द्यूतक्रीडा - इतिहास के झरोखे से
- रवीन्द्रनाथ उपाध्याय
द्यूत-क्रीड़ा या जुए के खेल के बारे में बिना किसी संशय के
कहा जा सकता है कि यह मानवजाति का प्राचीनतम खेल है। इससे अधिक
मनोरंजक और रोमांचकारी खेल जो राजा को रंक और रंक को राजा बना
दे, जिसके द्वारा चातुर्य, कौशल, सतर्कता, धैर्य,
प्रत्युत्पन्नमति और छल से प्रतिपक्षी को परास्त करके उसका
सर्वस्व हरण किया जा सके, और कोई दूसरा नहीं है।
पश्चिम में द्यूत क्रीडा
पश्चिमी देशों के इतिहासकारों का मानना है कि मेसोपोटामिया से
छह फलक वाला पाँसा प्राप्त हुआ है जो लगभग ३००० ई.पू. का है और
इसी काल का मिस्र के काहिरा से एक टैबलेट मिला है जिसपर यह कथा
उत्कीर्ण है कि रात्रि के देवता थोथ ने चन्द्रमा के साथ जुआ
खेल कर ५ दिन जीत लिया जिसके कारण ३६० दिनों के वर्ष में ५ दिन
और जुड़ गए। इतिहासकारों के अनुसार चीनी सम्राट याओके काल में
१०० कौड़ियों का एक खेल होता था जिसमें दर्शक बाज़ी लगा कर
जीतते हारते थे। यूनानी कवि और नाटककार सोफोक्लीज़ का दावा है
कि पाँसे की खोज ट्रॉय के युद्ध के समय हुई थी।यह कथन
संदेहास्पद है, क्योंकि इस लेख में यह सप्रमाण दिखाया जा चुका
है इस विद्या की जन्मस्थली भारतवर्ष है । यह अकेला देश है जहाँ
द्यूत-क्रीड़ा को ६४ कलाओं में आदरणीय स्थान दिया गया और इसका
पूरा शास्त्र विकसित किया गया।
ऋग्वेद में द्यूत क्रीडा
इन बेईमान इतिहासकारों ने संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के
१०वें मण्डल में 'जुआड़ी का प्रलाप' के सूक्त ३४ से जानबूझ कर
आँखें मूँद लीं जबकि ऋग्वेद का अनुवाद राल्फ टी.एच. ग्रिफ़िथ
ने बहुत पहले कर दिया था। अब यह किसी से छिपा नहीं रह गया है
कि ऋग्वेद की रचना सरस्वती नदी के लुप्त होने के कम-से-कम एक
हज़ार वर्ष पहले से होती रही और जब उसमें जुआड़ी के पश्चात्ताप
का ऐसा काव्यात्मक वर्णन है तो फिर भारत में यह क्रीड़ा ऋग्वेद
की रचना के भी कई सौ वर्ष पूर्व प्रारंभ हो चुकी होगी। इससे
सिद्ध है कि मानवजाति के मन को प्रफुल्लित, रोमांचित और व्यथित
करने वाली इस द्यूत-क्रीड़ा की जन्मस्थली भारत की ही पवित्र
भूमि है और इस खेल की शुरुआत ई.पू.४०००-४५०० में जरूर हो चुकी
होगी।ऋग्वेद के इस प्रसिद्ध सूक्त के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
"मैं अनेक बार चाहता हूँ कि अब जुआ नहीं खेलूँगा। यह विचार
करके मैं जुआरियों का साथ छोड़ देता हूँ परंतु चौसर पर फैले
पाँसों को देखते ही मेरा मन ललच उठता है और मैं जुआरियों के
स्थान की ओर खिंचा चला जाता हूँ।"
..."जुआ खेलने वाले व्यक्ति की
सास उसे कोसती है और उसकी सुन्दर भार्या भी उसे त्याग देती है।
जुआरी का पुत्र भी मारा-मारा फिरता है जिसके कारण जुआरी की
पत्नी और भी चिन्तातुर रहती है। जुआरी को कोई फूटी कौड़ी भी
उधार नहीं देता। जैसे बूढ़े घोड़े को कोई लेना नहीं चाहता,
वैसे ही जुआरी को कोई पास बैठाना नहीं चाहता।"..."जो जुआरी
प्रात:काल अश्वारूढ़ होकर आता है, सायंकाल उसके शरीर पर वस्त्र
भी नहीं रहता।"..."जब अक्षों (पाँसों) की चाल ख़राब हो जाती है
तो उस जुआरी की भार्या भी उत्तम कर्म वाली नहीं रहती।जुआरी के
माता-पिता और भाई भी उसे न पहचानने का ढंग अपनाते हुए उसे
पकड़वा देते हैं।"..."हे अक्षों (पाँसों)! हमको अपना मित्र मान
कर हमारा कल्याण करो।हम पर अपना विपरीत प्रभाव मत
डालो।तुम्हारा क्रोध हमारे शत्रुओं पर हो, वही तुम्हारे चंगुल
में फँसे रहें!"
ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं- "हे जुआरी! जुआ खेलना छोड़ कर खेती
करो और उससे जो लाभ हो,उसी से संतुष्ट रहो!"
पूरे संसार के प्राचीन साहित्य को खंगाल डालिए, द्यूत-क्रीड़ा
का ऐसा सुन्दर काव्यात्मक वर्णन नहीं मिलेगा। यद्यपि वैदिक ऋषि
ने पहले ही सावधान कर दिया कि जुए का दुष्परिणाम भयंकर है,
लेकिन इसका नशा ऐसा है कि इसके आगे मदिरा का नशा भी तुच्छ है।
महाभारत में द्यूत क्रीडा
जुए के खेल में जिस चालाकी और धोखेबाज़ी की जरूरत पड़ती है
वैसी बुद्धि युधिष्ठिर जैसे सत्यव्रती और धर्मात्मा को प्राप्त
नहीं थी, जबकि शकुनि इस कला में अत्यंत निपुण था। यह जानते हुए
भी वे दुर्योधन के निमंत्रण पर जुआ खेलने को तैयार हो गए और
राजपाट सहित अपने भाइयों समेत स्वयं को तथा द्रौपदी को भी हार
गए। उनकी इसी मूर्खता की वजह से द्वापर का सबसे विनाशकारी
युद्ध हुआ। क्या उन्होंने निषध देश (ग्वालियर के
पार्श्ववर्त्ती प्रदेश) के राजा नल और उसकी परिणीता दमयंती की
कथा नहीं सुनी थी और क्या उन्हें ज्ञात नहीं था कि राजा नल जुए
में अपने राज्य सहित सर्वस्व गँवा बैठे और उन्हें दर-दर की
ख़ाक छाननी पड़ी थी?
जुए के खेल में किसी खिलाड़ी की बेईमानी के कारण अथवा हारे हुए
जुआड़ी द्वारा जीतने वाले को धन न देने के कारण या जीतने वालों
द्वारा हारने वाले का मज़ाक़ उड़ाने के कारण मारपीट की नौबत आ
जाती है। हारने वाले पर हँसने वाली घटना कृष्णजी के भाई बलराम
जी और रुक्मी के बीच घट गई। यह कथा श्री मद्भागवत विष्णु पुराण
तथा हरिवंश पुराण में है। यह तो विदित ही है कि श्री कृष्ण ने
रुक्मी की बहन रुक्मिणी का बलपूर्वक अपहरण किया था और अपहरण
करते समय रुक्मी को युद्ध में हरा दिया था। तबसे रुक्मी इन
लोगों से बदला लेना चाहता था। जाने इन लोगों को क्या सूझा कि
श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र का विवाह रुक्मी की बेटी से तय
हो गया। रुक्मी जानता था कि बलराम जी की बुद्धि कुछ मोटी है,
इसलिए विवाह के उत्सव के बीच उसने बलराम जी को जुआ खेलने का
न्यौता दिया। बलराम जी जुए में बहुत कुछ हार गए तो रुक्मी उन
पर हँसने लगा। फिर क्या था? बलराम जी को क्रोध आ गया और
उन्होंने रुक्मी को वहीं पर मार डाला जिससे विवाह मण्डप में
हाहाकार मच गया। असल में बलराम जी थे तो सीधे, लेकिन क्रोधी भी
थे। एक कथा के अनुसार बलराम जी कौशिक राजा दंतवक्र से जुए में
हार गए। जब वह बलरामजी पर हँसा तो उन्होंने दंतवक्र का दाँत
तोड़ दिया।
पाणिनि के साहित्य में द्यूतक्रीडा
पाणिनि (५०० ई.पू.) की 'अष्टाध्यायी' तथा 'काशिका' के अनुशीलन
से भारत में जुए के खेल (अक्ष-क्रीड़ा) का पूरा परिचय मिलता
