सुबह रघु के घर में कदम रखते ही
उसके दिल की धड़कन अनायास बढ़ गई थी। उस समय वह छप्पर के नीचे
रसोई बना रही थी। उन्होंने आकर बाबूजी के पैर छुए थे और उससे
बिना कुछ बोले कमरे में जाकर लेट गए थे। थोड़ी ही देर में शायद
थकान के कारण सो गए थे।
जब से रघु की अधिकारी के पद पर नियुक्ति हुई है, माँ जी ने गँवार
कह-कह कर उसमें हीनभावना की जड़ें इतनी गहरी जमा दी हैं कि उसमें
प्रतिरोध करने की शक्ति भी शेष नहीं रही है।
वह गीली लकड़ियों से जूझ रही थी जो
उसके रोने में सहायक बन रही थीं। रघु अभी नहा धो कर बाहर गए हैं।
वह चाय बना रही है। खौलते पानी की तरह उसके अंतस में भी कुछ
खुदबुदा रहा है। भविष्य की आशंका से उसकी आँखें लगातार बरस रही
हैं। लकड़ियों का धुआँ उसके अंतर की कड़वाहट से कहीं कम है।
''तू रहेगी गँवार की गँवार ही, अभी तक चाय नहीं बना पाई। बाहर सब
चाय का इंतज़ार कर रहे हैं'' माँजी कर्कश स्वर में बोलीं।
जब से रघु अधिकारी हुए हैं माँ जी अनायास ही कुछ अधिक ही तन गई
हैं। उसके प्रति व्यवहार भी दिन प्रतिदिन रूखा होता जा रहा है।
वह जानती है कि रघु अब उस गँवार को छोड़कर किसी पढ़ी लिखी से
शादी कर लेंगे।
जब से रघु अधिकारी हुए हैं माँ जी
अनायास ही कुछ अधिक ही तन गई हैं। उसके प्रति व्यवहार भी दिन
प्रतिदिन रूखा होता जा रहा है। वह जानती है कि रघु अब उस गँवार
को छोड़कर किसी पढ़ी लिखी से शादी कर लेंगे।
वह सिर झुकाए चूल्हा फूँकती रही। उस दिन श्याम बता रहा था कि रघु
भैया किसी शकुन्तला नाम की लड़की के घर अधिक आते जाते हैं। जब भी
रघु आते हैं वह इस डर से सहम जाती है कि शायद अब वह अपनी दूसरी
शादी की घोषणा कर उसे घर वापस भेज देने के लिए कह देंगे। अभी तक
रघु ने ऐसा नहीं कहा और न ही उसका साहस हुआ कि वह रघु से इस विषय
में कोई बात करे।
चाय बन गई थी। उसने चाय की
पतीली उतार ली। विशेष अवसरों पर उपयोग के लिए रखे कप उसने ट्रे
में सजा दिए और चाय केतली में छान दी।
''श्याम, चाय दे आओ,'' उसने श्याम से कहा। वह सप्रयास शहरी बोली
बोलती है, अपने रहन-सहन से हर प्रकार प्रयास करती है कि वह रघु
के योग्य हो जाए।
श्याम चाय की ट्रे लेकर बाहर चला गया था। उसकी मानसिकता में
कितना अंतर आ गया है। पहले रघु के आने पर उसका मन अनायास पुलकित
हो उठता था। किन्तु अब वह उनके आने से बिखरे भविष्य की आशंका से
भयभीत हो उठती है। रघु की उन्नति उसी के लिए अभिशाप बन जाएगी,
इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। रघु की पढ़ाई के बाद नौकरी की
तलाश में भटकने में एक-एक करके सारे ज़ेवर बेच दिये थे उसने।
बेकारी और आर्थिक तंगी के कठिन दिनों में उसने रघु को टूटने नहीं
दिया था, सदैव आशावान बनाए रही, वरना यही माँ जी, जो बेटे के
अधिकारी बन जाने पर फूली नहीं समा रही हैं बेटे को बात बात पर
जली कटी सुनाने लगती थीं।
औरतों के मध्य अक्सर माँ जी
कहतीं रहती हैं कि रघुनंदन इस बांझ को छोड़ कर किसी पढ़ी-लिखी
