मुंशी निरंजन
लाल शान्त प्रकृति के व्यक्ति थे। दुनिया की रफ्तार के साथ
उनका कोई तादात्म्य नहीं था। उनकी तो बस अपनी ही रफ्तार थी।
यद्यपि बाबू किशन लाल की मृत्यु के बाद से घर की सारी
जिम्मेदारी उनके ऊपर ही आ पड़ी थीं, किन्तु उनका जीवन जीने का
अपना तरीका था। बाबू किशन लाल पटवारी के रूप में ख्याति के साथ
ही लक्ष्मी के भी काफी निकट थे किन्तु मुंशी निरंजन लाल
स्थितप्रज्ञ थे।
मुंशी निरंजन लाल की शिक्षा विभाग में प्रथम तैनाती डिप्टी
साहब के रूप में हुई। घर वालों की बाँछे खिल गयी थीं। सभी ने
सोचा था कि परिवार के मुखिया बाबू किशन लाल का जमाना इस परिवार
में पुनः लौट आयेगा, पर ऐसा नहीं हो सका। कुछ सालों तक तो यह
पता ही नहीं चला कि लक्ष्मी जी इस परिवार से रूष्ट हो गयी है।
किन्तु डिप्टी साहब की बाइस सालों की सेवा में पूरे परिवार का
उत्साह आखिरकार ठण्डा पड़ ही गया था।
डिप्टी साहब निर्विकार
भाव से नौकरी करते। समय–समय पर विभाग की कम–अधिक रफ्तार का
उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। नौकरी के शुरूआती दिनों में ही
उन्हें यह विभाग जम गया था। उनके साथ के कई डिप्टी साहब अफसर
बन कर आ गये थे, किन्तु इससे भी उन्हीं के भाव को स्थायित्व
मिला था। किसी में इनकी रफ्तार बढ़ाने की हिम्मत ही नहीं थीं।
डिप्टी साहब का पद उन्हें ईश्वर प्रदत्त लगता, फिर दूसरे पद की
चाह मन में आना उनके लिए पाप के सदृश्य था। बसन्त
अपनी जवानी पर था, कटहल के फूल एवं अमराई के बौर से पूरा
वातावरण स्निग्ध और सुगन्धित हो उठा था। गोधूलि की बेला में भी
कोयल चुप नहीं थीं। जिससे बागीचे में स्थित पूरा कुर्थी गाँव
का स्कूल सुरम्य हो गया था। डिप्टी साहब का इसी स्कूल में पहला
मुआयना लगा था।
स्कूल के प्रधानाचार्य जी ने स्कूली बच्चों की सहायता से खूब
साफ सफाई करायी थी। स्कूल के मैदान में एक भी घास दिखायी नहीं
दे रही थीं। सेवा सुश्रुषा में सदैव तत्पर रहने वाले बच्चों को
स्कूल मे ही रोक लिया गया था। बच्चों से चन्दा लेने के साथ ही
डिप्टी साहब की खातिरदारी के लिए किसी भी बात की कोई चूक नहीं
छोड़ी गयीं थीं।
डिप्टी साहब अपनी शादी के अवसर पर बने सूट में खूब फब रहे थे।
शादी के समय बाटा कम्पनी का जूता उन्होंने पहली बार पहना था।
चलते समय उनकी निगाहों में निरीक्षण के भाव के साथ ही साथ इस
बात की भी सजगता थी कि जूते अधिक गन्दे न होने पाये।
