चाँद के
संपादक
: राम रख सहगल
सुधीर विद्यार्थी
आज हिन्दी
पत्र-पत्रिकाओं के बहुत से संपादक और प्रकाशक रामरख सहगल का
नाम नहीं जानते। सहगल जी स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में
इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका `चाँद' के संपादक थे।
१९२२ में उन्होंने `चाँद' के प्रकाशन की शुरुआत की थी। कर्मवीर
पंडित सुन्दरलाल की विख्यात पुस्तक `भारत में अँग्रेजी राज' का
प्रकाशन रामरख सहगल ने ही किया था। दो हजार प्रतियों का पहला
संस्करण १८ मार्च, १९२९ को प्रकाशित हुआ। २२ मार्च को अँग्रेज
सरकार की ओर से जब्ती की आज्ञा लेकर पुलिस प्रकाशक के दफ्तर
पहुँच गई। इस बीच तीन दिन के अन्दर ही किसी तरह १७०० किताबें
ग्राहकों के पास पहुँचा दी गईं। बाकी ३०० के करीब सरकार ने रेल
या डाकखानों में पकड़ लीं। ग्राहकों के पते लगाकर देश भर में
तलाशियाँ भी हुईं। इस जब्ती और तलाशी के खिलाफ सब जगह आवाज
उठी। गाँधी ने ब्रिटिश सरकार की इस कार्यवाही का कड़ा विरोध
किया। उन्होंने अपने पत्र `यंग इंडिया' में इसे `दिन दहाड़े
डाके' की संज्ञा दी और देशवासियों से कहा कि तलाशी के अपमान को
सह लें, किन्तु अपनी पुस्तक अपने हाथों से पुलिस को उठाकर न
दें और जहाँ तक हो सके, अपनी चीज बचा लें। गाँधी ने पुस्तक
पढ़ने के बाद इस पर कई संपादकीय लिखे। इन लेखों में उन्होंने
पुस्तक की प्रशंसा की और कहा कि यह अहिंसा के प्रचार और प्रसार
का एक प्रशंसनीय प्रयत्न है। गाँधी ने लोगों से यहाँ तक कहा कि
जब भी ब्रिटिश सरकार के कानून को तोड़कर सत्याग्रह करने का
अवसर आए, तो इस पुस्तक के महत्त्वपूर्ण अंशों को नकल करके या
छाप कर और खुले वितरण करके लोग जेल जा सकते हैं। इसके बाद
सत्याग्रह के दिनों में कई प्रान्तों, विशेषकर मध्य प्रान्त
में अनेक लोग इसी पुस्तक पर सत्याग्रह करके जेल गए।
सहगल जी को इस पुस्तक की जब्ती से ५० हजार रुपए की चोट लगी। उन
पर मुकदमा भी चला और वे महीनों अदालत के चक्कर काटते रहे।
सरकारी द्यालयों में उनकी पत्रिका `चाँद' का खरीदा जाना
प्रतिबंधित कर दिया गया। शीघ्र जब्ती के बावजूद `फाँसी' अंक की
जो कुछ प्रतियाँ बाहर चली गईं, वे पचास-पचास रुपए में बिकीं
जबकि उसका छपा मूल्य दस या पन्द्रह रुपए था।
`चाँद' के शुरुआती दिनों में कुछ माह तक रामकृष्ण मुकुन्द
लघाटे भी सहगल जी के साथ इसके संपादक रहे। लघाटे जी का २४ वर्ष
की अल्पायु में ही निधन हो गया। पं. सुन्दरलाल के मन में लघाटे
जी के लिए बड़ा आदर था। सहगल जी ही पीलीभीत के कवि और कथाकार
चंडीप्रसाद `हृदयेश' को `चाँद' में लाए। `चाँद' के अनेक
विशेषांक बहुचर्चित हुए। जनवरी १९२६ में `चाँद' ने `प्रवासी
अंक' निकाला जिसका संपादन इस विषय के प्रसिद्ध विद्वान पं.