लड़की से शादी कर लेगा। गँवार के साथ उसका क्या निबाह होगा वंश
चलाने वाला भी तो चाहिए। माँ जी बांझ कह कर उसके स्त्रीत्व को
अपमानित करती हैं, वह उन्हें कैसे बताए कि उनके पढ़े-लिखे बेटे
ने ही अब तक संतान नहीं चाही। उनका तो यही कहना रहा है कि पहले
व्यवस्थित हो जाएँ, तभी बच्चे हों। कम उम्र में शादी कर माँ बाबू
जी ने पहले ही समस्या खड़ी कर दी है।
उसने सदैव यही प्रयत्न किया कि
रघु उसे अतिरिक्त भार न समझें उनके पढ़ने लिखने में उसने कभी
व्यवधान नहीं डाला। और ना ही अपने लिये कुछ माँगा। और तो और
शृंगार का मामूली सामान भी नहीं। उसने सदैव यही सोचा कि जब
उन्हें नौकरी मिल जाएगी तो सारी इच्छाएँ पूरी कर लेगी लेकिन...।
''तू तो हमेशा ऊँघती रहती है, अपने मन से तो कुछ कर ही नहीं
सकती। सब्ज़ी काट ले और दाल चढ़ा ले'' माँ जी के कर्कश स्वर ने
उनकी तंद्रा भंग कर दी।
उसने डलिया में रखी सब्ज़ी
निकाली और छीलने लगी। वह माँजी की किसी बात का प्रतिवाद नहीं
करती। रघु की बेकारी के समय में माँ जी कितना कुछ सुनाती रहती
थीं, कितनी ही बार अलग रहने की धमकी दे डाली थी। अलग किए जाने की
बात पर रघु की दशा अर्ध विक्षिप्त-सी हो जाती थी। कितनी ही बार
उसने रघु के आँसू पोंछे थे।
बाबू जी आँगन में पड़ी खाट पर
आकर लेट गए। बेटे के अधिकारी हो जाने पर भी उनकी दिनचर्या में
कोई विशेष अंतर नहीं आया है। सुबह उठ कर खेत और खेत से लौट कर
छप्पर के नीचे लेटे रहते हैं। घर में घटित होने वाले घटना चक्र
से निस्पृह। जब कि माँजी सदैव बोलती रहती हैं। आजकल उनकी बातों
के केन्द्रबिन्दु रघु हैं। पड़ोसियों से बात करते समय वे उसी के
सामने कहती हैं कि रघु अब दूसरी शादी करेगा, इस बांझ को कहाँ तक
ढोएगा। उसने तो एक पढ़ी लिखी लड़की देख भी ली है। उस समय औरतों
की दृष्टि में उपजे दयाभाव को झेलना कठिन हो जाता है।
रघु जब से आए हैं उससे एक बार
भी नहीं बोले हैं। नौकरी मिलने के बाद दूसरी बार ही गाँव आए हैं।
दूसरों के साथ बातों से ही छुट्टी नहीं मिल रही है अथवा जान बूझ
कर उसकी उपेक्षा कर रहे हैं।
इस नौकरी के इंटरव्यू के लिए जाने के लिए उनके पास एक भी पैसा
नहीं था और पैसा माँगने पर माँजी ने इतनी बातें सुना डालीं थीं
कि रघु ने इंटरव्यू देने जाने का इरादा ही छोड़ दिया था। तब उसने
समझाते हुए आखिरी पायलें बेचने के लिए दे दी थीं। उसके सारे
ज़ेवर इसी तरह समाप्त हो गए थे। रघु के इंकार करने पर उसने कहा
था कि जब नौकरी मिल जाए तो सोने से पीली और चाँदी से सफ़ेद कर
लेना। खूब अच्छी साड़ी लाकर दिया करना और मैं रानी बनकर घूमा
करूँगी।
लेकिन अब वही त्याज्य वस्तु
बनकर रह गई है। बीमार बापू जब सुनेंगे तब शायद यह झटका सहन ही न
कर पाएँ। उसने पढ़े लिखे रघु के अनुरूप ही स्वयं को सदैव ढालने
की चेष्टा की है। रघु के सामने वह शहरी बोली पूरी सावधानी से
बोलती है। माँजी उसके इस प्रयास की हँसी उड़ाते हुए अक्सर कह
