|  ईमेल सन्देश पढते ही संदीप खुशी से झूम उठा, उसकी इस खुशी के 
						पीछे उसकी चैट मित्र क्रिस्टा का वह सन्देश था जिसमें उसने 
						लिखा था कि वह अगले माह की ३१ तारीख को नयी दिल्ली हवाई 
						अड्डे पर पहुँचेगी। वहाँ से प्रयागराज द्वारा रेलमार्ग से 
						इलाहाबाद आ रही है। संदीप ने सामने लगे कैलेन्डर की ओर जब 
						नजरें घुमायीं तो उसे अहसास हुआ कि तीन दिन बाद ही क्रिस्टा 
						आ रही है। 1
 पेशे से शिक्षक क्रिस्टा आस्ट्रिया के वियना शहर की रहने 
						वाली है। संदीप से उसकी मुलाकात चैट पर आज से करीब एक साल 
						पहले हुयी थी। रुचियों में समानता के कारण उनके दोस्ताना 
						सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती गयी। संदीप से पहली ही मुलाकात 
						में क्रिस्टा ने सत्यसाईं बाबा के बारे में पूछा था।
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 उसकी इस उत्कंठा के पीछे उसका मित्र पियरे था जो भारत में 
						सत्य साईं बाबा के किसी आश्रम मे रह रहा था। किसी वजह से 
						क्रिस्टा से उसका संपर्क टूट गया था। संदीप ने कोशिश की तो 
						उसका पता चल गया। मित्र के बारे में अधिक बातें कभी नहीं 
						हुयीं। क्रिस्टा एशियाई संस्कृति में शोध कर रही थी। 
						हिन्दी की जानकारी रखती थी और अपने ज्ञान को व्यावहारिक रूप 
						देने के लिये संदीप से नियमित संपर्क बनाए रखती थी।
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 इस सबके कारण क्रिस्टा के मन में भारत भ्रमण की उत्कंठा तो 
						थी ही, संदीप का आग्रहपूर्ण निमंत्रण पाकर वह उत्कंठा 
						वास्तविकता का रूप लेने जा रही थी।
 
					क्रिस्टा के आने की सूचना से संदीप काफी उत्तेजित था रात 
						भर ठीक से सो भी नहीं सका। हल्की सी पलक झपकती तो वह सपनों 
						की दुनिया में खो जाता। सुदूर बसे एक ऐसे अनजान मित्र से 
						प्रत्यक्ष मुलाकात होने जा रही थी जिससे केवल वैचारिक रूप 
						से जुड़ाव था।
 ट्रेन के आने से पहले ही वह स्टेशन पहुँच गया। हाथ में 
						कम्प्यूटर से प्रिन्ट किया हुआ क्रिस्टा का फोटोग्राफ 
						था। धीरे धीरे ट्रेन का इन्जन मदमस्त हाथी की तरह 
						प्लेटफार्म के अन्दर आ खड़ा हुआ। ट्रेन के रुकते ही संदीप 
						की उत्सुक आँखे बेसब्री से हर उतरने वाले को पारखी 
						निगाहों से देख रही थीं, तभी उसकी निगाह कुलियों से घिरी 
						हुयी एक विदेशी महिला पर पड़ी। संदीप ने जल्दी से हाथ में 
						पकड़ी हुयी फोटो को देखा और विश्वास एवं संकोच के साथ आगे 
						बढ़ा। क्रिस्टा की आँखें भी उसे ही खोज रही थीं। संदीप को 
						देखते ही वह भी उसे पहचान गयी। ठीक सामने पहुँचकर हाथ मे 
						पकड़ा हुआ फूलों का गुलदस्ता उसकी ओर बढ़ाते हुए संदीप ने 
					कहा, "‘क्रिस्टा भारत में तुम्हारा हार्दिक स्वागत है।"
 
 क्रिस्टा ने मुस्करा कर हाय सैन्डी कहते हुए उसका हाथ 
						अपने हाथों में ले लिया। दोनो की आँखो में प्रत्यक्ष मिलने 
						की खुशी का सागर लहरा रहा था।
 
 स्टेशन से बाहर आते ही क्रिस्टा ने कहा "सैन्डी मुझे किसी 
						अच्छे होटल में छोड़ दो।"
 