बनारसीदास चतुर्वेदी ने किया था। इसमें प्रवासी भारतीयों की
समस्याओं को गहराई से उठाया गया था। २२५ पृष्ठों की पत्रिका का
यह ३९वाँ अंक था। मई १९२७ में इसका अछूतांक प्रकाशित हुआ जिसका
संपादन नन्दकिशोर तिवारी ने किया था।
इसके मुखपृष्ठ पर तिवारी जी और हिन्दी विभाग का एक कंपोजीटर
वंशीलाल कोरी एक ही थाली में भोजन करते दिखाए गए थे। तिवारी जी
अच्छे कवि थे और महादेवी वर्मा की कविताओं के उत्तर में
`अध्यापिका महादेवी शर्मा' के नाम से `चाँद' में लिखा करते थे।
तिवारी जी के ही संपादन में `चाँद' का एक `पत्रांक' भी छपा
जिसकी खूब चर्चा हुई। बाबू जयशंकर प्रसाद, अवध उपाध्याय, नवीन
जी, श्रीधर पाठक, रामचरित उपाध्याय, रामदास गौड़, आचार्य
चतुरसेन, हरिऔध जी जैसे प्रतिष्ठित लेखकों ने इस अंक के लिए
खास तौर पर अपनी विशिष्ट रचनाएँ दीं।
जून १९२८ तक तिवारी जी `चाँद' के संपादन से जुड़े रहे। इसके
बाद पूरा भार रामरख सहगल जी ने उठाया। पत्रिका का `वेश्या' पर
भी एक अंक निकला। इसके `फाँसी' अंक और `मारवाड़ी' अंक को तो
लोग आज भी नहीं भूले हैं। प्रसिद्ध `फाँसी' अंक का संपादन किया
था आचार्य चतुरसेन ने।
ब्रिटिश सरकार ने इसे भी जब्त किया। इसमें अनेक
क्रान्तिकारियों ने छद्म नाम से लेख लिखे। कई आलेख भगतसिंह के
लिखे बताए जाते हैं। अपनी तरह का यह विस्फोटक अंक भारतीय
क्रान्तिकारी आन्दोलन का विशिष्ट दस्तावेज है। इसमें
क्रान्तिकारी और शहीद चाफेकर बन्धु, सत्येन्द्र कुमार बसु,
कन्हाईलाल दत्त, मदनलाल ढींगरा, अमीरचन्द, भाई भाग सिंह, भाई
वतन सिंह, मेवा सिंह, पं. काशीराम, रहमत अली शाह, गन्धा सिंह,
करतार सिंह, विष्णु गणेश पिंगले, जगत सिंह, बलवन्त सिंह, डॉ.
मथुरा सिंह, बन्ता सिंह, धन्ना सिंह आदि के संबन्ध में
ऐतिहासिक सामग्री है।
`चाँद' का एक लोकप्रिय स्तंभ था `दुबे जी की चिट्ठी' जिसे
विजयानन्द दुबे लिखते थे। पाठकों के बीच उसकी इतनी लोकप्रियता
थी कि वे सबसे पहले दुबे जी की चिट्ठी का पाठ करते थे। `फाँसी'
अंक में उनकी एक बहुत दिलचस्प चिट्ठी फाँसी को ही केन्द्रित
करके लिखी गई थी।
`चाँद' का मूल्याअंकन करते हुए प्रफुल्ल चन्द्र ओझा `मुक्त' ने
लिखा था-``इस शती का पूर्वार्ध हमारे देश में साहित्यिक
नवजागरण का काल था। कलकत्ता से `विशाल भारत', लखनऊ से `सुधा'
और `माधुरी' तथा इलाहाबाद से `चाँद' का प्रकाशन ऐसी घटनाएँ थीं
जिन्होंने साहित्यिक गतिविधियों को बड़ी तेजी से आगे ही नहीं
बढ़ाया, बल्कि उन्हें एक नया मोड़ भी दिया। कलकत्ते के
साप्ताहिक `मतवाला' ने कुछ समय बाद साहित्यिक क्षेत्र में
अभूतपूर्व हलचल मचा दी।
`मतवाला' के माध्यम से ही हिन्दी की दो महान साहित्यिक
विभूतियाँ उपलब्ध हुईं, जिन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नये
तेवर के साथ प्रवेश किया। सूर्यकान्त त्रिपाठी `निराला' और
पांडेय बेचन शर्मा `उग्र' ने कविता और गद्य विधा में
क्रान्तिकारी प्रयोग किए, लेकिन इलाहाबाद के `चाँद' ने उस युग
में जो प्रसिद्धि और कीर्ति पायी, वह अद्वितीय थी। `चाँद' के
संचालक रामरख सिंह सहगल अत्यन्त मेधावी, कल्पनाशील और
प्रबन्ध-कुशल व्यक्ति थे उन्होंने समय की नाड़ी को पकड़कर न
केवल तत्कालीन श्रेष्ठ साहित्यिकों की रचनाओं से ही अपनी
पत्रिका का शृंगार किया, बल्कि समय की आवश्यकता के अनुसार इसकी
गतिविधियों में विविध परिवर्तन करते हुए चाँद को सर्वप्रिय और
सर्वग्राह्य पत्रिका बना दिया था।
संपादक के रूप में उन्हें पंडित नन्दकिशोर तिवारी जैसे अक्खड़
और अधीत व्यक्ति का सहयोग सुलभ हो गया था, जो सोने में सुहागा
बना। उस जमाने में, एक के बाद दूसरे, `चाँद' के जो विशेषांक
निकले, वे अपने ढँग के अनूठे थे। सहगल जी साहित्यिक तो नहीं