देती हैं, 'देशी कौआ मराठी बोली'
माँजी अपने धारदार शब्दों से उसे चीरने का कोई अवसर नहीं
छोड़तीं।
दो दिन हो गए लेकिन वह रघु से
बात तक न कर सकी। दूसरी शादी के विषय में वह कोई चर्चा नहीं करना
चाहती, कहीं रघु ने कह दिया कि वह दूसरी शादी करेगा तो? कल शाम
रघु कमरे में थे और वह पहुँच गई थी तभी उसे माँजी ने बुला लिया,
वर्ना उसने सोच लिया था कि वह रघु से याचना करेगी कि उसे वह न
छोड़े। वह सौत को मालकिन समझेगी और नौकरानी बनकर रह लेगी। वह रघु
से अलग होने की कल्पना से ही काँप उठती है। उसका रघु से कोई
पूर्व परिचय नहीं था, किंतु विवाह के बाद वह रघु से इतनी जुड़ गई
कि अलग से अपना अस्तित्व ही नहीं स्वीकार कर पाती।
सभी आँगन में बैठे थे। बाबू जी
खाट पर लेटे हुए थे। दूसरी खाट पर लेटा श्याम एक पत्रिका पढ़ रहा
था जो उसके भैया ने शहर से लाकर दी थी। उसी के पास रघु बैठे थे।
वह कमरे में दरवाज़े के पास आकर बैठ गई। आँगन में ही माँजी बैठीं
थीं। वह रघु को कमरे में बुलाना चाह रही थी लेकिन साहस साथ नहीं
दे रहा था।
''क्यों रघु, वह लड़की कौन है?'' माँजी ने पूछा।
अनायास उसके दिल की धड़कन बढ़ गई, जिस स्थिति से वह बचना चाह रही
थी वही उसके सामने आ गई।
''कौन! वह शकुंतला! वह बड़ी अच्छी लड़की है।'' रघु ने बताया।
''उसे कभी घर ले आ।'' माँ जी बोलीं।
वह उनका मतलब समझ रही है, लेकिन
कह ही क्या सकती है। सभी तो उसका सबकुछ छीनने को आतुर हैं।
''अबकी आऊँगा तो ज़रूर लाऊँगा। हमारे पड़ोसी महेश जी की बेटी है।
मैं बीमार पड़ गया था तो उसने बड़ी सेवा की थी, घर आने ही नहीं
दिया।'' रघु बता रहे थे।
वह देख रही है उसका सबकुछ उस शकुंतला ने पहले ही हथिया लिया है,
अब तो शेष कार्यवाही में उसे तलाक मिलना ही बाकी है।
''उसे तो मैं साथ ही लाने वाला था, लेकिन उसके पिता की तबियत
खराब हो गई थी। हाँ मैं उर्मि को साथ लिए जा रहा हूँ। उससे कह दो
तैयार हो जाए। वहाँ खाने पीने की परेशानी होती है,'' रघु बोले।
''क्या?'' माँ जी ने अविश्वास से पूछा।
''हाँ माँ, मुझे सरकारी मकान मिल गया है।'' रघु उठते हुए बोले।
एक बारगी वह स्वयं अवाक रह गई
उसे अच्छा ही लगा कि वह साथ रहेगी, भले ही नौकरानी के रूप में,
वह है भी तो गँवार नौकरानी जैसी।
''अरे! तुम यहाँ बैठी हो, तैयारी करो। चलना नहीं है क्या?'' रघु
अंदर आते हुए बोले।
''मैं गँवार आपके साथ।" उसने आगे कुछ कहना चाहा, किन्तु कंठ
अवरुद्ध हो गया।
''क्या गँवार गँवार की रट लगाए हो, अब मैं तुम्हारी तपस्या से
अफसर हो गया तो क्या तुम मेरी पत्नी नहीं रह गईं? श्याम ने बताया
था कि सब समझ रहे हैं कि मैं दूसरी शादी करूँगा, लेकिन मैं इतना
कृतघ्न नहीं हूँ और शकुंतला तो तुम्हारी छोटी-सी ननद है। तुम
जैसी भाभी पाकर वह बहुत खुश होगी। वह तो रोज़ कहती है कि भाभी को
ले आओ तो मैं उनके साथ खेलूँगी। उनसे गुड़िया बनवाऊँगी।
रघु कह रहे थे और उसकी आँखें खुशी से बरसे जा रही थीं। |