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इतिहास



विश्व का पहला प्रामाणिक सामाजिक उपन्यास- गेंजी
- राधेश्याम


विश्व में सामाजिक उपन्यासों के लेखन का इतिहास एक हजार वर्ष पुराना है। इसके पूर्व कहानियाँ एवं कविताओं के माध्यम से धार्मिक संदेशों तथा उपदेशों के प्रचार के प्रमाण तो मिलते हैं, लेकिन मानव संघर्ष की घटनाओं का कथात्मक संयोजन उपन्यास के रूप में नहीं मिलता। आधुनिक उपन्यास लेखन का ऐसा स्वरूप भारतीय साहित्य में ही नहीं, बल्कि विश्व साहित्य में भी सिर्फ जापानी साहित्य में मिलता है।

विश्व प्रसिद्ध डान क्विकजोट (सन् १६०५) राविंसन क्रूसो (सन् १७१९) जैसे उपन्यासों से भी सैंकड़ों वर्ष पहले ‘गेंजी’ की कहानी शीर्षक से एक जापनी उपन्यास के होने का प्रमाण मिलता है, जिसकी लेखिका मुरासाकी शिबिकु हैं। इस उपन्यास में जापानी सामंतवादी समाज की समकालीनता को आत्मीयता के साथ चित्रण करने की कोशिश की गयी है। इसे कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से एक आधुनिक उपन्यास के रूप में देखा जाता है जिसमें यथार्थ और इतिहास का अद्भुत प्रयोग किया गया है।

जैसे हिंदी के इतिहासकार इस कथ्य को स्वीकार करते हैं कि इस भाषा में उपन्यास शब्द बंगला से आया है। बंगला में भी इस विधा के साहित्य का सृर्जन बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता स्थापित हो जाने के बाद आंग्ल भाषा के नावेल साहित्य से प्रभावित होकर ही हुआ है। इस दृष्टि से हिंदी साहित्य का प्रथम मौलिक उपन्यास ‘परीक्षा-गुरु’ माना जाता है जिसकी रचना लाला श्रीनिवास दास ने सन् १८८२ ई. में पाश्चात्य ढंग पर की थी। इसकी तुलना यदि जापानी उपन्यास गेंजी के रचनाकाल से करके देखें तो दोनों के बीच लगभग सात सौ वर्षों का अंतर नजर आता है। पाश्चात्य समीक्षकों ने इसकी तुलना प्राउस्त के रिमेंबरेंस ऑव थिंग्स पास्ट से की है। दोनों समय से पहले लिखी गयी कृतियाँ हैं जिनमें मनोविज्ञान के संश्लिष्ट तत्वों की तलाश की जा सकती है।

गेंजी की कहानी का नायक

गेंजी की कहानी का नायक गेंजी सुंदर, कलाप्रिय, बुद्धिमान एवं लोकप्रिय नायक है जिसे पिता का बहुत प्यार मिलता है, किंतु राजकुमार गेंजी रनिवासों में अपनी लोकप्रियता के कारण एक दिन अपने पिता का कोपभाजन बनता है और राजा पिता उससे राजकुमार का सम्मान छीन लेता है। राजकुमार बड़ी सहजता के साथ पिता का दंड स्वीकार कर लेता है। अपनी उम्र ५२ वें वर्ष में जब वह पर्वत की कंदराओं में जाकर अपने जीवन के शेष समय को जीने की कोशिश कर रहा होता है, तब उसे पता चलता है कि काओरू जिसे वह अपना बेटा मानता रहा था असल में किसी और का बेटा है। यह उपन्यास जापान के हीयेन काल (सन् ८९३-११८५) की पृष्ठभूमि में लिखा गया है, जब संभ्रांत घरों से लड़कियों को राजमहलों में इसलिए भेजा जाता था कि वे किसी भी प्रकार से राजा को प्रसन्न करके एक उत्तराधिकारी पैदा कर सके, जिसकी वजह से राजा का साम्राज्य उनकी मुट्ठी में आ जाए। इस उपन्यास में दर्जनों ऐसे चरित्र हैं जो संभ्रांत परिवार के हैं और बेहद महत्वाकांक्षी हैं। अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए जिन मूल्यों को जीते थे संभव है कि आज के मूल्यों में ज्यादा अनैतिक प्रतीत हों।

जापानी परिवार -

इस उपन्यास की लेखिका के बारे में कहा जाता है कि शायद श्रीमती शिकिबु मुरासाकी किसी महिला का उपनाम हो, किंतु इतना प्रमाणित है कि इस महिला का अस्तित्व (सन् ९७५ से लेकर १०२५) तक रहा था। मुरासाकी के पिता उस समय जापान के किसी प्रदेश के गवर्नर थे। मुरासाकी शादी होने से पूर्व वह किसी गाँव में समुद्र के किनारे रहती थी। किंतु (सन् ९९८) में शादी होने के तीन वर्षों बाद वह विधवा हो गयी। चूँकि उसके पिता गवर्नर थे। इसलिए उसे राजमहल में आने-जाने की सुविधा मिली हुई थी। उसकी प्रतिभा की पहली प्रशंसिका महारानी अकीको थी, जिसकी सेवा करने के लिए मुरासाकी को नियुक्त किया गया था। जैसे-जैसे गेंजी की कहानी रनिवासों में लोकप्रिय होने लगी, इसकी सूचना बाहर भी पहुँच गयी, लोग पढ़ने के लिए गेंजी की कापियाँ बनाने लगे। अल्पकाल में गेंजी इतना लोकप्रिय हो गया कि तत्कालीन जापानी सामंत-परिवार में गेंजी का पढ़ना जरूरी हो गया था। आज इस उपन्यास की लोकप्रियता का आलम यह है कि अब तक इस पर आधारित टी.वी. धारावाहिक, फिल्में तथा गीति नाटकों की अनगिनत प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं। सन् १९९८ में जापान की राजधानी टोक्यो में इसी उपन्यास के नाम से एक संग्रहालय की स्थापना भी हो चुकी है। अनुवाद चीनी, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी तथा इतालियन भाषाओं मंर भी हो चुकी है। भले ही नैतिकता की दृष्टि से गेंजी का चरित्र जितना भी विवादास्पद हो किंतु उपन्यास की तकनीक एवं कलात्मक पक्ष आज २१ वीं शताब्दी में अद्भुत माने जा सकते हैं।

८ दिसंबर २०१४

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