स्कूल के प्रधानाचार्य बाबू नारायण सिंह का पूरे क्षेत्र में
दबदबा था। ये स्कूल में जिधर निगाह उठाकर देखते उधर अपने आप
अनुशासन कायम हो जाता था। हो भी क्यों नहीं? बाबू नारायण सिंह
स्वयं में एक अनुशासित व्यक्ति थे। चाहे गर्मी हो या घोर
सर्दी, वे समय से स्कूल पहुँच जाते। अत्यधिक बीमार न पड़े तो
बिना स्कूल आये उन्हें चैन ही नहीं था। कर्तव्य निष्ठा के साथ
अपने दायित्वों का निर्वहन करना उन्हें देश सेवा से कम नहीं
लगता। स्कूल के अन्य अध्यापकों की कोई मनौती भी बाबू नारायण
सिंह को स्कूल आने से नहीं रोक पाती। व्यक्ति में अनुशासन,
कर्तव्य निष्ठा एवं दायित्व निर्वहन का भाव स्पष्ट रूप से उसके
चेहरे पर परिलक्षित होता है। बाबू नारायण सिंह इससे अछूते नहीं
थे।
प्रधानाचार्य जी ने डिप्टी साहब की आगवानी में दोनों हाथ जोड़
दिये। उनके पीछे सावधान की मुद्रा में सभी अध्यापक कतारबद्ध
थे। डिप्टी साहब ने मुस्कराकर सभी का अभिवादन स्वीकार किया
किन्तु उनके संकोची स्वभाव को कोई ताड़ न सका।
स्कूल में डिप्टी साहब का खूब सेवा सत्कार हुआ। पढ़ने में कमज़ोर
किन्तु शरीर से बलिष्ठ कुछ छात्रों ने उनके पैर भी दबाये।
चाँदनी रात की सुरम्य बेला में प्रकृति की निकटता डिप्टी साहब
को भा गयी। उन्होंने सोचा भला इससे अच्छी नौकरी क्या हो सकती
है? घरवाले मुझे निठल्ला समझते है तो समझा करें। मैं जब स्वयं
संतुष्ट हूँ तो भला मेरी जिन्दगी में खलल पैदा करने का किसे
अधिकार है? उनके मन में ढ़ेर सारे विचार एक के बाद एक आते गये
फिर उन्हें कब नींद आ गई, वे न जान सके।
दूसरे दिन स्कूल का पूरा वातावरण बदला हुआ था। बच्चे नये–नये
परिधानों में खिल रहे थे, किन्तु उनके चेहरे पर भय का भाव पढ़ा
जा सकता था। पूरा कुर्थी गाँव के ग्रामवासी आज पहली बार स्कूल
के सभी अध्यापकों को एक साथ उपस्थित देख कर स्तब्ध थे। उन्हें
इस बात का अहसास हुआ कि इन गुरूजनों के ऊपर भी कोई सत्ता होती
है, जिससे ये डरते हैं।
डिप्टी साहब ने सभी कक्षाओं में जाकर मुआयना किया। उन्हें
बच्चों के बैठने की व्यवस्था, साफ–सफाई तथा स्कूल का शैक्षिक
वातावरण अच्छा लगा। उनकी निगाह पाँचवीं कक्षा के एक छात्र पर
जाकर टिक गई। उन्हें लगा कि इस बालक में कुछ उत्सुकता के भाव
हैं। उन्होंने उसे इंगित करते हुए पूछा – तुम्हारा नाम क्या
है?
महोदय, मेरा नाम रोशन लाल है। बालक ने बेहिचक कहा।
तुम्हारे पिताजी का क्या नाम है?