 यह सुनते ही संदीप ने तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 
						कहा, "क्रिस्टा हम अपने अतिथि के साथ औपचारिक संबन्धो पर 
						विश्वास नहीं करते, फिर तो तुम मेरी मित्र हो मेरा पूरा 
						परिवार तुम्हारे आतिथ्य के लिये लालायित है।"
 क्रिस्टा केवल "ओ के सैन्डी" ही कह सकी।
 "भाभी! क्रिस्टा", कहते हुए संदीप ने परिचय कराया।
 
 भाभी ने प्यार से क्रिस्टा को गले से लगा लिया, बच्चे भी 
						इस नवांगुत विदेशी महिला को बड़ी कौतुक भरी निगाहों से देखते 
						हुए कुछ कहने को बेताब थे। क्रिस्टा नन्हें बच्चों की 
						अध्यापिका थी। बच्चों के साथ घुलना मिलना उसे खूब आता था। 
						एक नन्हें से ‘हैलो’ से उसने शुरुआत की और बच्चे संकोच छोड़ 
						उसके पास आ गए। क्रिस्टा का मन भी भाभी और बच्चों के 
						आत्मीयता पूर्ण व्यवहार से द्रवित हो गया। घंटा भर होते न 
						होते इस अनजान दुनिया के बच्चे उसके जन्म जन्मांतर के दोस्त 
						हो चुके थे। ऐसा अपनापन उसने कभी शिद्दत से नहीं पाया था। 
						शिक्षिका होने को कारण उसकी उत्सुक निगाहें हर बात का 
						बारीकी से निरीक्षण कर रही थीं। भाषा और संस्कृति का 
						आदान–प्रदान उच्च स्तर पर जारी था कि तभी भाभी की आवाज ने 
						उन्हें चौंका दिया।
 
 "संदीप क्रिस्टा को लेकर खाने की मेज पर पहुँचो।" गर्म 
						खाने का लाजवाब स्वाद और भाभी की मनुहार के साथ परोसा 
					गया 
						खाना— सब कुछ क्रिस्टा के लिये नया और रोमांचक था। खाने के 
						बाद इलाहाबाद के नगर दर्शन का कार्यक्रम था।
 
 संदीप और क्रिस्टा घूमने के लिये चल पड़े। आनन्द भवन की एक 
						एक चीज से परिचित कराते हुए संदीप पर क्रिस्टा ने कटाक्ष 
						किया, "सैन्डी, तुम्हारे अन्दर एक कुशल गाइड छिपा हुआ है।" 
						सुनकर संदीप मुस्कुरा भर दिया।
 
 शहर के विभिन्न हिस्सों में घूमते हुए वे देर रात घर 
						पहुँचे। भाभी बेसब्री से उन लोगो का इन्तजार कर रही थी। 
						आते ही फटाफटा गर्म गर्म गोभी के पराठे परोस दिये। खाने के 
						बाद बड़ी देर तक भाभी क्रिस्टा से बात करती रही। संदीप भी 
						बीच बीच में अपनी जिज्ञासा शान्त करता रहा। भाभी ने जब 
						उसके परिवार के विषय में पूछा तो क्रिस्टा थोड़ी देर के 
						लिये सोंच की मुद्रा मे चली गयी लेकिन तुरन्त अपने को 
						सामान्य करती हुयी बोली,
 "भाभी, जब मै १० साल की थी, मेरे माता पिता में सम्बन्ध 
						विच्छेद हो गया था। मैं माँ के साथ रहकर पढ़ाई करती रही 
						लेकिन जल्दी ही मेरी किस्मत में अनाथ होना था। माँ काम से 
						लौटते समय सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त हो गयी और मै अनाथ हो 
						गयी। ऐसे मे मेरी नानी ने मुझे सहारा दिया। माँ की मौत के 
						मुआवजे से मिली रकम से उन्होने मेरी परवरिश में कोई कमी 
					नहीं आने दी। नानी के न रहने पर मै बिल्कुल अकेली हो गयी। 
						उस समय मेरी उम्र १७ की रही होगी। मैं पढ़ाई के साथ खाली 
						समय मे काम करती जिससे अपना और अपनी पढ़ाई का खर्च निकल आता 
						था। समय के उतार चढ़ाव से गुजरती मेरी जिन्दगी मे अनेको ऐसे 
						क्षण आए जहाँ मेरी आत्मा में ग्लानि और क्षोभ का 
						प्रदुर्भाव रहा। धीरे धीरे मेरा मानसिक झुकाव आध्यात्मिक 
						क्षेत्र की ओर उन्मुख हुआ। मेरी सोच का दायरा इसी के इर्द 
						गिर्द घूमने लगा। इस मानसिक द्वन्द्व से उबारने में मेरे 
						बचपन के एक मित्र ने सहायता की जो भारत में सत्य साईं के 
						आश्रम रहकर आध्यात्मिक साधना में संलिप्त है। उसके 
						सान्निध्य से ही मेरे अन्दर सुप्त पड़ी चेतना जागृत हुयी। 
						रही सही कसर सैन्डी के सम्पर्क में आने से पूरी हो गयी। 
						साथ ही मैंने भारतीय साहित्य का सहारा लिया, जिसने मेरे 
						अन्दर एक नयी उर्जा भरने का काम किया। इसी द्वन्द्व ने मेरे 
						अन्दर भारत के प्रति झुकाव व लगाव पैदा कर दिया। भारत की 
						आध्यात्मिक उर्जा की हल्की सी किरण को आत्मसात करने को 
						मेरी अदम्य लालसा ही मुझे बाँधे हुए यहाँ तक खींच लायी 
						है।"
 