है। पाणिनि ने जुए के पाँसों को अक्ष और शलाका कहा है। अक्ष
वर्गाकार गोटी होती है और शलाका आयताकार। तैत्तरीय ब्राह्मण और
अष्टाध्यायी से अनुमान होता है कि इनकी संख्या पाँच होती थी
जिनके नाम थे-अक्षराज, कृत, त्रेता, द्वापर और कलि।
अष्टाध्यायी में इसी कारण इसे 'पंचिका द्यूत' के नाम से पुकारा
गया है। कोटियों के चित्त और पट गिरने के विविध तरीक़ों के
आधार पर हार और जीत का निर्णय कैसे होगा, यह 'काशिका' में भली
प्रकार वर्णित है। पतंजलि ने भी जुआड़ियों का ज़िक्र किया है
और उनके लिए 'अक्ष कितव' या 'अक्ष-धूर्त' शब्द का प्रयोग किया
है। अग्नि पुराण में द्यूतकर्म का पूरा विवेचन है तथा
स्मृतियों में भी हार-जीत के नियम दिए गए हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में द्यूत
क्रीडा
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से विदित होता है कि राजा द्वारा
नियुक्त द्यूताध्यक्ष यह सुनिश्चित करता था कि जुआ खेलने वालों
के पाँसे शुद्ध हों और किसी प्रकार की कोई बेईमानी न हो।जुए
में जीत का ५ प्रतिशत राज्य को कर के रूप में चुकाना पड़ता था।
कौटिल्य ने जुए की निन्दा की है और उन्होंने राजा को परामर्श
दिया है कि वह चार व्यसनों शिकार, मद्यपान, स्त्री-व्यसन तथा
द्यूत से दूर रहे। कौटिल्य ने लिखा है कि जुए की लत के कारण
धन-नाश, कर्मों में मन न लगना, दुष्टों का कुसंग, हर समय क्रोध
और संताप, स्नानादि के प्रति अनादर, व्यायाम में बाधा,
मल-मूत्र को रोकने से उत्पन्न विकार, दुर्बलता आदि बुराइयाँ
उत्पन्न होती हैं। बताया जाता है कि उनके समय का मगध- सम्राट
महापद्म नंद भी बहुत जबरदस्त जुआड़ी था।
पुराणों में द्यूत क्रीडा
दूसरी ओर द्यूत-क्रीड़ा को महिमामंडित करते हुए पुराणों में
भगवान् शिव और माता पार्वती की द्यूत-क्रीड़ा तथा श्री के गृह
में भगवान् कृष्ण और श्री के बीच हुई द्यूत-क्रीड़ा की कथाएँ
जोड़ दी गयीं। कथा के अनुसार पार्वती जी ने शिव जी को जुए में
हरा दिया था। स्कंद पुराण (२.४.१०) के अनुसार पार्वती जी ने यह
ऐलान किया कि जो भी दीपावली में रातभर जुआ खेलेगा, उसपर वर्ष
भर लक्ष्मी की कृपा रहेगी। दीपावली की अगली तिथि कार्तिक शुक्ल
प्रतिपदा का नामकरण ही 'द्यूत प्रतिपदा' के रूप में कर दिया
गया।भगवद्गीता के 'विभूति-योग' नामक अध्याय में कृष्ण ने कहा
है-"द्यूतं छलयतामस्मि" अर्थात "हे अर्जुन! मैं छल संबंधी
समस्त कृत्यों में जुआ हूँ।" क्या इसका तात्पर्य यह निकाला जाय
कि जुआ भी कृष्णमय है, एक विभूति है और जिस प्रकार उन्होंने
राक्षसों में स्वयं को प्रह्लाद बताया है (सतोगुणी होने के
कारण), क्या उनकी वही भावना जुए के प्रति भी है?