महोदय श्री मुसद्दीलाल . . .।
मुसद्दीलाल के उच्चारण से कुछ बच्चे अपनी हँसी नहीं रोक पाये।
प्रधानाचार्य बाबू नारायण सिंह ने घूरा। पूरी कक्षा में
स्तब्धता आ गई।
मुँशी निरंजन लाल आगे कोई प्रश्न पूछे बिना ही बच्चों की ओर
मुखातिब होते हुए बोले – इसमें हंसने की कौन सी बात है। किसी
व्यक्ति का नाम चाहे कुछ भी क्यों न हो, वह उसके व्यक्तित्व की
महिमा को कम नहीं कर सकता। इंसानियत और नेकनीयत के गुण व्यक्ति
को महान बना देते हैं। सभी बच्चें गुणों की खान हैं। कोई एक
क्षेत्र में आगे हो सकता है, तो कोई दूसरे क्षेत्र में। इसमें
उसका नामकरण कहीं भी आड़े नहीं आयेगा।
बाबू नारायण सिंह डिप्टी साहब के मनोभाव को समझते हुए बीच में
ही बोल पड़े – महोदय बच्चे हैं कभी–कभी नादानी कर ही जाते हैं।
मुसद्दीलाल इन बच्चों के प्रिय पात्र है। रोज अपनी ठेलियाँ
स्कूल के बाहर लगाते हैं। अगर वे रोशन लाल को कुछ खाने के लिये
देते हैं तो उसके अन्य साथियों को भी बिना पैसे लिये खिलाते
रहते हैं। ये बच्चे इतने घुल–मिल गये हैं कि कभी–कभी उनकी टोपी
कहीं छिपा देते हैं फिर भी मुसद्दीलाल गुस्साते तक नहीं। मैंने
एक बार उससे पूछा भी था कि इस तरह तो तुम्हारी गरीबी बढ़ती ही
जायेगी? किन्तु उन्होंने चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा
कि इन बच्चों को खिलाकर जो सुख मुझे मिलता है वह क्या इन
बच्चों की पैसों की बदौलत धनी होकर मैं कभी पा सकता हूँ? मैं
ही निरूत्तर हो गया था।
डिप्टी साहब कक्षा से बाहर आ गये। प्रधानाचार्य कक्ष में उनके
लिए विश्राम करने की व्यवस्था की गई थी। वे बाबू नारायण सिंह
के साथ प्रधानाचार्य कक्ष में आकर रजिस्टरों का निरीक्षण करने
लगे।
सायं काल सभी कक्षा के बच्चों की सभा आयोजित की गई। सांस्कृतिक
कार्यक्रमों के माध्यम से डिप्टी साहब के प्रति स्वागत एवं
विदाई दोनों ही भाव प्रदर्शित कर दिये गये। स्कूल के सुरम्य
वातावरण में बच्चों की कुहुक व ढोलक की पिहकन ने बच्चों की
प्रतिभा का पूरा बयान कर दिया। अभावों की तमाम बेचारगी इन
बच्चों की प्रतिभा के समक्ष प्रकट होने का साहस न कर सकी।
डिप्टी साहब ने अपनी निरीक्षण टिप्पणी में विद्यालय के विभिन्न
निरीक्षण मानकों के अनुरूप कार्यवाही करते हुए इस बात का भी
उल्लेख किया कि प्रतिभा गाँव में भी विद्यमान है। यद्यपि नगरीय
चकाचौंध में तकनीकी विकास का रंग वहाँ के छात्रों पर दिखाई
देता है किन्तु गाँव के सादगी जीवन में प्रतिभा की मौलिकता
दिखाई देती है। ग्रामीण परिवेश के संस्कारों के अनुशासन में
बँधे इन बच्चों को सिर्फ शिक्षा का वातावरण मिल जाये तो ये
अपनी प्रतिभा की मौलिकता दिखाई देती है। ग्रामीण परिवेश के
संस्कारों के अनुशासन में बँधे इन बच्चों को सिर्फ शिक्षा का
वातावरण मिल जाये तो ये अपनी प्रतिभा की मौलिकता का प्रदर्शन
हर क्षेत्र में प्रदर्शित कर देंगे।
निरीक्षण टिप्पणी का सबसे अधिक प्रभाव बाबू नारायण सिंह पर
पड़ा, उन्हें लगा कि उनकी अनुशासन–बद्ध जीवन शैली का भी कुछ