 भाभी आँखो के भीगे कोरो को साड़ी के पल्लू से पोंछती हुयी 
						बोली," संदीप क्रिस्टा थकी हुयी है, इसे सोने दो।"
 
 दूसरे दिन भोर में ही संदीप क्रिस्टा से बोला,"जल्दी से 
						तैयार हो लो! आज हम लोग गंगा यमुना के संगम पर चलेगें।"
 सरस्वती घाट से नाव पर बैठकर संगम की ओर जाते समय रास्ते 
						भर संदीप गाइड का काम करता रहा। अकबर का किला और उसके 
						अन्दर अक्षयवट की बात करते हुए उनकी नाव आगे बढती रही। 
						क्रिस्टा संदीप के लाए लावे को मुठ्ठी मुठ्ठी भर जैसे ही 
						नदी में फेंकती वैसे ही सैकडो पक्षियो का झुंड टूट पड़ता। 
						यह खेल भी संदीप का सिखाया हुआ था। उस विलक्षण दृश्य को 
						देख देख कर क्रिस्टा का मन खुशी से बेहाल हो रहा था। दोनो 
						नदियों के मिलन स्थल पर पहुँचते ही स्नान करते स्त्री 
						पुरुष और जल क्रीड़ा में मस्त बच्चो के झुंड को देख कर 
					क्रिस्टा प्रफुल्लित होकर नाव में खड़े होते समय पैरो का 
					सन्तुलन बिगड़ने से गहरे जल में गिर पड़ी। बचाओ बचाओ की चीख से 
					सारा वातावरण गूँज उठा। संदीप ने जल पुलिस की सहायता से उसे 
					बाहर निकाल कर नाव पर लिटा दिया। ठंड से कंपकंपाती बेसुध 
					क्रिस्टा काफी घबरा गयी। क्रिस्टा तैराकी जानती थी किन्तु गर्म 
					भारी कपडों और दलदली मिट्टी के कारण अपना सन्तुलन नहीं बना पायी 
					थी। संदीप घबराहट से इधर उधर ताक रहा था तभी साथ की नाव से एक 
					महिला अपने सूखे कपड़े ले आयी और क्रिस्टा को कपड़े बदलने में मदद की। अपरिचितों 
					द्वारा अपनत्व भरा व्यवहार बार बार क्रिस्टा के जेहन में वेध 
					रहा था।
 
 "सैन्डी वापस चलो!" क्रिस्टा के यह कहते ही संदीप ने नाव 
						वापस मुड़वा दी।
 क्रिस्टा सिर दर्द और ठंडक से सुस्त हो गयी थी। घर पहुँचते 
					ही उसको भाभी के हवाले कर संदीप डाक्टर को लेने चला गया उतनी 
					ही देर में भाभी के गर्म काढ़े ने क्रिस्टा के अन्दर 
						ताज़गी भर दी। वह नयी दवाइयाँ लेने में हिचकिचा रही थी। 
						अपने साथ कुछ दवाएँ लाई थी। पर काढ़े से उसे काफी राहत 
						महसूस होने लगी। उस दिन पूरा घर विदेशी मेहमान की 
						तीमारदारी मे लगा रहा।
 
