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इतिहास


१० मई- क्रांति का शंखनाद

--डा. के.डी. शर्मा


मेरठ छावनी में तैनात तीसरी कैवेलरी के 8५ सैनिकों द्वारा परेड ग्राउंड पर चर्बी लगे कारतूसों के प्रयोग के आदेश की अवहेलना ने भारत की स्वाधीनता के प्रथम संग्राम को एक ऐसा मोड़ दिया जिसको १८५७ की क्रांति के नाम से जाना गया।

१० मई १८५७ को प्रस्फुटित हुई यह क्रांति मात्र सैनिक विद्रोह नहीं थी। इसका सर्वाधिक उल्लेखनीय पहलू यह है कि इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अपने राष्ट्रीय धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध थे। १८५७ के विप्लव के पूर्व ही देश के सैनिक तथा असैनिक ठिकानों के घटनाक्रम में पर्याप्त साक्ष्य मिलने लगे थे। ये इंगित करते रहे थे कि आने वाला समय ईस्ट-इंडिया कंपनी सरकार के लिए दुखदायी साबित हो सकता है। सम्भवत: यही कारण था कि १८५७ की क्रांति के बाद अंग्रेज अधिकारी यह साबित करने में जुट गए कि जो विप्लव भारत की धरती पर १८५७ में हुआ था, वह मात्र एक सैनिक विद्रोह था जिसके लिए कुछ धार्मिक कारण उत्तरदायी थे।

तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत इस तर्क को उस समय अधिकांश इतिहासकारों द्वारा जस का तस स्वीकार कर लिया गया, जिससे उनका निष्कर्ष यही निकला कि १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम एक फौजी बगावत से अधिक कुछ नहीं था। जिसके पीछे कुछ धार्मिक कारण विद्यमान थे।

इस प्रकार देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया वह तथ्यों के उपलब्ध होने के बाद भी उन्हें नकारने जैसा ही है। ऐसा नहीं है कि जो कुछ हुआ वह मात्र छावनियों तथा बैरकों तक ही सीमित था। १८५७ के प्रस्फुटन से पूर्व समस्त देश में रहस्यपूर्ण घटनाएं घटित हो रही थीं। इसी प्रकार की एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथा रहस्यपूर्ण घटना चपातियों के वितरण के रूप में परिलक्षित होती है।

चपातियों के वितरण की सूचनाएं जनपद मथुरा, मेरठ डिवीजन, गुड़गांव तथा दिल्ली के समीपवर्ती क्षेत्रों में मिलती है। जबकि गंगा के उत्तर में ये चपातियां रूहेलखण्ड तथा अवध के क्षेत्रों में भी देखने में आईं तथा इनका उद्गम स्थल संभवत: बुंदेलखण्ड था। मथुरा के तत्कालीन मजिस्ट्रेट डब्ल्यू टार्नहिल ने लिखा है कि चपाती लोगों का ध्यान आकर्षित करने में असफल नहीं रही, इसलिए और भी कि ऐसा ही वितरण १803 में उत्तर में मराठा लूटपाट से पहले भी हुआ था, इसके पश्चात १806 में थेलोर विप्लव के दौरान। लार्ड राबर्ट्स का विश्वास था कि चपातियों का उद्देश्य स्थानीय लोगों को आने वाली घटनाओं के लिए तैयार करना था।

चपातियों के वितरण से संबंधित सबसे आश्चर्यजनक जानकारी कर्नल ए.आर. मैकेन्जी के एक पत्र से मिलती है जो ९ दिसम्बर १8९0 को ‘पायोनियर’ में प्रकाशित हुआ था। मैकेन्जी जो कि सन् १८५७ में मेरठ में तीसरी हल्की अश्वसेना का लेफ्टिनेंट था, ने लिखा है- ‘प्रत्येक को रहस्यमय चपातियां अथवा गेहूं की चपटी टिकिया याद हैं जो कि गदर से कुछ ही दिन पूर्व एक रेजीमेंट से दूसरी रेजीमेंट के बीच बांटी गईं। अंग्रेज इनके रहस्य की कभी थाह नहीं ले पाए किंतु इस बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता कि सिपाहियों द्वारा इन्हें आने वाली घटनाओं के लिए तैयार रहने का संकेत समझा गया।’

