाना।

शराब, शबाब, कबाब। लुत्फ ही लुत्फ। मौज ही मौज। मस्ती ही मस्ती। हर वक्त। हर लम्हा। हर पल। अब उन्हें न दीन की चिन्ता हैं, न दुनिया की। न हुकूमत की, न खलकत की। अब न हमला, न जंग। न हार, न जीत। न सियासी साजिशें। न महलों में होने वाली दुरभिसन्धियाँ। बेफिक्री, बेपरवाही और बेपनाह जिस्मानी सुख। ऐसे में सोचने की ताकत उनकी कुंद हुई होगी वजीर की नहीं। वजीर को तो किताबें पढ़ने का शौक है। उसी में उसे अपार आनन्द मिलता है। न जाने फरिश्तों से कौन–कौन सी किताबें मंगवा कर पढ़ता रहता है वजीर। किताबों से सोचने की ताकत कुंद नहीं होती बल्कि और बढ़ती है। 'इन्द्रसभा' नाटक लिखने से पहले उन्हें भी शौक हुआ था किताबें पढ़ने का। और पहली बार उन्होंने सागर को गागर में नहीं एक छोटी सी किताब में भरा पाया था। इसलिए वजीर जो कह रहा है वह गलत हो ही नहीं सकता। लेकिन अगर यह गलत नहीं हैं तो सही कैसे है? क्यों ये बात उन्हें समझ नहीं आ रहीं?

उन्होंने अपने दिमागी घोड़े को अस्तबल से बाहर निकाला, उस पर जीन कसी और उस पर सवार हो कर एड़ लगाने की कोशिश की। घोड़ा काँख, कराह कर जमीन पर बैठ गया। उसे सख्त बेचैनी और उलझन महसूस होने लगी। जब ये उलझन और बेचैनी उससे बरदाश्त न हुई तो उन्होंने बड़ी आज़िजी से कहा – 'इस गोला बारूद से तेज भागती हुई भीड़ को देखते–देखते हमारा सिर चकराने लगा है। अगर हम इसे कुछ देर यों देखते रहे तो बेहोश हो कर गिर पड़ेंगे। इसलिए ऐसा करो कि हमें तुम किसी बस्ती में ले चलो और दिखाओ कि कैसे हर घर एक हरम में बदल चुका है।'

वजीर वाजिद अली शाह को साथ लेकर पुल से नीचे उतर आया। वे गोमती नदी के किनारे–किनारे कई पुल पार करके काफी दूर निकल गए। रोशनियाँ पीछे छूट गयीं। रह गए रोशनी के कुछ फटे चिथड़े, जो गोमती के उबड़–खाबड़ किनारे में उनकी रहनुमाई कर रहे हैं। नदी के पानी से उठने वाली भीगी हवा में संड़ास की गंध घुली हुई है। बादशाह का सिर भन्नाने लगा... वक्त कभी नहीं रूकता। वक्त इन्सानों के ही नहीं, शहरों के चेहरे भी बदल देता है। बड़े–बड़े शहर खण्डहरों में बदल जाते हैं और बड़े–बड़े बियाबान रौनकभरे शहरों में बदल जाते हैं। पर वक्त इतना बेरहम कभी नहीं हो सकता कि उनके जान से प्यारे, गुलिस्तान और परिस्तान को मात देने वाले शहर लखनऊ को संडास में बदल दे। पर इस वक्त उन्हें यही लग रहा है। हो सकता है ऐसा न हो। पूरे शहर को अभी उन्होंने घूम कर कहाँ देखा है। देखने की बलवती चाह तो है ही। लेकिन पहले वे जिस काम से आए हैं उसे तो पूरा कर लें। वजीर के जादुई यथार्थ से रूबरू तो हो लें।

रोशनी के चिथड़ों के सहारे गोमती के किनारे–किनारे काफी दूर चलने पर उन्हें कुछ डिब्बेनुमा काले–काले धब्बे दिखाई दिए, जो करीब पहुँचने पर इन्सानी बस्ती में बदल गए। ये गोमती के सूखे हुए पाट पर बनी कच्चे पक्के मकानों की एक उबड़–खाबड़ बस्ती है। लगता है, शहर की ठोकरें खा–खा कर तिरस्कृत हुए इन्सानों की बस्ती है ये। शहर के कचरे ने यहाँ मकानों की शक्ल अख्तियार कर ली है, उतरन ने वस्त्रों की और जूठन ने खाने की। हैरानी की बात यह है कि जीवन की मूलभूत सुविधाएँ देने में असमर्थ सरकार ने इन्हें रोशनी की भरपूर सुविधा दे रखी है। बस्ती के अन्दर की ओर जो रास्ता जाता है, उस रास्ते के थोड़ी–थोड़ी दूर के फासले पर लैम्पपोस्टों पर बिजली के लट्टू जल रहे हैं।

वजीर बादशाह सलामत को लेकर इस रास्ते से बस्ती के अन्दर दाखिल हो गया। गली में दाखिल होते ही रोशनी के बावजूद बादशाह का एक पांव भन्न से गन्दे पानी और गू से भरी हुई नाली में जा धँसा। ढेर से मच्छर भनभना कर बादशाह की टाँगों से लिपट गए। नाली से निकल कर एक सुअर उन्हें धक्का देकर एक ओर भाग गया। बादशाह सलामत बिलबिला उठे – 'ये किस दोज़ख में ले आए हो तुम मुझे?'