 अगला दिन छुट्टी का था। संदीप सो रहा था, बच्चे भी स्कूल 
					बन्द होने के कारण अभी नहीं उठे थे लेकिन क्रिस्टा की नींद टूट 
					चुकी थी। वह उठकर घर के बाहर बालकनी मे चहल कदमी करने लगी। 
					भाभी तब तक उठ चुकी थीं। क्रिस्टा को चहलकदमी करते 
						देखा तो वहीं आ गयीं और चाय का प्याला पकड़ाते हुए 
						कहा,"क्रिस्टा तैयार हो लो! मन्दिर चलते हैं।"
 
 क्रिस्टा बिना ना नुकुर किये जल्दी से तैयार होने चल दी। 
						आज उसने भाभी का सूट पहन रखा था, गले में दुपट्टा डाल भाभी 
						के साथ मन्दिर की सीढियाँ चढ रही थी। पूजा के बाद क्रिस्टा 
						बोली," भाभी यहाँ के शान्त वातावरण में हम थोड़ी देर बैठना 
						चाहते है।"
 
 भाभी ने कहा," हाँ, जरूर!" और वे सब मंदिर के एक कोने में 
						संगमरमर के फर्श पर बैठ गए। क्रिस्टा बिल्कुल शान्तचित्त 
						काफी देर तक आँखे बन्द किये हुए बैठी रही। इसके बाद वे 
						लोग घर लौटे और नाश्ता करने के बाद गंगा की रेत पर आबाद 
						कुंभ की धार्मिक नगरी के लिये निकल पड़े। गाड़ी की पार्किग 
						बहुत दूर थी और वहाँ से कुंभ नगर के लिये पैदल सफर करना 
						था।
 
 शंकर विमान मण्डपम की ओर इशारा करते हुए क्रिस्टा बोली," 
						सैण्डी, पहले यहाँ हो लिया जाय।" किन्तु संदीप ने बताया," 
						इस समय मन्दिर बन्द होता है, लौटते समय देखेंगे।"
 
 मेले के अन्दर सन्तों के पण्डालों के बारे में, कल्पवासियों 
						के बारे में संदीप काफी विस्तार से बताता जा रहा था। 
						क्रिस्टा सन्तों के पण्डाल में जाकर वार्तालाप करके अपनी 
						जिज्ञासा शान्त करती रही। प्रवचन मे रत सन्तों की वाणी के 
						शब्द “अन्य देशों की संस्कृतियों का जन्म सनातन धर्म से 
						हुआ है। भारतीय संस्कृति सभी संस्कृतियों के लिये प्राण 
						स्वरूप है। हमारी संस्कृति मानव के भौतिक जीवन को संतुलित, 
						नैतिक जीवन को विकसित करती है जिससे आगे चल कर आध्यात्मिक 
						जीवन सफल होता है।” उसके मस्तिष्क में गहरे पैठ गए थे 
						जैसे इस अदभुत नगरी के आकर्षण ने उसे अपने अंक मे बाँध 
						लिया हो।
 
 "सैन्डी भूख लग रही है।" सुनते ही संदीप के कदम पास के एक 
						रेस्ट्रां की ओर मुड़ गए। वहाँ दोनो ने देशी घी की पूडियाँ 
						खायीं। अब तक वह भारतीय खाने की अभ्यस्त हो गयी थी।
 
 चाय पीते हुए क्रिस्टा बोली," इस कड़ाके की ठंड में भी 
						लोगो का एक मास यहाँ रुककर रहना और धार्मिक कृत्यों मे 
						लिप्त होना सचमुच आश्चर्य ही लगता है। अगला पंडाल इस्कान 
						का था। वहाँ प्रवेश करते ही “हरे रामा हरे कृष्णा" की 
						प्रतिध्वनित तरंगो ने क्रिस्टा पर जादू कर दिया। वह उन्हीं 
						के सुर में सुर मिलाने लगी। घंटो वे लोग शान्त चित्त बैठे 
						रहे। शाम का सुरमई अन्धेरा, अप्राकृतिक प्रकाश की ज्योति 
						से नहायी कुंभ नगरी और दूर दूर तक बिखरा आध्यात्मिक 
						वातावरण — शाम की अनुपम छटा लुभावनी हो गयी थी। क्रिस्टा 
						काफी थकी होने के बावजूद अभी वापस नहीं जाना चाह रही थी। 
						किन्तु संदीप के अनुनय पर न चाहते हुए भी चल दी। आज के इन 
						अविस्मरणीय दृश्यों की झाँकी उसकी आँखो के साथ–साथ वीडियो 
						कैमरे में भी कैद थी।
 क्रिस्टा के चेहरे को गौर से देखते हुए भाभी कहने लगी,
 "क्रिस्टा, आज तुम्हारे चेहरे पर थकावट के बावजूद शान्ति 
						की आभा साफ झलक रही है।"
 "हाँ भाभी! सचमुच आज मैं अपने अन्दर कुछ ऐसा ही महसूस कर 
						रही हूँ।"
 