गदर के कारणों की जांच करने के लिए नियुक्त उत्तर पश्चिम प्रांत के पुलिस अधीक्षक मेजर विलियम्स ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है ‘विप्लव के एकदम पूर्व चपातियों का वितरण अत्यधिक रहस्यपूर्ण तथा संदेहास्पद है… इसे सुलझाने के समस्त प्रयासों के उपरांत भी यह रहस्य अनसुलझा ही रहा।’

चपातियों के वितरण का उद्देश्य उपरोक्त दोनों अंग्रेज अधिकारियों के बयानों से जितना स्पष्ट हो जाता है वह अपने आप में तार्किक है। मेजर विलियम्स वह अधिकारी था जिसे विप्लव के कारणों की सरकारी जांच का कार्य सौंपा गया था। मेजर विलियम्स चपातियों का उल्लेख करते समय स्पष्ट करता है कि यह संभवत: एक प्रकार की सौगन्ध से संबंधित वितरण था जो सभी प्रयासों के बावजूद अनसुलझी गुत्थी ही रहा। मैकेन्जी का कहना है कि चपातियों का वितरण विभिन्न पलटनों के बीच भी हुआ था, जिसका उद्देश्य उन्हें आने वाली घटनाओं के लिए तैयार रहने का संकेत देना था।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शिमला में बैठे अंग्रेज अधिकारी जब यह समझ रहे थे कि कारतूसों के कारण व्याप्त उत्तेजना अब शांत होने लगी है, तब देश के दूसरे ठिकानों में बैठे अनेक अधिकारी उनसे सहमत नहीं थे। शिमला में कर्नल के प्रथम सहायक एडजुटेंट जनरल कप्तान हार्डिंग बीचर को कमान अधिकारी ई.एम. मार्टिन्यू द्वारा लिखा गया पत्र सिपाहियों की मानसिक दशा का सही ब्यौरा देता है।

उसके कुछ अंश इस प्रकार है, ‘हे भगवान! यहां दहन के समस्त तत्व उपस्थित हैं, नाराज, प्रचण्ड अपनी समस्त गहनतम और आंतरिक स्फूर्ति सहित, तीव्रतम क्रोध से भड़के हुए एक लाख सिपाही हैं, हम उन्हें फुसलाकर विनोदपूर्ण ढंग से उनकी पीठ थपथपाते हुए कह रहे हैं कि तुम कैसे मूर्ख हो कि बात का बतंगड़ बना रहे हो। किंतु अब वे विश्वास नहीं करते, वे रोकथाम से बाहर हो गए हैं और शीघ्र ही सरपट की चाल से चलने लगेंगे। यदि एक स्थान से किसी क्रोध की आग भड़क उठती है तो वह फैलेगी और सर्वव्यापक हो जाएगी। मार्टेर्न्यू कहता है कि मैं नित्य दो घंटे देशी सैनिकों की परेड पर जाता हूं लेकिन उनके शेष २२ घंटों के बारे में क्या जानता हूं?’ यह स्थिति तत्कालीन समस्त अंग्रेज अधिकारियों की थी।

इसी कारण उन्हें क्रांति का पूर्वाभास नहीं था लेकिन मार्टिन्यू जिन अन्य बातों का उल्लेख कर रहा था उनके बारे में अधिकतर अधिकारी इतने दूरदर्शी नहीं थे। मार्टिन्यू का यह बयान कि ‘देशी सेना की समस्त श्रेणियों में एक असाधरण उत्तेजना व्याप्त है। किंतु निश्चित रूप से इसका क्या परिणाम निकलेगा कहने में मुझे भय लगता है’, यह स्पष्ट करता है कि पलटनें पूरी तरह विद्रोह के लिए तैयार कर दी गई थीं। इसके पीछे कौन लगा था, निश्चित रूप से वह भी नहीं जानता था। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उसे इस बात का एहसास हो गया था कि सेनाओं को भड़काने में किसी और ही संगठन अथवा शक्ति का हाथ है।