वजीर ने फौरन आगे बढ़ कर अपने बादशाह सलामत को गिरने से बचा लिया। फिर वह दौड़ कर गोमती से एक टूटे डिब्बे में पानी लाया और उससे उनकी टाँगों को धोया। इस दौरान बादशाह सलामत एक ही रट लगाए रहे – 'भाड़ में जाए हरम। चलो वापिस जन्नत।'

वजीर ने किसी तरह समझा बुझा कर उनमें आगे बढ़ने का साहस भरा – 'हुजूर, बीमार होने पर इन्सान की माँ कितनी भी बदशक्ल हो जाए इंसान उससे मोहब्बत करना नहीं छोड़ देता। हुजूर, ये शहरे लखनऊ, आपकी दारूस्सल्तनत, ये सिर्फ एक शहर नहीं हैं, आपका दिल, आपकी रूह भी है।

'हमारा लखनऊ! हमारा लखनऊ ये हो ही नहीं सकता। हमारा लखनऊ तो हमारे साथ ही मर गया था। वह यहाँ... ' बादशाह ने अपनी छाती की तरफ इशारा करते हुए कहा – 'हमारे सीने में दफन है। ये तो उसकी कब्र... ' अचकचा कर रूक गए वे – 'उसकी कब्र भी नहीं हो सकता। उसकी कब्र तो हमारे सीने में है।' बादशाह भावुक हो उठे।

फिज़ा बोझिल हो गई है। बादशाह अपने सीने में होने लगे दर्द को दबाए आगे बढ़े।

अभी वे कुछ ही कदम आगे बढ़े होंगे कि अचानक कूड़े के ढेर पर कूड़ा खंगाल रहे कुछ मरियल से कुत्ते उन्हें देख कर भौंकने लगे। उन्होंने डर कर पीछे कदम खींच लिए। वे हैरान रह गए। कुत्तों के भौंकने के बावजूद गली में कोई हलचल नहीं हुई। कोई घर से बाहर नहीं निकला – 'इस दोज़ख में रहने वाले कहाँ चले गए हैं वजीर साहब?'

वजीर बादशाह का हाथ थाम कर उन्हें भौकते हुए कुत्तों से बचा कर आगे ले आया। इसके बाद उसने गली के एक मकान के दरवाजे के आगे गिरा प्लास्टिक शीट का परदा एक ओर हटा दिया। क्योंकि वे गैबी इन्सान हैं इसलिए किसी ने कुछ न देखा। लेकिन बादशाह सलामत अन्दर कमरे का दृश्य देख कर हैरान रह गए।

दरवाजे के ठीक सामने वाली दीवार के बीचोबीच एक ईंटों का चबूतरा बना है। चबूतरे पर एक पुराना मोमिया बिछा हुआ है। मोमिये पर जादुई आईना जड़ा एक हाथ भर लम्बा बक्सा रखा है। बक्से के पर्देनुमा जादुई आईने पर... जन्नत की हूरों से भी ज्यादा हसीन शोख हसीनाएँ, चार अंगुल चौड़ी अँगिया, जिनसे उनके जोबन ज्वालामुखी की तरह फटे पड़ रहे हैं, और बालिश्त भर चौड़ी चढ्ढी, जिससे उनकी केले के तने सी नंगी जांघें और जांघों के बीच के तिकोन, रेत पर पड़ी मछली की तरह थरथरा रहे हैं, रक्स कर रही हैं।

इनमें से जो सबसे ज्यादा हसीन प्रमुख रक्कासा है, वह नाचते हुए स्टेज पर गड़ा लम्बा मोटा डण्डा अपनी जांघों के बीच पूरी तरह उतार लेने का प्रयास करते हुए बार–बार एक ही लफ्ज़ दोहरा रही है – 'खल्लास... खल्लास... खल्लास... '

इस जादुई आईने के सामने इस घर के सारे सदस्य दम साधे बैठे हुए हैं। कोई किसी से कुछ नहीं बोल रहा। सबके चेहरे
तमतमाए हुए हैं और जिस्म यों लगता है जैसे छूने भर से पिघल कर बह जाएँगे। बादशाह सलामत ये देखकर हैरान रह गए, घर के किसी भी सदस्य के तन पर पूरे कपड़े नहीं हैं और बदन हठरियों जैसे हैं।

बादशाह सलामत काफी देर तक सकते के आलम में रहे। वजीर ने उन्हें झिंझोड़ कर हिलाया। वे कुछ पल तक फटी–फटी आँखों से वजीर की ओर ताकते रहे, फिर हौले से पूछ बैठे – 'ये क्या है?'
'इसे टेलीविज़न कहते हैं हुजूर।'

९ जून २००३

 
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