वैदिक साहित्य में द्यूत क्रीडा
द्यूत-क्रीड़ा के प्रति प्राचीन भारतीय मनीषियों और आचार्यों
में कभी मतैक्य स्थापित नहीं हो सका। कहीं देवताओं की
द्यूत-क्रीड़ा का बखान, कहीं जुए के खेल के नियम क़ायदों का
उल्लेख और कहीं इसके दुर्गुणों का वर्णन। ऋग्वेद में एक जगह
इसे सुरापान के समान पापमय बता दिया गया (ऋ०७/८६/६)। कालांतर
में जब सुरापान को ब्राह्मणों के लिए 'महापातक' बताया गया तो
जुए को भी किसी न किसी श्रेणी के पाप की कोटि में रखना ही था।
मनु महाराज ने 'मनुस्मृति' में यह लिख दिया कि जुए और बाज़ी
लगाने वाले खेलों पर प्रतिबंध होना चाहिए। आपस्तंब धर्मसूत्र
में जुए को केवल 'अशुचिकर' पापों की श्रेणी में रखा गया। ये
पाप ऐसे हैं जिनसे आदमी जाति से बहिष्कृत नहीं होता। मज़ेदार
बात यह है कि फलित ज्योतिष द्वारा जीविका साधन भी इसी श्रेणी
का पाप है यानी ज्योतिष का धंधेबाज़ और जुआड़ी दोनों बराबर!!
धर्मसूत्रों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और यह राजाओं और
धनाढ्य नागरिकों का सर्वप्रिय मनोविनोद बना रहा।सामान्य लोग भी
इस खेल के रोमांच का आनन्द उठाने में पीछे नहीं रहे।मदिरा
व्यापार की भाँति यह राज्य की आय का एक अच्छा-खासा स्रोत भी
था।इसलिए जुआड़ियों की सद्गति-दुर्गति में कोई बाधा नहीं पड़ी।
नाट्य साहित्य में द्यूत क्रीडा
महाकवि दण्डी के "दशकुमारचरित" नामक ललित आख्यायिका से पता
चलता है कि तत्समय राजकुमारों को अन्य विद्याओं के साथ चोरी और
जुए की भी शिक्षा दी जाती थी। कथा के अनुसार अपहारवर्मा नामक
कुमार जब चम्पा नगरी में पहुँचता है तब सर्वप्रथम द्यूत-सभा
में जाता है और वहाँ सोलह हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ जीत लेता है,
जिसका आधा वहाँ के सभ्यों और द्यूत सभाध्यक्ष के बीच
उदारतापूर्वक बाँट देता है। इसप्रकार वह उन सभी नागरिकों का
दिल जीत लेता है तथा द्यूताध्यक्ष के यहाँ भोजन भी करता है।
फिर वह अपने मुख्य कार्य चोरी में संलग्न होकर चम्पा नगरी में
तहलका मचा देता है।
शूद्रक के नाटक "मृच्छकटिकम्" के द्वितीय अंक में 'संवाहक'
नामक जुआड़ी का अत्यंत मनोरंजक रूप प्रस्तुत किया गया है।