थे, लेकिन साहित्यमें उनकी रुचि और पैठ बहुत गहरी थी।
बड़े-बड़े साहित्यिकों का दल `चाँद' के इर्द-गिर्द जुटाने में
उन्हें बड़ी दक्षता प्राप्त थी। सहगल जी को हिन्दी पत्रकारिता
की दयनीय स्थिति देखकर बड़ा क्षोभ होता था और वह चाहते थे कि
हिन्दी पत्रों के स्तर को भी अँग्रेजी के बड़े-से-बड़े पत्र की
शानशौकत और गरिमा प्रदान करे। इसीलिए `चाँद' कार्यालय की
साज-सज्जा उन्होंने ऐसी बना रखी थी कि हिन्दी का लेखक उसे
देखकर आतंकित और अभिभूत हो जाता था और अन्य भाषा-भाषियों को
उसकी तड़क-भड़क देखकर ईर्ष्या होती थी। जमाना ऐसा था, जब
पत्रकारिता न तो आय का साधन थी और न लेखकों को अपनी रचनाओं के
लिए पारिश्रमिक ही मिलता था। मुझे स्मरण है कि एक बार
प्रेमचन्द जी ने मुझसे कहा था कि आरंभिक काल में उन्हें अपनी
कहानी के लिए पाँच रुपए तक का पारिश्रमिक मिला था। स्वयं मुझे
जब आगरा के साप्ताहिक `सैनिक' में छपी मेरी एक कहानी के लिए
पाँच रुपए का मनीआर्डर मिला, तब मैं आश्चर्यचकित रह गया था।
सहगल जी ने इस दिशा में भी पहल की और `चाँद' के लेखकों को
अच्छा पारिश्रमिक देना आरंभ किया।
जहाँ तक स्मरण है, मुझे `चाँद' से प्रति कॉलम एक रुपया के
हिसाब से पारिश्रमिक मिलता था। `चाँद' से मिलने वाले
पारिश्रमिक ने स्वभावत: हिन्दी के लेखकों-कवियों को अधिकाधिक
आकर्षित किया और हिन्दी के पाठकों में इसका प्रचार-प्रसार
बढ़ता गया।''
ओझा जी ने `चाँद' से जुड़ी अपनी संस्मृतियों में एक बार जो कुछ
सुनाया वह सहगल जी के व्यक्तित्व और उनकी कार्यपद्धति को जानने
के लिए जरूरी है। उन्होंने कहा था--``एक दिन मैं अपने कक्ष में
बैठा संपादकीय लिखने की तैयारी कर रहा था कि अचानक कविता का
मूड बन आया और मैं एकाग्रचित्त से एक लंबी कविता लिखने लगा।
इसी बीच दो बार प्रेस के फोरमैन का फोन आया कि संपादकीय के लिए
अंक रुका हुआ है और मैं तत्काल मैटर भेज दूँ। लेकिन मैं कविता
लिख रहा था और बार-बार फोन पर उन्हें आश्वस्त भी कर रहा था कि
थोड़ी देर में मैटर भेजता हूँ। आखिर मेरी कविता समाप्त हुई और
मैंने सिर उठाकर सामने देखा, तो सहगल साहब मुस्कराते हुए सामने
खड़े थे। मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, क्योंकि सचमुच जब मुझे
संपादकीय लिखना चाहिए था, तब मैं कविता लिख रहा था और मेरे
कारण `चाँद' के उस अंक के प्रकाशन में विलंब हो रहा था। सहगल
जी कुर्सी खींचकर मेरे सामने बैठ गए और मुस्कराते हुए उन्होंने
पूछा-- कविता लिखी जा रही थी? मैं थोड़ा झेंपा। मैंने कहा-हाँ,
लेकिन इस समय मुझे संपादकीय लिखना चाहिए था। सहगल जी ने हँसकर
कहा-- भई, जब दिमाग में कविता कुलबुलाएगी, तो कोई संपादकीय
कैसे लिखेगा?
कविता आपकी समाप्त हो गयी या मैं कुछ लिखने की कोशिश करूँ?
मैंने उत्तर दिया-- नहीं, मेरी कविता खत्म़ हो गई है और मैंने
संपादकीय का विषय भी सोच रखा है। अभी आधे घंटे में मैं
संपादकीय लिखकर भेज दूँगा।''
कुछ ही दिनों बाद, जब ओझा जी के पिता का देहावसान हो गया तब
उन्हें `चाँद' और इलाहाबाद छोड़कर पटना चले जाना पड़ा। फिर तो
जैसे उनका यहाँ से संबन्ध ही टूट गया।
सहगल जी अत्यन्त कल्पनाशील व्यक्ति थे और धुनी भी। खतरे उठाने
का तो अकूत साहस था उनके भीतर। वे प्रयोगधर्मी भी थे। नई-नई
बातें सोचना और उन्हें कार्यान्वित करना उनके स्वभाव में था।
कह सकता हूँ कि वे बहुत डायनेमिक व्यक्ति थे। उनके पास अपने
समय को पहचानने वाली आँखें थीं और जनता तथा पाठकों की नब्ज पर
सदैव उनका हाथ रहता था। वे सजग और चौकन्ने पत्रकार थे। `चाँद'
के साथ ही उन्होंने साप्ताहिक `भविष्य' का भी प्रकाशन शरू
किया। क्या कोई खोजी इतिहास लेखक `चाँद' और `भविष्य' की