जिसका जिक्र मार्टिन्यू एक अदृश्य माध्यम के रूप में कर रहा था। मार्टिन्यू को अनुमान भी था कि सैनिक हालांकि भड़के हुए हैं, कुछ भी करने को उत्सुक हैं लेकिन ये सैनिक यदि चुप हैं तो इस कारण कि उनको स्वयं नहीं पता था कि वास्तव में करना क्या है? यह इस बात की पुष्टि करता है कि क्रांतिकारी सैनिकों के विद्रोह का वास्तविक स्रोत किसी सैनिक नेतृत्व के हाथ में न होकर किसी राजनीतिक नेतृत्व में था। जिसके बारे में अधिकतर सैनिक खुद भी अनभिज्ञ थे। इस स्रोत में इतना नैतिक सामंजस्य, ऐसी सामरिक कुशलता, इतनी दूर दृष्टि तथा ऐसी गोपनीय योजनाएं, यह सब कुछ एक सैनिक द्वारा संभव नहीं था। निश्चय ही इसके पीछे कोई संगठन लंबे समय से लगा था। जिसमें विभिन्न धर्मों तथा मतों से संबद्ध हर क्षेत्र के लोग विद्यमान रहे होंगे। इसकी तात्कालिक गोपनीयता से यह भी स्पष्ट होता है कि सर्वोच्च नेतृत्व निश्चित ही कोई छोटा सा दल रहा होगा अन्यथा इतने लंबे समय तक कार्य करते हुए भी स्वयं को गोपनीय बनाए रखना संभव नहीं था।

यदि इस ओर ध्यान दिया जाए कि १८५७ की क्रांति के ठीक पहले किस नेता की क्या गतिविधियां थीं तो प्रत्येक स्थान पर स्पष्ट नजर आएगा कि इन क्रांतिकारी नेताओं ने १८५७ की क्रांति के प्रस्फुटन से ठीक पहले तक लगभग पूरे देश में भ्रमण करके राजनीतिक स्वतंत्रता के उपदेश दिए थे। इन नेताओं में प्रमुख थे नाना धोंधू पंत, अजीमुल्ला, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई के दाएं हाथ पंडित लक्ष्मण राव, मौलवी फैजाब, बेगम हजरत तथा उनके सलाहकार मौलवी लियाकत अली। यही वे नायक थे जिन्होंने अंग्रेजों की दासता से देश को स्वतंत्र करने के लिए आपस में गोपनीय समझौते भी किए थे। ये लोग आपस में कब और कहां मिले इसके पुष्ट प्रमाण नहीं है। लेकिन इनके एक दूसरे के क्षेत्रों में गोपनीय समझौते अपनी कहानी अपने आप प्रकट करते है।

ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्य क्रांतिकारी नेताओं ने एक योजना तैयार की होगी जिसके अन्तर्गत क्रांतिकारियों का उद्देश्य था कि सर्वप्रथम दिल्ली पर अपना अधिकार किया जाए तथा यहां से बहादुरशाह जफर को पुन: सम्राट घोषित कर दिया जाए। इसलिए नहीं कि रूस के जार ने उनसे यह कहा था बल्कि इसलिए कि राष्ट्रीय तथा अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली पर अधिकार का सर्वाधिक राजनीतिक (तथा सामरिक) महत्व था। बहादुर शाह जफर के पुन: सम्राट घोषित होने से पड़ने वाला असर दूर के राज्यों तक देखा गया। दिल्ली पर अधिकार करने के तुरंत बाद दिल्ली को केंद्र बनाकर दक्षिण में हिन्दुस्तान की समुद्री सीमा तक तथा उत्तर में हिमालय तक सत्त बढ़ते जाने तथा उस पर अधिकार करने की योजना रही होगी जैसा कि ‘दिल्ली के पतन’ के बाद आने वाले दिनों में देखने में भी आया।