 दिन भर की आपाधापी में शान्ति और विश्वास तलाश करती 
						क्रिस्टा जल्दी ही नींद के आगोश में जा छिपी। संदीप की 
						आँखो से नींद कोसों दूर थी लेकिन कम्प्यूटर पर जाने का मन 
						नहीं हुआ। सोफे पर अधलेटे संदीप की पलकों के सामने अतीत के 
						चित्र उभरने लगे।
 
 गाँव की मिट्टी में पला बसा संदीप अपनी माँ के साथ गाँव मे 
						रहकर ही प्रारम्भिक शिक्षा ले रहा था। उसके बड़े भाई 
						प्रदीप एक प्रायवेट कम्पनी में नौकरी करते हुए पत्नी तथा 
						दो बच्चों के साथ शहर में रह रहे थे। महीने में एकाध बार 
					माँ से मिलने गाँव जरूर आ जाते।
						जब भी माँ को आर्थिक सहयोग देना चाहते तो माँ का एक ही 
						जवाब हर बार होता, "बेटा शहर में तुम्हारा खर्चा ज्यादा 
						है। फिर यहाँ खेती बाड़ी से काम चल ही रहा है। तुम व्यर्थ 
						की चिन्ता मत करो।" सुनते ही भैया निरुत्तर हो जाते।
 
 गाँव की खेती और कलमी आम के बाग से इतनी आय अवश्य हो जाती 
						कि घर का खर्च सुचारू रूप से चल जाता था।
 इन्टर पास करते ही माँ कहने लगी, "संदीप अब तुमको 
						ग्रेजुएशन के लिये शहर जाना होगा, वही प्रदीप के साथ रहकर 
						पढ़ाई पूरी करो।" माँ ने साथ ले जाने के लिये शहर से प्रदीप 
						भैया को बुलवा लिया था।
 लेकिन "माँ तुम यहाँ अकेले!"
 माँ प्यार से समझाते हुए बोली," बेटा मैं अकेली कहाँ? 
						यहाँ तुम्हारे बाबूजी की यादे और पुरखों की निशानी जो है।"
 
 दोनो भाइयों के जिद्द करने पर माँ का वही टका सा जवाब," इसी 
					ड्योढी पर मेरी डोली आयी, यही से अर्थी भी उठेगी।"
 बहुतेरे मनुहार के बाद भी माँ टस से मस न हुयी।
 ग्रेजुएशन करने के बाद ही संदीप बैंक के प्रोबेशनरी 
						अधिकारी के लिये चुन लिया गया और उसकी नियुक्ति भी उसी शहर 
						मे हो गयी। लेकिन माँ फिर भी न आयी। आयी भी तो आँसुओं के 
						सैलाब में डूबी भैया की मौत की सूचना पर। छोरे की चिन्ता 
						और विषाद की परछाई ने माँ को बहुत जर्जर बना दिया था।
 सफेद साड़ी मे लिपटी भाभी की सूनी आँखो में झाँकते हुए माँ 
						ने तब दोनो बच्चो का हवाला देते हुए कहा था," बहू ये मासूम 
						बच्चे प्रदीप की अमानत है, धैर्य और साहस से काम लेना।"
 सुनते ही भाभी की सूनी आखों से जल का स्रोत फूट पड़ा था। 
						संदीप भी अपने को रोक न सका था। माँ के कन्धों पर सिर रखकर 
						सुबक पड़ा था। गाँव वापस लौटते हुऐ माँ के शब्द संदीप के 
						कानों में आज भी गूँज रहे हैं।
 "संदीप इस कुल के तुम्ही चिराग हो! तुम्हारे कन्धों पर अब 
						इन मासूमों की जिम्मेदारी है। इन्हे कभी यह न अहसास होने 
						देना कि इनके सिर से बाप का साया उठा गया है।"
 माँ चली गयी। संदीप ने आज तक अपने इस दायित्व के निर्वाह 
						में कभी कोई कमी नहीं आने दी। माँ काफी बूढ़ी हो गयी है। जब 
						भी संदीप शहर आने को कहता है तो माँ का वही जवाब पाता है 
						जो वर्षों से सुनता आ रहा है।
 