पत्रकारिता के ऐतिहासिक महत्त्व की छानबीन कर सकता है? यह
जानना जरूरी है कि `भविष्य' ने बलिदानी पत्रकारिता में बहुत
जल्दी ही एक अनोखा कीर्तिमान स्थापित कर लिया। छपने के छह
महीने के भीतर ही उसके कई संपादक एक-एक कर पकड़ लिए गए।
`भविष्य' इन परिस्थितियों में अधिक दिन नहीं चला, पर उस दौर
में वह जनता का चहेता अखबार बन गया। शायद उसमें देश की मुक्ति
की जनाकांक्षा की बड़ी अभिव्यक्ति थी। वह जब तक निकला, अपनी
गौरव-पताका फहराते हुए एक सार्थक जिन्दगी जी।
सहगल जी इलाहाबाद के ८ हेस्टिंग्ज रोड पर रहते थे। वहाँ उनकी
कोठी का नाम `रैन बसेरा' था। कहा जाता है कि उनके छोटे भाई
नन्दगोपाल सिंह सहगल ने, जो प्रेस और कार्यालय के व्यवस्थापक
थे, उनके सम्मुख ऐसी स्थितियाँ उत्प़न्न कर दीं जिसके कारण
उन्हें `चाँद' और इलाहाबाद को अलविदा कहना पड़ा। बाद को
उन्होंने `कर्मयोगी' और एक अँग्रेजी साप्ताहिक शायद `क्राइसिस'
भी निकाला था। राजेन्द्र यादव जी से उनकी निकटता रही और दो-ढाई
साल पत्र व्यवहार भी चला। वे पत्र सहगल जी को जानने के लिए एक
जरूरी आधार हो सकते हैं। राजेन्द्र जी की पहली मन लायक
`प्रतिहिंसा' कहानी `कर्मयोगी' में ही छपी। राजेन्द्र जी मानते
हैं कि सहगल जी पत्रकारिता के क्षेत्र में धमाके करने वाले
दबंग संपादक थे। उनके छोड़ते ही `चाँद' भी देश की बलिदानी
पत्रकारिता और आजादी की लड़ाई के इतिहास में अपनी जीवन्त
भूमिका का निर्वाह कर ओट में जा छिपा।
मुझे राजेन्द्र जी से ही पता लगा कि सहगल जी ने डायरी लिखनी भी
शरू की थी, पर मुझे उसका पता नहीं चला। वह डायरी क्रान्तिकारी
आन्दोलन के कई दबे-छिपे बिन्दुओं को भी सामने लाने का जरूरी
कार्य कर सकती है। मैंने किसी से सुना तो यह भी था कि अल्फ्रेड
पार्क, इलाहाबाद में ब्रिटिश पुलिस के गोली चलाने सुधीर
विद्यार्थी से पहले चन्द्रशेखर आजाद सहगल जी से मिले थे; यह
सूचना पुलिस के पास थी। पुलिस को आजाद के बारे में यह जानकारी
सहगल जी के भाई नन्दगोपाल से मिली। इस रहस्य पर से अभी पर्दा
नहीं उठा।
मुझे यह भी लगता है कि शायद इस बात में कुछ पेंच हो। यह
सवर्झिवदित है कि अल्फ्रेड पार्क में आजाद की शहादत के समय
क्रान्तिकारी सुखदेव राज उनके साथ थे। सुखदेव राज ने अपने
संस्मरणों में विस्तार से उस घटना के सात्क्तय और पृष्ठभूमि पर
रोशनी डाली है। उसमें आजाद के प्रति उस समय दल के सदस्यों के
विश्वासघातों और षड्यत्रों का भी खुलासा किया है, पर उसमें यह
उल्लेख नहीं मिलता कि आजाद अल्फ्रेड पार्क के उस सन्मुख युद्धि
से पूर्व रामरख सहगल जी से मिले थेट्टक्क। सुखदेव राज यह बताते
हैं कि उस गोलाबारी के समय आजाद के निर्देश पर ही किसी तरह
वहाँ से निकलकर सहगल जी के पास पहुँचे थे। उन्होंने अपनी
प्रसिद्ध पुस्तक `जब ज्योति जगी' में लिखा है-- ``भैया के आदेश
पर मैंने निकल भागने का रास्ता देखा। बायीं ओर एक समर हाउस था।
पेड़ की ओट से निकल कर मैं समर हाउस की ओर दौड़ा। गोलियाँ मेरे
ऊपर चलाई गईं, मगर मुझे लगीं नहीं। ये गोलियाँ नॉट बाबर और
उसके सिपाहियों द्वारा ही चलाई गई थीं। समर हाउस के पास एक
तारों का घेरा था। मैं उसे फाँद कर सड़क पर आया। यह सड़क
लाइब्रेरी की ओर जाती थी। सड़क पर मैंने देखा कि एक लड़का
साइकिल पर जा रहा है। मैंने उसे पिस्तौल दिखाई और साइकिल से
उतरने को कहा। लड़के ने चुपचाप साइकिल मुझे दे दी और मैं
साइकिल पर सवार हो लाइब्रेरी की ओर दौड़ा। वहाँ से घूमते-घामते
मैं `चाँद' प्रेस पहुँचा। `चाँद' प्रेस के संपादक रामरख सिंह
सहगल दल के समर्थकों में से थे। मैं उन्हीं के यहाँ `भविष्य'
के संपादन विभाग में काम करता था। मेरा असली नाम भी वे जानते