संवाहक पाटलिपुत्र के एक गृहस्थ का लड़का है और उज्जयनी घूमने
आया है। पहले वह कथा के नायक चारुदत्त के यहाँ नौकरी करता है
लेकिन चारुदत्त की विपन्नता के कारण वह जुए से अपना पेट पालने
लगता है। एक दिन वह जुए में दस स्वर्ण मुद्राएँ हार जाता है
परन्तु जीतने वाले जुआरी को देने के लिए उसके पास कुछ है नहीं
इसलिए वह द्यूताध्यक्ष और उसके सहायक माथुर की आँख बचा कर भाग
निकलता है। जुआरी और माथुर उसे दौड़ाते हैं लेकिन वह भाग कर एक
निर्जन मंदिर में घुस जाता है और वहाँ देवता की मूर्त्ति के
स्थान पर ऐसे बैठ जाता है मानों वह स्वयं देव-मूर्त्ति प्रतीत
हो।माथुर और जुआरी उस मंदिर में भी पहुँच जाते हैं लेकिन
संवाहक को मूर्त्ति ही समझ बैठते हैं। थक हार कर वे दोनों
मन्दिर में ही बैठ कर जुआ खेलने लगते हैं। जुए के एक दाँव में
माथुर कहता है कि यह मेरा दाँव है, जुआरी चिल्लाता है कि यह
उसका दाँव है।
मूर्त्ति का वेष बनाए हुए संवाहक से नहीं रहा जाता और वह बोल
पड़ता है कि 'अरे! यह तो मेरा दाँव है।' संवाहक पकड़ लिया जाता
है। संवाहक माथुर से गिड़गिड़ाता है कि वह आधी स्वर्ण मुद्राएँ
माफ कर दे। माथुर मान जाता है। फिर संवाहक जुआरी से पूछता है
कि क्या तुमने भी आधी मुद्राएँ छोड़ दीं? वह भी हामी भर देता
है। तब संवाहक कहता है कि अब तो वह ऋण से मुक्त हो गया! आधी एक
ने माफ़ की तथा आधी दूसरे ने-अब बचा ही क्या? इस धूर्तता से
क्षुब्ध हो कर दोनों मिल कर संवाहक की पिटाई करते हैं लेकिन वह
किसी तरह छूट कर भाग निकलता है और वसंतसेना नामक नगर की धनाढ्य
वेश्या के घर में घुस जाता है। बहरहाल वसंतसेना माथुर और जीते
हुए जुआरी को दस मुद्राएँ देकर संवाहक को बचा लेती है। संवाहक
इस अपमान से क्षुब्ध होकर बौद्ध भिक्षु बन जाता है।
मृच्छकटिकम् के निम्नलिखित श्लोक से तत्समय के जुआड़ियों के
चाल-चरित्र तथा जुए के प्रति उनके समर्पण का पूरा पता चल जाता
है:-
" द्रव्यं लब्धं द्यूतेनैव दारा मित्रं द्यूतेनैव,
दत्तं भुक्तं द्यूतेनैव सर्वं नष्टं द्यूतेनैव।"
(मैंने जुए से ही धन प्राप्त किया, मित्र और पत्नी जुए से ही
मिले, दान दिया और भोजन किया जुए के ही धन से और मैंने सब कुछ
गँवा दिया जुए में ही!)
