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इतिहास


 

लुप्त गौरव का अवशेष विजय नगर
- नवीन पंत


चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी के मध्य विजय नगर दक्षिण का सबसे शक्तिशाली और समृद्ध नगर था। उसकी सीमा तीन सागरों को छूती थी। उसने उड़ीसा के गजपति नरेश और दक्षिण के पाँच मुसलमानी राज्यों की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया था।
विजयनगर में देश-विदेश के व्यापारी अपने माल की बिक्री के लिए आते थे। उनमें-घोड़ों और मोतियों के पुर्तगाली और अरब व्यापारी, रत्न, आभूषण, हथियारों और विलासिता की वस्तुओं के यूरोपीय व्यापारी, रेशम के चीनी व्यापारी उत्तर भारत और उड़ीसा के कपड़ा व्यापारी तथा कन्नौज के इत्र व्यापारी आदि प्रमुख थे। विजयनगर के राजमहल के समीप चार प्रमुख बाजारों का चौक था। इस बाजार में सोने-चाँदी के बर्तन, आभूषण, हीरा, मोती, लाल नीलम, पुखराज और मूँगा आदि खुले आम बिकते थे। फारसी यात्री अब्दुल रजाक के अनुसार "विश्वभर में विजयनगर-जैसा और कोई नगर नहीं है। ऐसा नगर न तो कभी किसी ने आँखों से देखा होगा और न कानों से सुना होगा।" पुर्तगाली यात्री ‘लुडोनिको डी वर्थेम’ के शब्दों में, "यह नगर मिलान की तरह बना है, मुझे तो यह स्वर्ग के समान लगता है।" एक अन्य पुर्तगाली यात्री ‘डोमीनगो पेयस’ की राय में "यह नगर रोम से बड़ा और अत्यधिक सुंदर है।"

अजेय: विजय नगर

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने की थी। ये दोनों भाई कंपिली के कोष अधिकारी थे। मुहम्मद तुगलक सन् १३२७ में इन्हें बंदी बनाकर दिल्ली ले गया। वहाँ इन्हें मुसलमान बनाकर शाही फौज में नियुक्त कर दिया गया। मुहम्मद तुगलक की वापसी के बाद सन् १३२९ में वहाँ मुसलमानी सेना के विरुद्ध विद्रोह हो गया। कंपिली के मुसलमान सूबेदार ने दिल्ली सुलतान से मदद माँगी। सुलतान ने विद्रोह को दबाने के लिए हरिहर और बुक्का को अपना फौजदार बनाकर वहाँ भेजा। दोनों भाइयों ने कंपिली पहुँचकर न केवल वहाँ शांति स्थापित की बल्कि इस्लाम धर्म त्यागकर पुनः हिंदू धर्म धारण किया और दक्षिण में एक नये हिंदू राज्य विजयनगर की स्थापना की। श्रृंगनेरी मठ के स्वामी विद्यारण्य और उनके भाई वेदों के टीकाकार सायण ने इस कार्य में दोनों भाइयों की सहायता की।

विजयनगर साम्राज्य ३८० वर्षों तक रहा। इसमें से ३२६ वर्षों का शासन बहुत प्रभावी था। विजयनगर साम्राज्य पर चार परिवारों (संगम, सलुव, तुलुव और अरविदु) के २८ नरेशों ने शासन किया। इनमें से १८ अत्यंत प्रभावशाली थे। इन नरेशों को गुलबर्गा के बहमनी शासकों से संघर्ष में उलझना पड़ा। चौदह संगम और तेरह बहमनी नरेशों ने १३० वर्षों के दौरान ११ लड़ाइयाँ लड़ीं। बहमनी नरेशों ने छह बार विजयनगर पर घेरा डाला लेकिन वे कभी उसे जीत नहीं सके।

सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक

हाथियों के अस्तबल : ध्वंसावशेषबहमनी और विजयनगर राज्यों के आपसी संघर्ष के कुछ अच्छे नतीजे भी निकले। विजयनगर की शानो शौकत से प्रभावित होकर बहमनी नरेशों ने अपनी नयी राजधानी विजयनगर के नमूने पर बनायी। फीरोज बहमनी (सन् १३९७-१४२२) ने हिंदू लड़कियों से विवाह किया और अनेक हिंदुओं को राज्य में बड़े पदों पर नियुक्त किया। अहमद प्रथम ने एक हिंदू पुजारी और मुसलमान खादिम से मिलकर उर्स आयोजित करने का आदेश दिया।