दिल्ली पर अधिकार करने के लिए आवश्यक था कि उस समय की ‘दोआब’ की सबसे बड़ी छावनी मेरठ पर भी साथ ही साथ अधिकार किया जाए अन्यथा मेरठ में बैठी कंपनी की सेना दिल्ली के लिए समस्या बन सकती थी। मेरठ के विद्रोह को मात्र इस दृष्टि से देखना कि पहले मेरठ में विद्रोह शुरू हुआ, न्यायोचित नहीं है। बल्कि देखना यह चाहिए कि मेरठ में विस्फोट के मात्र १२ घण्टों बाद ही दिल्ली में विप्लव हो गया। इस पर ध्यान देना व्यर्थ है कि सारे सैनिक दिल्ली पहुंचे अथवा नहीं। यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि सुबह-सुबह मेरठ से दिल्ली पहुंचने वाले पहले सैनिक के लिए लाल किले का दरवाजा तुरंत खोल दिया गया। साथ ही शुरू हो गया दिल्ली में तैनात देशी सैनिकों का विद्रोह।

इतिहास के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन सा देशी सैनिक दिल्ली की ओर सड़क, खेतों अथवा जंगलों से गया था बल्कि इतिहास के लिए महत्व इस बात का है कि मेरठ से आने वाले सैनिक दस्तों ने लालकिले के सम्राट को हिन्दुस्तान का सम्राट घोषित कर दिया था। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि उस समय संचार व्यवस्था आज जैसी नहीं थी कि दिल्ली में पहले ही यह सूचना भिजवा दी जाती कि विप्लवी सैनिक चल दिए हैं। बल्कि यह प्रमाणित हो चुका है कि मेरठ दिल्ली की तार लाइन १० मई १८५७ की दोपहर ४ बजे से पहले ही किसी समय काट दी गई थी। फिर भी मेरठ की सेना की दिल्ली में प्रतीक्षा थी। यह अपने आप में सच है तथा पूर्णत: प्रमाणित है।

विद्रोह चाहे मेरठ से शुरू हुआ होता अथवा दिल्ली से, मेरठ की सेना को पहुंचना दिल्ली ही था। यदि मेरठ में १० मई १८५७ को प्रात: काल ही क्रांति शुरू हो गई होती (जो कि सामरिक नीति के अनुकूल नहीं था) तो मेरठ तथा दिल्ली की क्रांति की तारीख एक ही होती।

मेरठ में १० मई १८५७ की क्रांति के संदर्भ में यह भी जानना आवश्यक है कि मेरठ के विप्लवी सैनिकों ने ११ मई की सुबह दिल्ली पहुंचकर लाल किले की प्राचीर पर स्वतंत्रता का झण्डा फहरा दिया था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दक्षिण-पूर्व एशिया से ‘दिल्ली चलो’ का जो नारा दिया था और दिल्ली के रास्ते को आजादी का रास्ता बतलाया था, १८५७ की क्रांति के नायकों तथा मेरठ के सैनिकों ने उसे नौ दशक पूर्व ही अनुभव कर लिया था। १५ अगस्त १९४७ को लाल किले पर भारतीय स्वाधीनता के जिस झण्डे को फहराया गया था, वह कार्य ११ मई १८५७ को मेरठ से दिल्ली पहुंचने वाले क्रांतिकारियों ने कर दिखाया था।

(लेखक मेरठ कालेज में इतिहास के सीनियर रीडर हैं। १८५७ की क्रांति पर आपने गहन शोध किया है।)

भारतीय पक्ष से साभार

१० मई २०१०

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