कानून और द्यूत क्रीडा
मुग़ल काल में शतरंज, गंजीफा और चौपड़ खेला जाता था। राजाओं के
यहाँ खूब जुआ खेला जाता था। लोग सब कुछ लुटा कर दरिद्र हो जाते
थे। जुए में हारने वाले चोरी जैसे अपराधों में लिप्त हो जाते
थे। यही सब देख कर कबीरदास जी ने कहा-"कहत कबीर अंत की
बारी।हाथ झारि कै चलैं जुआरी।" इस्लाम में जुआ खेलना हराम कहा
गया है, लेकिन इसके बावजूद अधिकांश मुस्लिम देशों में जुए पर
पूर्ण प्रतिबंध नहीं लग सका। इंग्लैण्ड में कभी जुए पर पूरा
प्रतिबंध लगा रहा और अचानक १६६० ई. में चार्ल्स द्वितीय ने सभी
को जुआ खेलने की अनुमति दे दी। चार साल बाद १६६४ ई. में क़ानून
पास हुआ कि केवल धोखाधड़ी और बेईमानी से खेले जाने वाले जुए पर
रोक रहेगी तथा कोई आदमी जुए का धन्धा नहीं कर सकेगा।बाद में तो
ब्रिटिश सरकार ने लाटरी शुरू की जिसकी आय फ्रांस से हुए युद्ध
में ख़र्च हुई। फ्रांस ने भी पेरिस में सीन नदी पर पत्थर के
पुल-निर्माण का ख़र्च लाटरी से ही निकाला। भारत में अंग्रेज़ों
के शासनकाल में "पब्लिक गैंब्लिंग एक्ट १८६७" लागू हुआ और कई
राज्यों ने अपने क़ानून बना कर जुए पर रोक लगाई। स्वतंत्र भारत
में भी जुआ खेलना दण्डनीय अपराध है लेकिन इसके क्रियान्वयन की
स्थिति से सभी लोग परिचित हैं। भारत में सरकारी और निजी लाटरी
का धंधा कई बार चला और बन्द हुआ। यह समझ के परे है कि सरकार
प्रायोजित जुए में कोई बुराई नहीं और आम जनता खेले तो जेल की
हवा खाए!
ताश और द्यूत क्रीडा
ताश के पत्तों के प्रचलन से जुए की दुनियाँ में क्रान्ति आ गई।
चीन में जुए का इतिहास कम-से-कम २५०० ई.पू. पुराना है। वहाँ
तांग राजवंश (६१८-९०७ ई.) के दौरान ताश के पत्ते पाए गए।
चौदहवीं सदी के अंत में मिस्र से ताश के पत्तों ने यूरोपीय
देशों में प्रवेश किया। हुकुम, पान, ईंट और चिड़ी के ५२ पत्तों
वाले ताश का इस्तेमाल सर्वप्रथम सन् १४८० में हुआ तबसे इन
पत्तों की सज-धज और आकार-प्रकार में अनेक परिवर्तन हुए। ताश के
तरह-तरह के खेल जैसे पोकर, ब्रिज, रमी आदि बहुत लोकप्रिय हुए।
ख़ूबी यह है कि कई खेलों में रुपए-पैसे की बाज़ी लगाने की
जरूरत नहीं है, इसलिए उन्हें जुए की कोटि में नहीं रखा जाता।
मा० सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि रमी संयोग का खेल
नहीं है वरन् यह दक्षता का खेल है इसलिए इसे जुए की संज्ञा
नहीं दी जा सकती। इस फैसले से क्लबों में रमी के खेल में पैसे
की हार-जीत का मजा लेने वालों को बड़ी राहत मिली है। लेकिन ताश
में तीन पत्तों वाला खेल 'फ्लश' शुद्ध रूप से जुआ है।
परिणाम कितना भी दु:खदायी हो, जुए के खेल का रोमांच और नशा ऐसा
है कि यह आज भी दुनियाँ का सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला खेल
है। आज अमेरिका का शहर लॉस वेगास जुआ खेलने वालों का स्वर्ग बन
गया है। वहाँ की यूनिवर्सिटी ऑफ नेवादा में जुए से संबंधित शोध
केन्द्र के अलावा इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी और गैंबलिंग एंड
कॉमर्शियल गेमिंग की स्थापना हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद
जुए का खेल पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक विरासत का अंग नहीं बन
सका। धरती पर केवल भारत ही ऐसा देश है जहाँ ऋग्वैदिक काल से
लेकर आज तक द्यूत-क्रीड़ा की अविच्छिन्न परंपरा चलती आई। जुए
को लेकर यहाँ जैसा उच्च कोटि का शास्त्र रचा गया, वैसा अन्यत्र
दुर्लभ है। वैधानिक पाबंदी का भय चाहे जो करा ले, हज़ारों
वर्षों से जो द्यूत-क्रीड़ा सामाजिक जीवन में रच-बस गई, वह
युगों-युगों तक मन में बसी रहेगी!
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