प्रभाव विद्यालय पर पड़ रहा है। वे शिक्षा के प्रति और अधिक
तल्लीन हो गये। अध्यापकों को बाबू नारायण सिंह की जीवन शैली
में बदलाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। ये पहले की अपेक्षा
अधिकतर मौन रहने के साथ ही चिन्तनशील भी दिखायी देते। ये
विद्यार्थियों का अलग–अलग तरीके से आकलन करते, जिसमें जिस
क्षेत्र की प्रतिभा दिखाई देती उस क्षेत्र में उसे आगे बढ़ाने
के लिए वे तत्पर रहते।
व्यक्ति के यशकिर्ती का फैलाव बहुत अधिक दिखाई न दे तो इससे
क्या? उसकी कर्तव्यनिष्ठा, परिश्रम एवं लगन से किये गये त्याग,
तपस्या के इतिहास का अपने आप सृजन होता रहता है। ऐसा कुछ बाबू
नारायण सिंह के साथ हो रहा था। दिन, महीना, वर्ष बीतते गये,
बाबू नारायण सिंह की तपस्या तल्लीनता के साथ जारी थी। गाँव,
क्षेत्र से होती ही उनकी कीर्ति जनपद तक पहुँच चुकी थी। वे अब
पूरा कुर्थी के लिए ही आदर्श न रह कर पूरे जनपद के लिये आदर्श
शिक्षक हो गये थे।
मुँशी निरंजन लाल अभी भी डिप्टी साहब ही थे। चेहरे पर स्थिर
स्थायी वही सन्तोष भाव आज भी दिखायी देता। दुनिया की रफ्तार
कितनी बढ़ गयी उससे उनका कोई लेना–देना नहीं था। उनके गाँव के
कई बच्चे जिन्हें वे हाथ पकड़कर ककहरा सिखाये थे, उच्चस्थ पदों
पर आसीन हो गये थे। किन्तु मुँशी निरंजन लाल वही के वही थे।
पदोन्नति के कई प्रस्तावों को उन्होंने स्वीकार ही नहीं किया।
मुसद्दी लाल की भी अपनी कहानी थी। स्कूल प्रांगण में उनकी
ठेलियाँ ठीक समय से लग जाती। उन्हें सामान बेचने में उतना आनंद
नहीं आता, जितना ठेलियाँ से सामान खरीदकर खाते हुए बच्चों के
शाहन्शाही हाव–भाव देखकर आता था। वे सदैव साफ–सुथरे कपड़ों में
लक–धक दिखते। टोपी लगाना तो कभी भूलते ही नहीं। ठेलियाँ के
सामान जमाने के हिसाब से परिवर्तित होते गये किन्तु उन्होंने
गुणवत्ता का सदैव ध्यान रखा। किस सामान का कितना पैसा मिला, इस
ओर उनका ध्यान नहीं रहता बल्कि प्यार से सामान देने में उनकी
तत्परता रहती कि कोई बच्चा रूठने न पाये। मुसद्दीलाल को अपने
और पराये के बच्चे में कोई भेद दिखायी नहीं देता था।
आज मुँशी निरंजन लाल अखबार की खबर पढ़कर खुशी से झूम गये। बाबू
नारायण सिंह को उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए आदर्श शिक्षक का
राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था। इस पुरस्कार के आवेदन पत्र को
अग्रसारित करते हुए मुँशी निरंजन लाल ने अपनी जोरदार टिप्पणी
अंकित की थी। मुँशी निरंजन लाल इतनी बड़ी खुशी की जानकारी बाबू
नारायण सिंह को स्वयं जाकर देना चाहते थे। वे बिना किसी
कार्यक्रम के ही बाबू नारायण सिंह के विद्यालय पहुँच गये।
दुआ–सलाम की औपचारिकता गले मिलकर पूरी हुई। सभी अध्यापक अचानक
डिप्टी साहब के इस व्यवहार से आश्चर्यचकित थे, किन्तु जब
राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए चयन की जानकारी मिली तो सभी फूले न
समाये। बाबू नारायण सिंह के लिए आज का दिन सबसे बड़ी खुशी लेकर
