दीपावली - इतिहास के झरोखे से
- मीरा ठाकुर
प्रकाश और
अंधकार की लुकाछिपी हमेशा से चली आई है। अंधकार से प्रकाश की
ओर बढ़ाने की प्रेरणा के कारण दीपावली का पर्व हमारी परम्पराओं
में अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। दीपावली का अर्थ है दीपों
की कतार। हम दीप जलाकर प्रकाश का आह्वान करते हैं। उस सत आलोक
का जो असत अंधकार में पड़े अनगिनत लोगों के लिए उनकी शोभा,
शक्ति और भविष्य बनकर प्रज्ज्वलित हों। सदियों से हिंदुओं के
प्रमुख त्योहार के रूप में दीवाली की गिनती होती है। दीवाली से
जुड़े कुछ ऐतिहासिक तथ्य यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
प्रकाश की जगमग और उल्लास भरे इस पर्व ने मुगलकालीन शासक बाबर
को आकर्षित किया। बाबर ने उस समय के विद्वानों से दीवाली मनाए
जाने के कारणों को समझा और उसकी पृष्ठ भूमि में छुपी भावना को
समझा और दीवाली के त्योहार को एक खुशी के मौके के तौर पर
मान्यता प्रदान की। बाबर ने अपने बेटे हुमायूँ को दीपावली के
जश्न में शामिल होने की प्रेरणा दी। बाबर के युग में दीवाली के
धूमधाम और उत्साहपूर्ण के साथ मनाए जाने की परंपरा सतत रूप से
जारी रही। तत्पश्चात हुमायूँ ने इस परंपरा को न केवल कायम रखा
बल्कि इसे और आगे बढ़ाया। उसके शासन काल में दीवाली के अवसर पर
पूरे राजमहल को झिलमिलाते दियों से सजाया जाता था तथा आतिशबाजी
की जाती थी। हुमायूँ खुद दीपावली के उत्सव में शरीक होकर शहर
में रोशनी देखने निकला करता था। मुगल सल्तनत के तीसरे
उत्तराधिकारी अकबर का खास पसंदीदा त्योहार दीपावली था। अब्दुल
फजल द्वारा लिखित आईने अकबरी में इसका उल्लेख मिलता है कि इस
दिन किले के महलों और शहरों के चप्पे-चप्पे पर घी के दीपक जलाए
जाते थे। अकबर के दौलतखाने के बाहर एक चालीस गज का दीप स्तम्भ
टाँगा जाता था, जिस पर विशाल दीप-ज्योति जलाई जाती थी। इसे
“आकाशदीप” के नाम से पुकारा जाता था। दीपावली के अगले दिन अकबर
“गोवर्धन पूजा” में शिरकत करते थे। उस दिन वह हिन्दू वेश-भूषा
धारण करते थे। दीपावली की रात को वे अक्सर वेश बदलकर घूमने
निकलते और शहर के गरीब और असहाय लोग, जो दीवाली मनाने में
असमर्थ होते, उनकी आर्थिक सहायता करते थे। इस दिन खास तौर पर
राज-दरबार लगा करता जिसमें वह हिन्दू दरबारियों को दीवाली की
मुबारकबाद देते थे और इनाम बाँटते थे।
अकबर के बाद मुगल सल्तनत की दीवाली –परम्परा उतनी मजबूत न रही,
पर जहाँगीर ने भी राज-दरबार में दीपावली मनाने की परम्परा को
जारी रखा। जहाँगीर दीवाली के दिन को शुभ मानकर जुआ अवश्य खेला
करता था। शाहजहाँ और उसके बेटे दारा शिकोह ने भी दीवाली की
परम्परा को जारी रखा। धार्मिक असहिष्णुता व कटुता के लिए मशहूर
मुगल शासक औरंगजेब अपने शासनकाल के शुरुवाती सालों में वह
हिन्दू त्योहारों और दीवाली के कार्यक्रमों में हिस्सा लेता
रहा किन्तु बाद में मजहबी कटुता के कारण इन त्योहारों से
किनारा कर लिया। औरंगजेब ने एक साल तो स्वर्ण मंदिर में
सार्वजनिक रूप से दीवाली मनाने की इजाजत नहीं दी। बाद में इस
इस शर्त पर राजी हुआ कि दीवाली मनाने के बाद उसे एक लाख रुपए
दिए जाएँ। औरंगजेब का यह असहिष्णु रवैया ही आगे चलकर मुगल
सल्तनत के पतन का मुख्य कारण बना।
आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर का दीवाली मनाने का अपना
निराला अंदाज था। उनकी दीवाली तीन दिन पहले ही शुरू हो जाती
थी। दीवाली के दिन बादशाह तराजू के एक पलड़े में बैठते थे और
दूसरे पलड़े में चाँदी – सोने से भर दिया जाता था। तुलादान के