थे। मैंने जाते ही सारी घटना उन्हें बताई। उन्होंने सलाह दी कि
हाजिरी रजिस्टर में फौरन दस्तखत करो और अपनी जगह बैठ जाओ। मैं
पार्क में जाकर स्थिति देख आता हूँ।''
वीरभद्र तिवारी ने एक समय जब यह कहा था कि २६ फरवरी को रामरख
सिंह सहगल के मार्फत आजाद से मिले, तब इस पर क्रान्तिकारी
विश्वनाथ वैशंपायन ने यह सवाल उठाया था कि ``सहगल से संबन्ध
होने का उन्हें कैसे पता चला। इसका पता केवल चार व्यक्तियों को
था-- भाभी, दीदी, आजाद तथा मैं। दूसरे, आजाद के पास सन्देश
भेजने तथा उनसे मिलने का प्रयत्न करने के लिए कानुपर में मासी
माँ थीं जिनसे मिलकर वह कह सकते थे। वे उनसे मिलते भी रहे।''
यहाँ वीरभद्र तिवारी का झूठ साफ पकड़ जाता है। सही तो
यह है कि आजाद की शहादत के पश्चात् स्वयं सीआईडी
सुपरिन्टेन्डेन्ट ने, जो `चाँद' प्रेस की तलाशी लेने गया था,
सहगल जी से आजाद के जीवन की प्रशंसा की थी। उसका कहना था कि
ऐसे सच्चे निशानेबाज उन्होंने बहुत कम देखे हैं, खासकर ऐसी
शंकामय परिस्थिति में जब तीन ओर से उन पर गोलियों की वर्षा हो
रही थी। उसने यह भी स्वीकार किया कि यदि पहली गोली आजाद की
जाँघ में न लगी होती, तो पुलिस का एक भी अफसर जीवित न बच पाता
क्योंकि नॉट बाबर का हाथ पहले ही बेकार हो चुका था। उसने यह भी
बताया कि आजाद विप्लवी दल का कोई प्रतिष्ठित नेता था।
सहगल जी क्रान्तिकारी दल के बड़े सहयोगी थे। यह इससे भी विदित
होता है कि उनका घर क्रान्तिकारियों का आश्रय स्थल था।
वैशंपायन ने अपने संस्मरणों में लिखा है--``एक समय भैया (आजाद)
ने भावी कायर्झ्क्रम की रूपरेखा पर विचार किया। सुखदेव राज को
पंजाब भेज दिया गया। दीदी (सुशीला) को पंजाब से बुलाया गया।
बाद में दीदी ने पहले इलाहाबाद जाने का निश्चय किया। वे `चाँद'
के संपादक श्री रामरख सिंह सहगल के यहाँ गईं। उनकी पत्ऩी दीदी
की सहेली और जालन्धर कन्या महाविद्यालय में दीदी के साथ पढ़
चुकी थीं।
उन्होंने इनके लिए अपने यहाँ रहने की व्यवस्था करना स्वीकार
किया। इसके बाद दीदी और भाभी (दुर्गा देवी) शची (पुत्र) को साथ
लेकर इलाहाबाद चली गईं। सहगल जी ने इनकी व्यवस्था रसूलाबाद
`मातृ मंदिर' में कर दी। बाद में भैया और मैं अनेक बार रामरख
सिंह सहगल के यहाँ गए। भोर में हम इलाहाबाद पहुँचते और भाभी,
दीदी से मिलकर रात को लौट आते। कैलाशपति के मुखबिर हो जाने के
बाद जब हम लोग स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहने लगे, तो सुखदेव
(राज) ने सहगल के `भविष्य' हिन्दी साप्ताहिक में काम करना
प्रारंभ कर दिया था। हमने इलाहाबाद के कटरों में दो मकान ले
रखे थे। एक में भाभी, दीदी और सुखदेव राज रहते थे और दूसरे में
आजाद तथा मैं। भैया ने इन लोगों को भी अपना मकान नहीं दिखाया
था। आवश्यकता होने पर या तो वे स्वयं वहाँ चले जाते या उन
लोगों से अल्फ्रेड पार्क में मिलते।''
वैशंपायन जी ने अपने संस्मरणों में सहगल जी के `मातृ मंदिर' की
संचालिका लीलावती का जिक्र करते हुए कहा है-- ``यहीं मेरी भेंट
दीदी, लीला जी तथा सरदार भगतसिंह की बहन बीवी अमर कौर से हुई।
लीला जी दल की सदस्या तो नहीं थीं, परन्तु क्रान्तिकारियों को
वे यथाशक्ति सहायता करती थीं।
जब वे इलाहाबाद के रामरख सिंह सहगल के `मातृ मंदिर' की
संचालिका थीं, तो वहीं पर मुझसे उनकी सन् १९३० में एक-दो बार
भेंट हुई थी। उन दिनों वे डेंटिस्ट थीं। वे बड़ी भावुक हृदया
थीं। जीवन में जहाँ अनेक ममत्व की स्मृतियों का बसेरा है और जो
यदाकदा जीवन में उभर आती हैं, उनमें से एक स्मृति लीला जी की
भी है। बाद में जब मैं जेल में था, तो एक दिन सुना कि प्रेम
में पराजय सहन न होने के कारण इन्होंने आत्महत्या कर ली।''