विजयनगर नरेश स्वयं को हिंदुओं का सुलतान कहते थे। देवराय द्वितीय ने दस हजार मुसलमान धनुर्धरों को विजयनगर सेना में भर्ती किया। उसने उनके लिए एक पृथक बस्ती काजीरामपुरम बसायी, और शाही खर्च से उनके लिए एक मस्जिद का निर्माण कराया। उसके दरबार में कुरान शरीफ एक उच्च स्थान पर रखी जाती थी। मुस्लिम संपर्क का विजयनगर की जीवन शैली, विचार, स्थापत्य, शासन पद्धति और लोकाचार पर प्रभाव पड़ा।

विनाश का प्रारंभ

कृष्णदेव राय (सन् १५०९-१५२९) ने विजयनगर साम्राज्य का विस्तार करके उसे नयी ऊँचाइयों पर पहुँचाया। उसने मुहम्मद शाह बहमनी के नेतृत्व में विजयनगर पर हमला करने वाले दक्षिण के सुल्तानों की संयुक्त सेना को पराजित कर दिया। उसने घायल मुहम्मद शाह को दुबारा गद्दी पर बिठाया। इसके लिए कृष्णदेव राय को ‘यवन राज्य स्थापना आचार्य’ की उपाधि दी गयी। उसने दो बार बीजापुर और तीन बार गोलकुंडा पर हमला करके उन्हें पराजित किया। उसने उड़ीसा के गजपति को पराजित किया। उसने उदयगिरि को जीतकर वहाँ ‘विजय स्तंभ’ बनवाया। इसी के साथ उसने एक अति महत्वाकांक्षी सिद्धांतहीन बेईमान व्यक्ति आलिया रामराय को अपना दामाद बनाकर विजयनगर के विनाश का मार्ग भी तैयार किया।

आलिया रामराय कृष्णदेव राय के पुत्र अच्युत राय के जीवनकाल में ही राजकाज में हस्तक्षेप करने लगा था। सन् १५४२ में अच्युत राय की मृत्यु पर सत्ता पर उसका अधिकार हो गया। रामराय दक्षिणी सुल्तानों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता था। एक शासक को दूसरे शासक से लड़वाता था। उसके निरंकुश व्यवहार और अनुचित माँगों ने दक्षिण के सभी मुसलमान शासकों को नाराज और एक कर दिया। रामराय को दंड देने के लिए उन्होंने सन् १५६५ में एक विशाल संयुक्त सेना के साथ विजयनगर पर हमला किया। दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच राक्षसी-तांगड़ी (तालीकोट) के मैदान में निर्णायक युद्ध हुआ।

धोखा: युद्ध और लूट खसोट

विजयनगर की सेना युद्ध के पहले चरण में आक्रमणकारियों पर हावी रही। मुसलमान सुल्तानों की सेना के पैर उखड़ने ही वाले थे जब विजयनगर की सेना के दो मुसलमान सेनापति अपने सैनिकों के साथ विरोधी सेना से जा मिले। उनकी इस धोखेबाजी ने पाँसा पलट दिया। रामराय पकड़ लिया गया। अहमदनगर के मुसलमान ने फौरन उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। नेता के अभाव में विजयनगर की सेना में भगदड़ मच गयी।

विजयी मुसलमान सेना ने अनेगोड़ी को आधार बनाकर विजयनगर को लूटा-खसोटा और ध्वस्त किया। विजयनगर को जिस अमानुषिक और निर्दयी तरीके से लूटा-खसोटा गया और मंदिरों, राजप्रासादों और अन्य इमारतों को ध्वस्त किया गया, विश्व इतिहास में उसका दूसरा उदाहरण नहीं है। यह लूटमार छह महीनों तक चलती रही।

भग्नावशेषों के ढेर

विरूपाक्षा बाजार के ध्वंसावशेषजब आक्रमणकारी सैनिकों की लूट के लिए विजयनगर में कुछ न बचा, जब मंदिरों, राजप्रासादों और अन्य सुंदर इमारतों को तोड़ते-तोड़ते उनके हाथ थक गये तब उन्होंने अपनी विनाश लीला समाप्त की।

आक्रमणकारी विजयी सेना ने इस क्षेत्र को इतना लूटा और इस क्षेत्र में इतनी तबाही मचायी कि इटालियन यात्री ‘कैसारो फेडरिसी’ को सन् १५६७ में विजयनगर की ध्वस्त इमारतों में केवल जंगली जानवर मिले। दो वर्ष पूर्व यह नगर विश्व के प्रमुख नगरों में था।

तालीकोट की लड़ाई के साथ ही मध्यकालीन भारतीय इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया। इस युग की याद दिलाने के लिए बचे हैं ३० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले ५०० इमारतों के भग्नावशेष।

१३ अक्तूबर २०१४

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