बाद यह सब गरीबों में दान कर दिया जाता था। इसके बाद किले पर
रोशनी की जाती थी। कहार खील बताशे और मिट्टी के खिलौने जाकर
घर-घर बाँटते। नौबत, रोशनी, चौकी और बाजा बजाया जाता। इस अवसर
पर बादशाह तमाम लोगों को इनाम दिया करते। इस तरह बाबर से
दीवाली की यह परंपरा मुगल सल्तनत के अंत तक बनी रही।
दीपावली के कुछ ऐतिहासिक पहलू भी हैं। सम्राट अशोक के दिग्विजय
प्राप्त करने के बाद दीपावली मनाई जाने लगी। विक्रम संवत का
शुभारंभ भी इसी दिन से माना जाता है। राजा विक्रमादित्य का
राज्याभिषेक भी इसी अवसर पर हुआ था। जैन धर्म के अंतिम
तीर्थंकर महावीर का इसी दिन निर्वाण हुआ था तभी से इस दिन हर
साल वे दीप जलाकर जिनेश्वर की पूजा करते हैं। रामायण के अनुसार
राक्षसी प्रवृत्ति का सर्वनाश करके श्रीराम इसी दिन अयोध्या
लौटे थे और अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाकर अपनी खुशी
प्रकट की थी। पुराणों में इस पर्व को श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर
के वध से जोड़ा जाता है।
दीपावली की रात को सर्वाधिक महत्त्व लक्ष्मी-गणेशजी को मिलता
है| सभी लक्ष्मीजी को प्रसन्न कर इनकी कृपादृष्टि पाना चाहते
हैं, परंतु सभी एक मुख्य बात भूल जाते हैं लक्ष्मीजी के वाहन
उल्लू जी को। कहा जाता है कि यही वो महाशय हैं जिन पर सवार
होकर लक्ष्मीजी दीपावली की रात सबके घरों में जाती हैं। कहते
है कि उल्लू की आँखें दिन की रोशनी को नहीं सह पातीं। ऐसा माना
जाता है कि शायद लक्ष्मीजी की कृपा प्राप्त करने के बाद लोग मद
में अंधे हो जाते हैं और उनकी हरकतें उल्लू के समान हो जाती
हैं। उल्लू के जन्म के विषय में बहुत सी लोककथाएँ प्रसिद्ध
हैं। श्रीलंका की लोककथा में माना जाता है कि एक दुष्ट
प्रवृत्ति का पति था जिसे अनायास ही अपनी पत्नी के चरित्र पर
शक हो गया था। एक दिन वह लक्ष्मी जी की पूजा के लिए गई हुई थी,
पति को लगा वह किसी और से मिलने गई है। गुस्से में आकर उसने
अपने बच्चे की हत्या कर उसे भोजन में मिलाकर अपनी पत्नी के
सामने परोस दिया। सारी बात पता चलने पर पत्नी ने लक्ष्मीजी का
ध्यान करते हुए आत्महत्या कर ली और लक्ष्मीजी ने क्रोध में आकर
उसे उल्लू का रूप देकर अपना वाहन बना लिया।
भारत के सुमात्रा में भी यह लोककथा कुछ फेर बदल कर मानी जाती
है। ग्रीस की लोककथा में उल्लू को बहुत सम्मानित जीव माना जाता
है। थाईलैंड में इसके विषय में कहा जाता है कि पहले वह अच्छा
पंछी था। सबसे मिलकर रहता था। उन दिनों वह दिन में भी देख सकता
था। बाद में उसकी बुद्धि मारी गई और एक दिन वह अपने वृक्ष पर
निवास करनेवाली चिड़िया के अंडे चुराकर खा गया। चिड़िया द्वारा
पूछने पर वह झूठ बोल गया किन्तु उसी समय उसे उल्टी हो गई और
उसकी पोल खुल गई। क्रोधित होकर चिड़िया ने उसे श्राप दिया कि
उसे दिन में कुछ नजर नहीं आएगा ताकि वह किसी और के बच्चों का
कुछ नुकसान न कर सके और अगर वह दिन में दिखाई दिया तो लोग उसे
मनहूस मानकर भगा देंगे। चिड़िया ने उसे यह भी श्राप दिया कि
समुद्र की बेटी अर्थात लक्ष्मी उस पर सवारी करेंगी और उसकी
हरकतों पर नकेल डाल सकेंगी। सारी घटनाओं से यह तो पता चल ही
गया है कि किसी भी परिस्थिति में उल्लू नहीं है उल्लू, बल्कि
बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। अगर लक्ष्मीजी की कृपा पानी है तो
उल्लू को बिलकुल मत भूलें। यह उनकी कृपा पाने का माध्यम है।
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