क्रान्तिकारी जितेन्द्रनाथ सान्याल की प्रसिद्ध पुस्तक `अमर
शहीद सरदार भगतसिंह' का हिन्दी अनुवाद रामरख सिंह सहगल की
सुपुत्री स्नेहलता सहगल ने ही किया था। स्नेह जी को भगतसिंह ने
अपनी गोद में खिलाया था। वे जब छोटी थीं उस समय एक रोज
इलाहाबाद की उनकी कोठी पर बातें करते-करते भगतसिंह ने एकाएक
उछल कर पेड़ पर टँगी पतंग उतार कर स्नेह जी को दी। स्नेह जी
भगतसिंह के उस प्यार को कभी नहीं भूलीं। बाद को उन्होंने
भगतसिह पर सान्याल जी की पुस्तक का अनुवाद कर शायद उस शहीद के
प्यार का ही कर्ज चुकाया। इस पुस्तक का पहला संस्करण अगस्त
१९४७ में `कर्मयोगी प्रेस', इलाहाबाद से छपा। पहले यह पुस्तक
अँग्रेजी में सहगल जी के द्वारा ही उनके `फाइन आर्ट प्रिंटिंग
काटेज' (चाँद प्रेस) में मुद्रित हुई थी, किन्तु वह संयुक्त
प्रान्तीय गवर्नमेंट द्वारा जब्त कर ली गई। १२ जून, १९३१ की
बात है जब प्रात:काल संस्था पर पुलिस का धावा हुआ और सहगल जी
को स्थानीय डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट का हस्ताक्षरित तलाशी वारंट
दिखाया गया। इस वारंट में एक विशेषता यह थी कि तलाशी लेने की
आज्ञा के साथ यह भी जोड़ा गया था कि `यदि आवश्यकता समझी जाए,
तो तलाशी के सिलसिले में बल प्रयोग भी किया जा सकता है।'
संस्था में पुस्तक की केवल एक प्रति मिली जिसे पुलिस ले गई।
दूसरे दिन फिर शाम को पुलिस का एक सबल दल संस्था में उपस्थित
हुआ जिसमें ४-५ दरोगा, खुफिया पुलिस के कमर्झ्चारी तथा १०-१५
सिपाही थे। सहगल जी को खबर भेजी गई कि पुलिस `चाँद' तथा
`भविष्य' के संपादक, मुद्रक और प्रकाशक को गिरफ्तार करने आई
है। मुद्रक त्रिवेणी प्रसाद बी.ए. ने इस शुभ समाचार का बड़ी
प्रसन्नता से स्वागत किया। जैसे सहगल, वैसे ही त्रिवेणी! चलते
समय प्रेस तथा कार्यालय के कर्मचारियों ने उन्हें बधाई दी। उन
पर फूलों की वर्षा की गई और हार आदि पहनाकर वे पुलिस के हवाले
कर दिए गए। चूँकि सहगल जी के साथ उन्हें निजी मोटर में बैठने
की आज्ञा नहीं दी गई इसलिए उन्हें जेल की लारी में ही बैठना
पड़ा। प्रेस के कर्मचारियों ने `इन्कलाब जिन्दाबाद' तथा
`भगतसिंह जिन्दाबाद' आदि नारों से सिविल-लाइन
को गुँजा दिया था।
जिस समय गिरफ्तारी की जा रही थी, उस समय संस्था के बगल वाले
बगले में अपने मोटर में छिपकर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मि. मूडी
सारा दृश्य देख रहे थे। सहगल जी स्वयं त्रिवेणी प्रसाद का
जरूरी सामान लेकर जेल तक गए, किन्तु डिस्ट्रिक्ट जेल के जेलर
ने सामान लेने से मना कर दिया। उन्हें अधिकारियों की ओर से
आज्ञा नहीं मिली थी। बहुत कहने-सुनने पर दो रुपए दूध के लिए
स्वीकार किए तथा एक कंबल और तकिया भी ले लिया।
लाहौर से समाचार मिला कि इस पुस्तक के संबन्ध में वहाँ १४ जून
को अनेक तलाशियाँ हुईं जिनमें कुछ व्यक्तियों और संस्थाओं के
नाम इस प्रकार हैं-- मेसर्स रामकृष्ण एंड सन्स, अनारकली पुस्तक
विक्रेता और प्रकाशक, कामरेड रामचन्द्र बी.ए. संपादक
`वन्देातरम्', सरदार किशनसिंह जी (भगतसिंह के पूज्य पिता),
मेहता आनन्द किशोर, मेसर्स वर्मा एंड कंपनी, अखिल भारतवर्षीय
भगतसिंह-राजगुरु सुखदेव स्मारक संघ, हिन्दुस्तानी सेवा दल,
`वीर भारत' कार्यालय, वन्देातरम्' कार्यालय, सर्वेन्ट्स आफ द
पीपुल सोसाइटी आदि।
लेकिन पुलिस को इन स्थानों से पुस्तक की एक भी प्रति हाथ नहीं
लगी। मुकदमा डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की अदालत में ही चला।
अभियुक्तों की ओर से युक्त प्रान्तीय धारा सभा तथा सर्वेन्ट्स
ऑफ इंडिया सोसाइटी के भूतपूर्व सदस्य पं. वेंकटेश नारायण
तिवारी तथा केन्द्रीय असेंबली के भूतपूर्व सदस्य पं.