 "संदीप, अभी तक तुम यहीं बैठे हो?" भाभी की आवाज ने संदीप 
						को अतीत से निकाल कर वर्तमान के धरातल पर ला दिया।
 "बस जा रहा हूँ!" कहता हुआ संदीप अपने कमरे में चला गया। न 
						जाने यह कुंभ नगरी के शांत वातावरण का असर था या दिन भर की 
						थकान का या बहुत दिनों बाद घर में आयी क्रिस्टा की रौनक का 
						कि उसे नींद बड़ी देर से आई।
 "सैन्डी! उठो!" कहती हुयी क्रिस्टा ने बजते हुए मोबाइल को 
						उसके कानो में लगा दिया। संदीप हड़बड़ाहट के साथ उठ बैठा और 
						सामने खड़ी क्रिस्टा की मुस्कान से झेंप गया। रिसीवर आन 
						करते ही पता चला। दूसरी ओर माँ थी। संदीप चिहुँकते हुए 
						बोला, ‘माँ तुम?’
 "हाँ संदीप, तुम काफी दिन से आए नहीं! मन नहीं माना इसलिये 
						आज पडोस के लड़के के साथ पीसीओ चली आयी।"
 "माँ, मेरी एक मित्र हज़ारो मील दूर से भारत भ्रमण के 
					लिये आयी हुयी है। वह हम लोगो के साथ ही है ...पिछले कुछ दिनों 
					से उसको शहर घुमाने में व्यस्त था। थोड़ी और बात करने के बाद 
					"अच्छा माँ!" कहते हुए संदीप ने रिसीवर रख दिया।
 "संदीप, क्या तुम्हारी माँ का फोन था?"
 "हाँ क्रिस्टा, माँ तुमसे मिलना चाहती हैं, गाँव बुलाया 
						है। क्या तुम चलना चाहोगी?"
 
 संदीप के पूंछते ही 
					क्रिस्टा तपाक से बोली, "हाँ! सैन्डी 
						मै जरूर मिलना चाहूँगी। भारत के ग्राम्य जीवन को पास से 
						देखने और समझने का यह अच्छा अवसर होगा, फिर माँ से भी मिल 
						लूँगी।"
 
 सड़क के दोनो ओर हरे भरे खेतों के बीच से गुजरती हुयी कार 
						गाँव की ओर जा रही थी। कुछ पक्के और ज्यादातर कच्चे मिट्टी 
						के बने हुए घरों के बाहर खेलते बच्चे बड़े. कौतुहल से उनको 
					देख रहे थे। गाँव के वातावरण में क्रिस्टा को एक आश्चर्य 
					मिश्रित अनोखी शांति का एहसास हो रहा था। संदीप ने झुकते हुए 
					माँ के पैरों को छू लिया। उसका अनुसरण करती हुयी 
						क्रिस्टा जैसे ही झुकी, माँ ने उसे अपने गले से लिपटा 
						लिया। माँ के कन्धों पर सिर रखे हुए क्रिस्टा और उसकी पीठ 
						पर हाथ फेरती माँ की हथेलियों से क्रिस्टा को ऐसा लगा मानो 
						उसका अस्तित्व ममता की छाँव तले ठहर गया हो। मुहल्ले की 
						औरतें और बच्चे इकठ्ठे होकर क्रिस्टा के गिर्द खड़े हो गए।
 आस पास खड़े लोगो को सम्बोधित करती हुयी माँ बोली, "यह 
						विदेशी मेहमान घूमने के लिये हमारे देश आयी है। हमारी बेटी 
						की तरह है।"
 क्रिस्टा की बाँह पकड़ कर माँ ने कहा, "आओ बेटी अन्दर चलो।"
 "माँ, हम लोग जल्दी ही यहाँ से शहर वापस जाएँगे। आज रात की 
						ट्रेन से क्रिस्टा का रिजर्वेशन है। वह अपने मित्र से 
						मिलने साईंबाबा के आश्रम जा रही है।" दूध का गिलास हाथ में 
						पकड़ते हुए संदीप बोला।
 माँ की मनोदशा भाँपते हुए क्रिस्टा जल्दी से बोली, "माँ 
						हम तो बस आप के दर्शन के लिये आए थे। आप से मिलकर मुझे 
						बहुत अच्छा लगा।"
 "ठीक है बेटी!" कहती हुयी 
					माँ चारपाई पर बैठ गयी।
 