आया था। मुँह से बोल नहीं फूटे, किन्तु आँखों के कोर
हर्षातिरेक की आँसू से भारी हो गये थे। डिप्टी साहब के आदर भाव
ने उन्हें मोतियों की धार बना दी।
समय बीतता गया। मुसद्दीलाल ने रोशन लाल को खूब पढ़ाया–लिखाया।
उसे अब नौकरी भी मिल गयी थीं। मुसद्दीलाल अब भी उसी भाव से
ठेलियाँ लगाते और बच्चों की खुशी में अपनी खुशी खोजते रहते।
मुँशी निरंजन लाल की सेवा का अन्तिम साल था। उनकी जवानी ढ़ल
चुकी थी। वे मन से अभी भी जवान थे। शायद जीवन में संतोष भाव और
कर्तव्यनिष्ठा उनकी संजीवनी थी। सूट–बूट में इकहरे बदन के
स्वामी वे आज भी प्रभावशाली लगते। उनके नवागत अधिकारी ने किसी
बिन्दु पर समीक्षा हेतु उन्हें पहली बार अपने कक्ष में बुलाया
था। डिप्टी साहब की इस अधिकारी से यह पहली मुलकात थी। संकोच
भाव के साथ अनुशासित ढँग से उन्होंने कक्ष में प्रवेश किया –
बोले! महोदय, मैं चक नेवादा क्षेत्र का डिप्टी हूँ।
अधिकारी ने सामने कुर्सी पर बैठ जाने का संकेत दिया।
मुँशी निरंजन लाल अधिकारी के साथ बातचीत को सार्थक रूप नहीं दे
पाए। वार्ता बिना किसी परिणाम के ही समाप्त हो गयी। उन्होंने
वापस जाने की अधिकारी से अनुमति ली, और चल पड़े।
मुँशी निरंजन लाल अभी दरवाजे तक भी नहीं पहुँचे थे कि अधिकारी
ने अपनी कुर्सी से अचानक खड़े होते हुए उन्हें रोका। अधिकारी ने
पूछा महोदय, आप डिप्टी साहब निरंजन लाल तो नहीं हैं?
मुँशी निरंजन लाल को पूरा दृश्य अटपटा लगा, उन्होंने हाँ में
सिर हिलाते हुए कहा – जी महोदय, मैं निरंजन लाल ही हूँ।
अधिकारी ने तपाक से कहा – बैठिये, महोदय आप तो हमारे डिप्टी
साहब है।
मुँशी निरंजन लाल अचकचा गये – बोले! महोदय, मैं समझा नहीं।
अधिकारी ने कहा – महोदय, मैं रोशनलाल हूँ। आप को याद होगा, कई
वर्षों पूर्व आप पूरा कुर्थी गाँव में विद्यालय के निरीक्षण
में गये थे। उस समय मैं कक्षा पांचवी का छात्र था। आपने मेरा
नाम और पिताजी का नाम पूछा था। मेरे द्वारा पिताजी का नाम
मुसद्दीलाल बताये जाने पर पूरी कक्षा हंस पड़ी थी।
मुँशी निरंजन लाल को पूरी कहानी परत दर परत याद आने लगी। उनके
मन मस्तिष्क में मुसद्दीलाल ठेलियाँ वाले के चित्र उभरकर सामने
आ गये। उन्हें बाबू नारायण सिंह के वे शब्द भी याद आ गये कि
मुसद्दीलाल स्कूली बच्चों को रोशन लाल की तरह निःशुल्क सामान
दे देता है। वे बोले महोदय, पिताजी की क्या हालचाल है।
अधिकारी ने कहा महोदय आप तो आज भी मेरे डीप्टी साहब है। आप
मुझे महोदय न कहे। आप द्वारा मेरे बचपन में
मनोबल ऊँचा रखने का
एक ऐसा गुरूमन्त्र दिया गया है जिसके लिये मैं आप का आजीवन ऋणी
हो गया। पिताजी अभी भी बिल्कुल
ठीक है। अब उनकी ठेलियाँ सभी
बच्चों के लिये निःशुल्क हो गयी है।
मुँशी निरंजन लाल के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। वो सोच रहे थे
मुसद्दीलाल धन से धनी हुये तो क्या उनके पास ऐसा धन है कि
बच्चों को खुशियों के रूप में प्रतिदिन बँटने के बावजूद भी
बढ़ता ही जा रहा है। |