कृष्णकान्त मालवीय से, जो सफाई पक्ष की ओर से गवाही देने आए
थे, जिरह की गई। मुकदमे में पुस्तक के लेखक जितेन्द्रनाथ
सान्याल को दो वर्ष तथा प्रिन्टर त्रिवेणी प्रसाद को एक हजार
रुपए जुर्माना या उसे अदा न करने पर छह महीने की कड़ी कैद की
सजा दी गई। इस मुकदमे की कार्यवाही के दौरान अखिल नाथ सान्याल,
बार-एट-ला, जे.सी. मुकर्जी, एडवोकेट, हाईकोर्ट तथा सहगल जी जेल
में अभियुक्तों से मिलने गए, किन्तु पहले मिलने की आज्ञा नहीं
दी गई। बाद में अधिकारियों ने कुछ सोचकर प्रतिबन्ध हटा लिया।
इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण जब बाद में छपा, तो उसमें प्रकाशक
के नाते रामरख सहगल का एक विस्तृत नोट दिया गया था, जिससे पता
लगता है कि भगतसिंह से उनकी बहुत निकटता थी। इसमें उन्होंने
अपने भाई नन्दगोपाल को विश्वासघाती भाई कह कर संबोधित किया है।
अपने बारे में सहगल जी ने स्पष्ट कहा है--``चाहे आप इसे मेरी
भूल कहें, चाहे दूरदर्शिता, पर मैं जीवन के प्रथम प्रभात से
हिंसात्मक सिद्धान्तों का पोषक और समर्थक रहा हूँ। व्यक्तिगत
रूप से मैंने ही नहीं, बल्कि मेरे द्वारा संपादित एवं संचालित
सभी पत्र-पत्रिकाओं ने आजीवन काग्रेस का समर्थन किया है और
लाखों का बलिदान भी। जब-जब काग्रेस द्वारा संचालित आन्दोलनों
ने उग्र रूप धारण किया, तब-तब मुझे जेल-यात्रा करनी पड़ी और
प्रचुर धन का नाश भी हुआ, पर मुझे इस बात का हार्दिक सन्तोष है
कि मैं न तो कभी नमक बनाने के अभियोग में जेल गया और न झंडा
लेकर आम सड़क पर चलने के अपराध में। प्रत्येक बार मुझ पर
भारतीय दंड विधान की धारा १२४ में बगावत के मातहत अभियोग लगाया
गया और मुझे इसका गर्व है कि मैंने अपने इस सिद्धान्त की
ईमानदारी से आज तक रक्षा की। मेरी तो निश्चित धारणा है कि आज
इस देश में जो भी थोड़ा-बहुत राजनैतिक जागरण दिखाई देता है,
उसका अधिकांश श्रेय महात्मा गाँधी के शब्दों में, उन मुट्ठी भर
`गुमराह, उतावले, मूर्ख तथा पथ-भ्रष्ट' हुतात्माओं को ही है
जिनकी राजनीति ने ब्रिटिश साम्राज्य का नाका बन्द कर दिया,
प्रत्येक अँग्रेज की नींद हराम कर दी थी। मैंने सदैव इन मुट्ठी
भर नवयुवक तथा नवयुवतियों की कद्र की है-यथाशक्ति त समय-समय पर
इनकी सहायता भी।
इनकी निर्भीकता, साहस, त्याग एवं खड़े-खड़े बलिदान हो जाने की
भावना ने मुझे उनका गुलाम बना दिया था। इन्हीं सद्गुणों से
प्रभावित होकर मैंने इनके लिए क्या नहीं किया।''
`कर्मयोगी' का प्रकाशन सहगल जी ने किया, तो उस समय के अनेक
क्रान्तिकारी उनके सहयोगी थे। १९३८ में `कर्मयोगी' के प्रकाशन
के समय क्रान्तिकारी सुखदेव राज इसके प्रबन्धक तथा यशपाल
संपादकीय विभाग में थे। उनके द्वारा संचालित `मातृ मंदिर' में
भी क्रान्तिकारियों और उनके परिवार के सदस्यों का सहयोग मिला।
श्रीमती सुशीला दीदी, उनकी सहोदरा शान्ता देवी, शहीद भगवतीचरण
वोहरा की धर्मपत्नी श्रीमती दुर्गा भाभी, डॉ. लीलावती आदि
महिलाएँ एक सुदीर्घ काल तक रहीं, जबकि उन दिनों उनकी गिरफ्तारी
के लिए सरकार ने हजारों रुपए ईनाम घोषित कर रखे थे। जिन दिनों
`भविष्य' प्रकाशित हो रहा था तब भी कई क्रान्तिकारी अपना नाम
तथा भेष बदलकर इसके संपादकीय विभाग में काम करते थे जिसका पता
केवल सहगल जी, उनकी धर्मपत्नी तथा उनकी साली को ही था।
सहगल जी की इलाहाबाद की कोठी ब्रिटिश हुकूमत के लिए हमेशा
सिरदर्द बनी रही। उन्होंने स्वयं कहा- ``मेरी कोठी के चारो ओर
२४ घंटे खुफिया पुलिस के भूत मँडराया करते थे। बाद में तो
उन्होंने कोठी के सामने अपने खेमे तक गाड़ लिए थे। कहीं कोई बम