 वापस लौटते ट्रैफिक के चलते घर पहुँचने में देर हो गयी 
						थी। जल्दी जल्दी क्रिस्टा अपना सामान पैक करती हुयी बोली, 
						"भाभी! आप सब लोग वियना जरूर आएँ! मुझे इन्तजार रहेगा।"
 "प्रभु की मर्जी!" कह कर भाभी क्रिस्टा के गले में मोतियों 
						की माला पहनाते हुए बोलीं, "हमारी ओर से यह भेंट स्वीकार 
						करो।" विदाई का क्षण आ गया था। भाभी की अश्रुपूरित आँखो 
						में अपने किसी प्रियजन से बिछुड़ने का गम झलक रहा था। 
						क्रिस्टा ने भी भावुक हो भाभी के गले लग कर विदा ली।
 "सैन्डी तुम्हारे साथ बीते एक एक पल मेरी ज़िन्दगी के खुश 
						नसीब लम्हों के रूप मे हमेशा दिलो–दिमाग पर छाए रहेगे।" 
						क्रिस्टा सामने की बर्थ पर बैठे हुए संदीप के हाथ को अपने 
						हाथ में लेते हुए बोली।
 संदीप कुछ कह न सका उस ने कोट की जेब से निकाल कर सुर्ख 
						गुलाब क्रिस्टा के हाथों में थमा दिया।
 
 ट्रेन का सिग्नल हरा हो गया। सन्दीप प्लेटफार्म पर उतरकर 
						खिड़की के करीब खड़ा हो गया। "सैन्डी मुझे तुम्हारे पैरों की 
						छाप आस्ट्रिया की धरती पर पड़ने का बेसब्री से इन्तजार 
						रहेगा।" कहती हुयी क्रिस्टा ने विदाई के अन्तिम विदा ली।
 
 संदीप के होठों से फूटते शुभयात्रा के शब्द इन्जन के शोर 
						में विलीन हो गए। जब तक ट्रेन की अन्तिम बोगी नजरों से ओझल 
						न हो गयी संदीप की निगाहें उसका पीछा करती रही।
 
 करीब एक माह बाद क्रिस्टा को वापस पहुँचना था, लेकिन उसका 
						पत्र आया कि वह आश्रम में तीन महीने रुक कर ही वापस जाएगी। 
						क्रिस्टा का मन आश्रम में लग गया था। इस बीच कंप्यूटर पर 
						उनकी मुलाकात नहीं हुयी। दरअसल इन दिनों संदीप ही कंप्यूटर 
						पर काफी कम समय व्यतीत कर रहा था।
 
 एक दिन अचानक चैट पर उसको देख कर संदीप ने संदेश भेजा, 
						"हलो क्रिस्टा, कहाँ हो तुम?"
 "हाई, जवाब आया, "तुम्हें ही ढूँढ रही थी मैं। मैं और मेरा 
						मित्र पियरे शादी कर रहे हैं यहाँ आश्रम में। शायद भविष्य 
						में हम यहीं रह जाएँ या वियना में एक नया आश्रम बनाएँ। अभी 
						ठीक से कुछ नहीं सोचा है। शादी में नहीं आओगे? तुम सबके 
						बिना शादी कैसे होगी मेरी?"
 
  साइबर की दुनिया में की बोर्ड. पर नाचती हुयी उँगलियों, 
						लिपिबद्ध होते भावो और अनुभवों के बीच संदीप की आँखें 
						छलछला उठीं। "जरूर क्रिस्टा, हम जरूर आएँगे।" संदीप ने टंकित किया।
 "शायद अब मुझे इस साइबर कैफे आने का अवसर जल्दी से नहीं 
						मिलेगा। इसे ही मेरा निमंत्रण समझना। मिलते हैं फिर ...अल्विदा संदीप।" क्रिस्टा का संदेश था।
 "ठीक है, अल्विदा क्रिस्टा!" संदीप ने संदेश भेजा।
 वे दोस्ती में एक नया रंग भर रहे थे।
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