पेरिस के ये रास्ते मुझे बुलाते
नहीं सिर्फ़ ले जाते हैं। कुछ पतले गली कूचों से गुज़रते हैं
तो कुछ लंबे चौड़े आसमान से नीचे, गर्द झाडियों के बीच मीलों
दूर दौड़ते है। सब एक जैसे साफ़ सुथरे और तमीज़ वाले।
शहरी रास्ते संकरे से जिनके
दोनों तरफ़ दूकानें, बेकरी, दफ्तर, रेस्तराँ, घर, सब एक ही
सांचे से निकाले हुए से। उनकी कोई निशानी या पहचान नहीं होती।
इन रास्तों की दोस्ती होती है सिर्फ़ उनपर टंगे तख्तों से
जिसपर लिखा होता है रस्तों का नाम नम्बर और उनका मकाम।
वही हाल शहर से बाहर जाने
वाले रास्तों का भी, बायीं तरफ़ बत्तियाँ, कुछ जगह छोड़
दूरध्वनि और एक नियमित अंतर पर विश्रामगृह। दोनों ही तरफ़
आसमाँ छूते वृक्षों की कतार।
दिन के खास प्रहर में रास्ते
पर रास्ता दिखाई नहीं देता। दिखती हैं, सिर्फ़ गाड़ियों की
कतारें! रात हो तो अपनी तरफ़ के झुंड की लाल बत्तियाँ और दूसरी
तरफ़ सफ़ेद घर्र घर्र की आवाज़ और पूरी गाड़ियों की ज़मात ही
रास्ता बन जाती है। परन्तु घर जल्दी नहीं ले जाती।
खाली रस्ते पर दो सौ की गति
से गाड़ियाँ लापता होती हैं। ऐसे में यदि अपना मोड़ पीछे छूट
गया तो आगे कई मीलों बाद रास्ता दूसरे मोड़ पर ला छोड़ता है,
जहाँ से खुद टटोलते हुए वापस आना पड़े। चाहे वह अपना रोज़ का
रास्ता ही क्यों न हो उसकी खोज का आधार उसके कोने पर लगा संकेत
चिह्न ही हाता है।
अजीब बात तो यह है कि यहाँ
अपने दिशा ज्ञान का मतलब ही नहीं है। दाहिनी तरफ़ जाने वाली
राह कब औ' कैसे बायीं ओर मुड़ जाएगी पता न चले और साथ वाला
रास्ता अचानक गायब हो जाए और फिर एक दूसरा ही रास्ता साथ चल
दे- सब कुछ अजीब और अप्रत्याशित।
पहले तो मुझे धोखा होता था कि
वही रास्ता आकर फिर मिल गया होगा, लेकिन उस पर बने संकेत चिह्न
कुछ और ही कहते। अब समझ में आया की पेरिस के रस्ते यहाँ के
प्रेमियों जैसे ही हैं। कब छोड़ दे और कौन साथ आ पड़े। कई बार
रास्ते इस तरह एक दूसरे के उपर नीचे से निकलते हुए अपने पीछे
से गुज़र जाते हैं कि मुझे क्या उपरवाले को भी ये खेल समझ न
आए।
मुझे मेरा पाठशाला जाने वाला
रास्ता अभी तक याद है। संकरा, उबड़-खाबड़, दोनों तरफ़ बालुओं
का ढेर, गर्मियों के दिनों में कई बार सड़क का अलकतरा पिघल कर
मेरे जूतों में लग जाया करता था। रास्ते पर जहाँ तहाँ कचरा,
काग़ज़ के टुकड़े, सूखे पत्तों का उड़ता समूह नज़र आता, गोबर
लीद कीचड़ से मिला और किनारे बना सीमेंट का कचरादान खाली। मुझे
लगता कि 'सड़क' ये नाम ही सड़ा विशेषण से लिया गया होगा।
कुछ भी हो लेकिन वह रास्ता
मेरा जाना पहचाना था पहले मोड़ पर एक बड़ा-सा बरगद का पेड़। उस
पर हज़ारों चिड़ियाँ चहकती या यों कहें चीखती रहती थी, आप
सुनकर ही फैसला कर पाते। थोड़े ही आगे एक मोची की दुकान थी। अब
उसे दुकान न कहें तो ही ठीक। छोटा-सा उसका बसेरा था। वहीं वह
बूढ़ा मोची सर झुकाये काम करता रहता। कुछ ही कदम आगे की तरफ़
एक खंडहर। वहाँ कौन रहता था यह तो मालूम नहीं पर उसके बगान के
ही फाटक से निकल कर एक पागल औरत अक्सर हमारा पीछा करती। तब जान
मुठ्ठी में लेकर हम पाठशाला की दिशा में दौड़ लगाते।
बीच में ही मेरी सहेली का घर
आता था, बड़ा-सा बगीचे की आड़ छुपा हुआ। वहाँ से फिर हम इकठ्ठे
हाथ पकड़ कर चल पड़ते थे। रास्ता अपना मोड़ ले कर आगे-आगे जाता
ही रहता था। कभी हम उससे अलग किसी खेत की पगडंडियों से गिरते
सम्हलते निकल पड़ते थे और बस किसी भी मोड़ पर आकर फिर से अपना
रास्ता पकड़ लेते। हर कोना पहचान वाला। पानवाले, खोमचेवाला
सबों की सड़क पर अपनी-अपनी जगह, सड़क की खास पहचान। मुझे तो
याद ही नहीं उन रास्तों का नाम क्या था। नाम था भी या नहीं।
आज
अचानक लगता है उन बेनामी लेकिन पहचाने रास्तों पर चलते चलते
मैं कब और कैसे भटक गई जो पेरिस इन अनजाने रास्तों पर लिखे पते
ढूँढ कर अपनी मंज़िल तक जा पहुँचना चाह रही हूँ।
१६ मई २००२ |