फटा अथवा कोई राजनैतिक हत्या हुई कि इलाहाबाद में सबसे पहले
मेरी तलाशी हुआ करती थी। यदि मैं भूल नहीं करता, तो कुल मिलाकर
करीब ४० बार मेरे यहाँ पुलिस ने तलाशियाँ ली होंगी। सी-किसी
बार तो पुलिस के सैकड़ों सशस्त्र सिपाही तथा आफिसर मेरी कोठी
का रातों-रात घेरा डाल लिया करते और दिन निकलते ही तलाशी शुरू
हो जाती।''
सहगल जी ने इन स्थितियों में भी देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के
इतिहास की पता नहीं कितनी `खतरनाक' सामग्री अपने पास सुरक्षित
छिपा कर रखी और उसका सदुपयोग किया। यह दर्ज रहेगा कि जब
उन्होंने `कर्मयोगी' छापा, तो लोगों ने `चाँद' के अभाव को
विस्मृत कर दिया था। यह सच है कि `कर्मयोगी' दीर्घजीवी नहीं हो
सका और थोड़े समय बाद सहगल जी ने भी इस दुनिया को छोड़ दिया।
वे बड़े जीवट के और जुझारू संपादक व प्रकाशक थे। देश के
स्वतंत्रता आन्दोलन को गति देने के लिए अपने जीवन को खतरे में
डालने से वे कभी हिचके नहीं। उनकी जिन्दगी को देखकर लगता है कि
जैसे खतरों से खेलने में उन्हें मजा आता था। अपने यहाँ
क्रान्तिकारियों को आश्रय देना उस समय कम साहस की बात नहीं थी।
वे उन्हें आर्थिक सहायता भी करते थे। कहा तो यह भी जाता है कि
इलाहाबाद में `नारी निकेतन' चलाने के पीछे क्रान्तिकारियों की
गतिविधियों के लिए उन्होंने एक आवरण जैसा निर्मित कर रखा था।
दबी चर्चा तो यह भी रही ही कि आजाद अपनी शहादत से पूर्व सहगल
जी के संरक्षण में थे। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में एक समय
हिन्दी पत्रकारिता में उन्होंने जो गजब की हलचल मचाई उसकी धमक
को दूर तक सुना और महसूस किया गया। यह भी उतना ही तर्कपूर्ण है
कि बलिदानी पत्रकारिता का इतिहास सहगल जी के कृतित्व को
विस्मृत कर लिपिबद्धि नहीं किया जा सकता।
आज रामरख सहगल का नाम कोई नहीं जानता। पत्रकारिता और साहित्यकी
दुनिया के लोगों को भी उनके ऐतिहासिक क्रान्तिकारी योगदान का
पता नहीं। किसे मालूम स्वतंत्र भारत में कब, कहाँ उनका निधन
हुआ।
अभी राजेन्द्र यादव जी ने मुझे बताया कि सहगल जी की सुपुझ्र्री
स्नेहलता दिल्ली के सूचना विभाग में आ गई थीं। इसके बाद राजोरी
गाडर्झ्न में मकान बना लिया। कुछ दिन पहले स्नेह जी का भी निधन
हो गया। कभी राजेन्द्र जी उनके बहुत करीब रहे। आगरा के उनके घर
पर रहकर ही स्नेह जी ने बी-एड किया था।
...इलाहाबाद में अब `कर्मयोगी' और `चाँद' के साथ ही `रैन
बसेरा' की यादें भी शायद ही किसी के पास हों। सहगल जी को जानने
वाले भी पता नहीं कहाँ खो गए। याद नहीं पड़ता कि उनकी
स्मृतियों को किसी ने कहीं लिपिबद्धि किया हो। स्वयं कर्मवीर
पं. सुन्दरलाल के संस्मरणों में `भारत में अँग्रेजी राज' की
जब्ती की रोमाचक गाथा का विस्तृत वर्णन होने के बावजूद सहगल जी
पर कुछ नहीं कहा गया। यह मेरे लिए आश्चर्य की बात है।
सुन्दरलाल जी सहगल जी के प्रति खामोश क्यों बने रहे। राजेन्द्र
यादव जी के पास शायद अभी सहगल जी की कुछ चिटि्ठयाँ सुरक्षित
हों।
आज पत्रकारिता का मिशनरी युग नहीं रहा। व्यावसायिक और सनसनीखेज
खबरों की दुनिया में रामरख सहगल को स्मरण करने की जगह ही कहाँ
बचती है। सहगल परिवार और `चाँद' के क्रान्तिकारी अवदान को भुला
देने को क्या हमारी भयंकर भूलों में शामिल नहीं किया जाना
चाहिए? `चाँद' और सहगल जी एक समय बलिदानी पत्रकारिता के पर्याय
बन गए थे। अपने ऐसे इतिहास-पुरुषों को याद करना और उनकी
स्मृतियों को सँजोना हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिये। क्यों कि
देशप्रेम और संकटों से जूझने की उस चेतना की जरूरत अभी खत्म
नहीं हुई है। |